tag:blogger.com,1999:blog-13261367960650400262024-03-08T21:15:29.321-08:00सुषमा की बतकहीसमानता पक्षपात नहीं, समान अधिकार हैसुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.comBlogger70125tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-48535510018853267202024-03-08T21:14:00.000-08:002024-03-08T21:14:36.077-08:00 व्यवस्था अगर अपराधियों को प्रश्रय देगी तो परिवार हो या समाज, उसका टूटना तय है<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWitwQfgrMbA3yYmGV2fGeEh5oHEuxQsMzHhs55nANAgtcrsE5QXL-M3_vJmm4AVQ0NtpoloNvyFHmeCu0r66giBsNMvrUCrx3_IXysupeZt53ehj9-jmWKHokGRBx-VXUHb-cIRQHfAqW7wl-NyBg3rL3ATkzfHEqHCfk4XNpKyaY9bIzENfyCY1_jIsG/s2048/20231211_095817.jpg" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; clear: left; float: left;"><img alt="" border="0" height="600" data-original-height="2048" data-original-width="1536" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWitwQfgrMbA3yYmGV2fGeEh5oHEuxQsMzHhs55nANAgtcrsE5QXL-M3_vJmm4AVQ0NtpoloNvyFHmeCu0r66giBsNMvrUCrx3_IXysupeZt53ehj9-jmWKHokGRBx-VXUHb-cIRQHfAqW7wl-NyBg3rL3ATkzfHEqHCfk4XNpKyaY9bIzENfyCY1_jIsG/s600/20231211_095817.jpg"/></a></div>
महिला दिवस हम हर साल मनाते हैं । आँकड़े गिनवाते हैं...शुभकामना संदेश भेजकर सम्मान जताते हैं मगर सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि हम क्या महिलाओं के मुद्दों को समझ पाते हैं। क्या हम लड़कियों की मनःस्थिति को समझ पाते हैं । क्या हमारे भीतर इतना साहस है कि हम समस्याओं की जड़ तक जाकर उनसे टकराएं और उनको सुलझा सकें । महिलाओं के मुद्दों को मैं चार तरफ से देखती हूँ...किचेन प़ॉलिटिक्स, माता - पिता द्वारा किया जाने वाला पक्षपात, सिबलिंग राइवलरी और ऑफिस पॉलिटिक्स ...सबसे अधिक खतरनाक ..अपराधियों को प्रश्रय, प्रोत्साहन और सम्मान देने वाली व्यवस्था । यह एक सत्य है कि परिवार से लेकर समाज तक, राजनीति से लेकर इतिहास तक सब के सब अपराधियों के पक्ष में खड़े होते रहे हैं...अगर न खड़े होते तो महाभारत के भीषण युद्ध की नौबत ही नहीं आती ।
सबसे पहले सिबलिंग राइवलरी की बात करती हूँ...। महाभारत सिबलिंग राइवलरी का सबसे बड़ा उदाहरण है और इसके लिए दोषी भी वह व्यवस्था है जहाँ गांधारी द्रोपदी को शाप देने से रोकती हैं....मगर बचपन में दुर्योधन को शकुनि से दूर रखने के लिए कुछ नहीं करती...। अगर वह दुर्योधन को थप्पड़ मारना जानती तो शायद उसमें अहंकार होता ही नहीं...अगर द्यूत सभा में भीष्म पितामह द्रोपदी के पक्ष में खड़े होते तो न चीरहरण की नौबत आती और न कुरुवंश खत्म होता । सीता की अग्निपरीक्षा हुई और सबने मौन होकर देखा....अगर उस दिन कौशल्या राम को रोकतीं तो शायद सीता को धरती में समाना नहीं पड़ता । अगर मीरा के पक्ष लोग खुलकर बोलते तो इतना अन्याय न होता और आज की बात करूं तो संदेशखाली मामले में सीएम पहले बोलतीं या फिर महिला पहलवानों के प्रकरण में ब्रजभूषण सिंह पर कार्रवाई होती तो हमारे देश की इन विजेताओं को सड़क पर न उतरना पड़ता । आपकी व्यवस्था ने हमेशा प्रताड़कों का साथ दिया है । हमने स्त्रियों को प्रताड़ित होते देखा और उनको ही दबाया है, उनको ही बहिष्कृत किया है, उनका ही मनोबल तोड़ा है और जब वह टूटी हैं तो उनको ही कमजोर किया है। इसके बाद हम शिकायत करते हैं कि पहले क्यों नहीं बोली....तब बोलना था...। ऐसे ही मामलों में युवा भटकते हैं.. क्योंकि उनको कुएं और खाई में किसी एक को चुनना होता है...उनके पास विरोध का विकल्प कहाँ होता है? खासकर लड़कियों के मामलों में...जो विरोध करके...लड़ते हुए...बगैर किसी सहारे के उत्पीड़न सहते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रही है...। विरोध करेगी...घर में बताएगी तो उसकी पढ़ाई या नौकरी छुड़वाने के लिए उसके घर में मगरमच्छ बैठे हैं जो उसको सम्पत्ति से बेदखल कर अपने परिवार के साथ सुख से जीवन गुजारने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। हम गृहिणियों का उत्पीड़न जानते हैं...मगर ननदों का भी उत्पीड़न होता है...बहनों को भी प्रताड़ित किया जाता है...यह एक सत्य है । आर्थिक तौर पर उसे एक -एक पाई के लिए मोहताज किया जाता है....आप बताइए..कि यह सब देखकर वह लड़की उस एक आर्थिक सहारे को कैसे छोड़ देगी...और क्यों छोड़ेगी इसलिए वह ऑफिस पॉलिटिक्स भी सहती है और उसका फायदा उठाने वाले शोषकों को भी बर्दाश्त करती है...उसके पास विकल्प कहाँ है ? आपका सिस्टम अगर ब्रजभूषणों और शेखों के पक्ष में खड़ा होगा...दुर्योधनों और दुःशासनों की पूजा करेगा तो समानता और सुरक्षा कहाँ से आएगी? अभी लोकसभा चुनावों के टिकट आवंटन की बात करूँ तो सब पवन सिंह का इतिहास जानते हैं...मगर उनको टिकट दिया गया..तो क्या यह लड़कियों का अपमान नहीं है...और वह भी भाजपा ने दिया....वाकई आपके लिए लड़कियाँ...महिलाओं के मुद्दे और उनका सम्मान मैटर करते हैं...?
अब बात करूँगी सिबलिंग राइवलरी और किचन पॉलिटिक्स पर और दोनों एक दूसरे से जुड़े मुद्दे हैं । एकता कपूर के धारावाहिकों की निंदा हम कर सकते हैं मगर यह धारावाहिक हवा में नहीं बनते...समस्या से दूर भागने से समस्या सुलझने वाली नहीं है। उत्पीड़न की शुरुआत तो लड़कियों के जन्म के साथ ही शुरू हो जाती है। पहले तो दुनिया में आने से पहले ही उसे मार दिया जाने की परम्परा रही और इस पर गर्व भी किया जाता रहा है। कानूनन रोक लगी तो अब यही काम चोरी छिपे होता है और हो रहा है। बाकायदा इसके लिए क्लिनिक चलते हैं । जब हम उत्पीड़न की बात करते हैं तो हमें चीजों को समग्रता से देखने की जरूरत है और स्वीकारने की जरूरत है जो कि होता नहीं है । ससुराल में लड़की को प्रताड़ित किया जाए तो वह प्रताड़ना है मगर लड़कियों को उसके तथाकथित माता - पिता के घर में परेशान किया जाता है, उसके साथ भेदभाव होता है, पक्षपात होता है तो वह परिवार की बात है...ऐसा दोहरा मापदंड लेकर तो समानता की बात नहीं की जा सकती । खुद लड़कियों को माता - पिता के तानों से...भाइयों के थप्पड़ से परेशानी नहीं हो रही, भाभियों के तानों से दिक्कत नहीं होती....बहनों की ईर्ष्या से परेशानी नहीं होती क्योंकि उनके लिए मायके एक ठौर है..तो क्या यह उनका दोहरा मापदंड नहीं है । जिस देश में स्वयंवर की परम्परा रही है, वहाँ स्त्रियों को इसलिए मार डाला जाता है क्योंकि उसने अपनी मर्जी से जीवनसाथी चुना है...और इसको समर्थन देने वाली महिलाएं ही हैं । एक लड़की को रास्ते से हटाएंगी तभी तो उनका राज चलेगा ।
जन्म लेते ही लड़कियों भोजन से लेकर शिक्षा से लेकर नौकरी तक ....हर चीज में पक्षपात का सामना करना पड़ता है और यह कोई और नहीं उसके माता - पिता करते हैं। इस देश में हत्या के मामलों को उठाकर देखिए...पारिवारिक विवाद, सम्पत्ति विवाद हैं मगर हम सिबलिंग राइवलरी को समस्या मानते ही नहीं हैं। परिवार के स्तर पर ही समानता नहीं है...। सुरक्षा और संरक्षण की आड़ में उसके हिस्से की सम्पत्ति भी भाई - भौजाई खा जा रहे हैं मगर उन सबको कोई दिक्कत नहीं है । जिस पक्षपात के लिए ससुराल पक्ष के लोगों को सजा होती है, वैसी ही प्रकृति के अपराध के लिए भाई और खासकर बहनों के अधिकार की रक्षा के लिए कोई कानून, कोई समाज सामने नहीं आता । उल्टे उस लड़की को परिवार की इज्जत का हवाला देकर चुप करवाया जाता है, उसे बहिष्कृत किया जाता है । वह लड़की अपने ही घरों में नौकरों से बदतर जिंदगी जीने को बाध्य की जा रही है, बहिष्कृत की जा रही है और अपराधी भी ठहरायी जा रही है...। शादी के पहले होने वाले इस उत्पीड़न के दोषियों के लिए सजा और उनके सामाजिक बहिष्कार की बात की बात क्यों नहीं होती? यहाँ तक की उस लड़की के साथ सहानुभूति जताने वाले भी व्यावहारिक तौर पर उसके साथ नहीं बल्कि उन प्रताड़कों के साथ खड़े होते हैं और उनको पीड़ित को ही समझाने एवं दोषी ठहराने में उसकी सारी शक्ति खर्च हो रही है । भौजाइयां जब मन करे...498 ए का दुरुपयोग करके अपनी पूरी ससुराल को जेल भिजवा सकती हैं मगर ननदों को सब कुछ सहते जाना है...या फिर ससुराल में रमकर दूरी बनानी है...क्यों...? ननदें या देवर भौजाइयों और उनके परिवारों को जेल क्यों नहीं भिजवा सकतीं?
औरतें हमेशा बिचारी नहीं होतीं बल्कि शातिर होती हैं और उनको राजनीति करनी अच्छी तरह आती है ।...दो चेहरे होते हैं...उनके समाज के लिए कुछ और घर के भीतर कुछ और..लड़की हो या लड़का हो...आपको मानसिक तौर पर इतना प्रताड़ित किया जाता है कि आप अंततः खुद घर छोड़ने को बाध्य हो जाते हैं....यही कॉरपोरेट में भी होता है....और चूंकि आपने वह जगह छोड़ी है.इसलिए आपकी जगह भी वह हड़प लेते हैं...कमजोर, पलायनवादी, विभाजनकारी का टैग आपके माथे पर लगता है...ऐसे बहुत से मामलों को जानती हूँ जहाँ...भाई - भावजों ने मिलकर मानसिक रूप से इतनी प्रताड़ना दी है...इतने ताने दिए हैं...लड़की मानसिक रूप से टूट जाती है...अपने सपनों को टूटता देखती है और शादी करती है जो कि कभी उसकी इच्छा थी ही नहीं....और इस सारी कवायद को खुद उनके अभिभावकों का समर्थन और प्रोत्साहन प्राप्त है...तो क्या यह षड्यंत्र नहीं है...। कई भाई तो संरक्षण के नाम पर लड़कियों के पहचान पत्र से लेकर पैन कार्ड और आधार कार्ड तक अपने पास रख लेते हैं । लड़कियों को उनकी छोटी से छोटी जरूरत के लिए आर्थिक तौर पर निर्भर रहना पड़ता है,,,वह इस डर में घुट - घुटकर जीती है कि विरोध किया तो पढ़ाई छुड़वा दी जाएगी ...विरोध कर नहीं सकती क्योंकि न तो पैसे हैं, न तो कानून और समाज साथ देगा और न ही उसके अभिभावक उस पर विश्वास करते हैं....करते भी हैं तो अपना बुढ़ापा सुधारने के लिए वह बहू - बेटों के साथ ही खड़े होते हैं...। आप कहते हैं कि लड़कियाँ बोलती क्यों नहीं, विरोध क्यों नहीं करतीं...वह शोषण के खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठातीं...उठाएंगी तो उनके साथ खड़ा कौन होगा...? एक भाई या बहन अपने ही भाई या अपनी बहनों को नीचे गिराने के लिए हर तरह के दांव खेलता है, उसकी किताबें जलाता है...उसकी नौकरी छुड़वाता है,. उसे घर से शादी के नाम पर पीछा छुड़वाने के लिए वह किसी भी कीमत पर किसी भी शराबी, जुआरी से उसको ब्याह देना चाहता है...और आप कहते हैं कि यह अपराध नहीं है.. तो इन लड़कियों के अधिकारों को लेकर कौन बात करेगा क्योंकि इन बच्चियों को किसी भी समाज, किसी रिश्तेदार का समर्थन भी प्राप्त नहीं है...क्योंकि परिवार की इज्जत अन्याय से नहीं जाती मगर अन्याय का विरोध करने के लिए कोई खड़ा हो जाए तो वह परिवार का दुश्मन है । क्या यह अपराध नहीं है? आज मैं शादीशुदा नहीं...अनब्याही सिंगल लड़कियों की बात करने जा रही हूँ...बहनों को लेकर विमर्श कहाँ है...साहित्य और सिनेमा से लेकर समाज में बहनों से उम्मीद यह की जाती है कि वह अपने अधिकारों को त्यागकर देवी बनी रहे, सहती रहे ...और ऐसे ही चरित्रों को सम्मान भी मिलता है। सीता धरती में समा गयीं तो आप पूजते हैं, द्रोपदी ने विरोध किया तो उनको कहीं पर जगह नहीं मिलती....जबकि महाभारत के धर्मयुद्ध की धुरी वहीं थीं....जिन्होंने अपने जीवन, सम्मान....परिवार सब कुछ गंवा दिया मगर नायकों के समाज में कृष्ण हैं...कृष्णा याज्ञसेनी कहाँ हैं । लक्ष्मी से लाभ है तो आप घर में रखते हैं, दुर्गा के हाथ में त्रिशूल है तो दूर से प्रणाम करते हैं...आप बताइए ज्ञान की देवी सरस्वती के कितने मंदिर हमारे आस - पास हैं ?
पिछले साल 33 सालों से लटका हुआ महिला आरक्षण बिल नारी शक्ति वंदन अधिनियम बनकर पारित हो गया और अब तो कानून बन चुका है । अब सवाल यह है कि संसद में बैठने के लिए जिस तरह की मुखर महिलाओं की वाकई जरूरत है...क्या उनको सुनकर....उनको समझ पाने की शक्ति है ....संसद तो दूर की बात है...क्या आपके घरों और परिवारों में महिलाओं को बोलने की अनुमति है । आपके लिए स्त्री का मतलब अगर माता, बेटी और पत्नी है और बहनें नहीं हैं तो आप समग्रता में महिलाओं को कैसे समझेंगे।
इस समाज में एक तरफ परिवार की बात की जाती है और दूसरी तरफ बुआ, मौसी, दीदी जैसे रिश्तों को समाज की खलनायिका के रूप में उकेरा जाता है..वहाँ आप महिलाओं के अधिकार को लेकर सामग्रिक रूप से सहानुभूति के संचार की भावना का प्रसार कहाँ से देखते हैं । सोशल मीडिया पर जहाँ भी देखिए....गृहिणियों को बेचारी के रूप में दिखाया जा रहा है...या तो सास या तो बहू...औरतों का दूसरा रूप आपको कहाँ दिख रहा है ....भाई - भाभी से लेकर उनके बच्चों की सारी चिंता इस बात की है कि बुआ ने अगर हिस्सा माँग लिया तो क्या होगा । इसके बाद अगर बहनें अपना हिस्सा माँग रही हैं तो आप उसे सीधे घर तोड़ने वाली बताकर नजरअंदाज करते हैं और न माने तो उसे समाज से बहिष्कृत करवाने की चाल समझते हैं...
राजनीति सिर्फ बाहर नहीं होती....और औरतें सिर्फ बिचारी नहीं होतीं...अक्सर लड़कियों से...खासकर उन लड़किय़ों से जो आगे बढ़ना चाहती हैं...उनसे पूछिए कि वह क्या - क्या सहकर और सुनकर बाहर निकलती हैं और किस तरह का भेदभाव उनको अपने घर में झेलना पड़ रहा है...मगर कौन सा विमर्श और कौन सा कानून बहनों के हित की रक्षा के लिए बना है । अदालतों ने तो कह दिया कि सम्पत्ति में बहनों का अधिकार है मगर कौन सी सरकार ने उसे लागू करने के लिए सख्ती दिखाई और कौन सा समाज बहनों को उनके हक दिलवाने के लिए खडा हुआ ।
साहित्य से लेकर सिनेमा में भाइयों को रॉबिनहुड बना दिया गया और बहनों को शरणागत के रूप में दिखाया गया । माएं अपनी बेटियों के भरोसे घर छोड़कर काम पर निकलती रही हैं और उनको बेटी की जगह घर की देखरेख के लिए नियुक्त एक सहायिका की तरह देखा गया...और कई बार तो इस देश के संयुक्त परिवारों में घर के नौकरों को घर की बेटियों से अधिक इज्जत मिलती रही है ।
संयुक्त परिवार और समाज इसलिए नहीं टूट रहे कि पश्चिम का असर है...वह इसलिए टूट रहे हैं क्योंकि आपने हमेशा प्रताड़कों और अपराधियों का साथ दिया है। आपने सत्य की राह पर चलने वालों को कमजोर करने की कोशिश की है, उसे बहिष्कृत किया है और आज वह पीड़ित योद्धा बन चुका है । वह अन्याय के आगे सिर झुकाने को तैयार नहीं है....वह अपना रास्ता तलाश रहा है । लड़कियाँ आत्मनिर्भर हो रही हैं, अपने अधिकारों के लिए खड़ी हो रही हैं...आप खड़े रहिए अपनी जर्जर सोच के साथ...वह तो आगे बढ़ चुकी हैं....तो परिवार और समाज या देश में परिवार की व्यवस्था को जिन्दा रखना है तो अपने गिरेबान में झांकिए और अपराधियों को प्रश्रय देना बंद करिए वरना एक दिन आप खुद अकेले रह जाएंगे...।
सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-20840188630374642442024-02-09T21:56:00.000-08:002024-02-09T21:56:11.398-08:00 प्रेम हासिल करना नहीं है, अपना अस्तित्व मिटाना नहीं है, आत्मसात करना है<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQ5nBZarxo1UhoH3RJex-IACJdpAgNihLB-5dRlq1Bfw4zLxWAWXVopJ7rlQ5dv_KXzwwbPVGs6FJpeiB58fWpiLbx7Fh_GgAZ5m-_jYDPsDOS6NF9_FSwO_ai6ZgIB_xLErBXe_FRmdKOWI2Wke_3H0nAllbN07mek2j1r0p1fXrktfdrKQkWQV5ZQ8uw/s1600/desktop-wallpaper-painting-krishna-meera-love-mirabai.jpg" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; "><img alt="" border="0" data-original-height="563" data-original-width="850" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQ5nBZarxo1UhoH3RJex-IACJdpAgNihLB-5dRlq1Bfw4zLxWAWXVopJ7rlQ5dv_KXzwwbPVGs6FJpeiB58fWpiLbx7Fh_GgAZ5m-_jYDPsDOS6NF9_FSwO_ai6ZgIB_xLErBXe_FRmdKOWI2Wke_3H0nAllbN07mek2j1r0p1fXrktfdrKQkWQV5ZQ8uw/s1600/desktop-wallpaper-painting-krishna-meera-love-mirabai.jpg"/></a></div>
प्यार बड़ी अजीब चीज है, यह मान लिया जाता है कि प्यार करना है तो अपने व्यक्तित्व को समाप्त कर ही लेना होगा । दो शरीर, एक आत्मा जैसी कई मान्यताएं चली आ रही हैं मगर मुझे लगता है कि दो शरीरों के साथ, दो आत्माओं का अपने स्व में रहना बहुत जरूरी है। अपने अस्तित्व को तिरोहित करके प्रेम करना मेरी नजर में यूटोपिया है पर मैं प्यार की इतनी बातें क्यों कर रही हूँ जिसको प्यार से कोई मतलब ही नहीं । मेरे लिए प्रेम की पहली सीढ़ी ही स्व से यानी खुद से प्रेम करना है, अपना सम्मान करना और अपना सम्मान रखना है। भारतीय शादियों में लड़किय़ों के विवाह के स्थायीत्व का आधार ही स्वयं को समर्पण के नाम पर तिरोहित कर देना है और लड़कों के मामले में भी...पर क्या प्रेम वही है जो विवाह से ही बंधा है या एक स्त्री और पुरुष का एक दाम्पत्य या प्रेमिल रिश्ते में रहना ही प्रेम है । अगर ऐसा है तो समाज के बाकी रिश्तों का क्या...यह समाज सिर्फ विवाहितों अथवा प्रेमियों के लिए नहीं है। ईश्वर ने यह सृष्टि सिर्फ माता - पिता एवं संतानों तक के लिए सीमित ही नहीं रखी मगर प्रेम का दायरा सब सीमित कर देता है। आप किसी एक व्यक्ति के लिए इतने अधिक समर्पित हो जाते हैं कि अपने व्यक्तित्व की मजबूती को भूलकर निरीह बन जाते हैं, इतने असुरक्षित हो जाते हैं कि ईर्ष्या के वशीभूत होकर षड्यंत्र रचना भी आप जस्टीफाई करना सीख जाते हैं। प्रेम जब व्यक्तित्व से न होकर एक शरीर से होता है..रूप से होता है तो आप प्रेम को कब सम्पत्ति समझने लगते हैं, आपको खुद पता नहीं चलता।
आप खुद ही नहीं जानते कि परिवार और अपना संसार सजाते हुए उसे कितना संकुचित कर लिया है । हमारे किसी भी सम्बन्ध में ऐसा नहीं होता है कि एक के लिए आपको अपने तमाम रिश्ते छोड़ने पड़े, खुद को पूरी तरह बदलकर ऐसा बना लेना पड़े कि आप खुद को ही न पहचान सकें। वह सभी लोग जो कभी आपका सपोर्ट सिस्टम रहे हैं, अचानक आपकी जिन्दगी से इसलिए दूर हो जाते हैं क्योंकि कोई और आपकी जिन्दगी में है, कल तक जो दोस्त आपकी जान हुआ करता था, कल तक जिन सहेलियों के साथ आप अपना हर सुख - दुःख साझा करती आ रही थीं, आपको उससे बात करते हुए भी घड़ी देखनी पड़ती है क्योंकि आप किसी और परिवार में हैं...जहाँ आपको सहेलियों से बात करने के लिए भी वजह बतानी पड़ती है, आप 5 मिनट नहीं दे सकतीं क्योंकि आपको पति, बॉयफ्रेंड , गर्लफ्रेंड या पत्नी के मायके जाना है...क्या यह अजीब नहीं है.........।
आप जीवनसाथी कहे जाने वाले एक व्यक्ति और अपने बच्चों को अपनी दुनिया मानकर अपने हर गलत काम को जस्टीफाई करने लगते हैं, धोखाधड़ी सीखते हैं, रिश्वत लेते हैं, ऐश - आराम की जिन्दगी जीने के लिए और देने के लिए वह सब कुछ कर जाते हैं जो आप कल तक सोच भी नहीं सकते थे। कई लोग कहते हैं कि विवाह के बाद व्यक्ति की आँखें खुल जाती हैं...मगर कई बार मुझे यह लगता है कि व्यक्ति अंधा हो जाता है, वह वास्तविकता से नजर चुराने लगता है, उसकी अपनी एक ऐसी दुनिया है जो एक यूटोपिया है और जहाँ उसके लिए उसके और कुछ अपनों को छोड़कर कुछ भी ज्यादा जरूरी नहीं है....यह कैसी दुनिया बना रखी है हमने जहाँ...परिवार होकर भी परिवार नहीं है.....आप अपनी बातें तक साझा करने के लिए किसी पर निर्भर हैं...।
प्रेम और विवाह के नाम पर खुद को ऐसा क्या जकड़ना है कि बाकी सारे सम्बन्धों का अस्तित्व ही समाप्ंत हो जाए...अगर यह प्रेम है और यही दाम्पत्य है तो रिश्तों के मामले में आपसे अधिक गरीब कोई नहीं है। आपका बचपन, आपका संघर्ष, आपका बनना...जिन लोगों ने देखा, जिन लोगों ने आपको खड़ा किया....अचानक उनकी हर बात का क्रेडिट देने के लिए आपको कोई और मिल जाता है। क्या ये स्वार्थ नहीं है...उस पर भी आप जिस व्यक्ति के इर्द - गिर्द अपनी दुनिया बसा रहे हैं, आपने अपने प्रेम की हथकड़ी से लगभग पालतू बना डाला है...आपको उसकी हर बात का हिसाब चाहिए...कहाँ खाया, कितना खाया,...किससे मिले...क्यों मिले...क्यों बात की...आप इस पजेसिव होने के पागलपन को प्यार कहते हैं...अपनी असुरक्षा को ख्याल रखना कहते हैं तो आप कुछ नहीं कर रहे...खुद को धोखा दे रहे हैं। मेरे न हुए तो किसी और के न होगे की जिद में हत्या तक कर डालना आपको प्यार लगता है...घरेलू हिंसा करना अपना अधिकार लगता है तो इस सनकीपन का कोई उपचार नहीं है..
प्रेम का मतलब किसी के लिए अपना या अपने लिए किसी का व्यक्तित्व समाप्त कर देना नहीं है...प्रेम खुद को बरकरार रखते हुए...एक दूसरे को स्वतंत्र रखते हुए अपने - अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त करना है....। जो लोग असुरक्षित होते हैं....वह हमेशा असुरक्षित होते हैं...उनको हर बात से प्रिय को खो देने का डर रहता है..। यह जिद गलत है कि कोई आपके लिए अपना अतीत भुला दे या अपना प्यार और पहला प्यार भुला दे...ऐसा नहीं होता...। आप जब पुराणों में जाकर देखते हैं तो पाते हैं कि शिव ने पार्वती को स्वीकार किया मगर उनका प्रथम प्रेम सती ही थीं और शिव सती को कभी नहीं भूलते...। पार्वती कभी शिव को सती से दूर करने का प्रयास नहीं करतीं...क्योंकि उनको पता है सती शिव के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है...वह शिव के साथ सती के अस्तित्व को भी सम्मान देती हैं और स्वीकार करती हैं इसलिए शिवत्व को प्राप्त करने में सक्षम हैं । सती अथवा पार्वती में से किसी ने अपने अस्तित्व को शिव के लिए समाप्त नहीं किया और न ही शिव ने ऐसा किया...अगर आप अर्द्धनारीश्वर की छवि देखें तो देख पायेंगे कि दोनों का ही अस्तत्व भी है और शरीर भी है...खुद को मिटाकर कोई भी किसी से प्रेम नहीं कर सकता । ठीक इसी तरह पांडव...भी द्रोपदी को उसके उसी रूप में स्वीकार करते हैं...एक दूसरे के प्रति किसी प्रकार का द्वेष या तो नहीं है या फिर वो उसे सम्भाल लेते हैं...द्रोपदी कृष्ण के प्रति समर्पित है...और यहाँ भी दोनों का अपना - अस्तित्व है,,,जिसमें साख्य भाव है तो प्रेम भी है...दोनों एक दूसरे के लिए समग्रे एकम हैं यानी सब कुछ । अगर द्रोपदी कृष्ण को सखा, भाई, सहचर मानती हैं तो कहीं न कहीं एक प्रेम भी है क्योंकि वह कृष्ण को ही पाना चाहती थी मगर कृष्ण के कहने पर वह अर्जुन के प्रति आकर्षित हुई। ठीक इसी तरह द्रोपदी एक साथ कहीं न कहीं राधा और सुभद्रा, दोनों की अनुपस्थिति को अपने प्रेम से भरती हैं और कृष्ण के जीवन के इस अभाव को भरती हैं..यह साख्य, मैत्री और प्रेम के बीच की चीज है जिसे आप कोई नाम नहीं दे पाते क्योंकि विशुद्ध स्वर्ण से आभूषण नहीं बनते...। द्रोपदी कृष्ण की वह योद्धा हैं जो उनके धर्मंयुद्ध की धुरी हैं...जो उनके लिए वह तमाम कष्ट उठा सकती हैं जिसे उठाने की क्षमता किसी राधा, रुक्मिणी या सुभद्रा में नहीं भी हो सकती थी...। इसके बावजूद न तो द्रोपदी इनमें से किसी की जगह लेने का प्रयास करती हैं...और न ही इन तीनों में से ही कोई द्रोपदी को कृष्ण से दूर करने के बारे में सोचता है। 16 साल की आयु में वृन्दावन छोड़कर गए कृष्ण को राधा के साथ बिताए क्षण याद आते हैं परन्तु महाभारत के चक्रव्यूह को साधने के लिए याज्ञसेनी की ही जरूरत है । एक रिश्ते को निभाने के लिए बाकी सारे सम्बन्धों को धोखा देने को प्रेम नहीं कहते। पांडव भी कृष्ण और द्रोपदी के इस अनूठे सम्बन्ध को सम्मान देते हैं...वरना आज जैसा कोई पजेसिव होता तो क्या होता समझ लीजिए....।
प्रेम को शारीरिक सम्बन्धों की परिधि तक सीमित कर देना कहीं न कहीं प्रेम के पवित्र भाव की पवित्रता को समाप्त कर देना है...क्योंकि अगर आत्मा तक नहीं उतरे तो दैहिक सम्बन्ध देह के धरातल पर दम तोड़ देते हैं। आप किसी से दिल तक कनेक्ट नहीं कर पा रहे तो आप खुद को धोखा दे रहे हैं और दिल के कनेक्शन को किसी बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड, पति या पत्नी की जरूरत नहीं पड़ती...वह कनेक्शन आपके व्यक्तित्व के अनुरूप किसी के साथ भी और कभी भी हो सकता है...मिट्टी से, हवा से...कला से...संस्कृति से...संगीत से...वह अमूर्त हो जाता है...। यही कारण है कि कलाकार या कोई भी व्यक्ति किसी भी परिवार...रिश्ते या सम्बन्ध के बगैर जी लेता है...उसे कोई असुविधा नहीं होती...वह कभी अकेला महसूस नहीं करता...क्योंकि जब उसका लक्ष्य बड़ा होता है तो उसका संसार स्वतः ही बड़ा हो जाता है...उसके पास एकाकी होने के लिए समय नहीं है...। अगर आप गौर से देखेंगे तो जिनके लक्ष्य बड़े रहे....वह अपने भौतिक और व्यक्तिगत परिवार के साथ न के बराबर रहे हैं...ईश्वर जिनको किसी लक्ष्य के साथ भेजता है...वह उसके हिस्से का प्रेम भी भेजता रहता है...वह किसी न किसी रूप में स्वयं उस व्यक्ति के पास होता है, सम्भालता है, सहेजता है और उसे लक्ष्य तक आगे ले जाता रहता है। वह व्यक्ति तब तक उस धरती पर ही रहता है, जब तक वह उस परिकल्पना को साकार होता नहीं देखता...ईश्वर की इसी शक्ति को आप चमत्कार कहते हैं मगर यह दरअसल, वह साहचर्य है...जो ईश्वर ने उस व्यक्ति को दिया है जिससे वह अपना काम करवा रहा है..। आप ऐसे किसी भी व्यक्ति का जीवन उठाकर देखिए...जहाँ लक्ष्य बड़ा होता है...वहाँ कठिनाइयां खुद दम तोड़ देती हैं और वह लक्ष्य पूरा होकर रहता है...संसार का कोई षड्यंत्र उसे नहीं रोक पाता । इसे आप विश्व भारती, रामकृष्ण मिशन...से लेकर थोड़ा पीछे जाने पर कबीर, सूर, मीरा, तुलसी में भी खोज सकते हैं...लक्ष्य और लक्ष्य के प्रति ईमानदारी...व्यक्ति को वह आत्मबल प्रदान करती है जिसके आगे चुनौतियों के पहाड़ भी टूट जाते हैं..। एक ठोकर ही संसार को बदलकर रख देती है क्योंकि तब शरीर, परिवार, समाज के बाहरी आवरण आपके सामने ढह जाते हैं और तब लगता है...ईश्वर ने आपको क्यों इस धरती पर भेजा है। घनानंद का प्रेम टूटा तो सुजान को उन्होंने आत्मसात कर लिया...निराला टूटे तो सरोज उनकी आत्मा बनी..और मनोहरा उनकी प्रेरणा...कादम्बरी नहीं रहीं और मृणालिनी नहीं रहीं तो वह रवींद्र की कलम में रच-बस गयीं। प्रेम सदैव उनके साथ रहा है...शरीर तो पायदान भी नहीं है..। जरा सोचिए कि क्या कारण है कि हजार यातनाएं भी मीरा के चेहरे की मुस्कान नहीं छीन सकीं...क्या कारण है कि कोई विरह वेदना किसी रूपमती को नहीं तोड़ पातीं...क्योंकि उसने बाज बहादुर को आत्मसात किया है...देह एक क्षणिक माध्यम हो सकती है मगर टिकने के लिए प्रेम को संवेदना, आत्मा का आधार चाहिए..और वह किसी बाजार में नहीं मिलता...। प्रेम न हाट बिकाय....ऐसे ही नहीं कहा गया...वह किसी वैलेंटाइन डे का मोहताज नहीं है...। सामाजिक सुरक्षा की बात छोड़ दी जाए तो उसे इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह जिससे प्रेम करता है...वह उसकी जिंदगी में कहां तक है मगर फर्क पड़ना चाहिए क्योंकि यहाँ अपने व्यक्तित्व को सहेजने और स्वत्व की भावना है...सबकी अपनी - अपनी जगह है...आप किसी की जगह नहीं ले सकते तो यकीन रखिए कि कोई आपकी जगह भी नहीं ले सकता...बशर्ते वहाँ प्रेम हो...।
अभी हाल में इमरोज हमें छोड़ गये...उनको अमृता की जिन्दगी में साहिर के होने का अहसास था मगर इससे अमृता के प्रति उनका प्रेम कम नहीं हुआ क्योंकि वो अमृता के लिए साहिर होने का मतलब जानते थे...प्रेम छीनना नहीं होता...। आप नहीं जानते कि जब आप अपने प्रेम को पाने के लिए किसी को अपने प्रेम से छीन रहे हो तो आप सबसे अधिक चोट उसी व्यक्ति को पहुंचा रहे होते हैं जो आपकी दृष्टि में आपका प्रेम है। सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसा करके आपने उस व्यक्ति को अपने प्रेम के और करीब ला दिया और खुद को दूर कर दिया...प्रेम ही करना है तो शिव बनिए...सती और पार्वती बनिए..द्रोपदी बनिए और कृष्ण बनिए..प्रेम ही करना है तो रुक्मिणी बनिए....जो जानती थीं कि राधा और द्रोपदी कृष्ण के अस्तित्व का अभिन्न अंग हैं और इसलिए उन्होंने इन दोनों को कभी भी कृष्ण से अलग करने का प्रयास नहीं किया....क्योंकि वह कृष्ण को प्रेम करती थीं और प्रेम पाना या हासिल करना नहीं है...उसे आत्मसात कर लेना है...रुक्मिणी ने कृष्ण को आत्मसात कर लिया था,,,इमरोज ने अमृता को, पार्वती ने शिव को और शिव ने सती को आत्मसात कर लिया है...और जिसे आत्मसात कर लिया गया है...उसे अलग करने की क्षमता किसी में नहीं होती...प्रेम बस यही है। इस धरती पर इतना निःस्वार्थ प्रेम किसी एक व्यक्ति में खोज पाना कठिन है...जो हर रूप में आपको निःस्वार्थ प्रेम करे...यह प्रेम तो सिर्फ ईश्वर ही दे सकता है इसलिए ईश्वर के प्रेम में पड़कर अपने कर्त्तव्य पथ पर बढ़ते जाने से बेहतर कुछ नहीं है...क्योंकि ईश्वर ही प्रेम है और प्रेम ही ईश्वर है...आप उसे किसी एक ढांचे में बांधकर नहीं पा सकते और यही कारण है कि अधिकतर वैयक्तिक प्रेम की परिणति आपको अलौकिक एवं आध्यात्मिक संसार की ओर ले जाती है, विशेषकर तब जब आप उसे खो देते हैं मगर आध्यात्म का अर्थ माला जपना या कर्म से विरत होना नहीं है बल्कि यहाँ आपका प्रेम विस्तार पाता है...आप अब किसी एक से प्रेम नहीं करते...आप प्राणी मात्र से प्रेम करते हैं....आप हर पीड़ित और वंचित के लिए यथाशक्ति, यथासम्भव कुछ करना चाहते हैं...प्रेम जब मानवीय से सृष्टि प्रेम की ओर बढ़ता है तो ईश्वरीय बन जाता है और आप कहीं न कहीं ईश्वरत्व के मार्ग पर चल पड़ते हैं...प्रेम की तरफ...वास्तविक प्रेम की तरफ....।
सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-1999876011861764982023-10-24T07:05:00.001-07:002023-10-24T07:05:34.635-07:00आरक्षण का स्वागत है परन्तु परिवर्तन की शुरुआत परिवार से होगी<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh1LRnOtvKW4tvQmE0hRdQ-ZovgT6r5B1a4hoUkKlrF3E_gv9ee3SjKfkrS55x2QrTOgFAx9BxaM1ozLH2ObjhYxcJrwvn0qY4Fh7QIO9Hp5eNkO1rWI0X_9o5rDq-q03-78V4_If9RXRvWSSOvFmdNx3SvWCMjClpN-dJhWsx1FSSSUeypkIu2GscfH8Bk/s1600/image1170x530cropped.jpg" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; "><img alt="" border="0" data-original-height="530" data-original-width="1170" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh1LRnOtvKW4tvQmE0hRdQ-ZovgT6r5B1a4hoUkKlrF3E_gv9ee3SjKfkrS55x2QrTOgFAx9BxaM1ozLH2ObjhYxcJrwvn0qY4Fh7QIO9Hp5eNkO1rWI0X_9o5rDq-q03-78V4_If9RXRvWSSOvFmdNx3SvWCMjClpN-dJhWsx1FSSSUeypkIu2GscfH8Bk/s1600/image1170x530cropped.jpg"/></a></div>
संसद के दोनों सत्रों में महिला आरक्षण बिल पारित हो चुका है और राजनीति में महिलाओं की भागीदारी का मार्ग प्रशस्त हो गया है । लोकसभा में 454 और राज्यसभा में 215 मत बिल के समर्थन में पड़ें । निश्चित रूप से यह हम महिलाओं के लिए ऐतिहासिक एवं गौरवशाली क्षण है । उम्मीद है कि अगले दो सालों में जनसंख्या का अंतरिम डाटा जारी किया जा सकता है। वहीं, संसद ने देश में निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या बढ़ाने पर 2026 तक रोक लगा रखी है। अब तक देखा जाए तो निर्णायक पदों पर भागीदारी के परिप्रेक्ष्य में महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है । यूनाइटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम (यूएनडीपी) और महिलाओं के सशक्तिकरण और लैंगिक समानता के लिए काम कर रहे संगठन यूएन वीमेन ने अपनी नई रिपोर्ट "द पाथ्स टू इक्वल" की रिपोर्ट के अनुसार सशक्तीकरण और लैंगिक समानता के लिहाज से भारत अब भी बहुत पीछे है । वैश्विक लिंग समानता सूचकांक (जीजीपीआई) के मुताबिक भारत में महिलाओं की स्थिति इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि जहां 2023 के दौरान संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 14.72 फीसदी थी वहीं स्थानीय सरकार में उनकी हिस्सेदारी 44.4 फीसदी दर्ज की गई। इसी तरह यदि शिक्षा की बात करें तो जहां 2022 में केवल 24.9 फीसदी महिलाओं ने माध्यमिक या उच्चतर शिक्षा हासिल की थी वहीं पुरुषों में यह आंकड़ा 38.6 फीसदी दर्ज किया गया। इसी तरह यदि 2012 से 2022 के आंकड़ों को देखें तो केवल 15.9 फीसदी महिलाएं ही मैनेजर पदों पर थी। इसी तरह विवाहित महिलाओं या जिनका छह वर्ष से कम उम्र का बच्चा है उनकी श्रम बल में भागीदारी 27.1 फीसदी दर्ज की गई। इसी तरह 2018 में करीब 18 फीसदी महिलाएं और लड़कियां अपने साथी द्वारा शारीरिक या यौन हिंसा का शिकार बनी थी। इसी तरह 2012 से 2022 के बीच 43.53 फीसदी युवा बच्चियां शिक्षा, रोजगार या प्रशिक्षण से वंचित रह गई थी। एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में काम करने योग्य उम्र की 15 फीसदी महिलाऐं ऐसी हैं जो काम करना चाहती हैं, लेकिन उनको इसका अवसर ही नहीं मिल पा रहा है। भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) की हालिया रिपोर्ट के अनुसार अक्टूबर 2021 तक संसद सदस्यों के बीच मात्र 10.5 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी थी। यही हाल राज्य विधानसभाओं का भी दिखा । ईसीआई के अनुसार, आजादी के बाद से, लोकसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का स्तर 10 प्रतिशत बढ़ने में भी कामयाब नहीं हुआ है।
सत्य यह है कि महिलाओं को मिले अधिकारों का लाभ महिलाओं से अधिक पुरुष ही अधिक उठा रहे हैं । अधिकतर मामलों में आयकर बचाने के लिए लोग सम्पत्ति अपनी पत्नी, बेटियों और माँ के नाम पर खरीदते हैं तो इसके पीछे प्रेम नहीं बल्कि आयकर बचाने की चालाकी है । यही बात राजनीति में है क्योंकि इसके बाद होगा यह कि जिन सीटों पर परिसीमन होगा, राजनेता चालाकी से अपने घर की किसी महिला को आगे कर देंगे । घर हो या परिवार हो, समाज हो, कहने की जरूरत नहीं है कि महिलाएं पुरुषों के हाथ की कठपुतलियाँ हैं जो अपनी मर्जी से एक कदम आगे नहीं बढ़ सकतीं । ऐसी महिलाएं क्या स्वतन्त्रता से दूसरी महिलाओं के लिए निर्णय ले सकेंगी?
नेतृत्व का मामला व्यक्तित्व से जुड़ा है और वह तब विकसित होगा जब बचपन से ही लैंगिक समानता लाई जाए । भाई और बहनों में भेदभाव न हो, बहनों को सम्पत्ति का अधिकार मिले और उनके विवाह को उनकी प्रगति का बाधक न बनाया जाए । आज भी परिवारों में माताएं बेटियों के हिस्से का दूध और भोजन बेटों को दे रही हैं, आज भी बहनों की पढ़ाई भाई के कॉलेज के लिए छुड़वा दी जा रही है । उन पर घर के काम का बोझ ज्यादा है । भाई आज भी अपने निर्णय थोपते हैं । ऐसे में किसी लड़की का व्यक्तित्व का विकास कैसे होगा, नेतृत्व की क्षमता कैसे विकसित होगी ? जो अपने घरों में दोयम दर्जे का व्यवहार झेलने आदी हो, समझौता करने को, अपनी जरूरतों को त्यागती रही हो, जिसे परिवार में ही अपनी बात रखने की अनुमति लेनी पड़े, वह मोहल्ले, समाज और संसद में क्या बात रखेगी? तो आप अगर सही मायनों में महिलाओं की स्थिति बदलना चाहते हैं, उनको नेतृत्व करते देखना चाहते हैं तो मूल में जाकर करिए। दीजिए वहाँ आरक्षण, वहाँ भागीदारी सुनिश्चित कीजिए, तब सही मायनों में नेतृत्व करने के लिए लिए नारी शक्ति विकसित होगी । हमने लम्बी लड़ाई लड़ी है तब जाकर यह दिन आ पाया है । प्रणाम कीजिए, बंगाल की भूमिका को और उन तमाम महिलाओं को, हमारी पूर्वजाओं को जिन्होंने शताब्दियों तक संघर्ष किया और यह सुफल मिला है। यह उनकी तपस्या है । बंगाल के तत्कालीन अविभाजित मेदिनीपुर जिले के पांशकुड़ा निर्वाचन क्षेत्र (अब परिसीमन के कारण अस्तित्वहीन) से सात बार भाकपा की लोकसभा सदस्य रहीं स्वर्गीय गीता मुखर्जी पहली सांसद थीं, गीता मुखर्जी समेत अपनी तमाम पूर्वजाओं को प्रणाम करते हुए सिर्फ इतना कहना चाहूँगी....रबर स्टाम्प ही बनकर रहना है तो आप घर में ही रहिए और विरोध करके लड़ने की क्षमता है तो आगे बढ़िए क्योंकि नेतृत्व सिर्फ अधिकार नहीं, दायित्व भी होता है....दायित्व परिवर्तन का और सृजन का ।सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-85661172505569563472023-08-01T01:20:00.001-07:002023-08-01T01:20:48.858-07:00<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh74R3FMqllxLVVo4_x0-FiU0JEbXiLdqpD6O2JH0GHJpc64szOiEdekh1qFD96r0YCWpYaR4GD0o3bQc0g_4GvxJ7IRj66JxwvGLSMKkhzHImTv_Kg1m9DbCqWB3zrUPVbwHi2crLYnrIBtxelNM8yW1URcMOIrXzpedHCLwz04MVTEW19uAtB-ygQrKbT/s1600/%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A4%BF%20-%20%E0%A4%86%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95.jpg" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; "><img alt="" border="0" data-original-height="580" data-original-width="900" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh74R3FMqllxLVVo4_x0-FiU0JEbXiLdqpD6O2JH0GHJpc64szOiEdekh1qFD96r0YCWpYaR4GD0o3bQc0g_4GvxJ7IRj66JxwvGLSMKkhzHImTv_Kg1m9DbCqWB3zrUPVbwHi2crLYnrIBtxelNM8yW1URcMOIrXzpedHCLwz04MVTEW19uAtB-ygQrKbT/s1600/%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A4%BF%20-%20%E0%A4%86%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95.jpg"/></a></div>
भोजपुरी गीतों में परंपरा के नाम पर अपनी गलीज सोच का परिचय मत दीजिए...या तो पलंग ही तोड़ेंगे, घाघरा के ऊपर और नीचे ही देखेंगे या फिर आगे बढ़ने वाली लडकियों पर कुंठा ही निकालेंगे
श्रीमान मनोज तिवारी जैसे गायक आखिर हिन्दी प्रदेश को अंधकार में क्यों रखना चाहते हैं, क्यों नहीं चाहते कि पुरुष थोड़ी बुद्धि के साथ हृदय भी रखें....? आप जैसे लोग समाज के, देश के असली दुश्मन ही नहीं देश द्रोही भी हैं...समाज की आधी शक्ति को अपने स्वार्थ के लिए दबाकर रखना , देश को पीछे ढकेलना है..
इसकी लोकप्रियता बताती है कि अशिक्षित और कुंठाग्रस्त लोगों की तादाद कम नहीं हुई...इस गीत का विरोध पुरजोर होना चाहिए बल्कि प्रतिबंधित होना चाहिए..
पर आपके गीत का जवाब आपको मिलेगा और आपके ही अंदाज में मिलेगा, लिखने और गाने वाले आप ही नहीं...विद्या और ज्ञान की देवी समानता सिखाती हैं...कुंठा और अहंकार से निकले शब्द टिकते नहीं....
शहर की हवा ने विवेक दिया है, पँख दिए हैं जिनको तमाम ताकत के बाद भी आप छीन नहीं सकते ...वैसे हम जंगल में भी रहेंगे तो अपने पंख उगा ही लेंगे...
आप अपनी शर्ट पर बटन लगाना अपने लिए एक कप चाय बनाना ही सीख लीजिए....हद है जो अपने भोजन से लेकर कपड़ों तक के लिए दूसरों के आसरे है...जो अपनी लंबी उम्र के लिए दूसरों से भूखे रहने की उम्मीद पाले है वो लिजलिजा पुरुष खुद को सर्वशक्तिमान समझता है...खोखले बर्तन हैं आप जैसे लोग और सम्वेदनशील लोगों के लिए मुसीबत भी
आप लिखिए...आपके लिखे और ऐसी घटिया सोच का हर बार उत्तर मिलेगा...
क्या किसी के लिए कुछ करने का मतलब यह है कि आपने उसे खरीद लिया है, ज्योति मौर्य पर कुछ भी कहना जल्दबाजी है क्योंकि सोशल मीडिया से सच का पता नहीं चलता
पर यही काम पुरुष हमेशा से करते आ रहे हैं, ऐसे कई पुरुषों को देखा है जो संघर्ष के दिनों में पत्नी के साथ रहते हैं और सफल होने पर, पढ़ - लिख जाने पर छोड़ देते हैं, ऐसे लोगों को आपका समाज मान्यता भी देता है..
.तब आपके संस्कार कहाँ जाते हैं?
क्या मुन्शी प्रेमचंद ने पहली पत्नी के होते हुए शिवरानी देवी से विवाह नहीं किया?
क्या धर्मेंद्र, आमिर खान, अजहरुद्दीन, मुलायम सिंह और हमारे आस-पास पास के लोगों ने ऐसा नहीं किया? तब आपका समाज कहाँ गया था?
कई स्त्रियां भी इसमें शामिल हैं और मैं उनको सही नहीं ठहरा रही , और आप स्त्री को लेकर कोई दया नहीं रखते
दरअसल पुरुष स्त्री को छोड़ दे, यह आपके लिए सामान्य बात है, आपको तकलीफ इस बात की है कि अब कि स्त्री ने पुरुष को छोड़ दिया है...पहले दोनों की बातें सुनिए तो सही
दुःख जाने का है कि सोने की मुर्गी हाथ से निकलने का है क्योंकि सर्विस वाली बहू भी चाहिए
...
दिक्कत य़ह है कि आपके अंदर में जो पुरुष बैठा है, उसे स्त्रियां अभी भी अपनी गुलाम लगती हैं, वो खुद को अभी भी परमेश्वर वाली कैटेगरी से नीचे उतार नहीं पा रहा, जो उतर गए वो तो परम सुखी हैं, और जो नहीं उतर पा रहे वो भी सोच रहे हैं...चिड़िया उड़ कैसे गयी..
वो खुद उड़ने की कोशिश नहीं कर रहे, बस हाथ में कैंची और ज़ंजीर लिए घूम रहे हैं
उतर जाओ....भाई...वर्ना जंजीर तुम्हें ही जकड़ेगी और कैंची तुम्हारे सपनों पर चलेगी
,,,
मत कीजिए अहसान हम पर...हमारी संपत्ति का हिस्सा दे दीजिए....आखिरकार पैतृक संपत्ति, स्त्री धन ये तो स्त्री के ही हैं न
हम अपना ध्यान रख लेंगी..
प्रेम और अहसान एक साथ नहीं रहते ...अगर जरूरत हमारी थी तो जरूरत आपकी भी थी...
हिंदी के मूर्धन्य लेखक 'मुर्दहिया' और 'मणिकर्णिका' जैसी प्रसिद्ध आत्मकथाओं के रचनाकार, प्रोफेसर डॉ. तुलसीराम जी की पहली पत्नी। प्रोफ़ेसर तुलसीरामजी से इनका बाल विवाह 2 साल की उम्र में हो गया था। 10-12 साल की उम्र में जब कुछ समझ आई तो इनका गौना हुआ। उस समय तक तुलसीराम जी मिडिल पास कर चुके थे। घर में विवाद हुआ कि तुलसी पढ़ाई छोड़ हल की मूठ थामें। पढ़ने में होशियार तुलसीराम को यह नागवार गुजरा और उन्होंने इस सम्बंध में अपनी नई-नवेली पत्नी राधादेवी से गुहार लगाई कि वह अपने पिता से मदद दिलायें, जिससे उनकी आगे की पढ़ाई पूरी हो सकें। राधादेवी ने अपने नैहर जाकर यह बात अपने पिता से कही और अपने पिता से तुलसीरामजी को सौ रुपये दिलवाए। इस प्रकार पत्नी के सहयोग से निर्धन और असहाय तुलसीराम की आगे की पढ़ाई चल निकली।
...पति आगे चलकर अपने पैरों पर खड़ा हो जाएगा, उन्हें सुख-साध देगा युवा राधादेवी ने अपने सारे खाँची भर गहने भी उतारकर तुलसीराम को दे दिए, जिनसे आगे चलकर तुलसीरामजी का बनारस विश्वविद्यालय में एडमिशन हो गया। पिता और 5 भाइयों की दुलारी राधादेवी के पति का भविष्य उज्ज्वल हो, इस हेतु राधादेवीजी के मायके से प्रत्येक माह नियमित राशन-पानी भी तुलसीरामजी के लिए भेजा जाने लगा। ससुराल में सास-ससुर देवर-जेठ और ननद-जेठानियों की भली-बुरी सुनती सहती अशक्षित और भोली राधादेवी, संघर्षों के बीच पति की पढ़ाई के साथ-साथ अपने भविष्य के भी सुंदर सपने बुनने लगीं थीं।
उधर शहर और अभिजात्य वर्ग की संगत में आये पति का मन धीरे-धीरे राधादेवी से हटने लगा। गरीबी में गरीबों के सहारे पढ़-लिखकर आगे बढ़ने वाले तुलसीराम को अब अपना घर और पत्नी सब ज़ाहिल नज़र आने लगे। शहर की हवा खाये तुलसीराम का मन अंततः राधादेवीजी से हट गया। बीएचयू के बाद उच्चशिक्षा हेतु तुलसीरामजी ने जेएनयू दिल्ली की राह पकड़ ली, जहाँ वह देश की उस ख्यातिलब्ध यूनिवर्सिटी में पढ़ाई और शोध उपरांत, प्रोफ़ेसर बने और समृद्धि के शिखर तक जा पहुँचे। प्रोफ़ेसर बनने के उपरांत तुलसीरामजी ने राधादेवी को बिना तलाक दिए अपने से उच्चजाति की शिक्षित युवती से विवाह कर लिया और फिर मुड़कर कभी अपने गाँव और राधादेवी की ओर देखा!!!
राधादेवी आज भी उसी राह पर खड़ी हैं, जिस राह पर प्रोफ़ेसर तुलसीराम उन्हें छोड़कर गए थे। जिस व्यक्ति को अपना सर्वस्व लुटा दिया उसी ने छल किया, इस अविश्वास के चलते परिवार-समाज में पुनर्विवाह का प्रचलन होने पर भी राधादेवी ने दूसरा विवाह नहीं किया। भाई अत्यंत गरीब हैं। सास-ससुर रहे नहीं। देवर-जेठ उन्हें ससुराल में टिकने नहीं देते कि ज़मीन का एकाध पैतृक टुकड़ा जो तुलसीरामजी के हिस्से का है, बंटा न ले इसलिए वे उन्हें वहाँ से वे दुत्कार देते हैं।
...कुछ साल पहले जब तुलसीरामजी का निधन हुआ तो उनके देवर-जेठ अंतिम संस्कार में दिल्ली जाकर शामिल हुए, पर राधादेवी को उन्होंने भनक तक न लगने दी! बहुत बाद में उन्हें बताया गया तो वे अहवातिन से विधवा के रूप में आ गईं, उनके शोक में महीनों बीमार रहीं देह की खेह कर ली किसी ससुराली ने एक गिलास पानी तक न दिया!! बेघरबार राधादेवी आज ससुराल और मायके के बीच झूलतीं दाने-दाने को मोहताज़ हैं!!!
अगर जरा भी आत्मसम्मान हो तो जिनके पति कोचिंग छुड़ाकर घर बैठा रहे हैं, वो औरतें घर और पति को ठोकर मार दें, पढ़ी -लिखी हैं अपना खर्च उठाएं और आज कल तो सरकारी मदद मिलती है
खुद पर फोकस करें, और अपने सपने हर हाल में पूरे करें, पिता - भाई- पति- बच्चों के भावनात्मक चक्रव्यूह से बाहर निकलिये , दहेज, स्त्री धन, सब वापस लीजिए, जितने साल रहीं, उसका मुआवजा लीजिए, क्योंकि आत्मसम्मान नहीं तो कुछ नहीं
ये वो समय है जब आपको पैतृक संपत्ति का हक मांगने के लिए आवाज उठानी चाहिए ..
क्योंकि तब आप पर कोई अहसान नहीं जता सकेगा, अपनी बेटियों के लिए पिता यह कर सकता है क्योंकि भाई तो अधिकतर मामलों में आपका आगे बढ़ना शायद ही पचा पायेंगे, हालांकि अब सुखद रूप से अपवाद हो रहे हैं पर यह संख्या न के बराबर है
ये जो हो रहा है, वो देते जाने और सिर पर चढ़ाने का नतीज़ा है
अब और अग्नि परीक्षा नहीं, ठोकर मारना सीखिए , कई बार शक्ति दिखानी पड़ती है
अच्छे खासे दोस्त को बॉयफ्रेंड और प्रेमी बना दो, यह भी षड्यंत्र का हिस्सा है...
स्त्री जब पुरुष की मित्र हो सकती है , आप यह स्वीकार कर लेते हैं
तो पुरुष स्त्री का मित्र हो सकता है, ये आपको स्वीकार क्यों नहीं?
कहने का मतलब यह कि द्रौपदी कृष्ण की सखी है, राधा सखी है तो उत्तम
मगर द्रौपदी के लिए कृष्ण को भाई ही बनना होगा, राधा के लिए प्रेमी ही बनना होगा,
काहे ???
दोष आपमें है, आपकी नजर में है और गंदगी दूसरों में खोजते हैं और उड़ती चिड़िया को उड़ता देख दाह में जल रही पिंजरे की मैना इस आग में जमकर घी डालती है
सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-61479608569267154012023-08-01T01:10:00.001-07:002023-08-01T01:10:49.474-07:00मणिपुर हो या मालदा...खतरनाक है आपका चयनित प्रतिवाद<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjVUHhuVHTNhOwgHO_r1wRid5ms_ghs76QGYVODWPzhpL54ftmz8a3zZUeSBSL0CUif3SuoZO_x2oBCLB5WdHp4iP_kYTG6X8lqaGSXcaoP5IMNKxnDPew9K2XyZSqKMFN71iQixjwHU2TK5BCX4vkQkIY78CZuhS9xC2OmlAijDZgg3smZsRWfWTwB3lt-/s1600/mainj-768x402.jpg" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; "><img alt="" border="0" data-original-height="402" data-original-width="768" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjVUHhuVHTNhOwgHO_r1wRid5ms_ghs76QGYVODWPzhpL54ftmz8a3zZUeSBSL0CUif3SuoZO_x2oBCLB5WdHp4iP_kYTG6X8lqaGSXcaoP5IMNKxnDPew9K2XyZSqKMFN71iQixjwHU2TK5BCX4vkQkIY78CZuhS9xC2OmlAijDZgg3smZsRWfWTwB3lt-/s1600/mainj-768x402.jpg"/></a></div>
मणिपुर की घटना निश्चित रूप से शर्मनाक है मगर उससे भी घटिया वो सिलेक्टिव प्रतिवाद है, राज्य और पार्टी देखकर अपने मुखर होने का समय चुनता है, चाहे आप लेफ्ट हों या राइट हों, आप जब अपने क्षेत्र की घटनाओं पर शर्मनाक चुप्पी ओढ़े रहते हैं और विरोधी पार्टी के राज्य की घटनाओं पर तीव्र प्रतिवाद करने लग जाते हैं,
विश्वास कीजिए आप सिर्फ एक पार्टी कार्यकर्ता और कैडर ही लगते हैं, जो अपनी पार्टी के प्रति वफादारी दिखाने में लगा है, प्रतिवाद जब टार्गेट करने पर आ जाता है, मुद्दा और न्याय, दोनों खत्म हो जाते हैं
आपका प्रतिवाद हमारे घावों पर मरहम नहीं नमक लगाता है क्योंकि आप प्रतिवाद की आड़ में भी अपनी रोटियाँ सेंक रहे होते हैं, शर्म कीजिए और बस कीजिए...बोलिए तो ईमानदारी से बोलिए वर्ना मुँह पर वही टेप लगाकर बैठिए, जो अब तक लगाए हुए थे
छीः
सत्ता किसी की भी हो,
युग कोई भी हो
जाति कोई भी हो
जीत किसी की भी हो
प्रतिशोध किसी से भी लेना हो
विस्तार चाहे
किसी भी साम्राज्य का हो
......
वो किसी स्त्री की
देह को ही कुचलता है
स्त्री का दमन उसके लिए
प्रतीक है उसकी बर्बर जीत का
और,हम????
धड़ों में, धर्मों में, राजनीति में,
विचार में बंटे लोग....
निभा रहे हैं कर्त्तव्य
...
कागज से लेकर इंटरनेट
पर शोक मनाकर, बस
अब ड्यूटी खत्म....
शोर.....सिर्फ शोर...
........
एक और नग्न वीभत्स दृश्य
की प्रतीक्षा तक
क्यों नहीं हथियार थमाते
क्यों काली से डरते हो....
आखिर कब तक उठाते रहेंगे
राम, कृष्ण तुम्हारी सुरक्षा का भार
कब तक आते रहेंगे द्रौपदी
तुम्हारी रक्षा को कृष्ण????
तब एक था, अब हर जगह हैं...
....
पता है तुम्हारा दोष कहाँ है
अब तक पुरुष ही जन्म देती रही
किसी और में खुद को खोजती रही
तुम खुद को समर्पित करती रही
सब छोड़ती रही, सिमटती रही
और वो तुम्हें लूटते रहे ,नोंचते रहे,
दुर्गा ने कभी किसी को नहीं पुकारा
अपनी रक्षा को कभी भी
स्त्रियों ने असंख्य असुर मारे हैं
रावण, दुर्योधन, दुःशासन का अंत
जरूर दिखाना, पर अबकी
मनुष्य को जन्म देना
उसे आदमखोर मत बनने देना
और बनने लगे....
वही करना जो देवियाँ करती आ रहीं हैं
(मन व्यथित है । लिखना खुद को मुक्त करना है....लाइक, कमेंट्स से आगे...वायरल संस्कृति से आगे, यह स्तब्ध होने का समय है...बात सिर्फ एक मणिपुर की नहीं...देश और दुनिया में हर क्षण स्त्रियां आपकी पशुता की भेंट चढ़ रही हैं..
वाचिक,मानसिक,शारीरिक....स्थान...राज्य...शासन से परे सोचिए...कितनी मनुष्यता है...वो मर रहे हैं...हम लड़ रहे हैं.... इस देश में स्त्री कभी सुरक्षित नहीं रही...क्योंकि आप मनुष्य बने ही नहीं...पुरुष ही रह गए...और स्त्रियां पुरुष ही बनाती रह गयीं, बेटों को, पति को, भाई को..दोस्तों को...उसने मनुष्य बनने ही नहीं दिया..
वीर भोग्या वसुंधरा....वाली मानसिकता. ..कब स्त्री को मनुष्य रहने देती है. ..सत्ता बदल देने से क्या होगा...निर्भया भूल गए??? पार्क स्ट्रीट भूल गए?? कामदुनी, हाथरस. ...राजस्थान. ..भंवरी देवी याद हैं????
आप सिर्फ एक पुरुष न रहकर मनुष्य और संवेदनशील बन जाइए. ..बेटियों की और पत्नी की नहीं. ..हर स्त्री को मानुष समझिए. ...तभी कुछ होगा ...पर अब बस कीजिए....🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
आपको क्या तापसी मलिक याद है.... किशोरी से दुष्कर्म के बाद जिसे जला दिया गया...जिसकी जली हुई देह का प्रचार कर एक महिला सत्ता में आई , जिनके एक नेता घरों में घुसकर दुष्कर्म की धमकियां देते रहे, या एक नेत्री के अन्तर वस्त्रों का रंग सरेआम बताने वाले नेता याद हैं...विधानसभा में घसीटी गयी जयललिता . अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ताओं की बदसलूकी की शिकार बनी वो कांग्रेस नेत्री....जो पार्टी छोड़ने पर विवश हुईं...या गेस्ट हाउस कांड की शिकार मायावती??? और आप आम स्त्रियों को लेकर परेशान हैं...वो तो सब्जी- भाजी हैं या मांसल देह..बस और कुछ हो तो बता दीजिए
.इस देश में आगे बढ़ना है तो गूंगा, बहरा और अंधा बनना होगा...सही कहा न प्रियंका गांधी जी, मैडम स्मृति ईरानी और हमारी माननीया दीदी जी ???सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-48253410501033369042023-04-28T04:33:00.001-07:002023-04-28T04:33:14.780-07:00सिबलिंग राइवलरी परिवारों का सच है, बेटी की जगह नहीं, बहू को बहू बनाकर सम्मान दीजिए <div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgzVgwecETRzvr0G5ju6dFESqY0Xy2G9Bvuk34SNUVyzUo9ol_V80p8ZBP2KBlHUPGNCieGdB9CuRcQR8S3S2pWmKHgBYPbBPqBiidAS7iGx76kEOAhuVZaMhpPE1ZhtWN6ZoZM3G6ceOpaaHYarHKhxAitIjpl70RppV_oIx4yFah5FsUjT-Ih8WVj5g/s1600/sibling%20rivalry.jpg" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; "><img alt="" border="0" data-original-height="768" data-original-width="1024" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgzVgwecETRzvr0G5ju6dFESqY0Xy2G9Bvuk34SNUVyzUo9ol_V80p8ZBP2KBlHUPGNCieGdB9CuRcQR8S3S2pWmKHgBYPbBPqBiidAS7iGx76kEOAhuVZaMhpPE1ZhtWN6ZoZM3G6ceOpaaHYarHKhxAitIjpl70RppV_oIx4yFah5FsUjT-Ih8WVj5g/s1600/sibling%20rivalry.jpg"/></a></div>
परिवार को लेकर हमारे देश में एक यूटोपिया है...हम भारतीय ऐसी कल्पना में जीते हैं जिसमें परिवार का मतलब सारी समस्याओं का समाधान है मगर ऐसा होता नहीं है । परिवार में प्रेम हो सकता है मगर परिवार में लोकतांत्रिक परिवेश न हो, किसी एक व्यक्ति की निरंकुश सत्ता हो और वह उस सत्ता का उपयोग अपने छोटे भाई - बहनों को दबाने के लिए करे...तो परिवार का ढांचा सलामत रहे..यह नहीं हो सकता । सिबलिंग राइवलरी हर परिवार का सच है मगर दिक्कत यह है कि हम न तो इसे लेकर सोचते हैं और न ही इस पर बात करना चाहते हैं । परिवारों में सम्मान का अनुपात शक्ति, सामर्थ्य और पैसे से तय होता है..बेटा हो या बेटी हो, खुद माता - पिता भी अपने बच्चों को इसी आधार पर प्रेम देते हैं । सम्पन्नता से ही आचरण तय होता है और यही बात ईर्ष्या का कारण बनती है ।
'समरथ को नहीं दोष गोसाई' की उक्ति भारतीय संयुक्त परिवारों का सच है । अन्यायी अगर समर्थ हो तो बहिष्कार प्रताड़ित का होता है, दोषी का नहीं । खासतौर से मामला लड़कियों का हो तो उनकी भावुकता कब उनकी प्रताड़ना का कारण बन जाती है और संवेदना का लाभ उठाकर कब उनके साथ माइंड गेम खेला जाने लगता है, उनको पता भी नहीं चलता है। 'मायके का आसरा बना रहे' और 'आखिर तो इस घर से चले जाना है' जैसे शब्दों से खुद को बहलाते रहना खुद को छलना ही होता है । आप रिश्ते निभाती रह जाती हैं और कब अपने ही घर में रहने वालों की नजर में आप चुभने लगती हैं..आप खुद ही नहीं जानतीं ।
आखिर क्यों जब हम घरेलू हिंसा के खिलाफ आवाज उठाते हैं तो इसका दायरा लड़की की ससुराल तक सीमित रह जाता है जबकि हम सब जानते हैं कि लड़कियों के साथ भेदभाव बचपन से होता आ रहा है, बेटे की चाह में उनकी हत्या गर्भ में ही सदियों से की जाती रही है, प्रेम करने के अपराध में उनकी हत्या उनके उसी घर में हो रही होती है, जहाँ वे जन्मी हैं और वहीं पिता मारता है जो उसका जन्मदाता है । उसकी हत्या वही हाथ करते हैं जिनके हाथ में राखी उसने उसी उम्मीद में बांधी होती है कि वह उसकी रक्षा करेगा ..। आखिर यह कैसी परवरिश हमारे परिवारों में दी जाती है जहाँ बहनों को उनके भाई हर तरह से प्रताड़ित करते हैं, वाचिक, शारीरिक एवं मानसिक हिंसा का बहनें शिकार होती हैं और एक शब्द भी नहीं कहतीं । हमारे कानून में पत्नी पति के खिलाफ शिकायत कर सकती है मगर बहनों की सुरक्षा और उनके अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए किसी भी तरह का सटीक कानून नहीं है, बहनों की शिक्षा भाई की वजह से छुड़वा दी जाती है, उनकी महत्वाकांक्षाओं को रौंदकर भाई को अफसर बनाया जाता है...मगर तब भी अपने लिए सोचना उनको पाप लगता है । संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि हर साल दुनिया में 5 हजार लड़कियां ऑनर किलिंग का शिकार होती हैं । रिपोर्ट में बताया गया था कि इन 5 हजार में से एक हजार लड़कियां भारतीय होती हैं । यानी, ऑनर किलिंग का शिकार होने वाली हर 5 में से 1 लड़की भारत की होती है ।
बहन का दुप्पटा इधर से उधर न हो...वह जब भी चले, सिर झुकाकर चले, किसी अजनबी से बात न करे, वही करे जो परिवार चाहता है । वह देर से घर आए तो उससे हजार सवाल, घर का सारा काम अपनी पढ़ाई छोड़कर उसे ही करना है, सिर्फ अपना ही नहीं बल्कि भाई के निजी काम भी उसे ही करने हैं...आखिर क्यों ? वह क्या पढ़ेगी, वह क्या पहनेगी, वह किससे शादी करेगी से लेकर हर छोटी बात पर फैसले का अधिकार उसे नहीं, क्यों ? आखिर जिस घर में उसने जन्म लिया है, वह घर उसका क्यों नहीं है...और क्यों किसी और को उसके हिस्से का कमरा, उसके हिस्से का सम्मान दिया जाना चाहिए...हर बात पर घर की शांति के लिए उसे समझौता करना सिखाइए और जब विरोध करे तो कहिए कि वह घर में आग लगा रही है ।
बहनों के मामले में होता यह है कि वह विक्टिम होती है मगर उसे कल्परिट बना दिया जाता है...जब माता - पिता ससुराल में गलत का विरोध करना सिखा रहे होते हैं तो यही शिक्षा वह अपनी बेटियों को क्यों नहीं देते और क्यों नहीं सिखाते कि भाई अगर अपमानित या प्रताड़ित करे, तो उसी समय खींचकर एक तमाचा जड़ने के लिए बहन को पूछने की जरूरत नहीं है...सच यह है कि कोई भी किसी की सुरक्षा करे...इसके लिए जरूरी है कि उसके मन में प्रेम हो, समानता का भाव हो मगर भाई बहनों के मामले में यह भावना काम नहीं करती । वहाँ असुरक्षा होती है और कहीं न कहीं उसे आश्रित मानने की भावना भी काम करती है । किसी को आश्रित मानना मतलब उसे खारिज कर देना, अहसान जताना..दुःखद परन्तु सत्य है कि भाई - भाभी अपनी बहनों को घर में या तो टिकने नहीं देना चाहते या उसे हाशिए पर रखते हैं । मानसिक तौर पर उसे इस कदर प्रताड़ित किया जाता है कि वह खुद घर छोड़ देती है या फिर विवाह या नौकरी कर के किसी भी तरह उस घर को छोड़ देना चाहती है...और जब वह ऐसा करती है तो लोग आराम से कह देते हैं कि किया तो उसने ही है...कोई भी यह जानने की कोशिश नहीं करता है कि ऐसा उसके साथ क्या हुआ या किस तरह की परिस्थितियाँ बना दी गयीं कि ऐसा कदम उठाना पड़ा ।
यह कॉरपोरेट में अनचाहे कर्मचारियों के साथ होता है और घरों में अनचाहे सदस्यों के साथ होता है जिसमें से घर का छोटा भाई या बहन सबसे अधिक प्रताड़ित होते हैं । समाज, परिवार, इज्जत जैसे खोखले शब्दों के भंवरजाल में फँसकर या तो वे बड़े भाइयों के गुलाम बने रहते हैं या फिर एक दिन खामोश रह जाते हैं. अवसाद में चले जाते हैं । सब कहते हैं कि ऐसा उसके साथ क्या हुआ..लोग सहानुभूति जताते हैं मगर दोषी व्यक्ति की समाज में पूजा भी होती है और उसे पूरा आदर मिलता है । शिकायत करने वाले या आवाज उठाने वाले को बहिष्कृत किया जाता है, परिवार से, समाज से, उसे एक कोने में धकेल दिया जाता है और इस पर भी आप कहते हैं कि परिवार सुरक्षा और शरण स्थली है तो इससे बड़ा झूठ कोई नहीं....परिवार ने सुरक्षा के खोखले आवरण का सहारा लेकर हमेशा से ही स्त्रियों...खासकर बेटियों और बहनों को प्रताड़ित किया है, प्रताड़ित कर रहा है । हमारे साथ दिक्कत यह है कि हम संवेदनशील पुरुषों अथवा संवेदनशील स्त्री को ही कमजोर समझकर उसे उपेक्षित करते हैं..आज बहुत से पुरुष और भाई भी...बहनों को आगे ले जाना चाहते हैं मगर परिवार में या तो उनकी चलती नहीं या वह इतने सक्षम नहीं होते कि वह अपनी बात मजबूती से कह सकें । यही बात बहनों के बारे में कही जा सकती है मगर जरूरी है कि जो सम्बन्ध और जो लोग सम्बन्धों को लोकतांत्रिक, ईमानदार और स्वच्छ परिवेश दें..उनको सम्मान दिया जाए और उनको सेलिब्रेट किया जाए..कई बार सिबलिंग राइवलरी जनित ईर्ष्या बहनों के बीच भी होती है और वह इतनी ज्यादा होती है कि वह या तो उपहास बनती है या फिर प्रतिशोध...खासकर यह उन लड़कियों को झेलना पड़ता है जो अपने भाई - बहनों की तुलना में अधिक शिक्षित और आत्मनिर्भर है...ऐसी परिस्थिति में उसे पीछे धकेलने वाले ऐसे ही लोग होते हैं...जो उसे हतोत्साहित करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाते हैं ।
बात अपेक्षाओं की भी है जो काल्पनिक और अव्यावहारिक भी है..घर में कोई नयी बहू आए तो अचानक उसे तारणहार मानकर सब कुछ सौंप देना वह उसकी ही नहीं आपकी भी मुश्किलें बढ़ाता है । बहू घर की सदस्य है, उसे उसके हिस्से का सम्मान अवश्य मिलना चाहिए मगर यह भी सुनिश्चचित कीजिए कि यह देने के लिए आप घर के किसी और सदस्य के साथ अन्याय न कर रहे हैं क्योंकि अगर ऐसा है तो पारिवारिक एकता रेत की तरह होगी जो मुट्ठी खुलते ही फिसल जाएगी ।
आखिर क्यों किसी बहू को प्रेम करने के लिए आपको उसे बेटी ही बनाना है, आप उसे बहू बनाकर और बहू मानकर ही प्रेम क्यों नहीं कर सकते ? विवाह परिवार को एक इकाई में बदल देता है..घर के अन्दर घर..रिश्तों के अन्दर रिश्ते, अपने फायदे, अपने स्वार्थ होते हैं । एक पौधा उखाड़कर आपने दूसरा पौधा लगा दिया, तब भी आप दूसरे पौधे का मन नहीं बदल सकते..दरअसल यह उम्मीद करनी ही नहीं चाहिए...जिस तरह आप बहू से उम्मीद नहीं कर सकते है कि वह 25 साल पुराना मायके भुला दे, उसी तरह आपको बहनों से भी यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि भाभी के घर में कदम रखते ही वह अपना सब कुछ उन पर न्योछावर कर दे और खुद को अपने ही घर में आश्रित मानने लगे । चाहे प्यार हो या सम्पत्ति हो....सब पर पहला अधिकार घर की बहन और बेटियों का ही होना चाहिए । संयुक्त परिवार की अवधारणा को तोड़ने का काम बेटे और बहू ही करते आ रहे हैं मगर पराया बेटियों को कहा गया...जो मन से आपके साथ नहीं है...क्या वही सबसे अधिक पराया नहीं है ?
सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-39558565053396454822023-02-14T04:11:00.004-08:002023-02-14T04:14:43.500-08:00 भारत में प्रेम एक दिन की कामना का सुख नहीं, सृजन और कर्त्तव्य का शाश्वत मार्ग है...<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhnOkqG0jcm2a6BgO4K_N2oFOH30ZrAqHKQZSnCUuWogl-bJfFHTnywf0yYs8BfQ3UZtkw6iNEPB-x2XCaHuxMu0S4q2sOj5FxcoTfOzlDa-DG-kiUzHRZe1fTrVqFARcnIiF0PNxMGTRowR9rx732aUexuu_f8Macgq4bGVbsiP2MBcWz8-63WWISj_Q/s1600/prem..1.jpg" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; "><img alt="" border="0" data-original-height="700" data-original-width="1050" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhnOkqG0jcm2a6BgO4K_N2oFOH30ZrAqHKQZSnCUuWogl-bJfFHTnywf0yYs8BfQ3UZtkw6iNEPB-x2XCaHuxMu0S4q2sOj5FxcoTfOzlDa-DG-kiUzHRZe1fTrVqFARcnIiF0PNxMGTRowR9rx732aUexuu_f8Macgq4bGVbsiP2MBcWz8-63WWISj_Q/s1600/prem..1.jpg"/></a></div>
प्रेम मानव की सद्यजात प्रवृत्ति है और बंधन से परे...। प्रेम मुक्त करता है और प्रेम ही संसार का सबसे बड़ा बन्धन भी है । ऐसा बन्धन जिसमें ईश्वर स्वयं ही बंध जाते हैं । वह सर्वशक्तिमान ईश्वर भी प्रेम की चाह में बार - बार धरती पर आना चाहते हैं...आखिर सर्वशक्तिमान होना भी तो एक बन्धन है कर्त्तव्य का....संसार को चलाना भी आसान कहाँ है...पाप - पुण्य के चक्र में, ज्ञान की सूखी थाली में जब तक प्रेम का रस न हो...जीवन जीया भी कैसे जा सकता है । मनुष्य को ही नहीं बल्कि ईश्वर को भी प्रेम चाहिए इसलिए वह उतरता है धरती पर...कभी कौशल्या का प्रेम पाने के लिए तो कभी यशोदा का नंदलाल बनने के लिए...उसे अच्छा लगता है प्रेम के बंधन में बंधकर माता के हाथों से पिट जाना तो उसे अच्छा लगता है कि मुट्ठी भर छाछ के लिए गोपियों की ताल पर नाचते रहना । वसन्त प्रेम का रंग है...वैसे प्रकृति के हर रंग में ही प्रेम है...संसार का हर कण ही तो प्रेम से सींचा गया है..फिर क्यों लोग खींचने लगते हैं सम्बन्धों की रेखा ।
बहुत कुछ अव्यक्त रह जाता है प्रेम के संसार में परन्तु वह व्यक्त से अधिक महत्वपूर्ण होता है...मुझे सबसे अनोखा लगता है कृष्ण और द्रोपदी का सम्बन्ध...। राधा कृष्ण की सखी रहीं...बालपन का प्रेम...साख्य का पहला पाठ...जीवन की आधार और उनको कृष्ण का प्रेम भी खूब मिला । रुक्मिणी कृष्ण की जीवनसंगिनी बनीं...और वह आईं भी जीवन में कर्त्तव्य बनकर......उनको पूरी द्वारिका मिली...द्वारिकाधीश की पत्नी बनीं....। सुभद्रा को भी संरक्षण मिला...एक बहन के रूप में....मगर क्या ऐसा कोई था जिससे कृष्ण को मिला हो...वह जो कहीं खोज रहे होंगे...क्या कारण रहा होगा कि वे द्रोपदी को सखी के रूप में इतना स्नेह देते हैं.........बन्धनों से परे मगर मर्यादा का बन्धन.....मानते हुए...क्या कहीं कुछ अधूरा रह गया होगा...या वह जो कहीं नहीं कहना कह पाते..वह कृष्णा से कह लेते हैं...और जो कोई नहीं समझ पाता..वह द्रोपदी समझ लेती हैं । हम अपने जीवन में चाहे कहीं भी चले जाएं..एक ऐसा कोना हमें चाहिए जिससे हमें कोई उम्मीद नहीं रहती...हम उससे कुछ नहीं चाहते...मगर फिर भी हमें वहाँ रहना अच्छा लगता है.. । द्रोपदी और कृष्ण के लिए...दोनों वहीं एक कोना है...आप इसे साख्य भाव से देखिए और बहुत बार हमारा मर्यादावादी मन उनको भाई - बहन बना लेता है...। हम यह स्वीकार ही नहीं कर पाते कि प्रेम का अर्थ सदैव दाम्पत्य या वात्सल्य नहीं होता...वह गार्हस्थिक भी नहीं होता...वह साख्य भाव से भी ऊपर होता है....प्रेम अगर निष्ठा और निश्चलता से परिपूर्ण हो तो वह हर एक सम्बन्ध की सीमा से परे हो जाता है ...वह श्रद्धा बन जाता है और उससे भी आगे चला जाए तो श्रद्धा भक्ति में बदल जाती है...आप अपनी सांसारिक दृष्टि से न तो इसे देख सकते हैं और न ही समझ सकते हैं ।
अगर आप अवतार अथवा महामानव समझे जाने वाले लोगों का जीवन ध्यान से देखिए...बहुत कम लोग हैं जिनका दाम्पत्य जीवन एक ही सांचे में बंधा रहा हो...आप मानिए या न मानिए लेकिन ईश्वर जिसको किसी विशेष उद्देश्य से भेजते हैं...वह बन्धन में नहीं बंधता और बंधन में बांध भी दिया जाए तो वह बंधन या टूट जाते हैं या फिर वह बंधन में रहकर भी मुक्त ही रहता है क्योंकि जिसका जन्म एक उद्देश्य के लिए हुआ है, अगर वह पारिवारिक बन्धनों में बंधा रहा तो सृष्टि में विधाता ने जिस कार्य के लिए भेजा है...वह कार्य तो हो ही नहीं पाएगा । वह एकमात्र अपने लक्ष्य के अधीन होता है..उसके जीवन में जिसे भेजा जाता है...वह व्यक्ति एक माध्यम और सहायक भर ही होता है और जहाँ वह इससे जाकर बंधन बनने लगता है...उसे हटा दिया जाता है ।
आप प्रेम की बात करते हैं तो द्रोपदी और कृष्ण भी सृष्टि की सुरक्षा का माध्यम थे...वह कृष्ण की कर्मसंगिनी थीं...परिवर्तन की धुरी...इस क्रम में उनके जीवन में जो घटनाएं घटित हुईं...वह ही युद्ध का कारण बनीं...। इतना अथक विश्वास कि किसी के कहने पर कोई स्त्री अपना विभाजन स्वीकार कर ले....पहले तो मुझे लगता ही नहीं यह द्रोपदी की इच्छा रही होगी...उनके जैसी स्त्री इतना बड़ा अन्याय सहकर चुप हो जाए..यह कल्पना से परे है...। हाल ही में युगंधर पढ़ रही थी और वहाँ लेखक लिखते हैं कि द्रोपदी इतनी सुन्दर थीं कि कोई एक पांडव अकेला उनकी रक्षा कर ही नहीं सकता था...मेरी समझ में यह हास्यास्पद है..क्योंकि द्यूत में अपनी पत्नी को दांव पर लगाने वाले युधिष्ठिर और अपनी पत्नी पर अपने भाइयों का अधिकार मान लेने वाले अर्जुन मुझे वीर तो कहीं से नहीं लगते...उनके होते हुए...भरी राजसभा में द्रोपदी का अपमान हुआ...और सारे पांडव सिर झुकाए रहे....ऐसे में यह कह देना ही द्रोपदी की सुरक्षा के लिए उसे पांचों पांडवों में विभाजित होना पड़ा...कम से कम मेरी दृष्टि में सही नहीं लगता...मगर वह मानी थीं कृष्ण के कहने पर...इस युक्ति के सामने नहीं...बल्कि इसलिए कि उनको कृष्ण की हर बात पर विश्वास था और वह जानती थीं कि उनको बस इस धर्म युद्ध की धुरी बनना है...इसलिए ऐसे ही चलना होगा...और उन्होंने किया...सही मायनों में अगर महाभारत में धर्म युद्ध के लिए जिसने अपना सर्वस्व त्याग दिया..वह द्रोपदी ही थीं..वही पांडवों की शक्ति बनीं...उनके साहस को प्रज्ज्वलित करती रहीं...वह उनके साथ होकर भी नहीं थीं और कृष्ण के साथ नहीं होकर भी सदैव उनके ही साथ रहीं क्योंकि यही धर्म का मार्ग था...क्यों रहीं...क्योंकि उनको वह सख्य मिला, संरक्षण मिला, स्नेह मिला...जिसकी कामना उनको हमेशा से थी । यहाँ उन पर कोई प्रश्न नहीं थे...एक दृढ़ विश्वास था और द्रोपदी ने वह विश्वास सदैव निभाया..कृष्ण ने भी कभी भी इस विश्वास को टूटने नहीं दिया...।
ये दोनों चरित्र अपने सम्बन्धों को उसकी पूरी ईमानदारी के साथ शत - प्रतिशत जीते हैं इसलिए आज के आधुनिक युग में भी इनकी निश्चलता एक उदाहरण है । हमारी विडम्बना है कि हमें सशक्त स्त्रियाँ और संवेदनशील पुरुषों का सम्मान करना कभी नहीं आया..हम उनके आभामंडल को स्वीकारना ही नहीं चाहते । मुझे युधिष्ठिर का चरित्र सबसे लिजलिजा लगता है......अपने छोटे भाई की पत्नी पर नजर रखने वाला कायर चरित्र ...जिसने बातों और सिद्धांतों की आड़ में अपनी इच्छाओं को मनवाया...द्यूत पर दांव लगवाया और अंत में जिन भाइयों और पत्नी के दम पर जीता रहा...उनको ही छोड़कर अकेले स्वर्ग की तरफ चल दिया...यह न्याय नहीं रहा होगा....दंभ ही रहा होगा...। एक तरफ रामायण में राम के लिए सोने की सीता की प्रतिमा अधिक प्रिय हैं तो दूसरी तरफ युधिष्ठिर को कुत्ता अधिक प्रिय रहता है...। वह किसी के भी प्रेम के योग्य कभी नहीं थे क्योंकि महाभारत का युद्ध भी भीम - अर्जुन के कारण ही जीता गया था...बिना कुछ किए ही जिसने सारे सुख भोगे...वह युधिष्ठिर हैं । द्रोपदी का अपमान एक बार नहीं, बार - बार होता है...कभी कीचक तो कभी जयद्रथ...और अन्त में उसके भाई, पिता, पुत्र सब मारे जाते हैं...एक धर्मयुद्ध के लिए जीवन भर कष्ट सहने के बाद उनके हाथ खाली ही रहते हैं । उत्तरा का चरित्र भी ऐसा ही है जिसने सब कुछ खो दिया युद्ध की ज्वाला में...। कृष्ण के साथ आज भी राधा का नाम रहता है, स्वाभाविक है, रुक्मिणी भी रहती हैं, यह स्वाभाविक है मगर उनके कर्मयुद्ध को...धर्मयुद्ध को जिन्होंने परिपूर्णता दी...और बगैर किसी चाह के दी..उस द्रोपदी को हम कुछ पँक्तियों में समेट कर चल देते हैं । कितना निष्कपट और निश्चल विश्वास रहा होगा...आज यह सोचना भी असम्भव लगता है मगर समाज को सशक्त और सवाल उठाने वाली स्त्रियाँ कहाँ रास आती हैं..?
तब कहीं तो ईश्वर को लगा होगा कि यह अन्याय बहुत अधिक हुआ है और इसके प्रतिकार के लिए किसी न किसी रूप में फिर से जन्म हुआ होगा...इन दोनों का...कि युद्ध से कुछ नहीं बदलता...संसार को प्रेम की भाषा सिखानी होगी...प्रेम से आगे सृजन की लिपि में बात रखनी होगी...।
आगे चलते हैं...सिस्टर निवेदिता को देखिए...स्वामी विवेकानंद के अधूरे कार्य को आगे ले जाने के लिए सुदूर विदेश से भारत उनको भेजा गया..रत्नावली को क्या पता नहीं रहा होगा कि उनके तिरस्कार से उनके तुलसीदास राम के तो हो जाएंगे पर उनसे दूर चले जाएंगे..इस पर यह रत्नावली ही थीं जिन्होंने अपना प्रेम. अपना दाम्पत्य...सब कुछ दांव पर लगा दिया क्योंकि वे अपने पति को मात्र एक भोगविलास करने वाले पति के रूप में तो नहीं देखना चाहती थीं...। आज मान लीजिए कि वेलेंटाइन डे की तरह कोई पति तुलसीदास की तरह आ जाए तो अगले दिन फेसबुक पर उसकी प्रशंसा से इतराती तस्वीरें आप उसकी पत्नी की प्रोफाइल पर देखेंगे पर उनमें से कितनी होंगी जो पति को मर्यादा का पाठ पढ़ाकर राम की राह दिखा सकेंगी। आप कहिए रत्नावली को कठोर हृदय मगर रत्नावली बनना बहुत कठिन है...रत्नावली न होतीं तो तुलसी..गोस्वामी तुलसीदास न बन पाते । यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम ऐसे चरित्रों पर बात करना ही नहीं चाहते और करते भी हैं तो एंगल वही देते हैं जो हमारे मन को संतुष्ट करे । आजादी की लड़ाई में साबरमती के संत की पूजा सब करते हैं मगर सब जानते हैं कि कस्तूरबा के साथ उनका व्यवहार कैसा था..गाँधी को प्रसिद्धि मिली मगर मिली वह कस्तूरबा के त्याग के कारण । कहने का मतलब यह है कि जीवन में जिसके आगे लक्ष्य रहा...वह या तो अकेला चला..या फिर कुछ समय के बाद अकेला उसे रहना पड़ा...भीड़ में रहकर सुविधाओं के बीच क्रांति नहीं होती...उसके लिए तपना पड़ता है । जो ईश्वर का होता है....ईश्वर उसे किसी का नहीं होने देता...मीरा को देखिए....वह सदा से कृष्ण के प्रेम में थीं...फिर भी विवाह करवाया गया...मगर अन्ततः मीरा तो गिरधर की ही रहीं । संसार में परिवर्तन लाने वाले हमेशा से अकेले ही रहे हैं कभी सांसारिक तौर पर तो कभी मानसिक तौर पर...वह कभी किसी के होकर नहीं रह सकते..वह हजारों के बीच भी अकेले होते हैं...अपने स्वप्नों के साथ...लक्ष्यों के साथ और फिर ईश्वर उनके कर्म में सहायक बनने के लिए भेजता है...। संसार के जलाशय में कमल की तरह रहते हैं वह सबसे ऊपर...सबसे अलग...सबसे अनोखे । महाभारत के सन्दर्भ में कृष्ण और द्रोपदी का सम्बन्ध मेरी समझ से ऐसा ही था...यह प्रेम था दिव्यता थी इसमें । दिव्य प्रेम सबसे उच्च कोटि का प्रेम है। यह सदाबहार होता है और सदा नवीन बना रहता है। आप जितना इसके निकट जाएँगे उतना ही इसमें अधिक आकर्षण और गहनता आती है। इसमें कभी भी थकान नहीं आती है और यह हर किसी को उत्साह में रखता है। सांसारिक प्रेम सागर के जैसा है, परन्तु सागर की भी सीमा होती है। दिव्य प्रेम आकाश के जैसा है जिसकी कोई सीमा नहीं है। ईश्वरीय प्रेम सभी संबंधो से परे है और इसमें सभी संबंध सम्मिलित होते हैं। यशोधरा और बुद्ध को देखिए..स्वामी विवेकानंद को देखिए...महर्षि दयानंद सरस्वती को देखिए...निराला को देखिए...प्रसाद को देखिए..कवि गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर को देखिए..। आप रामकृष्ण परमहंस और माँ शारदा को देखिए...कितना अनूठा है यह.....प्रेम की पराकाष्ठा का अनुपम स्वरूप ।
भारत प्रेम एक किस्सा भर नहीं है.,..वह सृजन का अध्याय खोलता है । आधुनिक भारत में बेटी के जाने के बाद करसन भाई ने निरमा शुरू की । मेहरबाई टाटा ने अपना सबसे कीमती हीरा देकर टाटा समूह को उबार दिया...प्रेम का इससे उत्कट उदाहरण क्या रहेगा...। शिव और शक्ति से अधिक प्रेम का पर्याय कौन बन सकता है....जो सृष्टि के सर्जक हैं...वहीं वह दुष्टों का काल हैं । आज जब हम वेलेंटाइन के मोह में पड़े हैं तो हमें अपनी संस्कृति को...अपने इतिहास को फिर से पलटने की जरूरत है...प्रेम कैलाश में...गोकुल की गलियों में...वृन्दावन की माटी में भारत के कण - कण में विचर रहा है...भारत में प्रेम एक दिन की कामना का सुख नहीं, सृजन और कर्त्तव्य का शाश्वत मार्ग है...सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-61066520604886799912022-12-25T04:29:00.003-08:002022-12-25T04:29:44.615-08:00बात रंग पर नहीं, अश्लीलता पर कीजिए...खुद को देखिए, सुधरिए या रुदन बंद कीजिए
<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEidO1KN7-7qW64SwE5w_G8E5ibPcb0cL22vjAfzOT7FHgDEjhaJXk-N2kEYO682EDGGfiRvrTrKiWB2rZy541HAFObvaoB336Em-B4i74ofFHAHIA-fgW0dAC1njuftFgpTTvNeU-4wEA2sAVBXRwXRvqz_HF8lwC0S3CirelnAMNQqFeVvIjdraJjqTQ/s1536/%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%BE-%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%B0-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%AF%E0%A4%B9-%E0%A4%9F%E0%A4%9A-%E0%A4%AE%E0%A5%80-%E0%A4%A8%E0%A5%89%E0%A4%9F-%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82-1536x770.jpg" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; "><img alt="" border="0" width="600" data-original-height="770" data-original-width="1536" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEidO1KN7-7qW64SwE5w_G8E5ibPcb0cL22vjAfzOT7FHgDEjhaJXk-N2kEYO682EDGGfiRvrTrKiWB2rZy541HAFObvaoB336Em-B4i74ofFHAHIA-fgW0dAC1njuftFgpTTvNeU-4wEA2sAVBXRwXRvqz_HF8lwC0S3CirelnAMNQqFeVvIjdraJjqTQ/s600/%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%BE-%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%B0-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%AF%E0%A4%B9-%E0%A4%9F%E0%A4%9A-%E0%A4%AE%E0%A5%80-%E0%A4%A8%E0%A5%89%E0%A4%9F-%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82-1536x770.jpg"/></a></div>
बात रंग से अधिक अश्लीलता पर होनी चाहिए...बिकनी हिन्दी सिनेमा में कोई नयी बात नहीं है...दीपिका ने पहली बार नहीं पहनी...मैंने गाना थोड़ा सुना, अच्छा नहीं है, गीत और संगीत, दोनों खिचड़ी है...नरगिस से लेकर शर्मिला टैगोर और भी बहुतों ने पहनी है, मेरा नाम जोकर में सिमी ग्रेवाल को याद कीजिए
एक समय था जब दीपिका अच्छी लग रही थीं, उन्होंने पीकू, छपाक, चेन्नई एक्सप्रेस जैसी, फिल्म भी की है, शाहरुख खुद राजू बन गया जेंटलमैन वीर- जारा, स्वदेश , चक दे इंडिया जैसी अच्छी फ़िल्में कर चुके हैं
पठान में दोनों जैसे थके और खुद को, स्टारडम को बचाने की कोशिश कर रहे हैं, समय आ गया है कि दोनों को अपनी उम्र के अनुसार अपने किरदार चुनने चाहिए,स्मिता पाटिल तब्बू, काजोल, विद्या बालन और कंगना ये कर चुके हैं
शाहरुख को राजकुमार राव, फारुख शेख और संजीव कुमार से सीखना चाहिए
आप हमेशा युवा नहीं रह सकते....वैष्णो देवी जाना सिर्फ एक स्टंट था और ये विवाद भी स्टंट है
कहने का मतलब यह....फिल्म को फिल्म की तरह देखिए....पठान....अटेंशन की हकदार नहीं है
स्टंट्स से कॅरियर न तो बचता है और न चल पाता है....शाहरुख में मुझे राजेश खन्ना दिखने लगे हैं...नहीं सुधरे तो उनका अंत भी वैसा ही होगा,
मेरे लिए बिकनी और बिकनी का रंग कोई मुद्दा ही नहीं है, फिल्मांकन और संगीत का गिरता स्तर चिंता का विषय है, फिल्म पत्रकारों की स्टोरी का घटिया और गिरता स्तर, कैमरे का बदन दिखाऊ एंगल चिंता का विषय है....
आप उर्फी, राखी, सनी को पत्ता दे ही क्यों रहे हैं, कई बार खबर पढ़कर उल्टी करने को जी करता है, लोग अपनी कलम और कैमरे से ही आँखें सेंक रहे होते हैं....एक साथ विद्यापति, पद्माकर का श्रंगार रस और रति रस का आनंद लेते दिखते हैं
आप एक बार अपनी कलम को सही एंगल दीजिए, सारे एंगल सुधर जायेंगे क्योंकि ये जो होता है, पब्लिक के नाम पर ही होता है
ये कौन लोग हैं जिनके कारण सनी लियोनी और उर्फी ट्रेंड में अव्वल रहती हैं
आईना देखिए और खुद को देखिए , सुधर जाइए
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और नहीं कर सकते और दुर्दशा पर रुदन बंद करिए हैरत की बात है कि औरतों के कपड़ों को लेकर औरतों को दिक्कत है भी नहीं, वो बात सलीके से रख रही हैं मगर आपको क्या दिक्कत है कि धर्म, जाति, संस्कृति के झंडे लेकर फुटेज खाने को बेताब हैं, ये जो दीपिका के समर्थक भी हैं, वो क्या आपने घर की बहू- बेटियों को बगैर किसी शर्त के बाहर निकलने देते होंगे ...तो फिर घूंघट की शान में कसीदे कौन पढ़ता है....
बहनों, इनको अपना हितैषी समझने की भूल न करें
हमने कभी कहा कि आप नंगे दिखेंगे तो जिंदा जला देंगे, इधर- उधर हर जगह को शौचालय बनाया तो तेजाब डाल देंगे, तो ये हमारे मामले हैं, संभाल लेंगी, संस्कृति और देश भी आपसे बेहतर देख लेंगी, आप अपना चरित्र सम्भाल लीजिए...वही काफी है
ये बहुत जरूरी है कि स्त्रियां अपने मुद्दों पर हर किसी को राजनीति न करने दें
आप अपनी पान की पीक, जाति, धर्म के मठ सम्भालने पर ध्यान दीजिये ...बस आप हमारे अधिकारों पर, संपत्ति के अधिकारों पर, चयन के अधिकारों पर कुंडली मारकर बैठना बंद कर दीजिए, इतना ही काफी है
संस्कृति ,परिधान, हमारा हर मुद्दा, साड़ी, बिकनी खुद संभाल लेंगी
हम स्त्रियां इतनी तो सक्षम हैं
#wecanhandleसुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-36645259074019680952022-12-12T00:12:00.001-08:002022-12-12T00:12:28.596-08:00लड़कियों....प्यार के नाम पर सब कुछ कुर्बान मत करो...प्यार के आगे भी जिन्दगी है<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgbuBb4wGkx8NesOguW8YeoSlX4lGvqEh1Fdmu_Hl4kwxdQau4EGIn1YahMQtNraKFWNB2yE89Do2nZlFYXzwmeNw0m-rJRRDtkZT-Rvp1AryHWzzrUdEbBaD_LoAfNZ8MrfhStWjYPZm0qm17s2V4zix7Xs4XLwDT6XcOVLrpWgoeFCWteJVBrTvYuGw/s900/self%20love.jpg" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; "><img alt="" border="0" width="600" data-original-height="595" data-original-width="900" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgbuBb4wGkx8NesOguW8YeoSlX4lGvqEh1Fdmu_Hl4kwxdQau4EGIn1YahMQtNraKFWNB2yE89Do2nZlFYXzwmeNw0m-rJRRDtkZT-Rvp1AryHWzzrUdEbBaD_LoAfNZ8MrfhStWjYPZm0qm17s2V4zix7Xs4XLwDT6XcOVLrpWgoeFCWteJVBrTvYuGw/s600/self%20love.jpg"/></a></div>
लड़कियाँ..बड़ी भावुक होती हैं लड़कियाँ..अगर कोई इनसे पूछे कि जिन्दगी में क्या चाहिए तो अधिकतर लड़कियाँ कह देंगी कि सिर्फ प्यार चाहिए...सुकून चाहिए...कोई समझे...कोई ऐसा चाहिए..। जब प्यार करती हैं तो आगे - पीछे नहीं देखतीं...भरोसा करती हैं..हद से ज्यादा...इतना ज्यादा विश्वास करती हैं कि उनको एक पल के लिए भी अपने प्यार के लिए सब कुछ छोड़ने में हिचक नहीं होती...और उनको क्या मिलता है..उनको मारकर टुकड़ों में काटकर कभी फ्रिजर में रखा जाता है, कभी जंगलों में फेंक दिया जाता है और कभी बहा दिया जाता है । श्रद्धा ने भी तो यही चाहा होगा.. और उसे मिला क्या....?
क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है कि लड़कियाँ सिर्फ प्यार के पीछे क्यों भागती हैं....? जन्म से ही उनका जीवन मृगतृष्णा सा रहता है..जहाँ पैदा होने के बाद से ही पराया बना दिया जाना...अपने ही परिवार में अवांछितों की तरह जीना..हर कदम पर भेदभाव किया जाना...हर कदम पर रोक - टोक लगाना, पाबंदी लगाना...आपके समाज में लड़कियों की परवरिश के लिए प्यार शब्द रहा ही कहाँ हैं ? वह इसी प्यार की तलाश में रहती हैं और जब प्यार के नाम पर छल करने वाले मिलते हैं तो लड़कियों की मासूमियत और मजबूरी का फायदा उठाते हैं । आज की दुनिया में लड़कियों के आर्थिक अधिकारों की बात तो होती है मगर उनकी मानसिक जरूरतों पर बात करने की जहमत कोई नहीं उठाता .....लेकिन...जब आपके बारे में कोई बात न करे तो आपको अपने लिए आवाज उठानी होगी..। लड़कियों खुद से प्यार करना सीखो...और अपनी जड़ों को किसी के लिए मत छोड़ो, प्यार से आगे खुद को रखना जरूरी है...।
किसी से भी इतना प्यार मत करो कि उसके लिए खुद को इतना बदल दो कि अपनी सूरत भी पहचानी नहीं जा सके । किसी को भी इतना मत चाहो कि अपना घर, अपने अधिकार...सब कुछ छोड़कर चल दो...और जो तुम्हारा है..वह किसी और के हिस्से चला जाए..जो भविष्य तुमने देखा नहीं..उस भविष्य के लिए वर्तमान की जमीन छोड़ना प्रेम नहीं है...जब फैसला लेना मुश्किल होने लगे तो खुद को दूर करो...प्रेम से...आकर्षण से..जरूरत पड़े तो परिवार से...मगर खुद से दूरी मत बनाओ...अपने काम से दूरी मत बनाओ, अपने लक्ष्य से दूरी मत बनाओ क्योंकि प्रेम नहीं...तुम्हारे जीवन का उद्देश्य, तुम्हारा लक्ष्य..तुम्हारा व्यक्तित्व ही तुम्हारा वर्तमान भी बनाएंगे और भविष्य भी । एक दूसरे का सहारा बनो..अगर अपनी तरह किसी को टूटता देखो....झट से जाकर उसका हाथ कसकर पकड़ लो... । प्रेम इतनी बड़ी चीज भी नहीं है कि उसके बगैर जीवन जीया ही न जा सके...और प्रेम करना ही है तो सबसे पहले खुद से प्रेम करो...और खुद से प्रेम करने का मतलब अपने आत्मसम्मान की रक्षा करना होता है । हमें बचपन से ही यह सिखाया गया है कि खुद से प्रेम करना स्वार्थ है, खुदगर्जी है..मगर खुद से प्रेम करने का मतलब यह नहीं है कि दूसरों से प्रेम करना छोड़ दिया जाए बल्कि सत्य तो यह है कि जब हम अपनी इज्जत करना सीखते हैं तो हम दूसरों की इज्जत करना सीखते हैं, अपने प्रति गम्भीर होते हैं तो दूसरों के प्रति भी गम्भीर होते हैं । श्रद्धा ने विश्वास करने की कीमत चुकाई.........यह उसकी गलती नहीं थी..विश्वास करने वाला दोषी नहीं होता मगर विश्वास के लिए अपना सब कुछ छोड़कर चल देना..यह सही नहीं हुआ क्योंकि भावकुता में जड़ों से कटना, अधिकार छोड़ना...यह सही नहीं था...।
क्या दूर रहकर प्यार नहीं निभाया जा सकता? जो प्यार इस बात पर टिकने की माँग करे कि उसके लिए सब कुछ छोड़ देना चाहिए...उस प्यार को ही छोड़ देना सबसे सही निर्णय है । जो प्यार आपको, आपके व्यक्तित्व को पूरी तरह बदल देना चाहे...वह और कुछ भी हो..प्यार हो ही नहीं सकता । आपकी पहली प्राथमिकता आप खुद हों, यह जरूरी है ।
यह समझना मुश्किल है कि आफताब जैसे लड़कों के दिमाग में इतना जहर कहाँ से आ रहा है । 72 हूरों को पाने ख्वाहिश में जल्लाद बनने वालों, जन्नत की हूरें भी वहशियों से प्यार नहीं करतीं बल्कि उसे ठोकर मारती हैं....प्यार पाने के लिए सबसे पहले एक अच्छा इन्सान बनना जरूरी है । अपनी सनक में...प्यार के नाम पर शिकार करने निकले शिकारियों ने खुद अपना ही शिकार कर डाला है...एक तुम्हारी वजह से न जाने कितने लड़कों के ब्रेकअप होंगे.. तुम जैसों के कारण तुम्हारा परिवार, तुम्हारे नाते - रिश्तेदार सब दुनिया भर की नफरत हमेशा के लिए सहेंगे...तुम खुद कैद में हो...जब यह सनक छूटेगी...तब तुमको पता चलेगा कि तुम कितने गहरे अन्धेरे में डूब चुके हो । यह जरूरी है कि अभिभावक अपने बच्चों को खासकर लड़कों पर भी ध्यान दें...उनको इनको इन्सान ही रहने दीजिए,,अपने स्टेटस, जाति, धर्म, मजहब की आरी से उनकी मासूमियत को मत मारिए...जो बच्चे इस तरह के नृशंस कांड कर रहे हैं, उनकी बुनियाद एक दिन में तो पड़ी नहीं होगी...आस - पास का माहौल देखा होगा उसने,,,वह क्या देख रहे हैं...इस पर आपकी नजर भी रहनी चाहिए ।
प्रेम ही नहीं, किसी भी सम्बन्ध में मर्यादा का होना जरूरी है...जब भी मर्यादा टूटी है, विध्वंस ही हुआ है । हमारी दिक्कत है कि हम मानवीय मूल्यों की बात करते हैं मगर सम्मान तो पैकेज वालों को ही मिलता है..तो आपने आदर्श ही गलत रखे तो परिणाम अच्छे कैसे निकलेंगे? हमेशा ही लड़कों को सिखाया जाता रहा है कि उनको जो पाना है, हर हाल में पाना है चाहे इसके लिए उनको किसी भी हद तक गिरना पड़े, आपने उनके लिए लड़कियों को ऑब्जेक्ट की तरह रखा, उनको बताया कि लड़कियाँ उनकी सम्पत्ति हैं और वह किसी भी तरह उनको ट्रीट कर सकते है...साम, दाम, दंड..भेद...अपहरण...लड़कियाँ आपके लिए शर्त हैं...जिनको जीतना जरूरी है...इस देश में बहुत जरूरी है कि लड़के और लड़कियों की काउंसिलिंग बचपन से एक इंसान की तरह की जाए । अपने घरों में देखिए कि आप अपने घर की औरतों से कैसा व्यवहार कर रहे हैं क्योंकि बच्चों के लिए सबसे बड़ा रोल मॉडल आप हैं...आपके घर का बच्चा आपकी ही छाय़ा बनने जा रहा है ।
अब बारी है दोस्तों की....जो काम माता - पिता नहीं कर सकते...वह काम दोस्त कर सकते हैं..मैं बार - बार कहती हूँ और फिर दोहरा रही हूँ कि इस देश को, समाज को, विश्व को कोई बचा सकता है तो वह किताबें हैं, संस्कृति हैं,,,,और देश का युवा समाज है...आपको उठकर खड़ा होना होगा कि आपका कोई दोस्त आफताब न बने...यह आप ही हैं जो अपने भटके हुए दोस्त को सही रास्ते पर ला सकते हैं...सही समय पर उसके मन को पढ़ सकते हैं, उसका अकेलापन दूर कर सकते हैं...उसकी सृजनात्मक गतिविधियों को जगा सकते हैं...उसे मनुष्य बना सकते हैं..यह आपको करना ही होगा क्योंकि आने वाला कल आपका है, आने वाली दुनिया आपकी है..समूह बनाइए...मोहल्ले में...क्लब में...किसी भी तरीके से सृजनात्मक गतिविधियों को आगे बढ़ाइए...मौका मिले तो मिलकर किसी विशेषज्ञ को, डॉक्टर को, काउंसिलर को साथ लेकर चर्चा करिए...करवाइए...अगर कोई दीवार है तो उसे गिराइए ....उसे यथार्थ के धरातल पर लाकर सही लक्ष्य दीजिए और यह तब होगा कि जब आप खुद सही राह पर चलेंगे तो शुरुआत खुद से आज से और अभी से कर दीजिए ।
सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-30061509270832935492022-10-18T06:43:00.004-07:002022-10-18T06:52:16.654-07:00 बात तो उठेगी..क्योंकि बोलना जरूरी है<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiPd7cgBeYoQpOGd41yJF48Ols6Vu9ENMSmqcHIiYclbLCDLuKBx0l82Vbx6NeLK5RzrYFfB79bNCNd8T35TNAWSV0p6Ix6sf8bWD3xchkukUMwvburW1gicEAtL0DOCZnAUt8bHNWzfvlBm-6Rl6pwJVQCILVMfnw42JCXR518tSrkdOswYv-MuSA47g/s538/dsc_0068.jpg" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; "><img alt="" border="0" width="600" data-original-height="370" data-original-width="538" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiPd7cgBeYoQpOGd41yJF48Ols6Vu9ENMSmqcHIiYclbLCDLuKBx0l82Vbx6NeLK5RzrYFfB79bNCNd8T35TNAWSV0p6Ix6sf8bWD3xchkukUMwvburW1gicEAtL0DOCZnAUt8bHNWzfvlBm-6Rl6pwJVQCILVMfnw42JCXR518tSrkdOswYv-MuSA47g/s600/dsc_0068.jpg"/></a></div>
जब भी कोई महिला उत्पीड़न की बात होती है तो घर की शांति के नाम पर चुप्पी, मौन और खामोशी जैसे शब्द साथ लिए जाते हैं। मुखर स्त्रियाँ कभी भी पसन्द नहीं की गयीं। अपनी मर्यादा और आत्म सम्मान को दाँव पर लगाकर जिन्दगी गुजार देने वाली और एक दिन मर जाने वाली स्त्रियों का गुणगान बहुत होता है। यदि कोई स्त्री बोलती है तो उसे पहले ही दरकिनार कर दिया जाता है और कई बार स्त्री के विरोध और विद्रोह को दबाकर ऐसी कहानी बना दी जाती है कि उस स्त्री का विद्रोह दिखता ही नहीं है। आजकल एक मुहिम सी चल पड़ी है उत्पीड़न को दबाने की और इस माइंड वॉश में कवि और लेखक खुलकर सामने आ रहे हैं। कुमार विश्वास और मनोज मुन्तशिर, दो ऐसे दिग्गज नाम हैं जो इस मामले में खुलकर अपनी लोकप्रियता का इस्तेमाल भी कर रहे हैं। यही समाज है कि जिसने मुखर द्रोपदी को देवी तो कहा मगर हाशिए पर रखा। सीता के मौन आर्तनाद को श्रीराम के गुणगान से ढक दिया गया। अच्छा है जहाँ आपके प्रभु का गुणगान हो, वह भाग सत्य है और जहाँ उन पर निष्पक्षता से बात की जाए, वह आपको जोड़ा हुआ लगता है।
आप सीता वनवास के स्थलों, ऋषि वाल्मिकी के आश्रम, लव - कुश के जन्मस्थल, ऐसे सभी प्रमाणों को खारिज कर देते हैं और खुद बाल्मीकि रामायण को भी खारिज करने से आपको परहेज नहीं है। ऐसा क्यों होता है कि जब कोई स्त्री अपनी बात रखती है तो वह आपको रास नहीं आता। पहली बात तो यह है कि कोई भी अपनी इच्छा से अपने दिमाग को परेशान करने वाले काम नहीं करना चाहता । जब सोशल मीडिया नहीं था...तब स्थिति और भी भयावह थी। कोई उसकी बात का विश्वास ही नहीं करना चाहता था कि वह उत्पीड़न की शिकार है और पूरा परिवार न सिर्फ इसमें शामिल है बल्कि लोग उसे कटते हुए देख रहे हैं। संवेदनहीन सत्य यह है कि जब कोई स्त्री उत्पीड़न का शिकार होती है तो आपको यह नहीं दिखता कि वह कितनी परेशान है, कितनी प्रताड़ित है, आप यह देख रहे हैं कि घर की बात बाहर आ रही है...अगर घर सच में घर की तरह होता तो इसकी जरूरत ही नहीं पड़ती..हर एक स्त्री या किसी भी व्यक्ति के पास पुलिस और वकील के पास जाने की सुविधा नहीं है। उसके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह महंगे वकीलों का खर्च उठाए..ऐसे में अगर वह सामाजिक पटल पर यानी सोशल मीडिया पर बात रखती है तो वह आपको इतना अखरता क्यों है?
क्या इसलिए कि उसमें आपको अपना चेहरा दिखने लगता है...अगर बात सामने नहीं आती तो शायद आप कहते कि कम से कम एक बार बताया तो होता...फिर मानसिक स्वास्थ्य को लेकर लम्बे - लम्बे पोस्ट लिखे जाते...चिन्ता जाहिर की जाती और कहीं वह जिन्दगी से हार जाता तो लम्बे - लम्बे संस्मरण लिखने वालों की कतार लग जाती। तमाशा सबको देखना अच्छा लगता है मगर मदद का हाथ बढ़ाना...और पूरी बात को जानकर स्थिति को सुधारना आपकी प्राथमिकता तो कतई नहीं है। आप उस पोस्ट को छुपाकर आगे बढ़ जाते हैं क्योंकि उसने आपकी चाय का स्वाद कड़वा कर दिया है।
क्या ही अच्छा होता कि लोग पोस्ट पढ़कर यह कहने की बजाय....कि क्या लिख दिया...यह कहते...अच्छा रुको....मैं कुछ करता या करती हूँ। अपनी चाय के स्वाद के बारे में सोचने से पहले उस मनःस्थिति के बारे में सोच लेते तो अच्छा होता न। लेखन का प्रभाव तब होता है जब प्रतिक्रिया हो...समस्या का समाधान निकले। सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद बवाल मचाने से ज्यादा बेहतर होता कि उनके जीवित रहते उन लोगों को पकड़ा जाता जो उनको परेशान कर रहे थे। दुनिया गजब है लोग धक्का मारते इंसान का वीडियो बनाते हैं.....धक्का खाने वाले को बचाने नहीं जाते और कहते हैं कि जमाना खराब है। अगर आप किसी की अभिव्यक्ति को सम्मान नहीं दे सकते...उसकी समस्या को समझ नहीं सकते..उसके साथ खड़े नहीं हो सकते तो आपको उसकी बात पर नकारात्मक प्रतिक्रिया देने का भी अधिकार नहीं है। यह अच्छा है कि किसी को चोट लगी हो...कोई टूट रहा हो तो वह इसलिए न बोले कि आपकी अभिजात्यतता की सफेद चादर मैली हो जाएगी। अगर परिवार तमाशाइयों का कुनबा है तो ऐसे परिवार को दूर से नमस्कार है मगर बात तो उठेगी और बोली भी जाएगी क्यों कि वह किसी का मिजाज देखकर नहीं की जाएगी...वह बोली जाएगी क्योंकि बोलना जरूरी है। वैसे भी अपने जीवन में तमाशा देखने वालों की जरूरत नहीं हमें....अगर आप मर्यादा, शालीनता, परिवार...सम्बन्ध की दुहाई देकर ज्ञान परोसना चाहते हैं तो.....जस्ट लीव।सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-27477039502181699262022-10-13T04:24:00.001-07:002022-10-14T02:38:30.494-07:00वह उपेक्षित, प्रताड़ित स्त्री....मेरी माँ है<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCCtGub69Iy-HgMwik1B9o3upS2S_L_XQvjRsoQI0f5UBXL3E6uyxFcbg8dPKveCliPci2UNcg-A5fUNs07-5zGAK9n9fBTx1FnGKQGUPONSTY1lMvGuQ-c2mjv7ewel3AGm6vXGzx8hgMBtWYRR9X9bZZmb1U3sS-1w1z_PNLc50Hm93-FW_paOoBIA/s2048/MAA.jpg" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; clear: left; float: left;"><img alt="" border="0" height="600" data-original-height="2048" data-original-width="1536" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCCtGub69Iy-HgMwik1B9o3upS2S_L_XQvjRsoQI0f5UBXL3E6uyxFcbg8dPKveCliPci2UNcg-A5fUNs07-5zGAK9n9fBTx1FnGKQGUPONSTY1lMvGuQ-c2mjv7ewel3AGm6vXGzx8hgMBtWYRR9X9bZZmb1U3sS-1w1z_PNLc50Hm93-FW_paOoBIA/s600/MAA.jpg"/></a></div>
मन....मनोविज्ञान...मानसिक स्वास्थ्य और स्त्री का मन...हलचल मचा रहे हैं मन में। मन को कौन समझ पाया है भला...और स्त्री के मन को समझने की कोशिश भी कौन करता है। स्त्री माने मातृशक्ति.....स्त्रीत्व अपने आप में एक पूरा शब्द है और मातृत्व इसका एक रूप मगर इस एक रूप ने स्त्री के समूचे अस्तित्व को ढक दिया है। स्त्री माँ है मगर सिर्फ माँ ही नहीं है..जाहिर है कि जब समाज उस पर यह दायित्व थोपता है तो उसके मन में ममता की जगह द्वेष लेने लगता है। आज मैं स्त्री के मन को समझने की कोशिश कर रही हूँ। कोई भी चीज पूरी तरह श्वेत या पूरी तरह श्याम नहीं हो सकती, वह धूसर भी हो सकती है। हमारे समाज में पितृसत्तात्मक सोच ने स्त्री को इतना असुरक्षित किया...कि वह अपनी करुणा, अपनी ममता...अपना स्त्रीत्व सब खो बैठी...जब उस पर किसी और के दायित्व थोपे गये तो उसके मन में जो विद्रोह हुआ...उसने ही द्वेष का रूप ले लिया और पता है उस द्वेष का बोझ उस दूसरी स्त्री के निरपराध बच्चे उठाते हैं..............आजीवन....जो जिन्दगी भर समझ ही नहीं पाते कि आखिर उनसे ऐसा क्या अपराध हुआ कि वह जिसे माँ कहते आ रहे हैं, वह उनसे प्यार ही नहीं करती...आखिर क्यों उसके अधिकार...उसकी खुशियाँ नोंचकर किसी और को दे दी जाती हैं..मन तब शांत होता है जब वह यह मान लेते हैं कि माँ का या पिता का प्रेम उनके लिए नहीं है...मगर जब पता चले कि वह जिसे माँ समझता आ रहा है...उसके लिए वह सामाजिक बन्धन है और एक थोपा गया कर्त्तव्य या लोगों के शब्दों में कहूँ तो वह किसी परिवार का हिस्सा नहीं बल्कि किसी के टुकड़ों पर पलने वाला व्यक्ति है...तो क्या आप इस स्थिति को स्वीकार कर सकेंगे ?
मातृत्व का महत्व हमारे शास्त्रों में, इतिहास में, साहित्य में हर जगह वर्णित है। माँ को देवी माना गया है........ नहीं...माँ को देवी मत कहिए...वह एक स्त्री है और उसे मनुष्य ही रहने देना चाहिए। आज मैं बीच में खड़ी हूँ और एक उलझे हुए सम्बन्धों की परिणति देख रही हूँ क्योंकि सबके तार मुझसे जुड़ रहे हैं। क्या यह अच्छा नहीं होता है कि किसी सम्बन्ध को सहने और ढोने की जगह उसे बैठाकर स्पष्ट रूप से बताया जाता कि वह जहाँ है, वह परिवार उसका नहीं है...हाँ...कष्ट होता...अवश्य होता पर षडयंत्र रचने से तो यह बेहतर ही समाधान होता। एक स्त्री से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वह अपनी सौत की बेटी से उतना ही प्रेम करेगी....जो दूरी है...वह रहेगी मगर इतना स्वीकार करने की हिम्मत तो होनी चाहिए कि उस संतान का सम्बन्ध उसके पति से है और उसकी विरासत पर अधिकार भी उतना ही है। मगर...नहीं...अपनी संतान का मोह किसी स्त्री को कैकयी...गांधारी औऱ तिष्यरक्षिता बना सकता है और पुरुष को धृतराष्ट्र। सब मन की बात है..मन के उलझन की बात है...कौन सा मानसिक स्वास्थ्य......?
मैं तमाम चीजों को जोड़कर भी इस स्थिति को न्यायोचित नहीं ठहरा पा रही हूँ कि अपनी संतान न होने भर से या संतान के हितों के नाम (अथवा अपने भविष्य की सोचकर) पर किसी स्त्री को या किसी पुरुष को अराजक, हिंसक, अहंकारी और षडयंत्री बनने की छूट दी जा सकती है। एक प्रश्न यह भी आता है कि माँ के रूप में क्या हर उस स्त्री को सम्मान दिया जाए जो ममता और संतान की सुरक्षा और उसके हितों के नाम पर किसी और के अधिकार दबाने लगे? मेरा प्रश्न थोड़ा अटपटा लग सकता है मगर मातृ - पितृ - गुरु पूजन के बीच क्या उनकी बुराइयों, अपराधियों और गलतियों से भी प्रेम किया जाना चाहिए या उसे आदर्श माना जाए? मेरी दृष्टि में इसका उत्तर 'न' में है। संतान के हितों की सुरक्षा के नाम पर किसी भी माँ की क्रूरता..अन्याय, भेदभाव और पक्षपात का किसी भी दृष्टि से समर्थन नहीं किया जा सकता।
इसी तरह परिवार की भलाई के नाम पर अगर आप किसी के अधिकार दबाकर बैठ जाते हैं तो वह मेरी दृष्टि में अपराध ही है। आज की बतकही एक उपेक्षित, प्रताड़ित और अभिशप्त माँ को उनका अधिकार और सम्मान दिलवाने का प्रयास है और मैं बस एक माध्यम हूँ क्यों लग तो ऐसा रहा है जैसे कलम मैं नहीं ईश्वर ही चलवा रहे हैं। आज की यह पोस्ट उन लोगों के लिए भी है जो यह कहते हैं कि पिता और भाइयों के रहते हुए किसी लड़की यानी बहन को सम्पत्ति की जरूरत क्या है या उसका सम्पत्ति में हिस्सा माँगना सम्बन्धों को तार - तार कर देना है। आज उस जरूरत पर भी बात करूँगी और केस स्टडी मेरी अपनी जिन्दगी होगी, उसके अनुभव होंगे। यह सम्पत्ति ही है जिसके दम पर कोई व्यक्ति खुद किसी का मालिक समझकर उसके साथ नौकरों से भी बदतर व्यवहार करता है। एक परम्परा सी बन गयी है कि घर का बड़ा व्यक्ति ही सारे फैसले करता है, अपनी मर्जी से करता है और माइंड गेम खेलकर उसके लिए सहमति ले भी लेता है।
तब ऐसी ही गांधारियाँ अपनी बेटियों के खिलाफ अपने बेटों के अत्याचार में पूरी भागीदार बनती हैं और अपनी मर्जी से बनती हैं। औरतें भी अपना फायदा देखती हैं। आज जो कह रही हूँ, वह कहना इसलिए भी जरूरी है कि इस कुचक्र को रोकना और खत्म करना जरूरी है क्योंकि संयुक्त परिवारों में इस तरह का व्यवहार, बर्ताव सामान्य मान लिया गया है और अगर अपराध सामान्य होने लगें तो धरती पर लड़कियों का जीना दूभर हो जाएगा। पिता के बाद उसका बेटा यानी घर में कोई लड़की हो भी तो उसे अपने भतीजों के अधीन ही रहने और रखने की प्रवृत्ति और ऐसी सोच आज की स्थिति के अनुरूप नहीं है।
ममता जब मोह में बदलकर संतान हित की आड़ में छीनने की प्रवृत्ति बन जाती है तो वह मानसिक विकृत्ति को जन्म देती है मगर जहाँ तक मैंने पढ़ा है और समझा है...ममता करुणा, दया, प्रेम का उदात्त रूप है जो किसी का अहित कर ही नहीं सकती। यही दया हमें अपनी देवियों में दिखायी पड़ती है और जिस प्रकार माँ दुर्गा आवश्यकता पड़ने पर दुष्टों को दंड देती हैं, उसी प्रकार संसार में जब भी अनाचार और अत्याचार बढ़ता है तो ईश्वर किसी न किसी को चुनकर उसे माध्यम बनाते हैं कि वह मन पर पड़ी धूल को हटाकर सच दिखाए और वह जरूरी नहीं कि आपसे बड़ा ही हो। वह कोई भी हो सकता है, आपके आस - पास। साहित्य भी तो यही करता है और मातृत्व भी इसी राह पर चलकर देवत्व को धारण कर लेता है।
कोई आपको जन्म दे, इसका अर्थ यह नहीं कि आप उसकी गलतियों को भी नजरअंदाज करने को अपना कर्त्तव्य मान लें। कहीं न कहीं एक सीमा रेखा खींचनी पड़ती है और जरूरत पड़ने पर कठोर और निर्मम भी बनना पड़ता है। सबसे अधिक कष्ट तब होता है जब बार - बार बताने पर भी कोई अपनी गलती स्वीकार न करे और उसे पारिवारिक हितों के नाम पर न्यायोचित ठहराने लगे। अपने लालच, अहंकार, अत्याचार का दम्भ करे और खुद को मनुष्य नहीं बल्कि कुछ और समझने लगे। उससे भी बुरा तब होता है जब एक स्त्री अपनी समस्त करुणा और विवेक शक्ति की तिलांजलि देकर अपने पक्षपात को सही ठहराने लगती है और अधर्मियों की रक्षा करने लगती है, तब प्रहार करना जरूरी हो जाता है।
दरअसल, यशोदा और गांधारी इस दृष्टिकोण से मेरे सामने आती हैं और दोनों एक दूसरे से काफी अलग हैं। यशोदा वह हैं जिन्होंने कृष्ण को जन्म नहीं दिया मगर अपनी ममता से सींचा और श्रेष्ठ बनाया तो दूसरी तरफ गांधारी वह हैं जिन्होंने अपनी पुत्रवधू का चीरहरण करवाने वाले पुत्र की रक्षा के लिए भी शिवभक्ति को ढाल बनाया। अगर गांधारियों को रोका न गया तो संसार की कोई स्त्री सुरक्षित नहीं रहेगी। ममता के नाम पर हम अनाचार को स्वीकृति देते रहे तो इस सृष्टि का क्या होगा और आगे चलकर यह कौन सा विकृत रूप धारण करेगी इसलिए जरूरी है कि समय रहते ऐसी मनोवृत्तियों पर लगाम लगायी जाए। अगर भाइयों द्वारा बहनों के अपमान और उनके अत्याचार को हम स्वीकार करने लगे तो कभी भी संसार में संतुलन नहीं आएगा। यह बताना जरूरी है कि उनकी सीमा क्या है और आज यही करने की जरूरत है।
लड़कियों को समझना होगा कि हर एक भाई उसका रक्षक नहीं होता और न ही वह सारी उम्र उसे यह उम्मीद रखनी चाहिए। लड़का हो या लड़की हो, सबको अपने जीवन का युद्ध खुद लड़ना होता है। दोनों को समझना होगा कि न तो वे किसी के भाग्यविधाता हैं और न ही कोई उनका भाग्य विधाता हो सकता है। संयुक्त परिवार को बचाना है तो घर के निर्णयों में छोटे - बड़े सभी की राय लेना और उनको शामिल करना एक दायित्व है....आप मनमानी नहीं कर सकते।
चलिए, आज शुरुआत एक कहानी से करती हूँ। कहानी पूर्वांचल के एक गाँव की है जहाँ लड़की का जन्म लेना ही अभिशाप माना जाता रहा है। कहानी 40 -50 साल पहले की है जहाँ एक लड़की ने जन्म लिया...कहते हैं कि उसका मानसिक सन्तुलन ठीक नहीं था मगर क्यों ठीक नहीं था..किसी को नहीं पता। क्या कोई जन्म से ही पागल होता है या परिस्थितियाँ उसे बना देती हैं? मुझे नहीं पता लेकिन बात तो सोचने वाली है कि ऐसा क्या हुआ होगा कि उस लड़की ने मानसिक सन्तुलन खोया होगा और अगर खोया होगा तो उसका उपचार करवाने की कोशिश क्यों नहीं की गयी। खैर...आगे बढ़ते हैं निश्चित रूप से एक तो लड़की और ऊपर से पागल...कौन विवाह करेगा..लड़की के मायके वाले भी उस बोझ से पीछा छुड़ाना चाहते हैं। यह भी तय है कि वह लड़की बड़ी हुई होगी ताने और गालियों का प्रसाद लेकर, उसके मन में भी यह इच्छा रही होगी कि वह किसी भी तरह इस घर से मुक्ति पा सके। निश्चित रूप से ऐसी स्थिति में जब उसका विवाह करवाया गया तो वह उसके लिए मुक्ति का द्वार रहा होगा मगर उसका विवाह धोखे से करवाया जाता है क्योंकि पागल लड़की से कौन शादी करेगा?
बहरहाल, लड़की का विवाह होता है और वह ससुराल आ जाती है। यह उसका दोष नहीं है कि उसका मानसिक सन्तुलन सही नहीं है, यह उसके घर वालों की गलती है जिन्होंने उसका विवाह करके पल्ला छुड़ा लिया और उसके बाद वे उसे देखना भी नहीं चाहते मगर सच तो सच है, सामने आता है। जिस घर में आती है, वहाँ पैसा है मगर धन - सम्पत्ति को लेकर होने वाला विवाद भी है। ससुराल में आकर भी इस लड़की को शांति नहीं मिली। स्त्री मानो वस्तु है या बाजार का उत्पाद, डिफेक्टेड निकला और उसका विकल्प खोज लिया गया
प्रताड़नाओं का दौर जारी रहा और उस बिचारी के भाग्य में सन्तान का सुख भी नहीं था कि वह पति को बाँध पाती। अब पति तो पति है, खानदान तो खानदान है, उसे तो ऐसी स्त्री चाहिए जो कुल को दीपक दे सके। तो यह उन दिनों सामान्य बात थी कि पति दूसरा विवाह करते। स्त्री के बारे में कौन सोचता है कि जन्म से दुःख सहती और झेलती आ रही स्त्री के भाग्य में ईश्वर सुख का एक टुकड़ा लिखना भी भूल गया। वह पहली पत्नी थी और हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार कानूनन हर चीज पर उसका हक भी था मगर स्त्री तक कानून की किताबों का लाभ कहाँ तक पहुँच पाता, खासकर तब जब वह निरक्षऱ हो।
लड़की कटी, टूटी, तड़पी, कैसे रही,,कोई नहीं जानता, किसी को फर्क भी नहीं पड़ता क्योकि खानदान को चिराग चाहिए...लड़का चाहे जैसा भी हो.. तो पहली पत्नी के होते हुए पति की दूसरी शादी हुई। यह नयी लड़की एक 16 साल की लड़की थी जिसका दिमाग भी सही था, बुद्धि भी बहुत थी और तेज मिजाज भी था...सुन्दर तो थी ही..इतने सारे गुण रहते हुए भी इसने अपनी उम्र से दुगने पुरुष के साथ गृहस्थी बसाने का निर्णय पिता के लिए लिया...फिर वही, नहीं उसके लिए निर्णय ले लिया गया। अब जाहिर सी बात है कि कौन स्त्री है जो अपनी सौत को बर्दाश्त करेगी और जब दूसरी पत्नी ऐसी हो तो पहली पत्नी को कौन पूछता है और कौन सा कानून उसके अधिकारों की रक्षा करता है। कानूनन तो पति महोदय को जेल होनी चाहिए थी। स्त्री के प्रति यह असुरक्षा का ठौर है।
सौत का दिमाग खराब रहता था इसलिए घर की जिम्मेदारी और कमान दूसरी पत्नी के हाथ में आ गयी। कहीं न कहीं वर्चस्व की चाह थी और इसमें बाधा थी वह पहली पत्नी.. कई लांछन, कई दोषारोपण...जिसको अपनी सुध नहीं...वह अपने घर की सुध ले भी तो कैसे...उसे कैसे समझ आता कि उसके साथ क्या हो रहा है और क्या होने जा रहा है....जितना सोच रही हूँ...उतनी ही भीगती जा रही हूँ...दुःख से...पीड़ा से...पश्चाताप से....दुःख असहनीय है।
दूसरी पत्नी हमेशा असुरक्षा में जीती कि कहीं पहली पत्नी स्वस्थ हो गयी और उसकी जगह दोबारा उसने ले ली तो...? पति को लेकर दूसरी पत्नी पहली पत्नी पर हावी रहने लगी। पहली पत्नी की प्रताड़ना, मार - पीट, शारीरिक हिंसा और तेज हो गयी। आज अपने बच्चों को बड़ों की इज्जत करने वाली उस दूसरी पत्नी को ध्यान भी नहीं आता कि वह जिसको कचरे के पास रहने को विवश कर रही है, वह जिसे मुट्ठी भर भात भी मजदूरों की तरह खटवाकर देती है, वह जिसकी नजर वह अपने बच्चों पर पड़ने भी नहीं देना चाहती थी, वह उम्र में उससे बड़ी थी और सही मायनों में घर उसी का था। संयुक्त परिवार की अपनी परेशानियाँ होती हैं, तो स्वार्थ भी होते हैं....इस लंबे - चौड़े परिवार में उससे काम करवाने वाले बहुत थे मगर प्यार के दो बोल बोलने वाला कोई नहीं था...उसका ख्याल रखने वाला कोई नहीं था।
इस बीच दूसरी पत्नी 5 बच्चों की माँ बन चुकी थी। सन्तानें तो उसकी 6 थीं मगर छठीं सन्तान को उसने कभी अपना समझा ही नहीं इसलिए हम उसकी संख्या 5 ही गिनेंगे। समय बीता...संघर्ष भरे दिनों के बीच पति गुजरे। दूसरी पत्नी अब अपनी सौत के साथ थी,,,घर में बहू आ गयी मगर ईश्वर को शायद मानसिक सन्तुलन खो चुकी महिला पर दया आ गयी और वह ऊपर बुला ली गयी। कितना विचित्र है..इतने बड़े खानदान में सिर्फ बँटवारे की सुगमता के लिए इतना बड़ा अन्याय स्वीकार कर लिया जाता है और आज भी सब खामोश हैं।
यह कहानी किसी और की नहीं मेरे ही घर - परिवार की है और वह छठीं..अछूत कन्या मैं ही हूँ। मुझे भय है कि इसी तरह माँ को यह लोग खारिज करते रहे तो शायद अगली पीढ़ी और उसके बाद की पीढ़ी कभी जान ही नहीं पायेगी कि इस घर वास्तविक बड़ी बहू और बड़ी दादी कौन थीं। एक स्त्री को उसके अधिकार से वंचित कर प्रताड़ित कर उसकी जगह हथिया लेना, अपनी संतानों के माध्यम से और अपनी बहू - बेटियों के माध्यम से सब कुछ छीन लेना अब तक फिल्मों में देखा था मगर अब जब समझ में आ रहा है तो लग रहा है कि अब तक क्या होता आया है।
ऐसी दिखती थीं वह - गोरी थीं...लोग पागल कहते थे....बउराहिन कहा जाता था उनको...चौकोर चेहरा, उन्नत ललाट, सामने के दाँत सोने के थे। हाथ में गोदना था...जिसे वह दिखाती थीं..हँसती थीं तो बहुत अच्छी लगतीं मगर सफाई नहीं थी...इसलिए हर कोई दूर रहता था। इतनी गोरी थीं कि लगातार नहीं नहाने पर भी उनका रंग साफ ही रहता और जब नहला दी जातीं तो दमकने लगता था। बहुत मारा जाता था, कभी लगा नहीं कि घर की मालकिन वास्तव में वह हैं...कभी ऐसा लगने नहीं दिया गया..दिमाग वालों ने उनसे सब कुछ छीन लिया। सबके छोड़े हुए कपड़े....मुट्ठी भर भात और मार...यही तकदीर रही। उनसे सेवा करवाई जाती.....ईश्वर अबकी उनको ऐसा जीवन मत देना...बहुत अन्याय किये हैं तुमने....घर के छोटे - बड़े...सबके लिए उपहास की, परिहास की, तानों की. पात्र रहीं....। तब समझ में नहीं आता था मगर आज मुड़कर देखती हूँ तो लगता है कि यह घर हमेशा से नर्क ही था...नर्क ही है.....घृणा हो रही है...नहीं...घिन्न आ रही है ऐसे जानवरों से... समय किसने देखा है...कौन जानता है कि किसके साथ क्या हो...
आज हम मानसिक स्वास्थ्य की बातें कर रहे हैं और उनका चेहरा सामने से हट ही नहीं रहा है। काकी यानी माँ को इस घर में, इस दुनिया में सम्मान दिलाना ही मेरा उद्देश्य है और साथ ही ऐसी मिसाल छोड़ना कि फिर कोई भाई अपने अहंकार के मद में इस तरह के कुचक्र रचने से पहले हजार बार सोचे। कोई महिला अपनी बेटियों को अधिकारों से वंचित करने से पहले याद कर ले कि उसके साथ भविष्य में क्या हो सकता है। लिखते हुए बार - बार ऐसा लग रहा है कि जैसे माँ सरस्वती ही मुझसे यह लिखवा रही हैं और मेरी कलम माँ दुर्गा का त्रिशूल बन गयी है।
वह पहली पत्नी मेरे पिता की पहली पत्नी और अब तो लगता है कि शायद मेरी माँ हैं और वह दूसरी पत्नी इस घर की भूतपूर्व मालकिन है क्योंकि उनकी जगह अब उन्होंने अपनी बहुओं को सौंप दी है। यह विरासत क्रूरता, निष्ठुरता, स्वार्थ की भी है और मेरी बड़ी माँ...जिनको हम काकी कहते हैं...मेरे सामने स्त्री उत्पीड़न का जीता - जागता सबूत हैं।
मैं जिस कमरे में रहती हूँ...उसी में उनके अंतिम दिन गुजरे। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुझे किसने जन्म दिया मगर सत्य तो यह है कि काकी माँ के साथ जन्म से लेकर मृत्यु तक अन्याय होता रहा...कहाँ हो ईश्वर? उनको बदमाश और पागल बताने वाले बहुत हैं, जितने लोग - उतनी बातें...मेरी समझ में भी यह बातें बहुत देर से आईं पर आज जब समझ रही हूँ तो आत्मा काँप जा रही है।
आखिर क्या दोष था उनका...क्या यह कि वह निःस्हाय, निरपराध स्त्री थीं जो अपनी रक्षा तक खुद नहीं कर पाती थीं और उन पर उनकी छोटी सौत और उनके बच्चे जीवन भर पराक्रम दिखाते रहे। पत्नी का धर्म क्या सन्तान उत्पत्ति है? आप कल्पना कीजिए कि उस औरत पर क्या बीती होगी जब उसे अपना पति बाँटना पड़ा होगा पर क्या वह समझ भी पा रही होंगी कि उनके साथ क्या हो रहा है?
मैं जानती हूँ कि मेरी माँ के जीवन में बहुत चुनौतियाँ रही हैं मगर इन चुनौतियों से उनको यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह किसी और का जीवन नष्ट करें इसलिए मुझे फर्क पड़ता है क्योंकि मैं खुद एक स्त्री हूँ। मुझे वह खामोश आर्तनाद दिन - रात परेशान करता है तो आप कैसे इतनी पत्थर हो गयीं कि आपको कुछ भी नजर नहीं आता। एक स्त्री होकर इतनी सारी स्त्रियों के साथ ये इतनी क्रूरता करती रहीं और इनको और इनके बच्चों को रक्ती भर भी न तो शर्म है, न पश्चाताप है बल्कि इनको लगता है कि ये सारी कारगुजारियाँ, इनकी चालाकियाँ सब उनकी उपलब्धि हैं। हम कहाँ जा रहे हैं और कैसा समाज बना रहे हैं? अगर वह बेटे के हित के लिए पक्षपात को उचित मान सकती हैं तो मैं भी एक बेटी का कर्त्तव्य निभा रही हूँ।
मेरी माँ मुझे क्यों प्यार नहीं करतीं, क्यों पक्षपात करती हैं..इसका जवाब मैं जिन्दगी भर तलाशती रही हूँ और लगातार तड़पती रही हूँ मगर कोई सिरा नजर आ नहीं रहा था अब दिखने लगा..उन सभी क्रूरताओं के तार जब जुड़ने लगे हैं तो सच मानिए... न तो इनको अपराध का कोई बोध है, न ही उसके प्रति ग्लानि है...अगर मैं इनकी सन्तान नहीं हूँ क्योंकि आज तक इन्होंने न तो सिर पर हाथ रखा, न बेटी समझकर प्यार किया। मेरी परवरिश अपना दायित्व नहीं बोझ समझकर की...और जिस तरह से वह अन्ध पक्षपात करती आ रही हैं, वह पुत्र मोह नहीं कुछ और है....।
मेरी और काकी की कहानी में समानता है या यूँ कहिए कि मैं उनका विस्तार भी हूँ और उन पर होने वाले अत्याचारों की प्रतिकार भी हूँ। यहाँ दो बातें हैं...क्यों परिवार के नाम पर किसी भी प्रकार की क्रूरता को प्रश्रय मिले और यह अधिकार प्रताड़क को कौन देता है? इस घर की बड़ी बहू ने इमेज बिल्डिंग खूब की है...सीधे शब्दों में कहें तो शातिर हैं...और दोहरा व्यक्तित्व है इनका। यह वह महिला हैं जिनके साथ, जिनके लिए अपने पूरे परिवार (?) से लड़कर मैंने सब कुछ सहा और यह मेरी जड़ें खोदती रहीं। मेरे साथ होने वाली तमाम साजिशों में बराबर की भागीदार या यूँ कहें कि कुछ हद तक मास्टरमाइंड....जो लोग ननदों को गालियाँ देते हैं.....वह कभी ऐसी औरतों पर भी जरूर बात करें। न तो हर एक ननद विलेन है और न ही हर एक बहू बेचारी...इन्होंने मुझ अनाथ के दिमाग पर कब्जा किया और ऐसा कब्जा किया कि इनका हर पाप मुझे पुण्य ही लगता...ये औरत कभी भी मेरी नहीं थी...मेरे शरीर....मेरे कामकाज....मेरे बाल...मेरी हर चीज को लेकर इतने ताने देती रही हैं कि मेरा खुद पर से विश्वास हटने लगा था...मैं अपने ही घर में एक बिस्कुट भी लेने के लिए इनका मुँह ताकती...मेरे कपड़े....मेरा हर सामान ये हक से लेतीं और मायके में दान भी कर आतीं और तारीफें लूटतीं मगर मेरी पीठ में सबसे गहरा खंजर मारने वाली भी यही हैं। मुझे नजरबंद करने में इनकी भागीदारी थी...टाइमिंग ऐसी थी कि ये कोलकाता में ही नहीं थी...मुझ पर हाथ उठाने में....मुझे मानसिक रूप से प्रताड़ित करने में सबसे आगे रही हैं। इन्होंने मुझे घर से निकलवाने की और कमरे पर कब्जा करने की पूरी मुहिम छेड़ी और पिछले साल तो लगभग सफल हो भी गयी थीं...लेकिन कहते हैं ....जाको राखे साइयां....। मेरा खाना, पहनना ...सब खलता है और इतना खलता है कि मेरे साथ कुछ भी अच्छा हो तो पूरे घर में मातम छा जाता है....मानसिक विकृति इसे कहते हैं और उपचार की जरूरत भी ऐसे लोगों को ही है।
आप क्या ऐसी औरतों को सशक्त करना चाहते हैं? इनको उखाड़कर फेंक देने की जरूरत है। पति का साथ देना और वफादारी साबित करना आपको उसके अपराधों का साथ देने की अनुमति नहीं देता। कई बार ऐसा लगता है कि पूरे घर में फुटबॉल मैच चल रहा है। भारतीय परिवारों में बात जब स्त्री की होती है तो दायरा, माँ, बेटी, पत्नी तक ही सिमट जाता है। यह एक सत्य है। पुरुष शासित इस समाज में खुद जननी कही जाने वाली स्त्री की सोच और लक्ष्य में भी पुरुष सन्तान ही है।
हम मानें या न मानें लेकिन सत्य यही है कि खुद स्त्रियों की सोच के केन्द्र में पुरुष के हित ही होते हैं, फिर वह पति हो, भाई हो या पुत्र हो, और इसे लेकर वह इतनी केन्द्रित हो जाती है कि वह कब क्रूरता, स्वार्थ, पक्षपात की सीमा पार कर जाती है, खुद उसे पता नहीं चलता है और मेरा जीवन खुद इसका सजीव दृष्टांत है। पुरुष ही नहीं, स्त्री भी अपने अहं की तुष्टि चाहती है और इस मार्ग में बाधक खुद उसकी अपनी कन्या सन्तान हो, तो वह उसकी भी शत्रु बन सकती है। उसकी सारी सोच, उसकी हर एक गतिविधि के केन्द्र में उसके पुत्रों और पुत्रवधुओं के लिए ही जगह बचती है। वह अगर अपनी बेटी को स्नेह देने का थोथा प्रयास भी करती है तो उसके केन्द्र में बेटी के प्रति ममता नहीं बव्कि समाज में पुत्र की प्रतिष्ठा की चिन्ता रहती है, मेरे मामले में यह सत्य साबित हुआ है। अगर विवाह और मातृत्व किसी को इतना निष्ठुर बनाता है तो मैं सौभाग्यशालिनी हूँ कि मैंने विवाह नहीं किया। आस - पास कुछ तस्वीरें हैं और यह वह सत्य है जिसे स्वीकारने में खुद मुझे 40 साल लग गये।
मैं वह हूँ जो लड़ती रही जिन्दगी भर स्त्री के रूप में इस घर में कदम रखने वाली बहुओं के अधिकारों के लिए , आने वाली पीढ़ी की लड़कियों के जीवन को सुरक्षित बनाने के लिए, खुद से प्रेम करना ही नहीं बल्कि अपना सम्मान करना भी भूल गयी। निःस्वार्थ प्रेम का उत्तर मुझे षडयंत्रों से मिला। हम किस प्रकार की स्त्रियों के लिए लड़ रहे हैं...........क्या ऐसी स्त्रियों के लिए?
मैंने सब कुछ स्वीकार किया, यह गलत था, मेरे साथ जब भी कुछ गलत हुआ मैंने खुद को समझाया, क्योंकि सम्भवतः मैं अपने विश्वास को टूटते देखना नहीं चाहती थी मगर मेरा विश्वास गलत लोगों पर था इसलिए टूटना ही था मगर मेरे विश्वास के केन्द्र में सर्वशक्तिमान था, ईश्वर था और उसने मुझे कभी नहीं टूटने दिया। आज खुद को देख रही हूँ तो आश्चर्य़ होता है, मैं कहाँ छिपी थी इतने सालों तक....मुझे अच्छा लग रहा है, मैं खुद से मिल रही हूँ। काफी कुछ कहा गया है मेरे बारे में...
अब समय आ गया है कि मैं भी कुछ कहूँ क्योंकि अभिव्यक्ति अधिकार तो मेरा भी है। कोई भी विमर्श बहनों को लेकर नहीं होता और न ही भाइयों के उत्पात और माताओं के पुत्र मोह में छिपे पक्षपात पर ही कोई अंकुश लगाता है इसलिए अपने लिए कई बार हथियार उठाने ही पड़ते हैं और मेरे पास तो लेखनी ही मेरा बल है। प्रताड़ना और स्वार्थ का गहरा रिश्ता है और शिक्षा का मतलब डिग्री ही नहीं होता। पितृसत्ता का लाभ उठाने वाली शिक्षित स्त्रियाँ सबसे बड़ा खतरा हैं। आप ऐसी स्त्रियों से आने वाली पीढ़ी को कैसे बचाएंगे?
जब सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्पत्ति की चाह मानवता पर भारी पड़ जाए तो व्यक्ति मनुष्य नहीं रहता, वह राक्षस और मनोरोगी बन जाता है और राक्षसों को तो दंड मिलना ही चाहिए। पिछले साल जब फेसबुक पर अपनी कहानी अन्ततः बतायी तो बहुत स्नेह मिला, चिंता भी मिली मगर परिवर्तन य़हाँ नहीं था, परिवर्तन मुझमें हुआ। हाँ, वह बहुत नाजुक समय था। तबीयत बहुत बिगड़ गयी थी मगर माँ की ममता तब भी नहीं थी, आज भी नहीं है और मैं किसी पत्थर के साथ नहीं रह सकती।
मेरे जीवन को नर्क बनाने में पुरुषों के साथ स्त्रियों का जबरदस्त योगदान हैं और इनमें सिर्फ अशिक्षित ही नहीं बल्कि वह स्त्रियाँ भी हैं जो शिक्षित हैं, नौकरी कर रही हैं तो पितृसत्ता की पोषक इन क्रूर और स्वार्थी स्त्रियों को दंड क्यों नहीं मिलना चाहिए? जिस लड़की ने पिछले 18 - 20 साल से कुछ लिया ही नहीं, उसे उसके ही घर में भिखारी बताया जा रहा है, उसका चरित्र हनन किया जा रहा है, आखिर मुझे क्यों अहंकारियों के साथ रहना चाहिए? स्त्री की अपनी अस्मिता होती है मगर उसकी तथाकथित जननी उसे अपने पुत्रों की दासी बनाने को आतुर हो और खुद अपनी पुत्रवधु के हर अपराध की संरक्षिका हो तो उसे माँ का सम्मान मिलना ही क्यों चाहिए? मानसिक तौर पर बीमार कौन है?
आज जब इनके होते मेरी यह अवस्था है तो भविष्य में क्या होगा? पहले तो आर्थिक तौर पर और अब भोजन के स्तर पर अपनी शक्ति का उपयोग अपनी ही कन्या को झुकाने, गिराने और हराने के लिए मेरे गिरने की राह देखते हैं जिससे मैं गिरूँ तो मुझे गिराने वाले अपनी महानता का ढिंढोरा समाज में पीटें और बताएं कि किस तरह उन्होंने मुझ पर अहसान किया... आज मुझ जैसी आत्मनिर्भर लड़की के साथ यह हो रहा है और लोग तमाशा देख रहे हैं तो कल्पना कीजिए जो लड़कियाँ आर्थिक रूप से पराधीन हों...उनके प्रति किस तरह की क्रूरता होती होगी इसलिए जरूरी है कि अब इस कहानी का अंत किया जाए।
आज पीछे मुड़कर देख रही हूँ तो एक के बाद एक करके सारे परदे गिरते समझ आ रहे हैं। इनको घर में लड़की इसलिए चाहिए ताकि उनकी खोखली प्रतिष्ठा को आँच न पहुँचे और लड़की को उसका हिस्सा न देना पड़े। इसके लिए ऐसे घटिया लोग स्त्रियों का उपयोग करने से नहीं हिचकते। इनको किसी से कोई प्रेम है ही नहीं। मेरे कमरे में अतिक्रमण था, इसके लिए फर्नीचर से लेकर पुराने कपड़े चक..यहाँ तक कि कपड़े सुखाने वाली रस्सी तक भी इनका ही अधिकार रहा जिसे अब मैंने जाकर तहस - नहस किया है। इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि मेरे कमरे में दिसम्बर की कड़ाके की ठंडी हवा आती है और मुझे अस्थमा है। टूटा फर्नीचर, फटे गद्दे, जंग लगी आलमारी...और रंग छोड़ती दीवारें...क्या किसी घर की बेटी इसकी हकदार है...यह प्रश्न है मेरा सबसे..क्या 40 वर्षों से जिस तरह का मानसिक उत्पीड़न मैं झेल रही हूँ...उसकी भरपाई हो सकेगी..क्या जो बचपन मैंने तड़पकर. बिलखकर...रोकर गुजारा..क्या वह मुझे वापस मिल सकता है।
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जिस व्यक्ति ने मुझे जलील किया...वह उसे गले लगाती हैं...कमरे का टूटा ट्यूबलाइट होल्डर....दफ्तर का टूटा फर्नीचर ...यह स्थिति मुझे सजा देने के लिए है....आखिर कौन हैं ये लोग...जो मेरी तकदीर का फैसला करेंगे..यह कौन है जो मुझे सजा देगा, घर में नजरबंद करेगा, मेरी नौकरी छुड़वाएगा और मेरे हर काम में बाधक बनकर गालियाँ देगा...यह जो कुछ हुआ और हो रहा है...इसके पीछे यही प्रश्रय है..मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह किसे मानती हैं मगर संसार में किसी को भी यह अधिकार नहीं कि वह अपने मोह और अपने स्वार्थ के लिए मेरा जीवन दांव पर लगा दे...मगर खुद को मेरी माँ कहने वाली औरत ने यह किया और मैं उनको प्रेम नहीं दे सकती। साहब, कानून शायद आप नहीं जानते तो बता दूँ कि जिसे आप अर्जित सम्पत्ति और खून - पसीने से संचित कमाई बता रहे हैं, वह जिस जमीन पर है, वह आपने खरीदी नहीं है बल्कि हिस्से के नाम पर आपको दी गयी है..और वह संयुक्त परिवार से मिली है।
आपके सौभाग्य से या दुर्भाग्य से आप जिस पिता की संतान हैं, उनकी संतान भी मैं हूँ और जिस प्रकार आप अधिकार जता रहे हैं, वह अधिकार मेरा भी है और इस देश के सर्वोच्च न्यायालय ने, संविधान ने जो अधिकार मुझे दिये हैं, मेरे पिता की विरासत से जो अधिकार मेरे हैं, वह आप क्या, कोई मुझसे छीन नहीं सकता। इस पर आपका फार्मूला आप भी लागू किया जाए तब तो आप लोगों को फूटी कौड़ी भी नहीं मिलनी चाहिए क्योंकि सब तो बाबूजी और मेरे भी पिता जी ने खड़ा किया है...फिर इतनी हाय - तौबा किस लिए। रही बात औकात की तो इन्सान की औकात...दो मुट्ठी राख से ज्यादा नहीं है। कितना भी हम उड़ लें लेकिन परिणति वह है कि किसी छोटे से घड़े में समा जाएंगे और भाग्यवान हुए तो नदीं में बहा दिए जाएंगे। तो इस बात का गुमान क्या करना...हाँ इतना जरूर है कि ईश्वर ने अगर संसाधन दिये हैं तो मानव कल्याण के लिए उसका उपयोग हो और हम लोग तो निमित्त मात्र हैं। आपकी सम्पत्ति से अभी तीन हिस्से निकले हैं जबकि 6 निकलने चाहिए....बाकी 2 का पता नहीं..पर मैं तो हूँ।
वैसे आप लोगों का पूरा जीवन ही छीनने और खसोटने के साथ, साजिशों और धोखाधड़ी में गुजरा है। आप जिस विशाल इमारत के मालिक होने का दावा करते हैं, वह आपने नहीं बनवायी है और सच तो यह है कि सम्पत्ति ही आपका अस्तित्व है, क्योंकि सम्पत्ति, विशाल मकान न हो तो कोई आपको क्यों पूछेगा...आपको ही क्यों, आप जिनका नेतृत्व कर रहे हैं, उनको भी कोई नहीं पूछेगा। आप लोगों का फॉर्मूला आतंक से शुरू होता है और भय पर समाप्त होता है। जब कोई कमाई होती नहीं तो इतना पैसा कहाँ से आता है कि आप सपरिवार कभी पहाड़ों में जाते हैं, तो कभी समन्दर में छुट्टी बिताते हैं और आपकी जीवन शैली से लेकर आपका व्यवहार ऐसा है कि आप किसी सम्राट के घर में पैदा हुए हैं। अपने मेहमानों को जब बंगला दिखाते हैं तो यह कमरा भी दिखाना चाहिए था, आपने नहीं दिखाया तो यह नेक काम अब हम कर दे रहे हैं।
आपकी पत्नी के मामा जी को क्या यह अधिकार था कि वह मुझे लेकर फैसला सुनाते...हर बात पर पंचायत बुलाने वाले आप..मेरी फीस खा गये...अब मेरे नाम पर मुझे अपना आश्रित दिखाकर आयकर पर मित्र के सहयोग से छूट ले रहे हैं...मतलब गिरने की कोई सीमा है कि नहीं...न मुझे आपसे मतलब, न आपको मुझसे मतलब...आप जो राजनीति करते हैं...वह राजनीति भी हमने खूब देखी है। मतलब आप लोग मुझे क्या समझते हैं उसका तो प्रत्यक्ष प्रमाण है।
आपने मुझे भिखारी बताया तो इसका कारण तो यही है कि आपने जब सब कुछ हड़प लिया तो भिखारी तो होना ही है। समस्या यही है...बहनों को खारिज कर देना, उनके अधिकार को स्वीकार न करना और उनको हाशिये पर डाल देना। जो महिला एक फूटी कौड़ी भी न कमाती हो, उसका दावा है कि वह मुझे 29 साल से पाल रही हैं, प्रगति तो आपने बहुत की है...डायरी चुराने से लेकर सब्जी चुराने तक का लम्बा सफर तय किया है। यदा - कदा आलमारी पर भी हाथ साफ कर ही देती हैं।
आपकी बेटियों के बहुत से शौक पूरे किये और आपके लिए तो हमेशा लड़ ही लेती रही मगर क्या आप इतना कमा लेती हैं कि आप खुद का भी पेट पाल सकें, मुझे पालना तो दूर की बात है। रात के 10 बजे ऑफिस में रहते हुए भाग - भागकर आपकी फरमाइशें पूरी की हैं। आपकी बेटी के लिए आपके साथ 11 बजे तक सड़क पर भी बैठी हूँ। समस्या यह है कि घर के बेटे और बहू खुद को घर का सदस्य नहीं, बल्कि मेरा मालिक मान बैठे हैं और अब उनके इस भ्रम का निराकरण बहुत आवश्यक है।
चार्ट्ड अकाउंटेंट की जिम्मेदारी क्या है..क्या यह कि वह दोस्ती के नाम पर आयकर की चोरी में दोस्ती के नाम पर साथ दे? मेरी आयकर की फाइल में स्पष्ट है कि मेरा खर्चा यह घर नहीं चलाता मगर मुझे आश्रित दिखाकर आयकर छूट का लाभ लेने वाला व्यक्ति जितना दोषी है...मेरे अधिकार के धन को कमिशन के नाम पर खाने वाला दोषी ही नहीं बल्कि अपने पेशे के प्रति भी बेईमान है। क्या ऐसे लोगों पर कार्रवाई नहीं होनी चाहिए..? चाहे तो मेरे बैंक खाते की जाँच की जा सकती है। मैं अनुरोध करती हूँ चार्टेड अकाउंटेंट्स की संस्था से कि वे ऐसे प्रोफशनल्स का लाइसेंस रद्द करें जो इस तरह की धोखाधड़ी करते हैं। पता नहीं आपके जैसे लोगों ने कितनी बहनों और बेटियों का हक खाकर अपना बंगला बनवाया है।
<a href="https://youtu.be/k-JMQoVzBMU" target="_blank"></a>
माँ अगर विश्व की सबसे बड़ी शक्ति है तो उसे पक्षपात का अधिकार है ही नहीं। उसे कोई अधिकार नहीं कि अपने पुत्रों के लालच, अहंकार और खोखली प्रतिष्ठा के लिए वह अपनी बेटी का भविष्य, उसका जीवन...सब बेटों के चरणों में डालकर उस बेटी की दुर्दशा की भागीदार बने....ये शब्द बड़े कठोर हैं मगर सत्य तो यही है कि वह भी उस अपराध में भागीदार है, मैं क्यों उनके साथ रहूँ जिनको न मुझसे प्रेम है, न परवाह है। स्थिति यह है कि अपना खर्च उठाते हुए मैं सब्जी खरीदती हूँ और इनके फ्रिज से वह किराये के रूप ले ली जाती हैं। मैंने बहुत सहा, अब नहीं..मेरे पास फ्रिज नहीं है तो सब्जी खराब भी होती है...पहले लेती थी और सब्जी खरीदने लगी तो रखती थी मगर देखिए मैं इन लोगों की तरह करोड़पति नहीं हूँ...अगर यह रोज - रोज ऐसे करेंगी तो मेरा खर्च कैसे चलेगा? अब मैं हर रोज मिर्च और प्याज के लिए लड़ तो नहीं सकती न....मेरा एक स्टैंडर्ड है तो मैं हट गयी...और यही लोग चाहते भी थे।
अगर परिवार के नाम पर आप स्त्री होने के कारण किसी के साथ होने वाला अन्याय इसलिए स्वीकार करते हैं कि उससे आपके हितों को चोट न पहुँचे तो आप किसी भी सद्भावना के अधिकारी नहीं। अगर आपने इस घर में दशकों से होते चले आ रहे अन्यायों पर चुप्पी साधे रखी और तमाशा देखा तो एक और तमाशा देखने में आपको दिक्कत नहीं होनी चाहिए। जब घर की बेटी के अपमान से, वंचना से किसी खानदान को कोई फर्क नहीं पड़ता, जब उसका सम्मान किसी आपके परिवार का सम्मान नहीं है तो उसकी प्रतिक्रिया पर भी आपको आपत्ति नहीं होनी चाहिए। जो परिवार, समाज और देश स्त्री का सम्मान नहीं कर सकता, उसका पतन ही उसकी नियति है।
आर्थिक अभाव ने भी मुझे मजबूत बनाया, मेरा कमरा उनको महल लगता है, आज इसी कमरे की झलकियाँ आपको देखनी चाहिए...कहना सिर्फ इतना ही है कि इस परिवार से अब मेरा कोई सम्बन्ध नहीं, आप काकी की सन्तान को देखना नहीं चाहती थीं...माँ वह नहीं जो जन्म दे, माँ वह है जो समझती है..आज आपकी सभी सन्तानों कहीं आगे हूँ। यही ईश्वर का न्याय है कि आज आप लोगों को अपने ही घर में चोरों की तरह रहना पड़ रहा है। अब मैं काकी के लिए कुछ करना चाहती हूँ जिससे उनको वह सम्मान मिले जिसकी वह हकदार थीं। कभी हिम्मत हो तो खुद को देखिएगा...आप क्या रही होंगी और आपने खुद को क्या बना लिया। एक स्त्री होकर भी आपके अन्दर जरा भी करुणा नहीं तो किसी को आपसे सहानुभूति या प्रेम क्यों हो? एक ट्रस्ट बनाने की इच्छा है जो उनके नाम पर हो और यह ट्रस्ट युवाओं, महिलाओं के साथ मानसिक तौर पर विक्षिप्त लोगों के लिए कुछ काम कर सके...शायद यही प्रतिकार है और कर्तव्य भी।सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-24025856110926558052022-07-19T05:02:00.000-07:002022-07-19T05:02:29.700-07:00 आखिर हम महिला मीडियाकर्मियों से आपको इतना भय क्यों है साहब?<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmts9JPfBsz9FMY2wnJLOuqv0vAl4FpAyAc431aJ3gqrN19l_DrRdAvT-8B6L5mD8oQXRBrt8aPSwhDNEolUGIho2fxGYC2T290Ip_3emlLSOupYbTHaLx1ZJ_lWch6nHxBlevAzVrYJ-lt4k9oAMziOS-aSOcTXQ5-crPgiBQZi8Knm0kgP2IunPx2A/s870/Women%20in%20media.jpg" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; clear: left; float: left;"><img alt="" border="0" width="600" data-original-height="489" data-original-width="870" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmts9JPfBsz9FMY2wnJLOuqv0vAl4FpAyAc431aJ3gqrN19l_DrRdAvT-8B6L5mD8oQXRBrt8aPSwhDNEolUGIho2fxGYC2T290Ip_3emlLSOupYbTHaLx1ZJ_lWch6nHxBlevAzVrYJ-lt4k9oAMziOS-aSOcTXQ5-crPgiBQZi8Knm0kgP2IunPx2A/s600/Women%20in%20media.jpg"/></a></div>
मैंने जब अपराजिता और शुभजिता शुरू की थी तो तय किया था कि यह लड़कियों की मीडिया में भागेदारी बढ़ाने का माध्यम बनेगी। इसका मतलब यह नहीं था कि मुझे लड़कों से लिखवाने या उनको टीम में लेने से आपत्ति थी बल्कि इसका कारण यह था कि मीडिया में लड़कियों की जगह पहले से ही बहुत कम है। अगर है भी तो उनको कोने में रखा जाता है मतलब फिलर की तरह..ताकि यह भ्रम बना रहे कि हम स्त्री विरोधी नहीं हैं क्योंकि हमारे मीडिया माध्यमों में लड़कियों की उपस्थिति को स्वीकार करने में हिचक है। मीडिया में रहते हुए यह पक्षपात पिछले 18 साल से देखती आ रही हूँ। निश्चित रूप से लड़कियों की जिम्मेदारी होती है और उनको अपने काम के साथ घर भी सम्भालना पड़ता है और इस वजह से उनके लिए उतना समय दे पाना सम्भव न होता मगर वे लगातार परिश्रम करती हैं। आज अगर महिलाएं काम कर रही हैं तो ऐसा नहीं है कि उनके लिए बहुत अधिक सुविधाएं दी जा रही हैं। यह जरूर है कि कुछ मीडिया संस्थानों में या कुछ सहकर्मियों की सदाशयता के कारण उनको छुट्टी मिलती है या कई बार उनकी परिस्थितियों को समझा जाता है मगर अधिकतर मामलों में लड़कियाँ यह ताना जरूर सुनती हैं कि 'लड़की होने में ही फायदा है या वह तो लड़की है, उसका तो प्रोमोशन होना तय है। '
ऐसे भी महानुभव मिले जो महिला पत्रकारों के कपड़ों से लेकर उनके मेकअप और गहनों पर भी फब्तियाँ कसते थे। जहाँ लड़कियाँ हैं, वहाँ भी एक मनोविज्ञान यह है कि 'लड़की है, कम बोलेगी, बहस कम करेगी, काम ज्यादा करेगी और सबसे जरूरी बात कि वेतन कम लेगी।'
जाहिर सी बात है कि इस कसौटी पर खरी उतरने वाली गाय जैसी लड़कियों को काम पर रखा गया, उनके कंधे पर बन्दूक रखकर मुखर, प्रतिभाशाली और अपने अधिकार मांगने वाली लड़कियों और महिलाओं को हाशिए पर रखा गया। नयी लड़कियाँ, जिनको इस क्षेत्र के बारे में न के बराबर पता हो, जो अपना खर्च चलाने के लिए काम कर रही हों, जिनको अपना घर चलाना हो या शादी से आगे के सपने देखने हों. उनके पास दूसरा रास्ता नहीं रहता इसलिए वे तमाम फटकार, ताने, शोषण और मानसिक प्रताड़ना सहते हुए बनी रहती हैं क्योंकि कई बार घर भी नर्क ही होता है। उनके पास कोई रास्ता नहीं रहता इसलिए वफादारी निभाती हुई वे हर उस प्रपंच में शामिल होती हैं जिससे उनका फायदा हो। अगर चापलूसी से ही सीढ़ी चढ़ी जा सकती है तो यही हो...। हो सकता है कि आपके लिए इसी में संस्थान का लाभ हो मगर सवाल यह है कि आप क्या अपने पेशे से धोखेबाजी नहीं कर रहे? आप ऐसे पत्रकारों की फौज तैयार कर रहे हैं जिनके पास रीढ़ की हड्डी नहीं है, आप काम चलाने के लिए पत्रकारिता का खम्भा ही तोड़ रहे हैं।
आजादी के 75 साल हो चुके हैं मगर मीडिया संस्थानों में महिलाओं की भागीदारी आधी छोड़िए, उससे भी कम है। दफ्तर में क्रेच, विशाखा गाइड लाइन छोड़िए, कई बार तो शौचालय तक की सुविधा में भी कठिनाई है। लड़कियों की नाइट ड्यूटी बहुत कम मिलती है, अगर मिलती भी है तो आवागमन की सुविधा में झंझट बहुत है, कहकर उसे खत्म ही कर दिया जाता है। वेतन को लेकर ऐसा पक्षपात है कि अनुभवी महिलाओं की तुलना में कम अनुभवी पुरुष पत्रकारों का वेतन तेजी बढ़ता है। महिला पत्रकारों का काम डेस्क पर रहकर नये पत्रकारों की खबरों को ठीक करना भर रहता है। कई मीडिया संस्थान महिलाओं को दफ्तर में भी नहीं देखना चाहते, अगर लड़कियाँ हैं तो भी फील्ड रिपोर्टिंग और चुनौतीपूर्ण रिपोर्टिंग, अच्छी बीट मिलना सौभाग्य की बात है।
आखिर आप हम महिला मीडियाकर्मियों से इतना डरते क्यों हैं? अगर कोलकाता की बात करूँ तो यहाँ के मीडिया संस्थानों में 2 - 4 महिलाएं हैं और जहाँ हैं, वहाँ उन महिला पत्रकारों के लिए जगह है जो हाँ में हाँ मिलाकर हर एक अच्छा -बुरा, सीधा - उल्टा काम करें, मान्यता की बात हो तो यह मान लिया गया है कि इस पर तो राजनीतिक खबरें करने वालों का ही अधिकार है और अधिकतर मामलों में महिला पत्रकारों के हिस्से में विधानसभा से लेकर लोकसभा छोड़िए...राजनीतिक खबर कर लेना ही बड़ी बात मान ली जाती है। यह शर्मसार करने वाली बात है कि जिस देश और राज्य में सर्वोच्च पदों पर महिलाएं आसीन हो रही हैं, वहाँ खुद को लोकतंत्र का चौथा खम्भा मानने वाले पत्रकारिता संस्थानों में महिलाओं को कार्य करने का अधिकार नहीं है और न ही उनको पूरी सुविधाएं मिल रही हैं। उससे भी शर्मनाक वह चुप्पी है जो कम्पनी की नीति के नाम पर दिग्गज महानुभवों ने ओढ़ रखी है। हमारी पूरी भागीदारी हमारा अधिकार है और यह देकर आप हम पर उपकार नहीं कर रहे हैं। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक शुभजिता जैसी एक जगह की जरूरत पड़ती रहेगी जहाँ महिलाओं को उनकी पूरी गरिमा, उनकी चेतना के साथ स्वीकार किया जाता रहे। वैसे, हमारे पास पुरुषों के लिए भी स्तम्भ है और हम आपकी ही तरह लिखवाते भी हैं बशर्ते वह स्तरीय हो।
यह तमाम कारण थे, जहाँ खड़े होकर तय करना पड़ा कि एक कोना तो हो, जहाँ महिलाएं खुलकर बात कर सकें, जहाँ उनके हिस्से की पदोन्नति मिली, उनके मुद्दों को फिलर की तरह इस्तेमाल न किया जाए। जहाँ उनको घर की जिम्मेदारियों के कारण अपनी कलम से समझौता न करना पड़े। जहाँ पर अंतिम छोर पर बैठी लड़की अपने दिल की बात कह सके, कर सके।
मैं मीडिया संस्थानों से यह पूछना चाहती हूँ कि आजादी को 75 साल हो रहे हैं, आप अपनी संकुचित सोच से मुक्ति कब पा रहे हैं? हिन्दी भाषी राज्यों में तो पक्षपात और भेदभाव को महिलाओं की नियति मान लिया गया है मगर बंगाल जैसे प्रबुद्ध राज्य में महिलाओं को लेकर आपकी सोच इतनी छोटी क्यों है कि आप उनके सपनों और जीवन का दायरा सौंदर्य, रसोई और घरेलू नुस्खों से आगे देख ही नहीं पाते? आखिर आप कब हम महिला पत्रकारों को उनका उचित अधिकार और सम्मान और उनका कार्यक्षेत्र ईमानदारी से देना सीखेंगे? आज भी महिला और पुरुष पत्रकारों का अनुपात 80 और 20 पर क्यों खत्म हो रहा है? क्या महिला मीडियाकर्मियों का कार्यक्षेत्र महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के कार्यक्षेत्र में नहीं आता, क्या उनकी सुरक्षा और कार्य सम्बन्धी सुविधाओं से जुड़े तमाम अधिकार सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है? महिला पत्रकारों के नाम पर आपको मेकअप की हजार परतें ओढ़ने वाली सजी - धजी गुड़िया ही क्यों चाहिए? प्रेंजेटेबल दिखना और सौन्दर्य का शो रूम बन जाने में कुछ तो अन्तर होता होगा। अगर आपके लिए महिलाएं सिर्फ प्रदर्शन की वस्तु हैं तो आपमें और बाजार के कारोबारियों में अन्तर कहाँ है और अन्तर है ही नहीं तो आप खुद को आधुनिक सोच वाला कैसे कह देते हैं?
10 पुरुष पत्रकारों पर 2 - 4 महिला पत्रकार, यह क्या मजाक है? आखिर हम लड़कियाँ कब अपने अधिकारों की बात करना सीखेंगी? मीडिया संस्थानों में महिलाओं के अधिकार सुनिश्चित हों, उनकी उपस्थिति सुनिश्चित हों, इसकी जवाबदेही किसकी है? आखिर, हिन्दी के अखबारों को महिलाओं से इतना भय क्यों है कि जो भगवान से नहीं डरते, वह महिलाओं के कार्यालय में प्रवेश से डरते हैं और उनको नौकरी नहीं देना चाहते। आखिर हिन्दी के अखबारों को महिलाओं से इतना डर क्यों है कि वे महिलाओं की उपस्थिति और भागीदारी को नगण्य ही रखना चाहते हैं? खुद को शक्तिशाली समझने और कहने वाले अपनी बात मनवाने के लिए वाचिक हिंसा पर निर्भर क्यों हैं और क्यों पेज - 3 से लेकर घरेलू नुस्खों को गिनवाने को ही महिला पत्रकारिता मानते हैं। मैंने किसी का नाम नहीं लिया मगर इसमें वह तमाम अखबार और मीडिया माध्यम शामिल हैं जो खुद को महिलाओं का हितैषी बताकर उनके पर काटते हैं और समझदार को तो संकेत ही काफी हैं।
अगर आप सही में महिलाओं की भागीदारी चाहते हैं तो उनको उनकी पूरी क्षमता और उनके वाजिब प्रश्नों को सामने लाइए। महिलाओं का पेज और महिलाओं की दुनिया का विस्तार आपकी सोच से कहीं आगे है। अगर वाकई पत्रकारिता को मजबूत बनाना चाहते हैं तो दया और सहानुभूति के आवरण में अपनी वर्चस्ववादी चेतना को छुपाना बंद करिए। मैदान में उतरिए और साथ काम करिए क्योंकि काम आपके लिए अनवरत चलने वाली दौड़ हो सकती है मगर महिलाओं के लिए उनका काम उनकी स्वाधीनता और चेतना को खोलने वाली खिड़की है।
भारत को भी हम माता ही कहते हैं, उस भूमि पर महिलाओं का ऐसा अपमान कब तक चलेगा और कब तक महिलाएं इसे सिर्फ देखती रहेंगी, यह समय तय करेगा मगर भारत को आगे ले जाना है तो भागीदारी आधी नहीं, बराबर होनी चाहिए क्योंकि आप जिसे आधी दुनिया कहते हैं, आपकी पूरी दुनिया उसी पर टिकी है।
सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-56862902906973960282022-02-23T09:22:00.002-08:002022-02-23T09:22:39.241-08:00रुढ़ियों का पिंजरा अगर सोने का भी हो तो भी वह पिंजरा ही है, उड़ान आसमान की होनी चाहिए<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjQBEvg0-jHYCwDGEUwSkV-heUPM9v4qFzt3q7FL-roZxOKAfnrcWNlOXki9XKaP0dYKnjqLn7UhMTgY-g0w9Cz-imYZZ87o61nKWk3IaRjQ9cUkmRonPStcAqu10flMHScS7JgjQm2iuR-vVSZ_R4q4WCS6n2kljjsSPziatkDETFQ_85TrXlktFkD0A=s740" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; "><img alt="" border="0" width="600" data-original-height="418" data-original-width="740" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjQBEvg0-jHYCwDGEUwSkV-heUPM9v4qFzt3q7FL-roZxOKAfnrcWNlOXki9XKaP0dYKnjqLn7UhMTgY-g0w9Cz-imYZZ87o61nKWk3IaRjQ9cUkmRonPStcAqu10flMHScS7JgjQm2iuR-vVSZ_R4q4WCS6n2kljjsSPziatkDETFQ_85TrXlktFkD0A=s600"/></a></div>
वह घूंघट, हिजाब और परदे का समर्थन करते हैं क्योंकि उनको लगता है कि औरत बेशकीमती है और उस पर किसी की नजर नहीं पड़नी चाहिए। एक छोटा सा प्रश्न यह है कि औरतें बेशकीमती हैं तो पुरुष क्या हैं? पुरुष क्या कबाड़ हैं जो उनको यूँ ही भटकने के लिए खुली सड़क पर फेंक दिया जाए। गुलामी की जंजीर को अगर धर्म और समाज के नाम पर जेवर बनाकर पहन लिया जाए, तो भी वह जंजीर ही रहती है...
आज मामला नौ सो चूहे खाय, बिल्ली हज को चली वाला हो गया है और उसके पीछे कहीं न कहीं सामाजिक और पारिवारिक स्वीकृति की चाह भी है और स्वीकृति के जरिए ही बड़े निशाने साधे जाते हैं। यही कारण हैं कि जींस पहनने वाली अभिनेत्रियाँ भी जनता के सामने जाते ही साड़ी पहनने लगती हैं। मजे की बात यह है कि पहनावा औरतों का, शरीर औरतों का, जीवन औरतों का और सिर फुटोव्वल मर्द कर रहे हैं।
वह समाज औरतों को हथियार बनाकर लड़ रहा है जिसके मंच पर औरतों को देखा तक नहीं जाता। इस्लाम में बहुत कुछ गलत माना जाता है लेकिन आप वह सारे काम करती आ रही हैं और आपको कोई परहेज नहीं है लेकिन लोकप्रिय बनने के लिए और स्वीकृति के लिए आपने गुलामी को भी ग्लैमराइज करना शुरू कर दिया है।
आखिर क्यों 21 सदीं में भी आप औरतों की दुनिया को आजाद नहीं रहने देना चाहते। हो सकता है कि आप बुर्के और घूंघट में फुटबॉल खेलती हों मगर हमें इस तरह का खेल नहीं चाहिए। यह मर्जी है आपकी या भय है आपके समाज का...अगर हम इतिहास में देखें तो हिजाब या घूँघट प्राचीन परम्परा में नहीं हैं...न तो हमारे प्राचीन ग्रन्थों में और न ही इतिहास में..। कहीं भी आपको घूंघट नहीं दिखता।
घूंघट का समर्थन करने वाले बताएं कि जब आप खुद यह मानते हैं कि घूंघट और परदा इस्लाम के लाथ भारत में आया और आपको इस्लाम की हर चीज नागवार लगती है तो आप घूंघट और परदे का समर्थन क्यों करते हैं? अगर आप 10 फुट का घूंघट और पूरे शरीर पर लबादा ओढ़कर भी शिष्टाचार नहीं रख सकतीं तो ऐसे परदे का कोई मतलब नहीं है...लड़ना ही है तो अपने शिक्षा और जीवन के अधिकार के लिए लड़िए, उन कट्टरपंथियों से लड़िए जो आपसे आगे बढ़ने का हक छीन रहे हैं जो नहीं चाहते हैं कि आप दूसरों की तरह आगे बढ़ें।
<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhuqounC_rD-67sjmyfrnWZwv3UszBoOcuHA5MigWlhBc61to2rLfgYCQ8eTmi48k3uLzFZcb5hT9t7Kf6h2YAFFKsZg7FAAWs-xyU-4FUC_2YcM3dXO8lKXVSDCu6KWLcb9MRaJ59lhycYJJ65OY64o3dyWqyA0E1ZdzAnlfBOiDk68xV1pI30NTy7DQ=s760" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; "><img alt="" border="0" width="600" data-original-height="760" data-original-width="760" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhuqounC_rD-67sjmyfrnWZwv3UszBoOcuHA5MigWlhBc61to2rLfgYCQ8eTmi48k3uLzFZcb5hT9t7Kf6h2YAFFKsZg7FAAWs-xyU-4FUC_2YcM3dXO8lKXVSDCu6KWLcb9MRaJ59lhycYJJ65OY64o3dyWqyA0E1ZdzAnlfBOiDk68xV1pI30NTy7DQ=s600"/></a></div>
हैरत की बात यह है कि तथाकथित उदारवादियों के लिए घूंघट एक प्रतिगामी कदम है और हिजाब संस्कृति...यह दोगलापन किस विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाता है, यह तो वही जाने...प्रियंका गाँधी को कोई बताए कि हिजाब और घूंघट चयन का मामला नहीं हैं, यह एक साजिश है जो औरतों को परदे के पीछे और घर के भीतर धकेलती रही है। दिमाग को हिप्नोटाइज करके किसी का आत्मविश्वास इतना गिरा दीजिए कि उसे समझ ही न आए कि उसके साथ क्या गलत हो रहा है तो हिप्नोटाइज करने वालों से ज्यादा दोषी वह हैं जो अपना उल्लू सीधा करने के लिए इस तरह की चीजों का समर्थन करते हैं।
हिजाब हो या घूंघट हो...वह औरतें दोषी हैं जो शिक्षित और आत्मनिर्भर होने के बावजूद स्वीकृति के लालच में ऐसी परम्पराओं को हथियार बनाती हैं। इस्लाम में संगीत की मनाही है लेकिन इतिहास उठाकर देखिए सिने जगत की जितनी भी अभिनेत्रियाँ और गायिकाएँ थीं, उन्होंने हिजाब नहीं पहना...फिर वह गौहर जान हों, मधुबाला हों, मीना कुमारी हों या मोहम्मद रफी जैसे गायक हैं।
<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEh_hPaTC_bdKkUBRP6rr3ng1tTOC8Dtt8v2NWoGxJ2Qs1_VWyODz8UHppX3eJkX-D5O820UDvpm4ArkPnHzj3P-xaN1DcDJogP1FoAK1Vu406X3AQTIOW41tmQ0nApJ0zoZkGo2wmbLZnqH0BQtH8QIO8TEhAPyofQ9v-StXAFI1CvUIHJyelIsJCMZ2g=s1191" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; "><img alt="" border="0" width="400" data-original-height="675" data-original-width="1191" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEh_hPaTC_bdKkUBRP6rr3ng1tTOC8Dtt8v2NWoGxJ2Qs1_VWyODz8UHppX3eJkX-D5O820UDvpm4ArkPnHzj3P-xaN1DcDJogP1FoAK1Vu406X3AQTIOW41tmQ0nApJ0zoZkGo2wmbLZnqH0BQtH8QIO8TEhAPyofQ9v-StXAFI1CvUIHJyelIsJCMZ2g=s400"/></a></div>
आप दोषी हैं क्योंकि आपके कंधे पर यह जिम्मेदारी थी कि आप आने वाली पीढ़ियों को नया आसमान दें लेकिन आप खुद पिंजरे में घुसीं और उस पिंजरे को स्वर्ग बता रही हैं। ईश्वर हो या अल्लाह हो, वह इतना क्रूर तो नहीं हो सकता है कि समाज के एक वर्ग को सारी दुनिया की आजादी दे और एक चलते - फिरते सन्दूक में तब्दील कर दे। क्या आपको ये हक था कि जिस आजादी को,
हमारी पूर्वजाओं ने तमाम तरह की प्रताड़नाएं सहकर पाया, आप उसका अपमान कर दें...मलाला भूल गयीं कि शिक्षा के अधिकार के लिए उन्होंने गोलियाँ खायीं थीं और जायरा वसीम ने क्या धर्म का सही मतलब समझा कि.,.जिस ईश्वर ने इतनी सुन्दर सृष्टि बनायी, वह क्या अपनी संतति को सामान बनाएगा और उससे आगे बढ़ने का हक छीनेगा...? मेरी नजर में जायरा वसीम जैसी लड़कियाँ ज्यादा दोषी हैं। आपको क्या हक है कि आप उन तमाम औरतों के संघर्ष का मजाक बनाकर रख दें और आप आने वाली पीढ़ियों को पिंजरा देकर जाएँ?
2018 में सौम्या रंगनाथन ने हिजाब के खिलाफ आवाज उठायी औऱ ईरान के नेशंस कप में नहीं खेलीं। इसके पहले 2016 में भारतीय शूटर हिना सिंधु ने हिजाब पहनने से इनकार किया था। हिजाब के लिए सड़क पर उतरकर नारे लगाने वाली लड़कियाँ कुछ औऱ नहीं हैं, एक घिनौनी राजनीति का मोहरा भर हैं।
<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEicjvD1lqaql635gesVv1aFiydW7WoUBCENfKncXrd-i1-upl9tD1W9PCqWPC_kod384MFqOicTdcq8gHrL8ihcZAkEd2kmmfVMBTk-O_eS6e8jcfz_9Ft8EU3NLtvzcx2pAr006ROuLfJHsyghXoSsxu1UNDBIyDkMwtqIJobCteU5ufFhbBBP0X851g=s599" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; "><img alt="" border="0" height="400" data-original-height="599" data-original-width="439" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEicjvD1lqaql635gesVv1aFiydW7WoUBCENfKncXrd-i1-upl9tD1W9PCqWPC_kod384MFqOicTdcq8gHrL8ihcZAkEd2kmmfVMBTk-O_eS6e8jcfz_9Ft8EU3NLtvzcx2pAr006ROuLfJHsyghXoSsxu1UNDBIyDkMwtqIJobCteU5ufFhbBBP0X851g=s400"/></a></div>
प्राचीन समय में सिर ढकना सम्मान और सुरक्षा से जुड़ा मामला था। स्त्रियाँ ही नहीं, पुरुष भी सिर ढकते थे। यह मामला जलवायु का भी है। पुरुष भी पगड़ी, साफा या टोपी पहनते रहे हैं पर यह प्रगति में बाधक नहीं है। अरब देशों में शरीर ढककर रखना एक जरूरत है क्योंकि वहाँ की जलवायु ही ऐसी है। अरब देशों में पुरुष अबाया पहना करते हैं। हिजाब का उपयोग भी मैसोपोटामिया की सभ्यता में धूल और तेज धूप से बचने के लिए ही किया जाता था लेकिन कट्टरपंथियों ने इसे सामाजिक हथियार बनाया और अपनी सत्ता स्थापित करने का जरिया भी। हिन्दुओं में भी पितृसत्तात्मक साजिशों ने ही सती जैसी जघन्य प्रथा को परम्परा का हिस्सा बताया मगर इससे वह परम्परा सही साबित नहीं होती और आखिरकार राजा राममोहन राय की प्रेरणा से हमें इससे मुक्ति मिली।
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परिवार वालों के साथ-साथ वृहतर परिवार के भी दबाव होते हैं। परिवार से छूट जाते हैं तो वृहतर परिवार जकड़ लेता है। हर आयोजन में नए सिरे से कमर कसनी पड़ती है। सुविधा और कमजोरी पर सम्मान और प्यार का रैपिंग पेपर चढ़ाना पड़ता है. औरतों को खुद हिपोक्रेसी करनी पड़ती है. लेकिन उनकी आन-बान-शान समानता और बराबरी है। असमानता और घूंघट-बुर्का नहीं। ये किसी समाज की संस्कृति नहीं, महिला विरोधी, प्रकृति विरोधी और मानवता विरोधी हैं। संस्कृति के नाम पर गुलाम बनाने वाली परम्पराओं का समर्थन कभी नहीं किया जा सकता। यह पीड़ादायक है कि विदेशों में रहने वाले बुद्धिजीवी वर्ग की कुछ महिलाएँ हिजाब के समर्थन में नारे लिख रही हैं। यह वह औरते हैं जो अपने घरों और परिवारों से विद्रोह कर के आगे बढ़ी हैं और बढ़ रही हैं।
<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjLEN9XZCubnTZGZ9iwjJj0_QkPGVXdugUu3tVo1rDpOlA7d_JX2T8lT_JLiZ5FAKJUMybr7SrLdGNCGWs9oUU47jhVJm0WWw85yUVHSv9joe2_AbFyfZK53wGNytqfp204O4A2kzZTSeqWIRtrDHLrFbuNkCEZ0ZmBmh6wGPVnnJcs__8j56vmkUepZw=s700" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; "><img alt="" border="0" width="320" data-original-height="360" data-original-width="700" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjLEN9XZCubnTZGZ9iwjJj0_QkPGVXdugUu3tVo1rDpOlA7d_JX2T8lT_JLiZ5FAKJUMybr7SrLdGNCGWs9oUU47jhVJm0WWw85yUVHSv9joe2_AbFyfZK53wGNytqfp204O4A2kzZTSeqWIRtrDHLrFbuNkCEZ0ZmBmh6wGPVnnJcs__8j56vmkUepZw=s320"/></a></div>
हिन्दुओं में भी बहुत कुछ अच्छा नहीं था, कुरीतियाँ थीं. जर्जरताएँ थीं पर हम इनसे बाहर निकले, इनसे लड़े और आगे बढ़े। आज हम घूंघट को भी एक प्रतिगामी कदम ही मानते हैं, घूंघट की माँग पर सड़क पर उतरने की बात चली तो विरोध भी यहीं होगा...पर आप क्या कर रही हैं। परम्परा चाहे जैसी भी हो, समय के साथ उसमें बदलाव आते हैं। कई महिलाएँ तलवार उठाकर लड़ीं हैं तो सीखना है तो इनसे सीखिए...और यह सोचिए कि आप समाज को क्या दे रही हैं।
<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhlftBGnzijxbYaT10Q7E9c-NgTvynhWQTk-gN0GrMvhaJI7zIeyyYpQ19mgz-1xiaItv1ubx5Mwi45DP4QJEhW4fI-v1-4HEhLOZrtncRmHSOP1M-qnHjuc6jSdNROytZCRgKAaZQfcsnKVZ8rR4_QlZBogDEokoKovtr-LpSYJfoXkxoE8wQXoGunpw=s768" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; "><img alt="" border="0" width="320" data-original-height="647" data-original-width="768" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhlftBGnzijxbYaT10Q7E9c-NgTvynhWQTk-gN0GrMvhaJI7zIeyyYpQ19mgz-1xiaItv1ubx5Mwi45DP4QJEhW4fI-v1-4HEhLOZrtncRmHSOP1M-qnHjuc6jSdNROytZCRgKAaZQfcsnKVZ8rR4_QlZBogDEokoKovtr-LpSYJfoXkxoE8wQXoGunpw=s320"/></a></div>
परिवर्तन ही संसार का नियम है और हमें पूरी उम्मीद है, विश्वास है कि आपके भीतर से ही कोई ऐसा आन्दोलन होगा जो आपको पिंजरे को पिंजरा कहना सिखाएगा भी और आजादी का मतलब भी सिखाएगा।
सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-18916583410133008982021-11-10T06:57:00.000-08:002021-11-10T06:57:24.081-08:00बौद्धिक विमर्श से अधिक संवेदना का पर्व है छठ<div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5TrStoSOcBNKL4pT6gUZe5qlrExJ3a-j4zNNXVdh9xe7xS3TeJZ5nYMw-zp3ShplNYyzw0vr_WCD4Zg1kU1j5TYYnjIKWPBFGk10gOAAUXAJw5-86zl1M9f3LzdUVm7Y_pwBFT2OgCOhS/s1079/%25E0%25A4%259B%25E0%25A4%25A0+%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%2582%25E0%25A4%259C%25E0%25A4%25BE...1.jpg" style="display: block; padding: 1em 0; text-align: center; "><img alt="" border="0" width="600" data-original-height="788" data-original-width="1079" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5TrStoSOcBNKL4pT6gUZe5qlrExJ3a-j4zNNXVdh9xe7xS3TeJZ5nYMw-zp3ShplNYyzw0vr_WCD4Zg1kU1j5TYYnjIKWPBFGk10gOAAUXAJw5-86zl1M9f3LzdUVm7Y_pwBFT2OgCOhS/s600/%25E0%25A4%259B%25E0%25A4%25A0+%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%2582%25E0%25A4%259C%25E0%25A4%25BE...1.jpg"/></a></div>
छठ पूजा मेरे लिए सिर्फ प्रकृति विमर्श है, यह यात्रा स्त्री विमर्श से आगे की है, याद रखिए हम सूर्य को पूजते हैं और छठी मइया उनकी बहन हैं माँ दुर्गा का कात्यायनी रूप और ये बात इस पर्व पर काफी कुछ पढ़ने के बाद कह रही हूँ, छठ स्त्री विमर्श का नहीं, जेंडर समानता का पर्व है, दिक्कत य़ह है कि कर्म कांड तो हम खूब करते हैं पर उसकी मूल बात नहीं पकड़ते..
जाति- वर्ण, सब कुछ कर्म से निर्धारित था, आपने सुविधा के लिए बर्थ राइट को आधार बना लिया, और राज करने लगे, भाग्य से कर्म नहीं बनते, आपका कर्म ही आपका भाग्य निर्माता है कर्म ही थे कि कर्ण को हम महारथी कहते हैं, किसी के घर में चांदी का चम्मच लेकर पैदा होना आपकी उपलब्धि नहीं है, आपने कोई तीर नहीं मारा, लेकिन अगर आप उस चम्मच का सदुपयोग करते हैं, उसका सुख वंचितों तक पहुंचाते हैं, तो वह आपका कर्म है, जमशेद जी टाटा, भाई हनुमान प्रसाद ,अजीम प्रेम जी . आज उदाहरण के लिए टाटा समूह को देखिए, मुझे उद्योगपति प्रेरित करते हैं, बहुत मुश्किल होता है अपना काम खड़ा करना...
पर्व का सुख पूंजी के रास्ते ही आता है
......
रही हमारे स्त्री विमर्श की तो गार्गी से द्रौपदी तक...लंबी परंपरा है, थेरी गाथाओं से लेकर लोकगीतों में जो पीड़ा है, वही विमर्श है...विमर्श से आगे अब समाधान हो....छठ पुरुष भी करते हैं और दउरा उठाने से लेकर हर छोटी बात में बगैर किसी नखरे के सक्रिय रहते हैं....हमारे मुख्य और त्योहार होली, दीपावली , रक्षा बंधन , छठ .. हैं.बाकी सब बाद में जुड़े हैं, और इनके प्रसार में बाजार और हम खबरचियों की बड़ी भूमिका है... कोई भी आम पुरुष या स्त्री के दायरे में बंधकर कोई त्योहार नहीं मनाता, यह हम पढ़े- लिखे लोगों का काम है, छठ किसी माँ के लिए वह कारण है, कि वो उन बच्चों को देख सके, जिनको सालों से नहीं देख पाई, छठ घाट पर जाने की ललक है, हम बिहारियों से पूछेंगे तो छठ उल्लास है, टीस है, कसक है, मुझे छठ को देखना पसंद है, पढ़ना पसंद है पर विश्वास और भावना का जो तार मेरी माँ जोड़ सकती हैं, मैं नहीं जोड़ सकती और यही सच है और उनको किसी स्त्री विमर्श से कोई फर्क़ नहीं पड़ता। छठ किसी पिता के आँखों की नमी है, किसी के लिए 4 पैसे कमाने का अवसर है और उसमें भी श्रद्धा जुड़ी होती है,
हमने अपनी भक्ति को शक्ति बनाया और उसे विश्वास की विजय के उल्लास में बदला है, यही भारत है
छठ को सोचिए मत, सिर्फ महसूस करिए। समय के अनुसार आगे ले जाने के लिए जोड़िए, अगर आपका योगदान शक्कर की तरह होगा तो वही परंपरा की तरह घुल जाएगा .. सबसे बड़ी बात क्या हम बगैर विमर्श के जी नहीं सकते? क्यों हमारी बौद्धिकता को हमने अपनी बेड़ियों में तब्दील कर दिया है? कुछ देर के लिए खुद को खुद से मुक्त करना भी जरूरी है, जिससे ताजी हवा मिल सके। छठ समेत हर एक त्योहार वही ताजी हवा है
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सौ बात की एक बात छठ हर एक विमर्श से आगे है, ऊपर है और स्त्री विमर्श बहुत जरूरी और गहरी चीज़ है और स्त्री विमर्श ही क्यों, पुरुष विमर्श भी उतना ही जरूरी है, हम समग्रता से देखना कब सीखेंगे? खैर समग्रता से देखने में समय है, मानव विमर्श की प्रतीक्षा है...पर तब तक ठेकुआ खाईं
पीछे गीत बाजता
मोरा सवा लाख के साड़ी भीजे
साड़ी भीजे त भीजे, कोसी हमार नाहीं भीजे।
इस जिजीविषा, विश्वास को असंख्य प्रणाम
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-82890560708507455842021-10-26T10:33:00.001-07:002021-10-26T10:36:34.816-07:00किचेन पॉलिटिक्स.. शातिर घरेलू औरतों के खिलाफ मोर्चा खोलना जरूरी है<p><br /></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2-4h48TsfcDsU4VMmEfki1janjrKAkB9QQa2Mpo9DOxv3evnbaAqAJezB0_MloSfAUULj0pPKEWKvPFxbP4QRbjO8t5xC9aI0wzVTzAg8hs0B1_1CT5_b8EeSpsWEB2N9qJsI_pDjd_8S/s723/kitchen.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="551" data-original-width="723" height="512" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2-4h48TsfcDsU4VMmEfki1janjrKAkB9QQa2Mpo9DOxv3evnbaAqAJezB0_MloSfAUULj0pPKEWKvPFxbP4QRbjO8t5xC9aI0wzVTzAg8hs0B1_1CT5_b8EeSpsWEB2N9qJsI_pDjd_8S/w627-h512/kitchen.jpg" width="627" /></a></div><br /><p>किचेन पॉलिटिक्स...सुनने में बड़ा अजीब लगता था। रसोई और राजनीति..इनका क्या सम्बन्ध हो सकता है..रसोई में तो अन्नपूर्णा का निवास होता है। अब अन्नपूर्णा क्या जानें कि उनका प्रतिरूप कहलाने वाली स्त्रियाँ रसोई को हथियार बना सकती हैं और जिस भोजन को अमृत कहा जाता है, उसे अपने व्यंग्यबाणों से विष बनाने की कला भी जानती हैं। आमतौर पर इस देश में किसी भी गृहिणी को या तो बहुत उपेक्षा से देखा जाता है या फिर बहुत ही आदर से। इतना विश्वास या यूँ कहें कि अन्धविश्वास किया जाता है कि वह कुछ गलत कर सकती है या षडयंत्र रच सकती है...यह सोचना भी पाप लगता है लेकिन सत्य कुछ और है। यह स्त्रियाँ कुछ भी कर सकती हैं। वर्चस्ववादी राजनीति सिर्फ दफ्तरों या सियासत में नहीं होती बल्कि यह कहीं भी हो सकती है, घरों में हो सकती है और रसोई उसका शस्त्र होती है। </p><p>क्या अन्न का उपयोग ब्लैकमेलिंग के लिए, नीचा दिखाने के लिए या घर की सत्ता हासिल करने के लिए हो सकता है? हम विश्वास नहीं करना चाहते पर ये हो भी सकता है, होता है और होता चला आ रहा है। सास और ननदों से परेशान बहुओं को आप देखते आ रहे हैं...ससुराल में बेटियों का उत्पीड़न भी आपने सुना है लेकिन क्या आप यह विश्वास करेंगे कि किसी बहन का उत्पीड़न उसके ही घर में सम्भव है। हम सब जानते हैं कि यह होता है और बचपन से ही बहनें भाइयों को मिलने वाले प्रेम से जन्मी उपेक्षा झेलती हैं मगर हम इस समस्या को समस्या मानते ही नहीं हैं। अक्सर घर और परिवारों में छोटे बच्चों की स्थिति किसी कचरापेटी की तरह ही होती है, शब्द बहुत कड़वा है मगर यही सही है। माता - पिता का प्रेम इस बात से तय होता है कि कौन सा बच्चा उनको कितना लाभ पहुँचा सकता है। बड़े भाई बहनों के छोड़े हुए कपड़ों से लेकर छोड़ी हुई आलमारी और बचा - खुचा प्यार ही उनके नसीब में होता है और कई बार वह भी नहीं होता।</p><p> माएँ खास तौर पर पुत्र मोह में इतनी अन्धी हो जाती हैं कि वह उनके खिलाफ कुछ भी नहीं सुनना चाहतीं और कोई बच्चा विरोध करता है तो वह उसे अपना ही शत्रु मान लेती हैं और ममता की जगह शत्रुता आपत्ति करने वाले बच्चे के हिस्से में आती है। अगर कोई बच्चा लीक से हटकर चलता है तो माता - पिता के आँखों की किरकिरी बन जाता है और भाई -बहन इसी बात का फायदा उठाते हैं। विशेषकर माँओं को दुलार पाने की आदत होती है, तो बच्चा भले ही 56 की उम्र का हो लेकिन वह हर घड़ी माँ - माँ की रट लगाकर, उसे दुलार देकर, उसे घेरे रहकर आसानी से अपने छोटे भाई - बहनों का शोषण कर सकता है, उनके अधिकारों और सम्पत्ति पर भी कब्जा कर सकता है। इसका आर्थिक पक्ष यह है कि खुद को बेचारा बेटा दिखाकर, घर के कामों का हवाला देकर आसानी से अपनी एक श्रवण कुमार इमेज बनायी जा सकती है। ऐसी स्थिति में माँओं की स्थिति एक माउथपीस से अधिक नहीं होती। ऐसा व्यक्ति कुछ कहता नहीं है, बस किचेन पॉलिटिक्स में एक मोहरा होता है और कई बार खिलाड़ी भी होता है। कभी वह माँओं को इस्तेमाल करता है तो कभी वह अपनी पत्नी का सहारा लेता है। वर्चस्ववादी घरेलू शातिर औरतें इस स्थिति का फायदा उठाना बखूबी जानती हैं। सास और पति को प्रभावित कर अपने छोटे देवरों और ननदों को दबाना, उनको छवि बिगाड़कर उनको खलनायक साबित करना इनके बाएं हाथ का खेल होता है।</p><p>किचेन पॉलिटिक्स की ऐसी शातिर खिलाड़ी महिलाओं की खासियत होती है कि जो उनका निशाना होता है, यानी जिससे भी वे असुरक्षा महसूस करती हैं या जिनसे उनको टक्कर मिलने की आशंका रहती है या फिर जो उनसे बेहतर होते हैं, खासकर ननदें, ये उसकी सबके सामने सेवा करती हैं, ख्याल रखती हैं और बताती हैं कि ख्याल रखती हैं, हर बार अहसान जताती हैं और तंज भी कसती हैं,,,यानी तीन तरफ से वार होता है और अगर ननद या देवरानी उनसे 20 हुई या कामकाजी हुई तब तो इनके शातिर दिमाग में खुराफात चलती ही रहती है। कामकाजी महिलाओं के पास ऐसे भी समय नहीं होता, कई बार वह निर्भर भी होती हैं और कई बार वह जानते - बूझते हुए भी कोई प्रतिक्रिया नहीं देतीं। कारण यह है कि उनको आगे बढ़ने के लिए मानसिक शांति की जरूरत होती है और घर में समय न दे पाने का अपराधबोध भी उनको सालता है तो एक मानसिक दबाव या ग्लानि भी होती है।</p><p>बस इसी मानसिक स्थिति का फायदा ऐसी घरेलू शातिर औरतें उठाती हैं। पूरे समाज के सामने वह एक आज्ञाकारी बहू हैं, सास की नजर में लक्ष्मी हैं. पति उन पर निर्भर हैं और यही कारण है कि वे रसोई के माध्यम से अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहती हैं। इसी साम्राज्यवादी सोच के कारण वह अपनी रसोई में किसी को आने नहीं देना चाहतीं. कोई कुछ दिन वहाँ काम करे तो बहाने से हटा देना चाहती हैं। वह यह दिखाती और जताती हैं कि सारे काम वह खुद करती हैं, सफाईमेनिया की शिकार यह औरतें खुद को सुधड़, होनहार और विनम्र साबित करने में बहुत कुशल होती हैं। चेहरे पर भोलापन लिए बैठी इन औरतों का असली खेल वह ननदें जानती हैं या वह शख्स जानता है लेकिन इनकी सीता सुकुमारी वाली छवि ऐसी बना दी जाती है कि शिकायत करने वाला ही खलनायक साबित कर दिया जाता है। </p><p>जो खेल परदे के पीछे या अप्रत्यक्ष रूप से चलता है, वह यह है कि कई बार बैग उठाकर बाहर जाने का ताना मिलता है, यह ताना मारा जाता है कि उसके जैसी लड़की घर के काम निपटाकर दफ्तर में नौकरी करती हैं। सारा दिन बाहर रहती हो, घर में हो तो थोड़ा काम किया करो। बाकी सब तो खा लेंगे, यही नहीं खाती हैं तो बनाना पड़ता है। भले ही आपने कोई फरमाइश नहीं की हो मगर आपका नाम लेकर वह चीज बनेगी, सारा घर खायेगा मगर अहसान आप पर जताया जायेगा। हो सकता है कि आप काम करके थकी मांदी घर जायें तो आपको खाने के लिए कुछ न मिले। आपको कुछ कहा नहीं जा रहा मगर आपको कुछ दिया भी नहीं जा रहा...अगर कुछ दिया जा रहा है तो वह यह कहकर कि उनके पति ने कितने श्रम से यह किया है। हर बात में....हमारी तो जुबान नहीं खुलती थी भाइयों के आगे, मेरे मायके में तो यह नहीं होता, जबान कैंची की तरह चलती है। बैग उठाकर चल देती हैं और हम नौकरानी की तरह खटते रहते हैं, इनके हाथ में हमेशा एक पोंछा रहता है और आपको नाकारा साबित करने के लिए हल्का सा अन्न भी गिर जाये तो उसे पोंछा जाता है, आपको दिखाकर डिब्बे साफ किये जाते हैं और इस मानसिक दबाव में आप भी डिब्बे साफ करने में एक लम्बा वक्त गुजारती हैं। वह आप पर हावी होने की कोशिश करती हैं, खुद को विक्टिम और आपको उसका कारण बताने का एक भी मौका, मजाल है कि हाथ से छूट जाये, शतरंज की असली खिलाड़ी यही हैं और बाकी उनके मोहरे हैं। किचेन पॉलिटिक्स में यह चलता है कि ये औरतें काम का रोना भी रोती हैं और किसी का काम में हाथ बँटाने भी नहीं देतीं। यह काम साझा नहीं करतीं और आप पर हावी होने की कोशिश करती हैं। आपको मानसिक तौर पर इतना परेशान किया जायेगा कि आप घर से कटने लगते हैं, कई बार अवसाद में आने लगते हैं और आपको घमंडी करार दिया जाता है। कब आपकी आलमारी से आपका क्या सामान गायब हो जाये और बेटियाँ बुआ के सामान पर कब सप्रेम अधिकार जता लें, कहा नहीं जा सकता। बड़ी हो, बुआ हो, मौसी हो, चाचा हो, कहकर काम तो खूब लिये जाते हैं पर बात जब अधिकारों की होती है तो बच्चों से दाज करती हो, घर में आग लगा रही हो...जैसे जुमले तैयार रहते हैं। </p><p>पुत्र मोह में मगन माताओं को बहुओं की कारस्तानी दिखती नहीं है..और सुरसा होने पर भी वह लक्ष्मी बनी रहती हैं। दरअसल, यह पैंतरा औरतें आजमाती हैं। इनका अधिकतर जीवन दूसरों की जिन्दगी में झाँकने में, ब्लाउज की ऊँचाई मापने में, अपने मायके की तारीफ करने में, अपने नाकारा और बदतमीज बच्चों की तारीफों और तीमारदारी में गुजरता है। अपनी बेटियाँ भले ही हाफ पैंट पहनकर घूमें मगर ननदों ने दुप्पटा लिया या नहीं, इस पर रहता है। अपने घर की बेटी भले ही शादी के बाद अपने मायके में रहे, मगर दूसरों की बेटियाँ अब तक ससुराल क्यों नहीं गयीं, इसकी चिन्ता जरूर रहती है। अपनी तोंद भले ही निकली रहे मगर ननदों का वजन बढ़ा हुआ और रंग सांवला ही लगता है। अपने बच्चों को भले ही नूडल्स और घी, रिफाइंड खिलायेंगी मगर आपकी चम्मच से जरा सा भी घी निकला तो यही कहेंगी कि घी कितना खाती हो और इसके बाद प्रवचन शुरू होगा कि हम तो घी - तेल डालते ही नहीं है। अपना भाई भले ही निकम्मा और आवारा हो मगर अपनी ससुराल की हर लड़की के चरित्र पर इनकी नजर रहती है। ऐसे लोग बच्चों को आपसे दूर करते हैं और आपके खिलाफ बच्चों के मन में जहर भरती हैं और एक दिन ऐसा आता है कि आप खुद ही सबसे दूर हो जाते हैं। </p><p>ऐसे बहुत से लक्षण हैं मगर बात अब समाधान की हो तो क्या किया जाये...ध्यान मत दीजिए...यह एक प्रकार के मानसिक रोग से ग्रस्त हैं तो किसी बच्चे की तरह इनसे व्यवहार होना चाहिए क्योंकि परिपक्वता क्या होती है, इनको नहीं पता। </p><p>एक दूरी बनाकर चलिए मगर घर की किसी भी चीज पर अपना अधिकार मत छोड़िए। जरूरत पड़े तो जहर बुझे तानों का जवाब उनकी भाषा में देने में कोई आपत्ति नहीं। बहुत ज्यादा अच्छा या दयालु बनने की जरूरत नहीं है, हर एक विधर्मी दया का पात्र नहीं होता। रिश्तों के चक्कर में अपनी गरिमा मत खोइए...जरूरत पड़े तो अपने अभिभावकों के साथ भी आपको सख्ती से बात करनी होगी, आपको बुरा कहा जा रहा है तो परवाह न करते हुए दरवाजा बंद करिए, मनपसन्द संगीत सुनिए और अपना काम करिए। बच्चों से प्रेम कीजिए मोह नहीं और बदतमीजी का जवाब यह है कि उनको अपने पास न फटकनें दें। आर्थिक रूप से सक्षम होना सबसे ज्यादा जरूरी है। घर में तोहफे लाने पर अपना वेतन खर्च करने की जगह उसकी एफ डी करवा दीजिए, अपने नाम से। जन्मदिन पर भी तोहफे लाने की कोई जरूरत नहीं। जरूरत पड़े तो अपनी सफलता का जश्न मनाइए और अहसास दिलाइए कि आप कहाँ हैं और आपके संघर्ष क्या हैं। खुद को अच्छा साबित करने में वक्त गंवाने से अच्छा है कि काम पर ध्यान दिया जाए और यही एक रामबाण उपचार है।</p><p><br /></p>सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-57068850063904681962021-08-12T07:22:00.005-07:002021-08-12T07:22:53.802-07:00अधिकार संरक्षण, स्नेह और करुणा से बनते हैं...सम्बन्धों के दावों से नहीं<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj36uuGQlAHEw8ziMpqbsK1ilsbRW96IqWcm12UTKvwnLhLTWThRIPm5zSsXXkMoVyKHnpaUIxE7VhBl3ZxEpv4MoesSp5kHQbhfrVuT8Wq6EAvEvc7MaNZIwgvn9LM7PDy88giRK5pgfGv/s1280/Generation-Gap-Essay-in-Hindi-%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25A2%25E0%25A4%25BC%25E0%25A5%2580-%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%25BE-%25E0%25A4%2585%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%25A4%25E0%25A4%25B0-%25E0%25A4%25B9%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25A8%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25A6%25E0%25A5%2580-%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25AC%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%25A7-1280x720.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="1280" height="414" 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खराब क्यों न हों...उम्मीद की जाती है कि उनके हर जहर को व्यक्ति अमृत समझकर पी जाये...उनकी प्रताड़ना को अपना भाग्य समझकर स्वीकार कर ले...माँ तो माँ होती है...जैसे वाक्य...अब बहुत घिसे - पिटे हो गये हैं...मेरे लिए। ऐसा नहीं है कि संसार में माँ बुरी होती है...मनुष्य होती है...उसे उसी रूप में स्वीकार करना चाहिए। अच्छी बात है मगर मेरा सवाल यह है कि हर हाल में गलत को सही क्यों कहा जाना चाहिए?</p><p>सम्बन्धों का सही अर्थ जीवन ने समझा दिया है..और अब मैं उसी रूप में स्वीकार कर रही हूँ। पता है कि परिवार व्यक्ति को ग्रांटेड क्यों लेता है क्योंकि वह मान लेता है कि लौटकर तो वह व्यक्ति उसी के पास आएगा...? बदलाव के लिए अब इस कहानी के अन्त को बदलना ही चाहिए...व्यक्ति अपने तार वहाँ जोड़ेगा जहाँ उसे संरक्षण, सम्मान और प्रेम मिला...उसकी बात सुनी गयी...इसके बावजूद संरक्षक पर दबाव डालने वाले भी कम नहीं थे लेकिन अधिकार तो बचाने वाले का होता है....तो आज यह कहानी बदलेगी...और अधिकार उसी को मिलेंगे...सम्मान उसी को मिलेगा जो वास्तविक अर्थों में रक्षक है।</p><p>एक सप्ताह पहले...जीवन दोराहे पर खड़ा था...माता के पुत्र मोह और परिवार के द्वेष की अग्नि में....मौन उपेक्षा और घृणा की शिकार मैं...एक कोने से निकल आयी थी...मुक्ति की चाह में....खुलकर सांस लेना चाहती थी..। जिस ममता को भूखी बेटी से अधिक प्रेम तुलसी के पौधे से हो...वहाँ प्रेम की उम्मीद ही बेमानी है...भावनात्मक लगाव कभी रहा ही नहीं....पुत्र मोह में बेटी की दुर्दशा क्या रही है,,,उसे माँ का पद मिल सकता है, सम्मान नहीं मिल सकता और अपनापन तो कभी नहीं मिल सकता। आज यह बात इसलिए लिखनी पड़ रही है कि हम कई बार कुछ सम्बन्धों को इतना महान बना देते हैं कि उसकी खामियाँ देखना भूल जाते हैं, उसके अपराध नजर नहीं आते। </p><p>बेटियों को अगर कुछ मिलता भी है तो इसलिए मिलता है कि घर की बदनामी न हो...लोग क्या कहेंगे...बेटी घर में एक कोने में पड़ी रहे, घुटती रहे,,,,माँ को सब मंजूर होता है...रूठना - मनाना...ऐसी कोई स्थिति ही नहीं बनी...तीन दिन की भूख के बाद रात को 9 बजे मैं अपने भइया से हिचकते हुए पूछती हूँ कि क्या मैं ऊपर आ सकती हूँ....और फिर मैं आती ही नहीं...बल्कि मुझे प्रेम से भोजन के साथ किसी बच्चे की तरह दुलार मिलता है...मुझे ऐसा ही प्रेम चाहिए। माँ या किसी और का फोन मेरे पास कभी नहीं आता...क्यों...उनको मुझसे बात करने में दिक्कत होती है...घर में दूसरे लोग रूठ जाते हैं तो उनके गले से खाना नहीं उतरता...और मैं बार - बार उनके सामने भूखी रही. अपमान सहती रही...उनको कोई फिर भी अपराधी मैं ही लगती रही...माफ कीजिए...मुझसे ऐसे प्रेम नहीं हो सकता...आज जब लिख रही हूँ तो यह बारहवाँ दिन है....8 दिन के बाद अपनी दवा तक मैंने खुद मँगा ली...इसके पहले जिनको सेफ्टी वॉल्व बनाकर भेजा गया....उनको भी अपने पति और परिवार की ही चिन्ता थी...मेरी कभी नहीं थी...बहरहाल इन बातों को आगे ले जाने का मतलब नहीं है क्योंकि इस नकारात्मकता के पीछे एक सकारात्मक कारण भी है जिसने मुझे हँसने की वजह दी है...जिसने ईश्वर के प्रति मेरे विश्वास को मजबूत कर दिया है...जिसने बताया है कि सम्बन्धों का काम मन से होता है, उदारता से होता है...करुणा और स्नेह से होता है..और यह विश्वास सर्वेश्वर भइया के कारण मजबूत हुआ है। </p><p>जहाँ हूँ...वहाँ का वातावरण काफी उदार है...अपनी बात कही जा सकती है...। बचपन में भाग - भागकर यहाँ आती रही हूँ...रही ही बाबूजी और बड़ी माँ के साथ। माँ का प्यार क्या होता है...वह बड़ी माँ से जाना और बाद में मेरी सभी शिक्षिकाओं से...। विगत एक सप्ताह में मेरी बेचैनी पढ़कर प्रेम शर्मा मैम पूछती हैं कि बेटा कुछ खाया या नहीं....तुरन्त मेरे पास आ जाओ...जब बार - बार कहती हैं कि तुलसी जयन्ती पर गाना है...तो फिर हिम्मत बंधती है। जब सत्या मैम कहती हैं कि रुको मुझे तुमसे मिलना है...बात करनी है,,,,मिलो मुझसे तुरन्त तब लगता है...अपना ख्याल रखो...और मेरा हाल - चाल पूछती रहती हैं तब लगता है कि जीवन में कुछ कमाया तो है...फूट - फूटकर रोने में भी एक अजीब सी राहत है। श्रीमोहन भइया से लड़ने और रूठने का शौक पूरा हो जाता है...यह मेरे लिए ऑक्सीजन है।</p><p>जब मेरे दोस्त फोन करते हैं..विजया...आनन्द, संगीता...नीलम...सब एक के बाद एक मेरी खबर लेते हैं...आनन्द अपनी बिटिया की आवाज से गुड मॉर्निंग कहलवाता है तो हिम्मत बंधती है कि अब तो जीना भी है और बढ़ना ही है,..मुड़कर पीछे नहीं देखना...सम्बन्धों का सही अर्थ यही होता है...रक्त सम्बन्धों की भावना में विष घुला हो...तो वह सम्बन्ध भी मर जाता है...पर मेरे आगे तो विशाल संसार है...विश्वास का...मन के तूफान से जूझकर लिखी गयी पोस्ट पर जिस तरह का स्नेह...समर्थन...प्यार मिलता है...वह प्रेम अमृत बन गया है। जो लोग रक्त सम्बन्धों की दुहाई देते हैं, वह बस इतना बता दें कि रक्त सम्बन्ध इतने महान हैं तो क्या जिन्होंने आपको मरने से बचाया...आदर.....सम्मान दिया...वह क्या इस्तेमाल करने के लिए होते हैं? अब इन तमाम परिभाषाओं को उलट जाना चाहिए..दीवारें तोड़ दी जानी चाहिए...सभी प्रतिमान मैले ही नहीं हुए...सड़ चुके हैं....अब नयी परिभाषाओं और नये प्रतिमानों को गढ़ देने का समय है।</p><p>आप सभी का बहुत आभार...कुछ कर्ज ऐसे होते हैं...जिनको कभी उतारा नहीं जा सकता...व्यक्ति की सामर्थ्य ही नहीं होती....मेरी भी यही स्थिति है...18 साल पहले जो मेरे साथ खड़े रहे...आज भले ही मेरे उनसे रिश्ते बिगड़ चुके हैं...फिर भी थैंक्यू....क्योंकि वह पल मेरे लिए खास हैं...घर में जितने लोग मेरे युद्ध में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से साथ रहे और बाहर जिन्होंने सम्भाला...सबको धन्यवाद...सर्वेश्वर भइया,...इन्दू भाभी...अभिभावक अब इनमें ही हैं...। यहाँ जो बच्चे हैं...खिलखिलाने का कारण दे जाते हैं।</p><p>जो पीछे छूट गया...उस पन्ने का कर्ज 28 साल तक उतारती रही...अब मुझे समाज का कर्ज उतारना है...उस विश्वास को आगे ले जाना है....जिससे सृजन की यह यात्रा और पुष्पित पल्लवित हो।</p><p>कहावतों को अब बदल जाना चाहिए। इस बार का रक्षाबन्धन सचमुच खास है मेरे लिए और आजादी सही मायनों में आजादी है...खोखले सम्बन्धों से....यह दिन मुझे मुबारक हो। सुषमा, तुझे यह आजादी मुबारक हो....।</p>सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-16876371961114062162021-08-06T07:20:00.000-07:002021-08-06T07:20:05.311-07:00बच्चों की जीत अगर आपकी हार है, तो आपको हार ही जाना चाहिए<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEioLJx9QqW6mcn8lk4G2Qa6few5xsG__5FrLZ6LQk7UgeQW27MGPWaGpjYzjNsl14AbSjvrBuUzC7_x9dnPIkSq2p9py4CLGLSB9pOcEhsheODCw2xpX7povKX1aAFc1MydzuW-aaO8qLk8/s640/2021_2image_11_52_332207159a249775df088617bcbbd64b.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="431" data-original-width="640" height="375" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEioLJx9QqW6mcn8lk4G2Qa6few5xsG__5FrLZ6LQk7UgeQW27MGPWaGpjYzjNsl14AbSjvrBuUzC7_x9dnPIkSq2p9py4CLGLSB9pOcEhsheODCw2xpX7povKX1aAFc1MydzuW-aaO8qLk8/w591-h375/2021_2image_11_52_332207159a249775df088617bcbbd64b.jpg" width="591" /></a></div><br /><p>कहा गया है कि क्रोध नहीं करते..। क्रोध को काबू में रखो...संयम रखो...यह सभी सूत्र वाक्य घुट्टी भर - भर के पिलाये जाते हैं...खासतौर से लड़कियों के मामले में तो यह ज्ञान बहुत ही ज्यादा दिया जाता है और बच्चों के बारे में...उनके बारे में तो पूछिए ही मत। इस समय मेरे दिमाग में सवाल घूम रहे हैं...परेशान नहीं हूँ पर प्रश्न का उत्तर तलाशना भी तो जरूरी है। ऐसा क्यों है कि बड़ों का क्रोध सम्मान पाता है और छोटे जब क्रोध करें तो उसे अपमान समझा जाता है? बड़ी विकट परिस्थिति है न्याय की, युवा भारत में युवाओं की आवाज और इच्छाओं को दबाना इतना सामान्य क्यों मान लिया गया है। तथाकथित प्रतिष्ठा और अहंकार सिर्फ बड़ों को ही शोभा क्यों देते हैं? छोटों ने अगर अपनी इच्छा से कोई कदम उठाया तो वह बड़ों को अपना अपमान क्यों लगती है? यकीन मानिए कि घर वापसी की कामना के पीछे भी बेटी को सम्पत्ति मानने वाली प्रवृत्ति ही काम कर रही है...समाज में बेटे की नाक नीची हो गयी...तो माँओं को बड़ा दुःख होता है...ममतामयी माताएँ अचानक इतनी क्रूर और कठोर कैसे हो जाती हैं...यह तो बाकायदा शोध का विषय है। माता - पिता बच्चों को घर से निकाल दें तो जरूर बच्चे ने ही कुछ किया होगा, बच्चों ने अपना जीवनसाथी खुद चुना तो बच्चे नालायक हैं..अपने मन की करते हैं...माँ - बाप की नहीं सुनते...मेरा सवाल है कि बच्चों का दिल अगर सच्चा हो तो उनको क्यों नहीं अपने मन की सुननी चाहिए...? क्यों माँ - बाप की जिद के लिए अपनी इच्छाओं को, अपने मान - सम्मान को दांव पर लगा देना चाहिए...क्यों जिन्दगी भर खुद को आज्ञाकारी साबित करने के लिए धोखेबाज और बेवफा का टैग लेकर घूमना चाहिए...क्या इज्जत सिर्फ माँ - बाप की होती है...यह एकहरी मानसिकता कब टूटेगी.. ? दो जीते - जागते, बालिग और समझदार लोग..अपने सपनों को इसलिए तोड़ें क्योंकि आप चाहते हैं...आपने अपने अहंकार को प्रतिष्ठा का नाम दे रखा है...जो टूटना नहीं जानता, फिर भले ही उसके लिए सारी दुनिया को टूट जाना चाहिए पर आप नहीं झुकेंगे...क्या आपके सामने आपके बच्चे दुःखी, टूटे हुए उदास रहते हैं तो आप उस चेहरे में भी अपने लिए खुशी तलाश लेंगे..क्या यह खुदगर्जी और बेईमानी नहीं है...। बेटे आगे नहीं बढ़ सके इसलिए बेटियों को भी आगे बढ़ने का सपना तोड़ देना चाहिए...और यह जिद माताओं की होती है..। यह जिद माताओं को कितना हिंसक और क्रूर बना देती है..यह मैंने आँखों देखा है। क्या यह एक तरह मानसिक रोग नहीं है...औरतों को ही ढाल बना दिया जाता है....गौर कीजिएगा...ये जितने भाई और पिता हैं....बड़े चालाक होते हैं...वह अपनी पत्नियों को मोहरा बनाकर चाल चलते हैं...अपनी छवि पाक - साफ रखेंगे और उस महिला को उसके बच्चे का दुश्मन बना देंगे। जिन्दगी भर झूठ बोलेंगे...साजिशें करेंगे...छोटों को गिराने और फँसाने की तिकड़मबाजी करेंगे और दाँव उल्टा पड़ गया तो खुद को निरीह साबित करके अपने घर की स्त्रियों को आगे कर देंगे...और खुद को महान साबित करने के लिए ऐसी महिलाएँ पितृसत्ता की पहरेदार बन जाती हैं। यह बहुत अजीब है पर होता यही है। बेटी ने घर को छोड़ दिया तो बात कलेजे में लग गयी और ऐसी लगी कि बेटी की खुशी, बेटी का आत्मसम्मान, बेटी की इच्छा...सबका ख्याल गायब हो गये...दरअसल माँ - बाप को तय कर लेना चाहिए कि बच्चे चाहते हैं कि बच्चों की आड़ में जिन्दगी भर अपने अहं को सन्तुष्ट करने के लिए अपनी परवरिश का कारोबार करना चाहते हैं। माँ - बाप की और बड़ों की चिन्ता सबको है...सबको भाईयों की प्रतिष्ठा का ख्याल है..मगर यह समझने की जहमत कोई नहीं उठाता कि जब इतना कठोर फैसला लिया गया है तो उसके पीछे की वजह कितनी बड़ी रही होगी। आखिर आप यह क्यों मान लेते हैं कि हर बार बड़े और माँ - बाप ही सही हो सकते हैं...क्यों नहीं आप बच्चों के सच को सम्मान देना सीखते..आपको बच्चे घर में इसलिए चाहिए क्योंकि आपको बदनामी का डर है..क्योंकि यह आपको अपनी हार लगती है...आप जिन्दगी भर हराते और दबाते आ रहे हैं..छीनते आ रहे हैं...और महान बनते आ रहे हैं...आपको कहीं न कहीं, कभी न कभी टूटना तो होगा...थमना तो होगा...आपको भी तो पता चलना चाहिए कि टूटने और खो देने की पीड़ा क्या होती है। सब कहते हैं कि बड़ों को दुःख नहीं देना चाहिए, कभी बड़ों को भी टोकिए कि बच्चों से उनकी खुशी, उनकी जिन्दगी नहीं छीननी चाहिए। माफ कीजिएगा लेकिन सम्मान, प्रेम. करुणा जैसे शब्द खून का रंग या उम्र का लिहाज देखकर नहीं दिये जा सकते...दिये भी जायें तो यह मात्र औपचारिकता है, छलावा है और खुद को धोखा देने से बड़ा पाप कुछ भी नहीं है। हमेशा यह कहा जाता है कि दिल की सुनो. और जब हम दिल की सुनते हैं तो हमें बागी करार दिया जाता है, हम पर पाबंदियाँ लगती हैं...आखिर इतने हिप्पोक्रेटिक आप लोग क्यों हैं..यह भी शोध का विषय है। क्या आपने अपनी जिन्दगी में सारे फैसले सही लिये हैं आ आप इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि आप जो भी फैसला करेंगे...सब के सब सही ही होंगे? जब आप सारी जिन्दगी सुख भोगकर...अपने हिसाब से चलकर...अपने अच्छे -बुरे फैसले थोपकर भी त्याग करना नहीं सीख सके, त्याग का सबक जब खुद पर नहीं लागू कर सके तो दूसरों से इसकी उम्मीद क्यों? जब आपको बच्चों की जीत अपनी हार लगती है तो बच्चों को भी आपकी हार अपनी जीत क्यों नहीं लगनी चाहिए? वैसे भी प्रेम और सम्मान, दोतरफा मामला है, अगर आप सम्मान देना सीखेंगे...तभी आपको सम्मान मिलेगा और प्यार भी मिलेगा...। अपनी सारी जिन्दगी का फ्रस्टेशन बच्चों पर निकालने से पहले एक बार सोच लीजिए कि अगर आपके साथ यही व्यवहार होता तो आप क्या करते। बच्चे आपके स्टेटस का पैरामीटर नहीं हैं...और न ही शेयर बाजार का रिटर्न..तो अब उनकी जिन्दगी पर अपना हक जमाना और जताना बंद कीजिए।</p><div><br /></div>सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-87786130075181460502021-06-25T08:40:00.006-07:002021-06-25T09:28:45.617-07:00भारतीय परिवारों का साम्राज्यवाद और स्त्री<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2LKPWVdYeWQPw57Dfb9ccdF6RtbvDxAYUD6Fvp1x4-JvGKxne20bcvQaCCPZGWCcj3qXgDSw8dBhPh1HC3yfiPu599z6EO3IoJo2XoTkOulfBBSOlqXzjzjEwzLqxdcaiCEww84fV1OsM/s600/4-1589454135.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="338" data-original-width="600" height="443" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2LKPWVdYeWQPw57Dfb9ccdF6RtbvDxAYUD6Fvp1x4-JvGKxne20bcvQaCCPZGWCcj3qXgDSw8dBhPh1HC3yfiPu599z6EO3IoJo2XoTkOulfBBSOlqXzjzjEwzLqxdcaiCEww84fV1OsM/w601-h443/4-1589454135.jpg" width="601" /></a></div><br /><p>क्या पिक्चर परफेक्ट जैसी कोई चीज होती है? एकल परिवार, संयुक्त परिवार, रिश्ते, त्याग, बलिदान, समझौता, एडजस्टमेंट...बड़ी - बड़ी बातें पढ़ती आ रही हूँ, सुनती आ रही हूँ। संयुक्त परिवार की परम्परा को तोड़ने का ठीकरा मजे से स्त्रियों पर फोड़ दिया गया लेकिन परिवार संयुक्त हो या एकल हो, दबकर रहने की उम्मीद, त्याग करने की उम्मीद स्त्रियों से ही होती है। कभी अपने एल्बम को खोलिए और एकदम पुरानी तस्वीर देखिए...बॉडी लैंग्वेज से समझ आ जाएगा कि परिवार में स्त्री की स्थिति क्या रही है। लम्बा घूंघट ओढ़े बहू, डरी - सहमी बच्चियाँ, और शान से किसी राजा - महाराजा की तरह खड़े होते लड़के.....भारतीय परिवार आज भी उसी कल्पना में जीते हैं और यही उम्मीद भी करते हैं। लड़कों की इच्छाओं में सही या गलत नहीं खोजा जाता, उसकी गलतियाँ नहीं देखी जातीं, बस उसकी पसन्द का ख्याल रखा जाता है, सास बहू के पीछे पड़ी रहती है कि उसके बेटे को कष्ट न हो, ननद भाभी को परेशान करती है कि उसके भाई को तकलीफ न हो, और भाभी ननद के पीछे पड़ी रहती है कि उसके बच्चों, खासकर बेटों और पति को लेकर कोई ऐसी - वैसी बात न कही जा सके। भारतीय परिवार पुरुषों के तुष्टिकरण की आड़ बने हुए हैं...वह उनका साम्राज्य ही है.,...जिसे वह परिवार का नाम देते हैं...। भारतीय परिवारों में बेटा बड़ा हुआ तो सब कुछ तय वही करता है, यहाँ तक कि छोटे भाई की पत्नी को साड़ी कैसी चाहिए और बहन के लिए कपड़े खरीदने हैं या खरीदने हैं भी या नहीं, घर में किसको, कितना मिलना चाहिए...यह सब वही तय करता है। छोटे भाई -बहनों का संरक्षण करते हुए कब बड़े भाई - बहन मालिक बनकर फैसले लेने लगते हैं,...उनको खुद पता नहीं चलता है। वह बड़े हैं, इसलिए कुछ भी कर सकते हैं और अगर भारतीय परिवारों में बहनों की बात करें तो वह किसी घास के तिनके की तरह ही होती है या दूध की मक्खी की तरह, जिसका अस्तित्व रक्षाबन्धन तक ही सीमित रहता है। बहनें भी कम नहीं होतीं, निभाने के नाम पर वह भी अपना हित - अहित और इक्वेशन देखती हैं...जरूरत पड़ी तो इसी पितृसत्ता की हथियार बनती हैं औऱ अपनी ही किसी बहन को बातों में फँसाकर उसका शिकार कर डालती हैं। भारतीय परिवार, परिवार नहीं मुझे साम्राज्य की याद दिलाते हैं...जहाँ रिश्ते तो हैं मगर उनकी पवित्रता राजा के मूड पर निर्भर करती है। हर बात के लिए भाई या भाभी का मुँह ताकना, इसी बात की उम्मीद की जाती है और इसमें प्यार नहीं, सबके अपने हित छुपे रहते हैं इसलिए इस साम्राज्य की रक्षा करने में घर की औरतें भी तनकर खड़ी होती हैं। जो माँ अपने बेटों की सलामती के लिए बहू - बेटियों से व्रत करवाती है, उसे बेटियों के जीने - मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता, वह सामयिक तौर पर करुणा का दिखा सकती है मगर वह बेटियों के लिए वह बेटों के खिलाफ खड़ी नहीं होती..बेटियाँ बेटों के बराबर हों, उसे टक्कर दें, यह उसे अपनी शान के खिलाफ लगता है और अगर बेटी उसके बेटे के खिलाफ खड़ी हो गयी तो संसार की सबसे बड़ी शत्रु वही होती है। परिवार और परिवार की इज्जत की आड़ में बड़े से बड़े अपराध और काली से काली नीयत पर परदा डाला जा सकता है। परिवार में दहेज हत्या से लेकर ऑनर किलिंग, छोटे भाई - बहनों का हक मारने से लेकर अपने स्वार्थ के लिए किसी भी सीमा तक गिर जाना,,,,संयुक्त परिवार में होता रहा है। आज से नहीं,,,महाभारत काल से ही...अगर कोई स्त्री इसके विरुद्ध खड़ी हुई तो सारा खानदान, घर के सारे पुरुष...उसके खिलाफ बाकायदा षडयन्त्र रचते हैं औऱ परम्परा के नाम पर इस अपराध में सब अपनी आपराधिक चुप्पी के साथ इसमें शामिल रहते हैं। </p><p>सच तो यह है कि भारतीय समाज ने अनुगामी स्त्रियों की कल्पना ही की है, स्त्री की अपनी सोच है, वह अपने फैसले खुद ले सकती है। घर - परिवार के फैसलों में उसकी हिस्सेदारी हो सकती है, यह विचार भी उसके दिमाग में नहीं आता। ऐसी स्त्रियों को वैम्प बना दिया गया या फिर खलनायिका बना दिया गया। उसे अधिकार भी उपकार की तरह दिये गये...यहाँ तक कि वेदों में भी तमाम महत्व की बात करते हुए भी ऋषिकाओं का योगदान दबाया गया। वह पुरुष की सहायता कर सकती है मगर अपनी इच्छा से अपने दम पर खड़ी नहीं हो सकती। वह सम्पत्ति की तरह दान की जा सकती है, उसका हरण किया जा सकता है, वह राजनीतिक संधियों का शस्त्र है, उसे जीता जा सकता है मगर वह अपनी इच्छा से व्यावसायिक तौर पर सबल हो, इसकी अनुमति उसे नहीं है। वह सिर्फ और सिर्फ अनुगामी हो सकती है, अन्याय सहते हुए जी सकती है या प्रतिरोध के नाम पर धरती में समा सकती है, परिवार को एक करने के लिए अपने अस्तित्व को बँट जाने दे सकती है..मगर अपने अस्तित्व के बारे में सोचना उसके लिए पाप बना दिया गया। </p><p>राम के लिए शांता का कोई महत्व नहीं, कृष्ण की कन्या चारुमती का कोई उल्लेख नहीं। रुक्मी के लिए रुक्मिणी से अधिक उसकी महत्वाकांक्षा मायने रखती है। जिन भीष्म पितामह का नाम बड़े आदर से लिया जाता है, उन्होंने भी परिवारवाद के नाम पर तीन कन्याओं का हरण अपनी शक्ति का अहंकार दिखाते हुए किया था। अपने नेत्रहीन धृतराष्ट्र के लिए जबरन गाँधारी को चुना था जिसकी परिणति महाभारत के युद्ध में हुई थी। इस परिवारवादी साम्राज्य के कारण ही द्रोपदी के अपमान पर पूरी सभा मौन थी। इसी परिवारवाद के नाम पर चाचा, चाची, मामा, मामी की बेटी तुमसे छोटी है...कौन शादी कहकर कई मेधावी लड़कियों की पढ़ाई छुड़वा दी जाती है। हमारे खानदान में आज तक ऐसा नहीं हुआ, कहकर किसी लड़की को बाहर नहीं जाने दिया जाता। तुम्हारे मौसा या मौसी की बेटी का ताना देकर लड़कियों को पढ़ाई से उठवा दिया जाता है। घर की बहू के नाम पर 20 लोगों की रसोई का भार पड़ता है, कभी बड़ा भाई खटता है तो कभी वह अपने परिश्रम के बदले छोटे भाई - बहनों के अधिकार और उनकी सम्पत्ति, दोनों पर हक जताता है क्योंकि उसके अपने बच्चे बड़े हो चुके होते हैं। भारतीय परिवार किसी स्त्री की वजह से नहीं टूटे. वह इसलिए टूटे क्योंकि आप परम्परा और परिवार के नाम पर अपना उल्लू सीधा कर रहे थे, दूसरों का हक मार रहे थे, अपने से छोटों को अपना गुलाम समझने लगे। उनकी निजता, उनका जीवन, उनके अधिकार, सब आपको अपना साम्राज्य लगने लगे। आप यह चाहते रहे कि आप बड़े हैं, आप कर्ता - धर्ता हैं, इसलिए सबको आपका गुलाम बनकर रहना चाहिए. आप सारी दुनिया को अपने हिसाब से बदलना चाहते हैं मगर आप खुद बदलना नहीं चाहते। आप चाहते हैं कि कर्तव्य के नाम पर कोई आपकी जिम्मेदारी उठा ले, कोई अपनी नौकरी तो कोई अपनी पढ़ाई छोड़ दे, किसी ने आपसे सवाल पूछ लिया तो आपको अपना अपमान लगने लगा, किसी ने कह दिया कि वह अधिकारों में रुचि नहीं रखता और आपने उसके अधिकारों को अपना समझ लिया। आज आपको अपने भाई -बहनों से कर्तव्य की उम्मीद है, और प्रेम सिर्फ अपने बच्चों के लिए है, आप चाहते हैं कि आपने सारी दुनिया को दुश्मन बना रखा है, इसलिए हर कोई उस व्यक्ति को अपना शत्रु समझे, समस्या यहाँ पर है। आप छीनते रहे हैं मगर देना आपको नहीं आया। आपको पुल बनना चाहिए, आप दीवार बनते रहे, आपने अपनी बहनों को अपना प्रतिद्वन्द्वी बनाया तो राखी के धागे में मजबूती कैसे आएगी? जिस हाथ को रास्ता दिखाने के लिए आगे होना चाहिए था, वह हाथ रास्ता रोकने के लिए तैयार हैं,,,,आखिर क्यों कोई आपकी इज्जत करेगा। किसी ने आपसे कह दिया कि उसे कुछ नहीं चाहिए और आपने समझ लिया कि उसने आपको अपने अधिकार दान कर दिये हैं...किसी को झुकाने और किसी के दमन की जिद आपको कहीं से पूजनीय नहीं बनाती। कभी खुद को देखिए और सोचिए कि किसी को नीचे गिराने की जिद में आप कितने गिर चुके हैं...शीशे में देखिए, आपने क्या किया है, उसे सोचिए और यकीन मानिए कि आपको अपनी शक्ल से नफरत हो जाएगी..पर यह तब होगा जब आँखों से अहंकार का परदा उतरेगा, आप सच का सामना करना सीखेंगे। </p><p>जहाँ ऐसी सोच नहीं है, सन्तुलन है, वहाँ परिवार है। जहाँ स्त्री को सम्मान मिला है, वहाँ परिवार है, जहाँ बहनों की इच्छा का सम्मान है, उसकी महत्वाकांक्षा अपराध नहीं मानी जाती, वहाँ परिवार है, जहाँ प्रेम है, समझ है, जबरन त्याग की उम्मीद नहीं है, जहाँ छोटों को संरक्षण मिलता है, बड़े खुद को मालिक नहीं समझते, वहाँ परिवार है। दोष परिवार या संयुक्त परिवार की संस्था में नहीं है, दोष परिवारों में पल रहे साम्राज्यवाद में हैं। दिक्कत जिद से है, अहंकार से है। फिर वह सदस्य परिवार का बड़ा हो या छोटा हो, अगर वह हावी होना चाहेगा तो दीवारें उठेंगी ही..यह समय है कि भारतीय परिवार अपनी मध्यकालीन सोच से बाहर निकलकर आज के समय के साथ चलें, स्त्रियों को अनुगामी न समझें, बल्कि अपने बराबर समझें। बहू- बेटियों और बहनों को बोझ न समझा जाए, जिम्मेदारी की तरह उनको प्रेम न दिया जाए...उसे उड़ने दिया जाए और अपना आसमान जब वह तलाशे तो उसके पैर न खींचे जाये...जब तक ऐसा नहीं होगा...जब तक परिवार के नाम पर अहंकार और साम्राज्यवाद रहेगा, परिवार नाम की संस्था पर सवाल उठते रहेंगे।</p><p>भारतीय परिवारों की एकता की कीमत स्त्रियों ने चुकायी है..आज यहाँ तक लड़कियाँ पहुँची हैं तो यह आसान नहीं रहा होगा...कई षड्यंत्रों, उपेक्षाओं, बहिष्कारों को पार करती हुई वह पहुँची हैं। घूंघट, चुप्पी और भय के वातावरण से निकलकर अपना आसमान तलाशने का सफर कभी आसान नहीं रहा। इस साम्राज्यवाद की जंजीरों को तोड़कर अपना आसमान तलाशने वाली हर स्त्री को सलाम।</p><div><br /></div>सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-74256595807029728252021-05-28T07:58:00.000-07:002021-05-28T07:58:57.316-07:00संयम, अनुशासन, सृजन, सकारात्मकता ..बस यही मंत्र हैं कोविड ही नहीं, जीवन के भी<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh_a4oMX23jJFlYBkcmxmZ43vtNyNFv1fycasYF3hNXALSPsSP5HQAgNngWf3YToVjvEvl7mO9lWkB9KjMyoztiLNFL52abkVGEOhnGjTcRIUSY5GVpISM1UinPsWdT4RAYUPM2a-m9GRpL/s2368/IMG-20210527-WA0002.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2368" data-original-width="1332" height="520" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh_a4oMX23jJFlYBkcmxmZ43vtNyNFv1fycasYF3hNXALSPsSP5HQAgNngWf3YToVjvEvl7mO9lWkB9KjMyoztiLNFL52abkVGEOhnGjTcRIUSY5GVpISM1UinPsWdT4RAYUPM2a-m9GRpL/w594-h520/IMG-20210527-WA0002.jpeg" width="594" /></a></div><br /><p></p><p>जीवन में ऐसा समय आता है और ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं जब आप ही अपने पास होते हैं। यह समय आत्मविश्लेषण का होता है, चिन्तन का होता है और इसके लिए एकान्त जरूरी होता है। भीड़ में रहकर खुद से बात होनी मुश्किल होती है। जब यह पँक्तियाँ लिख रही हूँ तो समूचा विश्व कोविड -19 की चपेट में है, काल का तांडव, मृत्यु की विभीषिका है, प्रकृति के कोप से पूरा देश और पूरी पृथ्वी आक्रांत है और इस बीच बहस चल रही है, विवाद हो रहे हैं, ऑक्सीजन और दवाओं की कालाबाजारी हो रही है..एक दूसरे को नीचा दिखाने और कमतर साबित करने की होड़ लगी है...मुख पर प्रेम और हृदय में घृणा है..आस - पास के ऐसे लोगों को जाते देख रही हूँ जिनको देखते हुए बड़ी हुई...सीखा...मन क्लान्त हो पड़ा है...हम दिखावे की ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहाँ उदारता से लेकर रोग तक, सब प्रदर्शन की वस्तु बन गये हैं..</p><p>जरा सोचिए तो ईश्वर ने ऐसी ही दुनिया दी थी आपको? क्या ऐसा ही संसार दिया था..? यही देश था जहाँ लोग दीर्घायु हुआ करते थे...स्वस्थ रहा करते थे और तब आज की तरह महँगी चिकित्सा प्रणाली भी नहीं थी। आविष्कार हमारी आवश्यकता हैं परन्तु जब लालच की पूर्ति का हथियार बन जायें तो प्रभाव खोते भी हैं..अभी 90 प्रतिशत लोग कोविड -19 की चपेट में हैं तो मैं भी तमाम सावधानियों के बावजूद मैं भी इसकी चपेट में आ ही गयी तो आश्चर्य क्या था..मगर पहले से ही सोशल मीडिया पर इसकी घोषणा कर देना तो भय का ही संचार करने वाला था। विश्वास का सम्बन्ध आत्मा से होता है...श्रद्धा से होता है, धर्म अगर विश्वास को धारण कर ले तो मजबूत होता है पर रूढ़ियों का चोला धर्म पर ओढ़ा दिया जाए तो धर्म की हानि होती हैं...तो अपना तो आधार ही विश्वास रहा...और इसी ने रक्षा भी की। वैसे भी आराधना विधि के विधान को या कठिनाइयों को टालने के लिए नहीं होती, वह इसलिए होती है कि ईश्वर ऐसी परिस्थितियों में भी अपनी कृपा बनाएं रखें, कठिनाइयों से लड़ने और उन पर विजय पाने अथवा उनको सहने का साहस दें...और ऐसा होता है, </p><p>जिसको किसी विशेष कार्य से भेजा जाता है, उनका जीवन कभी सरल होता ही नहीं क्योंकि उनको प्रेरणा बनना होता है, प्रेरणा बन सकें, भेजा ही इसलिए जाता है जिससे आम लोग उस मार्ग पर चल सकें । ईश्वर जब कठिनाई देते हैं, उन पर सच्चे हृदय से विश्वास रखने वालों का रक्षण करने के लिए पहले से ही तत्पर रहते हैं, सहने और विजय पाने और आगे बढ़ने की शक्ति भी देते हैं, मार्ग दिखाकर खुद लक्ष्य तक ले जाते हैं..हर क्षण रक्षा करते हैं...और यह समय देखिए सब ईश्वर को पुकार रहे हैं..कोई निर्मम बता रहा है तो कोई विश्वास रख रहा है...कोई एक दूसरे को कोस रहा है तो कोई सरकारों को दोष दे रहा है...औऱ यहीं पर कोई खुद से सवाल नहीं कर रहा है....</p><p>आज कृत्रिम ऑक्सीजन के लिए दौड़ लगाते मनुष्यों को ईश्वर ने ऑक्सीजन प्रदाता वृक्षों और वनों से लदी धरती ही दी थी तो वृक्ष काटते हाथों ने क्या यह भयावह भविष्य देखा होगा...नहीं देखा होगा..अगर ऐसा भविष्य देखते तो हाथ उठते ही नहीं कुल्हाड़ी उठाने के लिए...तो दोषी कौन?</p><p>हम बचपन से ही सुनते आए कि धूम्रपान, मदिरापान हमारे फेफड़ों को नष्ट करते हैं। हमारी प्रतिरोधक क्षमता खत्म होती है मगर आपने इन दोनों को बुरी आदत नहीं माना बल्कि कवियों ने भी महिमामंडन किया। नशे की लत ऐसी कि लॉकडाउन से पहले और लॉकडाउन के बाद पहली कतार यहीं लगती है तो ऐसे में पहले से कमजोर पड़े फेफड़े खराब होते हैं और इन पर कोविड -19 समेत अन्य बीमारियों का प्रहार होता है तो दोषी कौन?</p><p>पढ़ा - लिखा शिक्षित मध्यम वर्ग भी मानता है कि उसका काम सिर्फ टैक्स भरना है, इसके आगे कोई जिम्मेदारी नहीं मगर बात जब खुद पर आती है तो उसे लगता है कि वह अकेला ही सब कुछ क्यों करे? क्या आप किसी संस्थान के मालिक होते हैं तो वेतन दे देने से आपकी जिम्मेदारी पूरी हो जाती है...अगर नहीं तो सिर्फ टैक्स भर देने से आपकी जिम्मेदारी पूरी कैसे हो सकती है? प्रवासी श्रमिकों को काम से निकालने और शहर से निकालने में सुशिक्षित लोगों की बड़ी भूमिका है। इनका काम सोशल मीडिया पर 4 शब्द लिखने से या लम्बी सी कविता लिख देने से पूरा हो जाता है। ऐसे में अगर अपने जीवन की रक्षा करने के लिए हर ओर से सताये गये ये लोग राशन की दुकानों के सामने परहेज के सारे नियम भूल जाएं तो जिम्मेदारी किसकी है? नेताओं की रैलियों में 5 रुपये और भात के लिए अगर भीड़ लगा लें तो दोष किसका है? अगर प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक को कोविड से पहले चुनावों की चिन्ता हो तो कोविड और चीन को दोषी कहकर क्या बिगाड़ लेंगे आप? मास्क पहनाने के लिए जहाँ पर पुलिस तैनात करनी पड़ रही हो, कोरोना योद्धाओं को सम्मान जताते हुए उनको घर से बाहर निकालने के लिए लोग खड़े हों तो क्या उस देश के लोगों को कोई अधिकार है कि वह दूसरों पर उंगली उठाए? </p><p>उपकरणों पुर निर्भर रहने की ऐसी लत लगी कि आप बात कहने के लिए भी उसे लिखते हैं...चिट्ठी लिखना आपको डाउन मार्केट लगता है। जिस देश में अड्डा. चौपाल, आंगन की परम्परा हो...जहाँ आध्यात्मिक चेतना हो...जहाँ एकान्त में सृजन की परम्परा रही हो...वहाँ के लोग कुछ दिन अलग रह जाने से घबराते हैं...आप खुद सोचिए कि आप कहाँ थे और कहाँ आ गये हैं। आज वीडियो कॉल है, सोशल मीडिया है...मगर कुछ नहीं है तो अपने लिए कुछ समय निकालने की ललक, अपने मित्रों से रूबरू होने की चाहत, हम अनौपचारिकताओं के बीच अनौपचारिक हो रहे हैं...जुड़ रह हैं ऊपर से। हमारी सारी रुचियाँ फेसबुक, सिनेमाहॉल, मल्टीप्लेक्स, मॉल, रेस्तराओं तक सिमट गयी है...छोटी - छोटी बातें पीछे छूटती गयीं। किताबों की जगह भी डिजिटल उपकरणों ने ले ली और कागज की वह सोंधी - सोंधी गन्ध भी हम भूलते जा रहे हैं...बस कितना कुछ तो है सोचने के लिए...। बच्चों को सुविधाओं के मायाजाल में ऐसा बाँधे जा रहे हैं कि एक हल्की सी चोट और हल्की सी तकलीफ भी उन पर भारी पड़ रही है।</p><p>एकान्त शब्द नया नहीं है, न भारतीय परम्परा और संस्कृति के लिए और न मेरे लिए ही। अपना जो कार्यक्षेत्र है. जितनी भी रुचियाँ हैं...सब की सब एकान्त की माँग करती हैं..स्वभाव भी ऐसा ही मिला है...सम्भवतः इस एकान्तवास से दिक्कत नहीं थी...हाँ ये सच है कि कोविड के दौरान मन आशंकित होता है, मन में घबराहट भी होती है, कभी बार यह भी सोचना कठिन होता था कि अगली सुबह कैसी होगी..मगर मेरा विश्वास अटूट था..मैं बार - बार कहती हूँ कि ईश्वर मुझसे प्रेम करते हैं...और कृष्ण से बहुत प्रभावित हूँ...अपने पार्टनर ही लगते हैं और समग्रे एकम् भी..माता सरस्वती ने भी अपनी कृपा रखी है तो मनोबल उन्होंने टूटने नहीं दिया..सम्भवतः यही कारण था कि कोविड या एकान्तवास मेरे लिए भय नहीं बन सका बल्कि खुद की खोज का एक माध्यम बन गया। घर में चिन्ता तो सब करते हैं मगर चिन्ता के साथ जो साथ रहा...वह निःसन्देह मेरी भाभी ही हैं...। अच्छी - बुरी...मीठी - कड़वी तमाम स्मृतियों के बीच आज अच्छी या बुरी जो भी हूँ, श्रेय इनको ही जाता है...मेरी कड़वाहट का भी और मेरे अनुशासित जीवन का भी। कई बार लगता है कि ईश्वर ने जैसे इनको मेरे लिए ही भेज दिया है..क्योंकि मेरे संघर्ष और मेरी सफलताओं का कारण और उद्देश्य इनके बगैर पूरा नहीं होता..तो इस एकान्तवास में अगर कोई सेनापति की तरह खड़ा था। स्त्रियों में कितनी शक्ति, कितना सामर्थ्य, कितना मानसिक बल होता है और इसे वह किस तरह से समाज के हित में उपयोग में ला सकती है,..यह और अधिक स्पष्ट हुआ। </p><p>स्त्री एक धुरी है औऱ समूचा विश्व इसके चारों ओर घूमता है मगर विडम्बना देखिए कि लोग धुरी को ही किनारे पर रखना चाहते हैं,..अगर धुरी को सम्मान मिलता तो सोचिए कि दुनिया कितनी सुन्दर होती..अगर उसे बार - बार यह बताने की जगह कि उसका दिमाग उसके घुटनों में है या वह नहीं समझेगी, अपना दिमाग न लगाए, उसके विकास के लिए द्वार खोले जाते, स्त्री तो पुरुष की प्रगति में अपना सुख खोज ही लेती है, पुरुष भी स्त्री की प्रगति में अपना सुख देखता। यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि स्त्री का मतलब यहाँ पत्नी, माँ या बेटी नहीं है बल्कि वह आपकी बहन या कोई भी स्त्री हो सकती है..चाहे वह सड़क पर हो या कार्यस्थल पर।</p><p>दो दिन ऐसा ज्वर रहा कि बिस्तर से उठ ही न सकी...2 - 3 दिन बाद पुष्टि हुई कि हल्का संक्रमण है। घबराना चाहिए था...मैं नहीं घबरायी क्योंकि मैं मानती हूँ जो होता है, उसके पीछे ईश्वर की कोई इच्छा होती है...कष्ट है तो निवारण भी वही है। मैंने बस यही कहा, जो तुम्हारी इच्छा, तुम समझो, तुम्हारा काम समझे, मेरे वश में वही है जो राह तुम दिखाओ। सम्भवतः युद्ध से अधिक समर्पण ही था मगर कोविड के प्रति नहीं, मेरे विश्वास के प्रति। मेरे हर कार्य में यही है....मैंने कुछ नहीं किया...जो होना है, वह तो होता ही, मैं निमित्त और माध्यम मात्र हूँ । मैं न होती तो कोई और होता मगर होता जरूर तो मैं भाग्यशाली और आभारी हूँ कि मुझे चुना गया।</p><p>मैं जानती हूँ कि कि तर्क और बौद्धिकता के परिवेश में विश्वास एक कोरी कल्पना मानी जाती है मगर यह सत्य है...और इसका प्रमाण मैं खुद हूँ,,,,मेरा पूरा जीवन है...आप विश्वास कीजिए,,,वह आपको कभी अकेला नहीं छोड़ेगा...विश्वास में जब आप सौदेबाजी करने लगते हैं, तब दिक्कत होती है...बार - बार कोई आपसे लगातार माँगता ही रहे तो आप भी एक समय के बाद उससे किनारा कर ही लेंगे...कोई देता रहे और देता ही जाये..योग्यता और अयोग्यता देखे बगैर, हम उस वस्तु को पाने के योग्य हैं भी या नहीं, यह विचार भी नहीं आता...हमें हर चीज अपने हिसाब से चाहिए और सर्वश्रेष्ठ चाहिए...और वह हमें वह देता है, जिसके हम योग्य होते हैं...। आप खुद को सर्वश्रेष्ठ मानिए, उसके लिए तो प्रकृति का हर जीव बराबर है...पशु - पक्षी, वृक्ष,,,सब बराबर हैं उसके लिए तो जब ईश्वर की एक सन्तान के लालच और असन्तोष के कारण समूची सृष्टि ही खतरे में पड़ जाए तो यह तो होना ही था।</p><p>हमारे पूर्वजों का जीवन प्रकृति के साहचर्य़ का जीवन था..वह उतना ही लेते थे जितना आवश्यक होता था...जितने की आवश्यकता होती थी, उतने की ही इच्छा रखते थे। आप किसी का भी जीवन उठाकर देखिए..वनों औऱ वनवासियों के साथ प्रकृति का संरक्षण ही किया उन्होंने..हम राम और कृष्ण को पूजते हैं...शिव की आराधना करते हैं पर उनके जीवन से हमने क्या सीखा...कुछ भी तो नहीं..वेदों में प्रकृति की आराधना है...,वेदों से प्रेम है तो प्रकृति से प्रेम करना सीखिए...संस्कृति से प्रेम है तो प्रकृति का संरक्षण करिए..,.आपने प्रकृति से खिलवाड़ किया...ईश्वर अपनी संतानों का क्रन्दन कैसे देख पाता इसलिए यह एक दंड ही समझिए...एक वृक्ष को 10 पुत्रों के बराबर माना गया है। आधुनिक युग में आचार्य़ जगदीश चन्द्र बोस ने भी प्रमाणित किया कि पौधों में जीवन होता है...आप उनको जीवन देते, वृक्ष लगाते तो सम्भवतः ऑक्सीजन प्लांट की जरूरत ही न पड़ती.. जो देता है, वही श्रेष्ठ होता है, छीनने वालों को श्रेष्ठ होने का दम्भ रहता है और वे अपनी श्रेष्ठता का प्रमाणपत्र दूसरों से चाहते हैं....आप एक नकली जीवन जीते रहे और इसे अपनी उपलब्धि मानकर अपनी पीठ थपथपा रहे हैं पर हुआ क्या....प्रकृति के प्रतिकार ने आपको आपकी जगह दिखा दी।</p><p>रही बात मेरी तो मेरे साथ अच्छी बात यह थी कि पढ़ने का शौक था और एकान्तवास में तीन किताबें पढ़ गयीं...जिनमें से एक पर लिखने का मन भी है। वह पुस्तक लोकगीतों पर आधारित है...फिर डीआईवाई देखकर कुछ चीजें बनायीं.,,मेरा ख्याल रखने में मेरी टीम शुभजिता की बच्चियाँ भी पीछे नहीं रहीं। फोन पर हाल - चाल लेना, कैसे - क्या करना है वह बताना, हिम्मत बंधाना...और अपना काम जारी रखना...जैसे इन सबने जिम्मेदारी ले ली। इस बीच विष्णुकांत शास्त्री की कविताओं पर कोलाज भी गया और दूसरी चीजें भी,पेंटिंग भी हुई। कहने का मतलब यह कि खुद को व्यस्त रखा औऱ चूँकि यह सारी चीजें मेरे मन की थीं इसलिए खुशी भी मिलती थी। इसके अतिरिक्त व्यायाम और ध्यान, ये दो चीजें मेरी जीवनचर्या का अंग बनीं। हाँ, यह था कि एकान्तवास में और कोविड संक्रमण के कारण लोग दूर रहना चाहते हैं...आप अलग रहते हैं, अगर आप मानसिक तौर पर तैयार न हों तो तकलीफ होती है लेकिन ऐसे में जरूरी है कि आप उनकी जगह पर रहकर सोचें...मेरा कमरा मैं बंद ही रखती हूँ...अक्सर..मैंने खुद ही सबको दूर रखा..,...मैं मानसिक तौर पर तैयार थी...जब भी मन आशंकित होता किसी न किसी का फोन आ जाता, ध्यान दूसरी ओर लग जाता..तो नकारात्मक हो ही नहीं सकी।</p><p>एक दिन ऐसे ही बैठी थी और रवीन्द्र संगीत रिकॉर्ड करके नवनीता मैम को भेजा..और फिर उन्होंने बताया कि संगीत अभ्यास को और बेहतर कैसे बनाया जा सकता है,...अब सुरसाधक के साथ संगीत अभ्यास भी आरम्भ हो गया है...कुल मिलाकर जीवन में संयम, अनुशासन, सृजन, सकारात्मकता है...अब अपना ही बेहतर संस्करण हूँ मैं...और यह जारी रहे, यही कामना है...सुबह उगते सूर्य़ को देखना, गायत्री मंत्र पढ़ना. संगीत अभ्यास करना...योग करना, ध्यान करना, पढ़ना, रचना. मेरे यही मूल मंत्र हैं। योग मन को शांत रखता है...बोलती भी हूँ और लड़ती भी हूँ मगर हमेशा की तरह त्वरित प्रतिक्रिया तक सीमित नहीं, उस पर खोज चलती है, विचार मंथन होता है..नये - पुराने कवियों को गा रही हूँ,,,,सृजन से समृद्ध हो रही हूँ...खुद को तलाश रही हूँ...गढ़ रही हूँ..यात्रा जारी रहे...और क्या चाहिए...जीवन अनुभवों से सीखने का ही तो नाम है,,,सीख रही हूँ...धन्यवाद ईश्वर।</p><div><br /></div>सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-49152250224574677442021-04-24T00:37:00.006-07:002021-04-24T00:43:49.897-07:00मंदारमनी और सरप्राइज पार्टी वाली यादें...<p> </p><p><br /></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh_1laklza8Ndl8VLJuuXncEM0vGwadeJdN2R5xdbqOEd6ncCxJ0BUCJvrT0wImVmd-uyImVhiA-vTFqqJ0SouK2dk-dGkMXaauuXVw7sJPKUJ5EBWmpmrFd4iHqnyu_tnwwUXuzus-3oNA/s2048/20210407_170819.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1536" data-original-width="2048" height="470" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh_1laklza8Ndl8VLJuuXncEM0vGwadeJdN2R5xdbqOEd6ncCxJ0BUCJvrT0wImVmd-uyImVhiA-vTFqqJ0SouK2dk-dGkMXaauuXVw7sJPKUJ5EBWmpmrFd4iHqnyu_tnwwUXuzus-3oNA/w626-h470/20210407_170819.jpg" width="626" /></a></div><br /><p>हाँ...घूमना तो पसन्द है और समन्दर से बहुत लगाव है...ऐसा लगता है कि जैसे वह हर बार बुलाता रहा है...कोरोना के प्रकोप के कारण कोलकाता के बाहर निकलना नहीं हुआ। इस बार भी जाना लगभग अचानक ही हुआ,,,पिछले कुछ दिनों से कोरोना से परेशान उकताए लोगों को सोशल मीडिया पर तस्वीरें चिपकाते देख रही थी...तब भी मन नहीं हुआ। इसके पहले अपनी सहेली नीलम के साथ जा चुकी थी मंदारमनी....फिर क्यों...ऐसा लगा कि बस अब...निकल ही पड़ना चाहिए...तो हम निकल पड़े और मौका भी ऐसा मिल गया। </p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjjgNYDQq1AwSk9bju7ctcscj8sx5itSaKfToFeiS-UEHI2-qtpVDdniABLqgGsnfkdLWtYZcnb9Cvtv1918aCBFtwVBPYxrzxpvUXMk4Guhs4o3fjAhMv7YnkmMaGyZ2M3cGICFKix6w5R/s5152/IMG_0310.JPG" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="3864" data-original-width="5152" height="337" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjjgNYDQq1AwSk9bju7ctcscj8sx5itSaKfToFeiS-UEHI2-qtpVDdniABLqgGsnfkdLWtYZcnb9Cvtv1918aCBFtwVBPYxrzxpvUXMk4Guhs4o3fjAhMv7YnkmMaGyZ2M3cGICFKix6w5R/w449-h337/IMG_0310.JPG" width="449" /></a></div>अप्रैल में आता है जन्मदिन हमारा...इस बार हमने अनायास मन बना लिया कि कुछ अपने लिए स्पेशल करना है...खुद को दुलार करना है....पहले अकेले जाने की ही तैयारी थी...लेकिन फिर लगा...कि इस बार भी किसी दोस्त को साथ लिया जायेगा औऱ यह निर्णय चामत्कारिक ही था...दरअसल, कहीं बाहर न निकल पाने के कारण कुछ अच्छा नहीं लग रहा था और लग रहा था कि एक मी टाइम बहुत जरूरी हो गया है।<p></p><p>पापिया....जिसे सब पीहू पापिया...के नाम से जानते हैं....मैंने...उसे कारण भी बता दिया...वह नौकरी भी करती है तो व्यस्तता भी थी....लेकिन घुमक्कड़ वह भी अपने जैसी ही है औऱ मेरी तुलना में तो बहुत ज्यादा घूम चुकी है....। इंटरनेट का धन्यवाद...इस बार भी गोआईबीबो पर रिसॉर्ट बुक किया....और शायद ऊपरवाला भी मुझे तोहफा ही देना चाहता था....एकदम किफायती कमरा और समुद्र के पास मिल भी गया...हमने सोनार बांग्ला रिसॉर्ट बुक किया था.....और रेड बस से बस बुक की।</p><p>तो 7 अप्रैल को अपने जन्मदिन की सुबह 6 बजे हम धर्मतल्ला पहुँच गये...पापिया सुबह की पहली ट्रेन लेकर हाजिर थी...6.20 में बस चल पड़ी और सफर के दौरान 90 के दशक के गीत बस में बज रहे थे...और मैं एक जैसी भारी साड़ियाँ, लकदक गहनों से सजी नायिकाओं को देखकर उकता गयी थी और उसमें बीच - बीच में खिड़की का परदा हटाकर नजारे देख रही थी...पापिया कभी जाग रही थी तो कभी थकी होने के कारण सो भी जा रही थी...बस में घुसते ही चॉकलेट का डिब्बा मैडम ने थमा दिया था...वैसे चॉकलेट मैं खाती नहीं हूँ। बीच में कोलाघाट में बस रुकी....और बादाम का पैकेट लेकर मैं वापस बस पर आ गयी थी...उतरने का मन नहीं था।</p><p>सुबह 10.30 बजे हम चालखोला में थे और ऑटो रिजर्व करके हम रिसॉर्ट की तरफ चल पड़े थे....नन्दीग्राम की हवा का असर यहाँ भी था। लोगों ने बताया कि दीदी को चोट तो लगी थी मगर जिस तरह उन्होंने ठीकरा नन्दीग्राम की जनता पर फोड़ा..वह सही नहीं था....हरियाली देखते हुए हम बढ़ रहे थे...राजनीति के साथ विकास को लेकर बात हो रही थी और बातों - बातों में हम रिसॉर्ट पहुँच भी गये....।</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhwA4BD8jRJLP3D2jaqtwtketAprPlbnRB9KA7AvBv-rSdcp-VQEZWNFk0OTkHS5kbXWQW1PZYPqhADbcGuxd7C5-IN0idyhoUGq2u_nkt49HOWCR679GyNJYZe6MgcpF6P958h6yoW-2S7/s2048/20210407_175000.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1536" data-original-width="2048" height="353" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhwA4BD8jRJLP3D2jaqtwtketAprPlbnRB9KA7AvBv-rSdcp-VQEZWNFk0OTkHS5kbXWQW1PZYPqhADbcGuxd7C5-IN0idyhoUGq2u_nkt49HOWCR679GyNJYZe6MgcpF6P958h6yoW-2S7/w471-h353/20210407_175000.jpg" width="471" /></a></div><p>संयोग से रिसार्ट के मैनेजर पापिया मैडम के मुँहबोले भ्राता श्री राजू दास निकल गये...और मैं बहुत खुश...दोनों भाई - बहन को मिलवा दिया...मगर अभी जो होने जा रहा था...उसकी तो मैंने कल्पना ही नहीं की थी...कमरे में घुसी...पूरा कमरा रंग - बिरंगे गुब्बारों से सजाया गया था...बिस्तर पर हैप्पी बर्थ डे लिखकर सजाया गया था....मैं अवाक्....मेरी जिन्दगी में कभी ऐसी सरप्राइज पार्टी मिली ही नहीं थी...समझ में ही न आए कि मैं करूँ तो क्या करूँ...कभी गुब्बारे देखती,...कभी कमरा देखती...कुछ समझ नहीं आया तो चुपचाप बिस्तर पर बैठ गयी...आँखें अनायास ही छलक पड़ी...भावुक तो मैं ऐसे ही हूँ और ऐसा तोहफा....10 मिनट तक यूँ ही बैठी रही...फिर जरा सी सामान्य हुई तो पता चला कि बुकिंग के दौरान जो नम्बर मिला था...उस पर बात करके पापिया ने यह सब इन्तजाम करवाया था और पूरा रिसॉर्ट इसमें शामिल था...खैर...यादगार अनुभव देने के लिए सभी का शुक्रिया...हम थक गये थे...हाथ -मुँह धोकर हम नीचे खाने आ गये...समन्दर का पिछला तट हमारे कमरे से दिखता था...यानी कमरा भी खास ही मिला था और यह सब पापिया के कारण था..। भाई राजू दास को बहुत शुक्रिया अपना।</p><p>शाम को समन्दर तट पर हम हाजिर थे....कविता पढ़ी. कविता सुनी...सीपियाँ चुनी...खूब अठखेलियाँ कीं....लगभग एक - डेढ़ घंटे तो हम थे ही वहाँ....निकलने का मन ही नहीं था...पर शाम ढलने लगी तो वापस आ गये...फिर स्नान करके...औऱ पैरों में भरी रेत साफ करके हम फिर समन्दर किनारे आ गये,...यहाँ गरमा - गरम चाय का आनन्द लिया..अन्धेरा होने के कारण शूट करना कठिन था...फिर भी समन्दर के पास थोड़ी देर बैठे...और वापस रिसार्ट लौटे...भाई साहब...केक लेकर तैयार थे...तैयारी थी कि रिसार्ट में जो हट होती है...वहाँ केक कटेगा मगर हवा इतनी तेज कि यह योजना तो धरी की धरी रह गयी और आखिरकार कमरे में ही केक काटा गया....अरसे बाद जिन्दगी में इतना सुकून मिल रहा था...इतना दुलार मिल रहा था...फोन पर बधाई सन्देश आ रहे थे पर किसी से कुछ बोलने का मन नहीं था...मैं इन लम्हों को जीना चाहती थी....बीच - बीच में फोन देखती पर उस दिन तय किया कि अब जो भी करना है,...बाद में होगा...उस रात बालकनी में खूब गप हुई....।</p><p><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzJfRYusG14l3pXbEwpw_VCEepcnqE1_-UlOFha0mnHlDONr0noDcNUXroQHiOZEfpTmq7NKFLi4sixJCZyTl6f2SGSDLFVh3vXhWMd480gFshwXkiXHwROCEyByFKVdHBd0hh2SB7D3wU/s2048/20210407_211919.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="1536" data-original-width="2048" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzJfRYusG14l3pXbEwpw_VCEepcnqE1_-UlOFha0mnHlDONr0noDcNUXroQHiOZEfpTmq7NKFLi4sixJCZyTl6f2SGSDLFVh3vXhWMd480gFshwXkiXHwROCEyByFKVdHBd0hh2SB7D3wU/s320/20210407_211919.jpg" width="320" /></a>अगली सुबह 8 अप्रैल को हम फिर समन्दर के पास थे....पिछली शाम की तरह इस बार भी तस्वीरें लीं....खूब मस्ती की....औऱ तैयार होकर आ गये...मुझे मंदारमनी में बन रहा नया मंदिर कवर करना था...शॉपिंग का वीडिय़ो लेना था...तो नाश्ते के बाद हम समुद्र तट के पास स्थित बाजार पर थे...चाय पी और खरीददारी की...। निश्चित रूप से पहले की तुलना में मंदारमनी के बाजार बहुत बेहतर हुए हैं और व्यवस्थित भी हुए हैं...। यहाँ के बाजारों में हस्तशिल्प का लगभग हर सामान बहुत किफायती कीमत पर मिलता है पर आपको जरा सा मोल - भाव तो करना ही होगा। लोग यहाँ राजनीतिक स्तर पर बहुत मुखर नहीं थे....या यूँ कहें कि चुप्पी वाली समझदारी उनको पसन्द होगी। मेरा बैग जवाब देने लगा था तो एक बैग लिया...जो सीपियाँ चुनीं थीं...उसे सहेजा....सामान ठीक किया और नीचे आ गये...। इस दौरान रिसार्ट के हर सदस्य का व्यवहार बहुत ही सौहार्दपूर्ण रहा और जगह ऐसी कि बार - बार आने को मन करे। मुख्य बीच रिसार्ट से 3 -4 मिनट की दूरी पर है...पर समन्दर के पास चलते हुए यह दूरी महसूस नहीं होती। पापिया ने टोटो रिक्शा का नम्बर ले लिया था तो सबको धन्यवाद देकर हम वापस अपने कोलकाता की ओर थे। बस में वापसी का अनुभव अच्छा नहीं रहा...वही घटिया गीतों के कारण ....जिसे बंद करवाना पड़ा मजबूरन...पर जो भी हो....समन्दर हमेशा भाता है...और मंदारमनी से तो जैसे प्रेम ही हो गया है....पर इस बार कहीं और....कब...कैसे...यह तो समय तय करेगा मगर अभी जो स्थिति है...उसे देखकर अपना अनुभव तो वरदान ही लग रहा है मुझे...</p><p><b></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><br /></b></div><b>वीडियो देखें </b><p></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="426" src="https://www.youtube.com/embed/jRh5D-MLak4" width="679" youtube-src-id="jRh5D-MLak4"></iframe></div><br /><b><br /></b><p></p><p><b>मंदारमनी के बारे में</b></p><p>पूर्व मिदनापुर जिले में यह जगह बंगाल की खाड़ी के उत्तरी ओर है और यह तेजी विकसित हो रहा रिसॉर्ट गाँव है। कलकत्ता हवाई अड्डे या दमदम एयरपोर्ट से कोलकाता - दीघा रूट पर बसा मंदारमनी लगभग 180 किमी दूर है। रेड क्रॉब यहाँ मिलते हैं..यहाँ समुद्र तट पर फोटोग्राफर रहते हैं अगर आप तस्वीरें खिंचवाना चाहें...</p><p>आप ट्रेन या बस से जा सकते हैं पर कोलकाता से जा रहे हैं तो बसें बेहतर विकल्प हैं..चालखोला स्टैंड पर मंदारमनी के लिए ऑटो उपलब्ध हैं। समुद्र तट पर अभी बहुत भीड़ - भाड़ नहीं है तो सप्ताहांत में जाने की सोच रहे हैं तो आपकी छुट्टियों के लिए यह एक अच्छी जगह है।</p><p>.</p>सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-85078101992995731032021-03-29T04:46:00.000-07:002021-03-29T04:46:16.449-07:00होलिका....पितसत्ता का उपकरण बनने वाली स्त्रियों की नियति है<p><br /></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj3G9-mNMCnxStwnw85Ki1V8Lcw7mFXMmu5leTXsEm2yL1AvJRmMv7IeKMeE7xbSnK7GjjO51io_hYYeda5f6iLQd3rGDyQKvcNEtD1WLLzVRPeeWYfV_P71YJrAuCiYKrAwlg8b7uBpqgs/s800/woman-dancing-in-colourful-powder-at-holi-in-india.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="534" data-original-width="800" height="401" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj3G9-mNMCnxStwnw85Ki1V8Lcw7mFXMmu5leTXsEm2yL1AvJRmMv7IeKMeE7xbSnK7GjjO51io_hYYeda5f6iLQd3rGDyQKvcNEtD1WLLzVRPeeWYfV_P71YJrAuCiYKrAwlg8b7uBpqgs/w628-h401/woman-dancing-in-colourful-powder-at-holi-in-india.jpg" width="628" /></a></div><br />होली का त्योहार मनाया जा रहा है...होलिका जलायी जा चुकी है...वैसे तो दशहरे पर रावण भी हर साल जलता है...मगर उसकी वाजिब वजह है...होलिका हो शूर्पनखा हो...दोनों ही तो भाइयों की महत्वाकाँक्षा की बलि चढ़ गयीं। दोनों को ही इस्तेमाल ही किया गया...देखने वाली बात यह है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था का हथियार बनने वाली औरतों की नियति यही होनी थी..यही हुई। अगर इतिहास को देखा जाये तो पुरुषों के अहंकार के साथ ही पितृसत्ता को प्रश्रय देने वाली स्त्रियों ने ही युद्धों की पृष्ठभूमि रची है और सीता हो या द्रोपदी के सिर पर दोष हमेशा से मढ़ा जाता रहा है। साहसिक अवतार वाली स्त्रियों को समाज ने हाशिये पर डाला है।<p></p><p>हम होलिका की ही बात करें...यह सच है कि प्रह्लाद को लेकर गोद में बैठी और अति आत्मविश्वास इसका एक बड़ा कारण था लेकिन होलिका के पास क्या दूसरा विकल्प था...सत्ता से तो सबको भय रहता है..मरना तो उसे था ही मगर आप खुद प्रह्लाद की हत्या के षडयंत्र में भागीदार बनने का कारण क्या सिर्फ उसका निहित स्वार्थ था या भाई की सत्ता को बरकरार रखने की जिद या राजाज्ञा का भय...कारण जो भी हो..हम होलिका को विक्टिम नहीं मान सकते...वह उपकरण मात्र थी...हिरण्यकश्यपु की अदम्य लालसा और उसके अहंकार का...</p><p>होलिका हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप नामक योद्धा की बहन और प्रह्लाद नामक विष्णु भक्त की बुआ थी। जिसका जन्म जनपद- कासगंज के सोरों शूकरक्षेत्र नामक पवित्र स्थान पर हुआ था। उसको यह वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जलेगी। इस वरदान का लाभ उठाने के लिए विष्णु-विरोधी हिरण्यकश्यप ने उसे आज्ञा दी कि वह प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश कर जाए, जिससे प्रह्लाद की मृत्यु हो जाए। होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश किया। ईश्वर कृपा से प्रह्लाद बच गया और होलिका जल गई। होलिका के अंत की खुशी में होली का उत्सव मनाया जाता है जबकि उत्सव तो हिरण्यकश्यपु के अंत का मनाया जाना चाहिए..यह उन औरतों को सोचना चाहिए जो होलिका की तरह अन्याय का साथ सम्बन्धों के नाम पर तो कभी भय के कारण देती हैं...होलिका उनके लिए सबक है। </p><p>अब बात करते हैं शूर्पनखा की...रामायण जब भी देखिए तो सीता -हरण के पीछे रावण का तर्क यही रहा कि उसने अपनी बहन के अपमान का प्रतिशोध लिया...यही तर्क खलनायक की पिटाई के पीछे हिन्दी फिल्में देती हैं और फिल्म के नायक की हिंसा को ग्लैमराइज किया जाता है...। खानदान की इज्जत तो कभी साम्राज्य का सम्मान..शूर्पनखा से लेकर सीता और द्रोपदी के नाम पर जो महायुद्ध हुए...उसमें असल कारण तो यह भी था...बहनों के लिए कौन किसका दुश्मन बनता है...वह भी उस समाज में जहाँ सम्मान की तथाकथित रक्षा के लिए ऑनर किलिंग हो जाती हो या लड़कियों की पढ़ाई या नौकरी छुड़वा दी जाती हो...वहाँ बहनों और बेटियों को लेकर जिस प्रकार की क्रूरता दिखती है...उसमें प्रेम तो कहीं नहीं होता...अपनी नाक कटने की पीड़ा अधिक होती है क्योंकि पितृसत्ता में स्त्री या तो उपकरण है या फिर सम्पत्ति...और सम्पत्ति है इसलिए उससे प्रेम नहीं होता मगर छिन जाने की आशंका होती है...स्त्री में ही खानदान की इज्जत भर दी जाती है...यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या लड़के खानदान की इज्जत नहीं होते? लड़कियों को दुप्पटा ठीक से लेने वाले लड़के अगर अपनी शर्ट के बटन ठीक करना सीख जाते तो क्या चीजें आसान नहीं होतीं? ये कैसा आचरण है कि लड़कियों के पैर दिखने में दिक्कत है पर आपको सोशल मीडिया पर अर्द्धनग्न तस्वीरें डालने वाले लड़के सामान्य लगते हैं? विषयान्तर नहीं करते हुए हम वापस शूर्पनखा की ओर लौटते हैं..शूर्पनखा के कंधे पर अपने अहंकार का अस्त्र चलाने वाले रावण ने सीता का हरण अपनी लिप्सा के लिए ही किया था...क्योंकि जिसके अधीन खुद देवता हों...वह इतना तो बेवकूफ नहीं होगा कि वह सही या गलत पहचान न सके...और शूर्पनखा ने भी अपना प्रेम ही निभाया था क्योंकि उसने भी अपने हिस्से का प्रतिशोध ही लिया था और बीच में पिस गयी सीता। देखा जाये तो द्रोपदी भी कौरवों और पांडवों की द्वेषाग्नि में ही झुलसी थी वरना क्या वह पांडवों की पत्नी नहीं होती...तो भी दुर्योधन उसका अपमान करता...दरअसल, दुर्योधन ने भी पांडवों के साथ दुश्मनी निकालने के लिए ही द्रोपदी को चुना था और इसका बड़ा कारण स्वयंवर में उसकी पराजय भी थी...। शूर्पनखा के जीवन में पीड़ा हमेशा रही। कहा जाता है कि विद्युतजिव्ह राजा कालकेय का सेनापति था. रावण हर राज्य को जीतकर अपने राज्य में मिलाना चाहता था इस कारण रावन ने कालकेय के राज्य पर चढ़ाई कर दी थी. कालकेय का वध करने के बाद रावण ने विद्युतजिव्ह का भी वध कर दिया था. कहा जाता है कि रावण ये बात नहीं जानता था कि उसकी बहन कालकेय सेनापति विद्युतजिव्ह से प्रेम करती है, इस वजह से रावण ने उसका भी वध कर दिया. जबकि कई पौराणिक कहानियों में माना जाता है कि रावण जानता था कि उसकी बहन को विद्युतजिव्ह से प्रेम है इसी कारण उसने उस योद्धा की हत्या कर दी। शूर्पणखा को जब अपने भाई के इस कृत्य के बारे में पता चला तो वो क्रोध और दुख के मारे विलाप करने लगी और उसने दुखी मन से रावन को श्राप दिया कि मेरे कारण ही तुम्हारा सर्वनाश होगा और इस तरह वह भी रावण की सत्ता का एक टूल बनकर रह गयी। सीता की अन्य बहनें तो नाम बनकर ही रह गयीं... कभी - कभी सुभद्रा का जिक्र होता है मगर राम की बड़ी बहन शांता को दरकिनार किया गया...लिखने वालों ने इतिहास के साथ खूब मनमानी की है।</p><p>कौरवों - पांडवों की बहन दुःशला के बारे में बात नहीं होती..बात होती है उन स्त्रियों की, जिन्होंने पूरक बनना स्वीकार किया...अपने अधिकारों को लेकर आवाज नहीं उठायी...अन्याय को नियति समझकर स्वीकार किया। महत्वाकांक्षी बहनों को भाई कभी पसन्द नहीं करते...इतिहास में रजिया सुल्तान का जीवन इसका साक्षी है। पिता ने तो विश्वास किया मगर रजिया सुल्तान को षडयंत्र का शिकार होना पड़ा...। कभी इतिहास के पन्ने पलटिए या सुनहरे परदे पर नजर दौड़ाइए....आत्मनिर्भर...खुद मुख्तार...स्पष्टवादी बहनों को समाज ने स्वीकार नहीं किया...अगर वह भाई से मेधावी और सफल निकली तो अच्छे से अच्छे महापुरुष भी उसकी योग्यता को पचा नहीं पाते...रवीन्द्रनाथ ने क्या कभी अपने घर की स्त्रियों को प्रतिभा को सामने लाने का प्रयास किया...स्वर्ण कुमारी देवी को हम कहाँ सेलिब्रेट करते हैं.....विजयलक्ष्मी पंडित की सफलता को कितनी बार हमने स्वीकारा है...दरअसल, हमारी बुनियाद ही गड़बड़ है...और कुछ सामाजिक स्वीकृति का लोभ कि बहनों को अपने हक की बात कहना भी गुनाह लगता है...वह कभी सवाल नहीं करतीं....उनको गाय की परिभाषा में शालीनता दिखती है...मगर उसकी लाचारी नहीं दिखती...कभी गाय से ही पूछ लीजिए क्या वह खूँटे से बंधना पसन्द करती है या उसे स्वतंत्र होकर विचरना पसन्द है...आपको यह असामान्य क्यों नहीं लगता कि अपने ही घर में अपने ही समकक्ष किसी व्यक्ति के सामने आपको सिर झुकाकर निर्जीवों की तरह रहना पड़े..या आपके जीवन को नियंत्रित किया जाये...आपके लिए आजादी इसलिए बुरी चीज है क्योंकि आप खुद गुलाम हैं....पितृसत्ता के हाथ में खिलौना बनने वाली स्त्रियों के साथ यही होना चाहिए जो होलिका के साथ हुआ...तो आप चाहे जिस किसी रिश्ते से बंधी हैं....अगर आपमें मनुष्यता नहीं है तो फिर आपकी नियति भी वही है....मगर हाँ....होलिका के साथ अगली बार हिरण्यकश्यप का दहन होते हम जरूर देखना चाहेंगे और तब होली के रंग शायद और चटख हो उठेंगे।</p>सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-80185896232929259042021-03-12T01:02:00.003-08:002021-03-13T00:44:20.861-08:00थप्पड़ के बहाने....प्यारी बहनों, अपने अधिकार लेना सीखिए और सजा देना सीखिए<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="592" data-original-width="740" height="357" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnkERTmZzi0ZPhPUsxlwmVLmJSo6Q1dr-R3eYu9_IxENX8jyMpWxYFQgNd7UE6n1azVghtmTo-nx82xwFdxDxEs-Pkp_OJaZW7Hda88UuausFw5wi-IpHajiIRi0eBJJiH9uqGZmOBGbPB/w604-h357/1529658946-4887.jpg" width="604" /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="text-align: left;">भारतीय समाज में औरतों के साथ मारपीट, उनको कैद में रखना...या उनको मार डालना कोई नयी बात नहीं है। औरतें इसकी अभ्यस्त हैं मगर अब जाकर उनको पता लग रहा है कि वह जिस बात को सामान्य मानती आ रही थीं...वह सामान्य नहीं बल्कि उनका उत्पीड़न था। हाँ, आज घरेलू हिंसा पर ही बात करूँगी...महिलाओं के प्रति अपराध पर फिल्में बनाना फिल्मकारों के लिए ग्लैमर, सफलता और नाम कमाने की गारंटी देता है...कई अच्छी फिल्में बनीं भी हैं। कविताओं से लेकर किताबों में और किताबों से लेकर सिनेमा के सुनहरे पर्दे पर माँ, पत्नी और बहू की पीड़ा और प्रतिशोध बॉलीवुड का प्रिय विषय है...इस पर हाल ही में आई थप्पड़...खामोशी से बात करने वाली अलग सी फिल्म लगी...मुझे अच्छी लगी...तापसी का खामोश न रहकर प्रतिकार करना अच्छा लगा मगर पता नहीं क्यों...फिल्म देखते - देखते सवाल भी मन में उठा...घरेलू हिंसा को देखने और उसके प्रतिरोध को दर्ज करने की दिशा में हो रहे काम इतने एकांगी क्यों हैं? अगर ससुराल में बहू को दबाया जाना, उसके सपनों को मारना, उसके साथ गलत व्यवहार करना गलत है तो बेटी या बहन के साथ होने वाला ऐसा ही व्यवहार न्यायोचित और सामान्य क्यों और कैसे हो जाता है? ऐसा क्यों होता है कि इसके खिलाफ आवाज उठाने वाली लड़की को ही कठघरे में खड़ा होना पड़ता है और उसके साथ खुद उसकी माँ भी खड़ी नहीं होती...घरलू हिंसा का दोषी दामाद अगर गलत है तो बहन पर हाथ उठाने वाला भाई या पिता सही कैसे है? हम लड़कियों को कंट्रोल में रखने की शुरुआत यहीं से होती है...। यह सही है कि स्थिति सुधरी है और आज बहुत से भाई ऐसे भी हैं जो बहनों को सुनते हैं, समझते हैं, पर ये जानना चाहती हूँ कि आखिर बहनों की शादी पर ही इतना फोकस क्यों रहता है...क्या अपने कभी भाइयों की शादी पर किसी को फोकस करते हुए सुना है। हद तो तब है राजनीतिक क्षेत्रों में भी स्त्री के अस्तित्व और आत्मनिर्भरता पर शादी का प्रश्न भारी पड़ता है। हममें से कौन नहीं जानता कि भाईयों का एक बड़ा तबका अपनी बहनों को किस तरह कमतर समझकर दबाता है....उनके खिलाफ षडयंत्र करता है...बहन की शिक्षा से लेकर नौकरी और प्रेम के अधिकार पर वह षडयंत्र रचता है और उसे पूरे घर का समर्थन मिलता है। घरों में बहनों को भीतर धकेलने वाले हाथ वही होते हैं जिन पर वह अपनी सुरक्षा के लिए राखी बाँधती आ रही थीं...लेकिन इसे लेकर अजीब सी खामोशी है...। हममें से अधिकतर लड़कियों का बचपन यही सुनने में बीता है कि वह अधिक न खाये,..वजन कम करे...ऊँची जबान में बात न करे...मेहमानों के सामने न जाये...और हम लड़कियों ने बगैर सवाल किये मान भी लिया? अपने अधिकार छोड़ते हुए और अपने सपनों को मरते देखकर भी हम कैसे ऐसे भाइयों से प्यार कर लेती हैं...? क्या एक बार भी आपने उस दर्द को याद किया है जो कभी ऐसे भाई, पिता या चाचा के कारण हुआ होगा....आखिर अन्याय को अपनी नियति क्यों मान लेती हैं लड़कियाँ और इस पर सब खामोश हैं? क्या कभी आपने सोचा है कि बहनों की शादियों पर पितृसत्ता इतना फोकस क्यों करती है और क्यों फिल्मों से लेकर इतिहास और साहित्य में बहनों के चरित्र को उभरने नहीं दिया गया, क्यों उसे पीड़िता बनाया गया... कारण यह है कि बहनें टकराना जानती हैं तो पितृसत्ता का पहला नियम ही है कि जो टकराना चाहे, उसे हाशिये पर डालो...या उसके आत्मविश्वास तथा आत्मसम्मान को ऐसे कुचले कि कोई और स्त्री उसके लिए खड़ी होने की हिम्मत न कर सके। यही कारण है द्रोपदी, गार्गी...बस नाम बनकर रह जाती हैं और अत्याचार सहकर मर जाने वाली औरतों को देवी बनाकर या माता बनाकर पूजा जाता रहा है। हम सबको जरूरत है कि मजबूत स्त्रियों की जो हमारी प्रेरणा बनें...जो सवाल करना सिखाएं न कि आग में कूदकर मर जाना सिखाए। जब पंचकन्याओं में द्रोपदी और कुन्ती को स्थान मिला है तो वे हमारे उपासना गृहों में क्यों नहीं हैं...कारण यही है कि उनको स्वीकृति देना...अपनी सत्ता को कमजोर करना है। जब बात सुरक्षा की है तो क्या हमेशा पुरुष या पति ही रक्षा नहीं करता है क्योंकि ऐसा होता तो वीर पांडवों के रहते द्रोपदी का वस्त्रहरण ही नहीं होता और हम द्रोपदी के सवाल और आत्मबल को भूल गये। शिवाजी को शिवाजी तो जीजाबाई ने बनाया...माताओं की महिमा से इनकार नहीं है मगर बहनों को अधिकार, सम्मान और केन्द्र देना तो आवश्यक है। </span></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="text-align: left;">सवाल यह भी कि राखी जैसा त्योहार या कोई भी त्योहार जेंडर केन्द्रित कैसे हो सकता है...तो सुरक्षा तो एक स्त्री भी दूसरे स्त्री की कर सकती है तो वह क्यों नहीं दूसरी स्त्रियों को या फिर उस सकारात्मक उर्जा से भरे किसी भी व्यक्ति को राखी नहीं बांध सकती, जो सही मायने में उसका रक्षक है...वैसे भी वैदिक काल में गुरु औऱ शिष्य के बीच भी राखी बन्धन की परम्परा थी तो आज छात्राएं अपनी शिक्षिकाओं को राखी क्यों नहीं बांध सकती? मेरा मानना है कि ऐसा होना चाहिए क्योंकि इससे स्त्रियों के बीच बहनापा मजबूत होगा...और यह पितृसत्ता के मुँह पर एक करारा थप्पड़ होगा जो स्त्रियों को स्त्रियों का शत्रु बनाती रही है।</span></div><p></p><p> घर...साहित्य,...सिनेमा....थियेटर...सब.....क्या अपने ही घर में बहनों को सम्मान के साथ जीने के लिए भाई की अनुमति चाहिए और वे होते कौन हैं अनुमति देने वाले? आखिर कोई माँ ऐसे बेटे के सिर पर हाथ रख भी कैसे देती है जिसने उसकी बेटी के चरित्र पर सवाल उठाया और उसे थप्पड़ लगाने की जगह उसके लिए खाना बनाती है....क्या यह किसी लड़की का अपमान नहीं है.. क्या बहनों का आत्मसम्मान नहीं होता या वह यह समझ बैठी है कि वह मिट्टी का कोई खिलौना है जिसे कभी भी ठोकर मारी जा सकती है....? मिट्टी का खिलौना भी एक समय के बाद ठोकर मारने पर दर्द दे सकता है...। इस मसले को लेकर फिल्म तो दूर कोई बात ही नहीं करता...हैरत है...एक यशपाल के झूठा - सच को छोड़ दें तो बता दीजिए कि साहित्य की कौन सी विधा बहनों के सम्मान या उनके साथ होने वाली घरेलू हिंसा पर बात करती है? किस फिल्मकार ने बहनों के साथ होने वाले अत्याचार पर फिल्म बनायी....? भाई भले ही अनपढ़...जाहिल हो....भले ही उसकी जुबान पर गालियाँ और सिर पर घमंड हो...लेकिन राज उसी को करना है जबकि काबिल तो आप भी थीं...रात भर जागकर पढ़ाई आपने भी की थी....। क्या भाई हमेशा संरक्षक ही होता है.? लगभग हर फिल्म में भाइयों को महान ही दिखाया जाता है जो बहनों की रक्षा करता है...हीरो की तरह उसकी इज्जत बचाता है....60 -70 के दशक से लेकर अब तक की फिल्मों में बहनों के हिस्से में क्या आया है...वह एक पीड़िता है और भाई उसका रक्षक मगर हम सब जानते हैं कि असल दुनिया ऐसी नहीं है....यहाँ भाई की आँख का पानी मर गया है...उसे शर्म नहीं आती जब वह अपनी बहन का कटा सिर लेकर गर्व से थाने में जाता है कि उसने बहन को प्रेम करने की सजा देकर खानदान की इज्जत बचा ली...वह खुद को भगवान समझ बैठता है जो कुछ भी कर सकता है....उसके लिए बहन या बेटी छुपाने की चीज है...या ब्याह कर शान दिखाने की चीज है...यह भी कि उसे ब्याहकर वह यह बताना नहीं भूलता कि बहन या बेटी की शादी में कितना खर्च कर चुका है...या लड़का देखने के लिए उसने कितनी तकलीफें उठायीं....वह यह नहीं कहता कि उसने इमोशनल ब्लैकमेलिंग कर बहन की नौकरी छुड़वायी और उसकी तकदीर ससुराल वालों के भरोसे छोड़ दी...कभी सोचिएगा कि बहनों की शादी को फिल्मों में इतना ग्लैमराइज क्यों किया जाता है...बहनें हमारी फिल्मों से लेकर साहित्य में बराबरी के दर्जे पर कहीं नहीं हैं....घर की बेटी होने के बावजूद उसे सम्पत्ति में से हक नहीं मिलता...अब जब कि सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि सम्पत्ति पर उनका बराबर का अधिकार है...याद कीजिए कि पुरुषों की प्रतिक्रिया क्या थी...? भावनात्मक होने का मतलब अपने अधिकार दान में देना नहीं होता...मैंने पहले भी पूछा था...आज भी पूछती हूँ जब भाई - भाई में बँटवारे को लेकर विवाद सामान्य है तो बहनों का हक माँगना गुनाह कैसे है...जब भाइयों की शादी से पैतृक सम्पत्ति के अधिकार पर फर्क नहीं पड़ता तो बहनों की शादी से उनका पैतृक सम्पत्ति पर अधिकार कम कैसे हो जाता है। लड़कियाँ भूल गयी हैं कि वह इन्सान हैं....उनके अधिकार और मानवाधिकार भी हैं...और अधिकार ट्रॉफी की तरह दान में नहीं दिये जाते...हो सकता है कि वह चीजों को बेहतर तरीके से सम्भाल लें....क्या उनकी शिक्षा...उनके अनुभव का उपयोग बेहतर को बेहतरीन बनाने में नहीं हो सकता और क्यों नहीं होना चाहिए....? </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqEW0k5fHWWHbygK3GUmON9V_UkR303tvBhM4Ts1pSMyf1MH-InJZsAVyODLyCjt4sXvGuifmUDWQ8z2NddEYFSChI5cfz0aLbIYY0v4ZREti_020i4YYQylJe3mAIKaF-7XRTZCfgNpPS/s843/159146543_3872304009479509_7425696928707050140_o.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="843" data-original-width="843" height="491" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqEW0k5fHWWHbygK3GUmON9V_UkR303tvBhM4Ts1pSMyf1MH-InJZsAVyODLyCjt4sXvGuifmUDWQ8z2NddEYFSChI5cfz0aLbIYY0v4ZREti_020i4YYQylJe3mAIKaF-7XRTZCfgNpPS/w640-h491/159146543_3872304009479509_7425696928707050140_o.jpg" width="640" /></a></div><br /><p>देखा जाये तो शांता राम से बड़ी थीं....अयोध्या के सिंहासन पर अधिकार उनका ही था मगर हमने कभी इस नजरिए से सोचा ही नहीं...अधिकार कभी माँ तो कभी पत्नी या कभी बेटी के हिस्से आए...बहनों को क्या मिला? फिल्में भाइयों को देवता बनाती हैं तो बहनों को देवी बना दिया जाता है...मगर अपने घर के पितृसत्तात्मक समाज से टकराती बहन नहीं दिखायी देती..कभी कल्पना कीजिएगा जब उनके हाथ से किताब छुड़वायी जाती है तो उनको कितना दर्द होता होगा...कल्पना कीजिए कि जिस आसमान पर उनका हक था....उनके पंख काटकर पिंजरे में फेंका गया होगा...तो वह कितना तड़पी होंगी....। सबसे अधिक शर्म की बात यह है कि ऐसे भाइयों और पिता को शर्म तो जरा भी नहीं होती बल्कि वह उस लड़के के प्रिय या नौकरी को उससे छीनकर इस बात पर इतराता है कि उसने घर की इज्जत बचा ली....? पिता की सम्पत्ति से उसे बेदखल किया जाता है और एक कोने में कबाड़ की तरह रखा जाता है जिससे उसका आत्मविश्वास टूट जाये....और फिर उसकी शादी की जाये....क्या यह अत्याचार नहीं है और अगर है तो फिर इसकी सजा क्यों नहीं है? यह हर उस लड़की के साथ होता है जो अपने सपनों को जीना चाहती है और हर बात में उस की कोई औरत और कई बार शिक्षित औरतें भी उसे ताना मारती हैं कि 'अगर उसने शादी की होती'...या 'शादी हो जानी चाहिए'....तो ऐसी औरतों को मानसिक उत्पीड़न के जुर्म में जेल क्यों नहीं होनी चाहिए क्योंकि वह तो उस प्रताड़क का मनोबल बढ़ा रही है यानी उस अत्याचार में बराबर की भागीदार...तो उसे माफी क्यों दी जाये? शादी करना या न करना...एक नितांत निजी मामला है तो क्या इसे जस्टीफाई किया जा सकता है कि शादी नहीं करने पर आप किसी को जेल में डाल दें...ये कुछ ऐसा नहीं है कि अपना बच्चा देख नहीं सकता तो सारे जमाने को अंधा करने की जिद पाल। अगर आपका बेटा उड़ना नहीं जानता तो उसे उड़ना सिखाइए...नहीं उड़ सकता तो रेंगने दीजिए मगर आपको कोई अधिकार नहीं उसे पंख देने के लिए आप अपनी बेटियों के पंख नोंच लें या इस काम में बेटों की मदद करें...आप बराबर की अपराधी हैं....।</p><p>महिलाएं देवियाँ नहीं होतीं....एक मनुष्य होती हैं और वह उतनी ही कठोर तथा अमानवीय हो सकती हैं जितने आपके खलनायक हो सकते हैं...इसलिए किसी भी अपराध को अपराध की तरह देखना जरूरी है.... तो घरेलू हिंसा की जो जड़ आप खोज रहे हैं...वह यहाँ पर है....।</p><p>सबसे बड़ा प्रश्न यह कि लड़कियाँ दूसरों की नजर से खुद को देखती ही क्यों है....क्यों नहीं उनके लिए बहनों का सम्मान उनका सम्मान होता है ? आखिर क्यों नहीं वह ऐसे भाइयों से बहन होने का, माँओं से बेटी होने का भाभियों से ननद होने का और भतीजियों से बुआ होने का अधिकार छीन लेतीं? ऐसी एक भी कलाई में राखी नहीं होनी चाहिए जिसने आपके सपनों को नोंचा हो...थोड़ी सख्त बनिए....क्योंकि जब आप अधिकार छोड़ती हैं तो यह सिर्फ आपके साथ नहीं बल्कि पूरी पीढ़ी और पूरी दुनिया की लड़कियों के साथ अन्याय की आग में घी डालता है...दयालु बनना छोड़िए और बहिष्कार का अस्त्र उठाइए...हर उस पिता का..जो बेटी के सपनों को नोंचने में लगा है....हर उस भाई का जिसने अपनी बहन को अपमान का जहर दिया....हर उस माँ का जिसने चुपचाप तमाशा देखा भी और उसे बढ़ावा भी दिया... फिर भले ही ये आपके ही पिता, भाई या माँ क्यों न हों....जब तक जड़ यहाँ से नहीं उखाड़ी जाती....जब तक बात यहाँ से शुरू नहीं होती...हम आँकड़े गिनवाते रह जाएंगे मगर बदलेगा कुछ भी नहीं इसलिए अपने अधिकार लेना सीखिए और सजा देना सीखिए। मुझे उस दिन का इंतजार है जब हर लड़की अपना सम्मान करना सीखेगी....हर उस औरत का बहिष्कार करेगी जिसने गलत को बढ़ावा दिया है.... और हर उस हाथ से अपनी राखी छीनेगी...जिसने उसका या उसकी किसी बहन या अन्य स्त्री का अपमान किया है और यह पितृसत्ता के मुँह पर सबसे बड़ा थप्पड़ होगा.....मैं इंतजार में हूँ।</p>सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-48197257776025681602021-02-28T09:51:00.002-08:002021-02-28T09:51:15.696-08:00इतना पता है कि वह पास ही हैं... और हमेशा रहेंगी<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiJvInDo-dw5wp4psdYWcAyWB0OBhBHK4TGD616raivtHkhJbgwtXyYmC-sLkJkQn8sMGt5KQhloWfVbgT84PMSTqb2m2e2SJbbCQX_DSFTRISfXxp6UHtva0cA_1WSsJ9CqKr42kr-VBrO/s1052/14324427_1112538358832578_8201786463552151068_o.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="592" data-original-width="1052" height="402" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiJvInDo-dw5wp4psdYWcAyWB0OBhBHK4TGD616raivtHkhJbgwtXyYmC-sLkJkQn8sMGt5KQhloWfVbgT84PMSTqb2m2e2SJbbCQX_DSFTRISfXxp6UHtva0cA_1WSsJ9CqKr42kr-VBrO/w640-h402/14324427_1112538358832578_8201786463552151068_o.jpg" width="640" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: left;">गुरुओं की महिमा का बखान खूब होता आया है...विद्यार्थियों से उम्मीद ही की जाती है कि वे गुरु को देखकर ही साष्टांग दंडवत करें...ठीक उसी तरह जैसे कि सबसे छोटे बच्चों को न चाहते हुए भी किसी भी अपरिचित रिश्तेदार के पैर उसकी अनिच्छा के बावजूद छूने की उम्मीद की जाती है मगर सम्मान ऐसी चीज है जिसे आप चाहकर भी हर किसी को नहीं दे सकते। सिर के झुकने का मतलब आत्मा का झुक जाना नहीं होता बल्कि वहीं से कई बार चिढ़ और खीज भी उत्पन्न हो जाती है। इस मायने में मैं एक बेहद खराब छात्रा हूँ...मुझे नमस्ते कह देना पसन्द है पर मुझसे हर किसी की चरण वंदना नहीं होती...आप मुझे जी भर कोसिए...आलोचना सुन लूँगी मगर मैं जिसका दिल से सम्मान नहीं करती, उसके पैर छूना तो दूर उससे बात भी नहीं कर पाती... आप इसे कमजोरी कहिए या ताकत...मगर मैं जो सोचती हूँ, वह मेरे दिल के साथ चेहरे पर भी होता है...</span></div><p></p><p>जिद्दी हूँ...स्पष्टवादी हूँ...और यह अ लोकप्रिय होने के लिए पर्याप्त गुण हैं....लेकिन इसके बावजूद भी कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपनी छाप छोड़ जाते हैं....जब आप सारी दुनिया से निराश हो चुके होते हैं तो ईश्वर आपको थाम लेता है और वह किसी देवदूत की तरह किसी को भेज देता है...वह देवता नहीं होता...वह मनुष्य ही होता है...मगर वह आपका जीवन बदल देता है...बस मेरे जीवन में वही काम मेरी राजमाता...यानी मधुलता मैम ने किया...सम्भवतः पहली शिक्षिका...जिनके साथ खुद को रखती हूँ तो लगता है कि उनकी छाया ही बन गयी हूँ....शायद नरेन को भी ऐसा ही लगा होगा जब वह ठाकुर रामकृष्ण परमहंस से मिले होंगे...नहीं...उस आध्यात्मिक ऊँचाई तक जाने का इरादा नहीं...मैं बिल्कुल सामान्य हूँ...मगर मुझे लगता ही नहीं कि मैम हमारे बीच नहीं हैं...आँखें बंद करती हूँ...मुझे वही दिखती हैं। एक चुप्पी साधे रखने वाली लड़की को बोलना उन्होंने ही तो सिखाया...उन्होंने ही तो सिखाया कि जब कुछ गलत देखो..तो तनकर खड़ी हो जाया करो...मेरी कविताओं की डायरी के अक्षरों में छिपी भावनाओं को समझने वाली पहली शख्स तो वही थीं...।</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEik51BAs3yumEbjlFlan0WadZzYmMk-tRFImktLvaA2xlt5KcHsgwADbC6iN4iIlUhqd5h6ugboEj3wHIzW84selSjKNKoVBFSDPzKlc5PTc5qTE0MZ-8f_2DULRQOlYK19wZWuGcbDCZyB/s315/27624829_1611715728914836_2425115217558538094_o.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="315" data-original-width="315" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEik51BAs3yumEbjlFlan0WadZzYmMk-tRFImktLvaA2xlt5KcHsgwADbC6iN4iIlUhqd5h6ugboEj3wHIzW84selSjKNKoVBFSDPzKlc5PTc5qTE0MZ-8f_2DULRQOlYK19wZWuGcbDCZyB/w640-h640/27624829_1611715728914836_2425115217558538094_o.jpg" width="640" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="text-align: left;">लोग कहते हैं कि माँ - बाप बच्चों को गढ़ते हैं....मुझे तो मैम ने ही गढ़ा..वह क्या सिर्फ प्रोफेसर थीं...? नहीं...स्कूल में इंद्रपाल मैम थीं और इसके बाद मधुलता मैम आई...तब भी इन्द्रपाल मैम से खूब बात करने पर भी कभी डायरी नहीं दिखा सकी...हिम्मत ही नहीं होती थी...आज अच्छा लगता है कि बच्चे कविता लिखते हैं तो माता - पिता उसे समझते हैं...सहेजते हैं..मगर बच्चे कभी नहीं समझ सकेंगे कि यह यात्रा कितनी कठिन रही होगी। मध्यमवर्गीय रूढ़िवादी परिवारों में जहाँ पहले माध्यमिक और फिर स्नातक की पढ़ाई के बाद लड़कियों को पार लगा देने की परम्परा हो...उनके लिए वह हर शिक्षक खलनायक होता है जो उनकी बेटियों को न कहना सिखाए...गलत का विरोध करना सिखाए और यह बताए कि वह सम्पत्ति नहीं है बल्कि उसका एक अस्तित्व है....किसी भी पितृसत्तात्मक समाज में बेटियाँ ही नहीं, बहनें भी पुरुष सत्ता के लिएं गुलाम ही होती हैं...ऐसे में जब शिक्षिका ही बड़ी बहन या सखी बन जाये तो समझा जा सकता है कि उस शिक्षिका ने अनजाने में अपने लिए कितने शत्रु खड़े किये होंगे....बेटियाँ कभी उस पीड़ा को नहीं समझ सकेंगी जिन पर चलकर उनकी किसी बुआ, दीदी या मासी ने उनके लिए वह उन्मुक्त राह बनायी होगी...जो आज आकाश बन गयी है और वह उस पर विचर रही हैं....अपनी जिन्दगी ही ऐसी काँटों भरी राह पर चलकर बीती है...एक समय ऐसा भी आया जब मैं यह भी भूल गयी कि मुझे हँसना भी आता है...ऐसी स्थिति में जब 1994 -96 के दशक में पहली बार मधुलता मैम से मिली,...तो वह किसी प्राण वायु से कम नहीं थीं...और कब वह बड़ी बहन सी बन गयीं, पता ही नहीं चला...</span></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjd5oVzRHhyphenhyphenhQ-htpORlmYrDHY8T1v8C3gNnBLgwT8c5gAdvK7FzQNhKJRbEZFJHMGF71Vjs02hhVI3e1QXksTL_G8lBiCvXp2nanMRLcbmFS0bSGAhWfmQ0t2YcqEeq05Rc7xzpROiH7Oq/s315/21427316_1464189800334097_4465119291466708825_o.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="315" data-original-width="315" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjd5oVzRHhyphenhyphenhQ-htpORlmYrDHY8T1v8C3gNnBLgwT8c5gAdvK7FzQNhKJRbEZFJHMGF71Vjs02hhVI3e1QXksTL_G8lBiCvXp2nanMRLcbmFS0bSGAhWfmQ0t2YcqEeq05Rc7xzpROiH7Oq/w640-h640/21427316_1464189800334097_4465119291466708825_o.jpg" width="640" /></a></div><span style="text-align: left;">स्कूल के दिनों से जो मुझे जानते हैं कि मुझमें क्या बदलाव आया था...बदलाव था...तभी तो मंच पर चढ़ी मैं...तभी तो जालान कॉलेज में मैम के साथ रहकर निखर भी गयी और प्रखर भी हो उठी...और सावित्री गर्ल्स कॉलेज में तो यह चरम पर रहा...सुषमा ने बोलना तो मैम से ही सीखा...मुझे सावित्री गर्ल्स कॉलेज में भेजने वाली भी मधुलता मैम ही थीं...एक पूरा समूह था हिन्दी विभाग की हम छात्राओं का जो....उनका नाम लेकर कभी भी हिन्दी विभाग के स्टाफ रूम में घुस जाया करता था। यह जानकर भी अन्य शिक्षकों को बुरा लग सकता है...लगता भी होगा...शुक्ला सर थे...जिनको देखकर हम रास्ता बदल लिया करते थे...डर से। उन दिनों लाइब्रेरी में दीपा दी थीं...मधुलता मैम की सम्भवतः अच्छी मित्रता रही होगी..जो भी हो...हम विद्यार्थी तब इतना दिमाग नहीं लगाते थे...बस इतना पता था..कि वहाँ रहना बहुत पसन्द था...कॉलेज छूटा...मैम से स्नेह कम नहीं हुआ...विश्वविद्यालय में भी वह मिलीं....बीच में बात कम होने लगी थी...मगर अवचेतन में हमेशा वह रहीं...</span></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="text-align: left;"><br /></span></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="text-align: left;"><br /></span></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8e10ZRwlR2gVXUPKUWABTNyKwW5V1Iv8lo4F3UhyjqzS6VIke6Hs6OL6oDr-P_yUGqFMC0_MDxGpOWQzYWDlzsFyL0ackMWOzowJzomhkM5woAzpGx_9_hQk-b_tOobeYUNeFRWtZtjCx/s1280/152538266_3745060802246974_8137837024436357642_o.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="844" height="766" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8e10ZRwlR2gVXUPKUWABTNyKwW5V1Iv8lo4F3UhyjqzS6VIke6Hs6OL6oDr-P_yUGqFMC0_MDxGpOWQzYWDlzsFyL0ackMWOzowJzomhkM5woAzpGx_9_hQk-b_tOobeYUNeFRWtZtjCx/w601-h766/152538266_3745060802246974_8137837024436357642_o.jpg" width="601" /></a></div><span style="text-align: left;">यही कारण है कि जब अपराजिता का उद्घाटन हुआ और प्रथमवर्षपूर्ति उत्सव हुआ तो मैम रहें...यह मेरी इच्छा थी...यह इच्छा बाद में पूरी हुई। इतना होने पर भी आदर की वह रेखा....बहुत मजबूत रही..हम उनसे प्यार करते...सम्मान करते...अपने मन की हर बात बताया करते मगर वह रेखा हमने कभी पार नहीं की...मधुलता मैम...मैम ही रहीं...। गुलाब जामुन मिठाई बहुत पसन्द थी...उनको...तब पेन से माँ सरस्वती का एक रेखाचित्र बनाकर मैंने उनको दिया था....दशकों बाद जब उनके घर अपनी किताब लेकर जाना हुआ...तो उन्होंने मुझसे वह तस्वीर ठीक करवाई....मैं निःशब्द...कहाँ होता है ऐसा? </span><span style="text-align: left;">समय के साथ चीजें बदलीं...लचीलापन आया पर अपनत्व कम नहीं हुआ...ऐसा नहीं है कि सेठ सूरमल जालान गर्ल्स कॉलेज के हिन्दी विभाग के लिए सम्मान कम हुआ मगर हम जब भी जाएंगे....हमारी आँखें मधुलता मैम को ही तलाशेंगी...अपने तमाम संघर्षों के बीच चट्टान की तरह अडिग रहना...अपनी तकलीफें छुपाकर दूसरों के साथ खड़े रहना...अपनी तमाम जिम्मेदारियों को अकेले उठा लेना....आसान नहीं है..मगर मैम ने यह विश्वास तो जरूर दिया कि अकेले रहने का मतलब कभी कमजोर होना हरगिज नहीं होता...सबको साथ लेकर चलने का मतलब खुद को पीछे छोड़ देना नहीं होता...। हार जाने का मतलब यह नहीं होता कि आप खेलना ही छोड़ दें..ये मूल्य किताबों के हैं मगर उन्होंने इन मूल्यों को जीया......और सबसे बड़ी बात अपनी शर्तों पर जीना...जो इस समाज ने लड़कियों को कभी नहीं सिखाया...वह हमने मैम को देखकर ही सीखा। मैम लोकप्रिय थीं और रहेंगी...कम से कम मुझ जैसी हर लड़की के लिए जिसे बोलना सिखाने की जरूरत है...खुद से प्यार करना सिखाने की जरूरत है....यादों का खजाना है...तस्वीरें गुजर रही हैं कैमरे की तरह...मुझे नहीं पता...क्या सम्बन्ध है मेरा...पर </span><span style="text-align: left;">इतना पता है</span><span style="text-align: left;"> </span><span style="text-align: left;">वह पास ही हैं...और हमेशा रहेंगी.....पता है.... मुझे...।</span></div><div><br /></div>सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-52258483056886102842021-01-20T07:28:00.007-08:002021-01-20T07:37:22.702-08:00 अकबर महान नहीं था और जोधाबाई स्त्रियों की विवशता का प्रतीक भर हैं<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi62V2XNifwAYjNredw1AIEQV7NGbQUxWe2EhVqdpztgLVUB_L3-uEy1P9S-H02rzedGNU6UQ0wW7_DNUDzEd0YgdjAxEK5clYgIxKxVXqVz5Xqv09lH15-FbrkAgphHUs9XbxUr98R17JY/s400/0e9257e45d9bfda1f8656b0b4baa39f4.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="284" data-original-width="400" height="454" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi62V2XNifwAYjNredw1AIEQV7NGbQUxWe2EhVqdpztgLVUB_L3-uEy1P9S-H02rzedGNU6UQ0wW7_DNUDzEd0YgdjAxEK5clYgIxKxVXqVz5Xqv09lH15-FbrkAgphHUs9XbxUr98R17JY/w640-h454/0e9257e45d9bfda1f8656b0b4baa39f4.jpg" width="640" /></a></div><br /><p>साम्प्रदायिक सौहार्द बनाये रखने के चक्कर में शोषण की कहानियों को दबा दिया जाता है। अब तक अकबर को महान शासक बताया जाता रहा है...हम मानते भी रहे मगर हकीकत यह है कि अकबर एक अय्याश, स्वार्थी और लालची शासक था...। जिस जोधा के साथ उनके प्रेम के कसीदे पढ़े जाते हैं....वह अपने पिता की महत्वाकाँक्षा की शिकार रही...जैसा कि होता आया है...अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए बेटियों को दान किया जाता रहा है...हर हारने वाले ने अपनी बेटियाँ ही दान में दी...कभी बेटों को दांव पर नहीं लगाया...इतिहास के टुकड़ों को जोड़िए तो औरतों की जो हालत थी...उसे देखकर दिल दहल जाता है। वह एक सम्पत्ति से अधिक कुछ नहीं...उसका अपना अस्तित्व नहीं...अपना जीवन नहीं...वह एक वस्तु है...जिसमें घर से लेकर घरानों ने अपनी इज्जत खोज ली...शत्रु के हाथों से बचने के लिए उसे आग में या तो जल मरना होता है या पति के साथ मर जाना होता है और अगर वह मीरा बन गयी...तो जीवन भर यंत्रणा सहनी होती है। </p><p>राजस्थान ही नहीं...समूचे भारत की पितृसत्तात्मक परम्परा को अपनी मूँछों से कितना लगाव है...यह छुपा हुआ नहीं है। औरतों के आग में जल मरने की कहानियों में गौरव खोजने वालों ने उसमें औरतों की व्यथा नहीं देखी...ये माइंडवॉश गजब का है...एक रोबोट जिसमें ऐसी सोच भर दी गयी हो...वीरांगनाओं ने लड़ना नहीं सीखा...जलकर मर जाना सीख लिया...ये वीरता है या दुर्दशा के भय से अपनी जान लेना... ऐसी राजपूती परम्परा की वीरता का स्वाद कसैला कर देती हैं जोधा बाई। जोधा बाई..जिसके अस्तित्व को झुठलाने की कोशिश में तमाम अकड़ने वाले जी - जान से लगे हैं...क्योंकि जोधा का होना याद दिला देता है कि राजपूतों ने मुगलों के आगे कैसे घुटने टेके...कैसे एक पिता ने अपना राज बचाने के लिए अपनी 13 साल की बेटी को दांव पर लगा दिया...इतिहास किसी का भी हो...वह बिल्कुल सफेद कभी नहीं होता...वह स्याह भी होता है..। </p><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi2px92CTLr7C-7aC8xGXdKHAIvpB4ZHqrNi18woThAAXo7gqI4VTV_mX6bB0HqeXoVQ3VMI1VAlIj4QRckF4t9zd8ExkfuHkDNjGuFWx20CBBYXX-a4oCudEMRqqsHKfktoiGD8KQWt7sR/s924/akbar.jpg" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="924" data-original-width="720" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi2px92CTLr7C-7aC8xGXdKHAIvpB4ZHqrNi18woThAAXo7gqI4VTV_mX6bB0HqeXoVQ3VMI1VAlIj4QRckF4t9zd8ExkfuHkDNjGuFWx20CBBYXX-a4oCudEMRqqsHKfktoiGD8KQWt7sR/w498-h640/akbar.jpg" width="498" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><p data-adtags-visited="true" style="background-color: white; box-sizing: inherit; color: #434343; font-family: "Source Sans Pro", sans-serif; font-size: 16px; margin: 0px 0px 1.65em; text-align: start;">अकबर के गले पर खंजर लगाए वीरांगना किरण देवी हैं जो महाराणा प्रताप के भाई शक्ति सिंह की बेटी थीं। मीना बाजार में किरण देवी को देख उनके रूप पर मोहित होकर अकबर ने अपने सैनिक भेजे और किरण देवी को बलात उठवा लिया। फिर जो हुआ वो तस्वीर में देखिए। इसके बाद अकबर ने माफी मांगी।</p><p class="inline-ad-slot" data-adtags-visited="true" data-adtags-width="622" id="inline-ad-0" style="background-color: white; box-sizing: inherit; color: #434343; float: left; font-family: "Source Sans Pro", sans-serif; font-size: 16px; height: 0px; margin: 0px auto; overflow: hidden; text-align: start; width: 622px;"></p></td></tr></tbody></table>यह एक सच है कि राजपूती शासकों ने मुगलों और अंग्रेजों का साथ दिया है..मुगलों के दरबार में सलामी दी। इतिहास में ऐसे बहुत से चरित्र हैं जो स्वार्थ की पूर्ति नहीं करते तो उनको दरकिनार कर दिया जाता है और राजपूतों के लिए जोधा ऐसा ही चरित्र है...एक व्यक्ति के दो नाम हो सकते हैं...औऱ मरियम उज जमानी कोई नाम नहीं बल्कि एक उपाधि हुआ करती थी। जहाँगीर के जन्म के समय जोधा को अकबर ने यह उपाधि दी थी क्योंकि उसने मुगलों की वंश परम्परा को आगे बढ़ाया था...। जोधा के पिता आमेर के राजा भारमल का इतिहास उठाकर देखिए...वह एक स्वार्थी और लालची व्यक्ति ही है...तो उसके लिए मुगल बादशाह के हाथ में बेटी को सौंपना कौन सी बड़ी बात रही होगी?<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg99_6xp2gmC9WgWtYNxzTEsBRthrlQq8MNVR-FMyRWow1bgYpIgPhffqNrgWJbgqlGn3pAl3NBVTJ55Ywo-98M2Fn7P7pN_YKvJCWBKn9zH8tbFLjRSzJ_erxi_lyQjGV98Gq1tXsBAyis/s877/jodhabai+ka+mahal.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="552" data-original-width="877" height="402" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg99_6xp2gmC9WgWtYNxzTEsBRthrlQq8MNVR-FMyRWow1bgYpIgPhffqNrgWJbgqlGn3pAl3NBVTJ55Ywo-98M2Fn7P7pN_YKvJCWBKn9zH8tbFLjRSzJ_erxi_lyQjGV98Gq1tXsBAyis/w640-h402/jodhabai+ka+mahal.jpg" width="640" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">जोधाबाई का महल, </td></tr></tbody></table><br /><div><p>अकबर को महान बनाने वालों ने कहानियाँ तो गढ़ीं पर उसके कारनामों को दबा दिया। एक पिता द्वारा दांव पर लगायी गयी और मुगल बादशाह को सौंपी गयी जोधा के पास तीसरा रास्ता कौन सा था कि वह जाती और कहाँ जाती? वह कितनी बेबस थी...इसे देखिये...अकबर जोधा के चयन का मामला ही नहीं, अकबर से विवाह उसकी यंत्रणा थी, मजबूरी थी....और कहानियाँ बनाने वालों ने उसे महान प्रेमिका बना दिया....फतेहपुर सीकरी में जोधा के नाम से जो महल है...उसे अकबर ने नहीं बनवाया...वह जहाँगीर ने बनवाया औऱ मुगलों के हरम का हिस्सा है। यदि जोधा ने कुछ अर्जित किया भी तो वह उसकी अपनी किस्मत है जिसे उसने स्वीकार किया होगा...मुगल काल की पेंटिंग्स देखिए और कल्पना कीजिए कि स्त्रियों की क्या स्थिति थी...अकबर के शासन में ही मीनाबाजार लगा करता था...अकबर समेत तमाम मुगल शासकों के लिए कोई भी स्त्री वस्तु से अधिक नहीं थी औऱ जो स्त्री पसन्द आ जाती, वह उसे हासिल कर लेना चाहता था...हासिल किया भी और कई बार ऐसा भी हुआ कि उसकी दाल नहीं गली। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjgOBE8ZNwUe5GjKspbp4IqH7UeVAwHJzJIJQQXmAjifxLvvXax_9PdUQSnC66VSafzEJpOUpbrYCVLGnsdKZxmysu2EAixXk7_usF-tLkkaPGAyGyEulNkkcTsFO_LHsnk7bvkwPFJWeLh/s550/johbhai-palace.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="412" data-original-width="550" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjgOBE8ZNwUe5GjKspbp4IqH7UeVAwHJzJIJQQXmAjifxLvvXax_9PdUQSnC66VSafzEJpOUpbrYCVLGnsdKZxmysu2EAixXk7_usF-tLkkaPGAyGyEulNkkcTsFO_LHsnk7bvkwPFJWeLh/s320/johbhai-palace.jpg" width="320" /></a></div><p>उसकी नजर ओरछा के राजा इन्द्रजीत की प्रेयसी राय प्रवीण पर थी. उसके कारण रानी रूपमती को आत्महत्या करनी पड़ी। रानी दुर्गावती को मुगल शासक अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था। उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा। रानी ने यह मांग ठुकरा दी। इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में गोण्डवाना साम्राज्य पर हमला कर दिया। एक बार तो आसफ खां पराजित हुआ, पर अगली बार उसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला। दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे। उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया। इस युद्ध में 3,000 मुगल सैनिक मारे गये लेकिन रानी की भी अपार क्षति हुई थी। कहा जाता है कि अकबर के हरम में 5 हजार औरतें थीं...ऐसे शासक को महान साबित कर देना क्या इन औरतों के साथ हुए अन्याय का समर्थन करना नहीं है...हमेशा की तरह मुगल काल में भी औरतें एक वस्तु या कमोडिटी से ज्यादा कुछ नहीं थीं...आप अगर जोधा को खारिज करते हैं तो अपने यह सिर्फ अपने अपराधों पर परदा डालने की कोशिश है...अगर महाराणा प्रताप और एैसे ही कुछ राजपूत योद्धाओं को छोड़ दिया जाये तो अकबर का काल <a href="https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%AA%E0%A5%82%E0%A4%A4_%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%97%E0%A4%BC%E0%A4%B2_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%9A%E0%A5%80" target="_blank">राजपूतों </a>के पतन का प्रारम्भ काल है और इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता और यह भी कि साम्प्रदायिक सौहार्द की चाशनी में महिलाओं के साथ हुए अन्याय और अकबर की अय्याशी को अनदेखा नहीं किया जा सकता।</p><p><br /></p><p>स्त्रोत साभार - <a href="https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A4%B0" target="_blank">विकिपीडिया</a></p><p><a href="https://hindigapshap.com/2019/06/12/%E0%A4%85%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A4%B0-%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%A5%E0%A4%BE-%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%B8%E0%A5%8C%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF-%E0%A4%B2%E0%A5%8B/" target="_blank">हिन्दी गपशप, </a></p><p><a href="https://www.careertutorial.in/study-material/rajasthan-gk/rajasthan-ka-itihas-amer-ka-kachwah-vansh/" target="_blank">करियर ट्यूटियल डॉट इन</a></p><p><a href="http://historicalsaga.com/%E0%A4%86%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B0-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9B%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B9-%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%B6-%E0%A4%A2%E0%A5%82%E0%A4%82%E0%A4%A2%E0%A4%BE/" target="_blank">हिस्टॉरिकल सागा</a></p><p><a href="https://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A4%9B%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BE_%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%B6#gsc.tab=0" target="_blank">भारतकोश</a></p><p>तस्वीरें - इंटरनेट से</p><div><br /></div></div>सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1326136796065040026.post-37153860112518409172021-01-09T10:56:00.021-08:002021-01-09T11:08:32.710-08:00देवी की जगह स्त्री को देखिए...महानता नहीं, सिर्फ करुणा ही दिखेगी<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEipqcvler1a2nbOXXt51tWWgssyuTzx0hlULa1ZgWDITdZEQCZAFgrjnUdKFz_bIVHiVamjHLeK3aKNILc00wOfba3DQtX-TqA2N_ZCdILTdl_w6FPiUr-9XiDq57lbQk7iwLipMyxb7YT0/s535/440px-Bhuvaneshwari-Devi-1841-1911.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="535" data-original-width="440" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEipqcvler1a2nbOXXt51tWWgssyuTzx0hlULa1ZgWDITdZEQCZAFgrjnUdKFz_bIVHiVamjHLeK3aKNILc00wOfba3DQtX-TqA2N_ZCdILTdl_w6FPiUr-9XiDq57lbQk7iwLipMyxb7YT0/w526-h640/440px-Bhuvaneshwari-Devi-1841-1911.jpg" width="526" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो दिखने में अलौकिक लगती हैं, गरिमामयी लगती हैं मगर गहराई में जाकर देखने पर वह मार्मिक लगने लगती हैं। हम जिनको महापुरुष समझ लेते हैं, उनके प्रति कुछ हद तक निर्मम भी हो जाते हैं....उनके दुःख या सुख हो सकते हैं या उनका कोई निजी जीवन हो सकता है या उनके निजी क्षण हो सकते हैं..ये बात न तो हमारे दिमाग में आती है और न ही हम सोचने की जहमत उठाते हैं....नहीं..सच तो हम डरते हैं....इतिहास उठाकर देख लीजिए हमारी महा नायिकाओं या महा नायकों का जीवन कभी सुखमय नहीं रहा...और हमारे लिए तो बस इतना मान लेना काफी रहा...उनकी बात और है...वह महान थे...तभी तो कर सके...उनको पीछे हटने की इजाजत नहीं है...सच पूछिए तो...कौन महान बनना चाहता है...जवाब मिलेगा कोई नहीं...सब शांति चाहते हैं...सुख चाहते हैं....धन का नहीं...मन का सुख...जिस नरेन को दुनिया ने स्वामी विवेकानन्द बना दिया....वह क्या नहीं चाहते होंगे...अपनी माता के आँचल में रहना...क्या उनको नहीं खलता होगा...कि उनके सिर पर हाथ नहीं है...बेटे और माता में दूरी रही और अपनी दुनिया के दुःख या सुख के बीच दोनों ही पत्थर बनकर सब कुछ सहते रहे...नहीं...मैं इसे अलौकिक आवरण नहीं दे सकती क्योंकि मैं एक मनुष्य की तरह सोचती हूँ,,,,माँ भुवनेश्वरी देवी का दुःख आँख से ओझल नहीं हो सकता...।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><div class="separator" style="clear: both;">आप क्या कल्पना कर सकते हैं कि जिस घर में कोई कमाने वाला न हो. उस घर की शिक्षित सन्तान संन्यास लेकर समाज कार्य में जुट जाये तो उस घर की स्त्री पर क्या गुजरती होगी.....हम तो उनका नाम भी नहीं ले पाते...सबको वृक्ष दिखता है....जिस धरती के गर्भ में रहा...उस धरती के दुःख का क्या....कब बात करते हैं हम...किसी भुवनेश्वरी देवी या किसी कस्तूरबा के बारे में...नहीं...कस्तूरबा की कहानी तो अलग है...उन पर तो अलग से ही बात होगी...आज तो भुवनेश्वरी देवी को लेकर ही कहना है।</div><div class="separator" style="clear: both;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLVm3bcEkvdK2J988QQ3sg96NVYHTMGD-ulhl5WQDOmah9ym6d9A_tEF5M8fHd7XkBBHZOMpi17H8_Y0CQtajknNiT_RMCqqdBvlyUMubFvE4XLiVFbX3_QBqQiqU1izV9I-5SbhRCPzIK/s768/ramakrishna_sarada_devi-768x432.jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="432" data-original-width="768" height="360" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLVm3bcEkvdK2J988QQ3sg96NVYHTMGD-ulhl5WQDOmah9ym6d9A_tEF5M8fHd7XkBBHZOMpi17H8_Y0CQtajknNiT_RMCqqdBvlyUMubFvE4XLiVFbX3_QBqQiqU1izV9I-5SbhRCPzIK/w640-h360/ramakrishna_sarada_devi-768x432.jpeg" width="640" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both;">माता - पिता की इकलौती सन्तान, सुन्दर और असाधारण, अंग्रेजी समझने वाली और कविताएं लिखने वाली भुवनेश्वरी देवी ने ही तो नरेन्द्र को आरम्भिक तौर पर अंग्रेजी पढ़ाई थी। असमय वैधव्य और दस बच्चों की माता ने कैसे सहा होगा सब कुछ अपनी सन्तान का असमय निधन...पारिवारिक मुकदमेबाजी। जिस घर का खर्च हजारों में हो, उस घर के खर्च को क्या 30 रुपये तक ला देना क्या इतना आसान रहा होगा...इतिहास ऐसी गृहिणियों की त्याग और तपस्या पर बात नहीं करता। खेतड़ी महाराज अजीत सिंह जब तक रहे...स्वामी विवेकानंद का आग्रह रखते हुए भुवनेश्वरी देवी को 100 रुपये प्रतिमाह भिजवाते रहे...उनके जाने के बाद यह राशि बंद हो गयी...और भुवनेश्वरी देवी इसके बाद 9 साल जीवित रहीं...उनका निधन 1911 में हुआ....कैसे गुजारे होंगे उन्होंने ये साल,....हम क्या कभी बात करते हैं....नहीं करते...भला दरिद्रता औऱ करुणा में कैसा रस...स्वामी जी ने रामकृष्ण मिशन खड़ा करने के लिए अपना पूरा जीवन होम कर दिया...अपना घर - परिवार सब त्याग दिया...फिर विश्व जीतने वाले के घर का ख्याल तब बंगाल क्यों नहीं रख सका। उस दौर में धनपतियों की तो कोई कमी नहीं थी...फिर क्यों नहीं कोई आगे आया....? भुवनेश्वरी देवी ही क्यों माँ शारदा को ही कब समझा हमने....एक 6 साल की बच्ची का विवाह 23 साल के एक युवक से होता है...युवक भी ऐसा जो अद्भुत है...अपनी ही धुन में रहने वाला..अपनी माँ का परम भक्त..जिसके बारे में लोग कहते हैं कि उसकी मानसिक अवस्था का कोई ठिकाना ही नहीं रहता। पत्नी के हृदय की शंका और आशंकाओं पर कब बात होती है...हम तो बस मान लेते हैं कि पवित्रता की देवियों के पास हृदय होता ही नहीं, होता भी है तो उनके लिए तो हृदय रखना ही अपराध है...क्या सुख के उन क्षणों पर अधिकार नहीं था उस नवयुवती का?</div><div class="separator" style="clear: both;">हम बखान करते हैं कि रामकृष्ण परमहंस ने पत्नी में माँ को देखा...पर क्या पत्नी यही चाहती होगी...क्या उसकी कोई इच्छा नहीं होगी...पति की इच्छा के अनुरूप स्त्री सब कुछ छोड़ दे...अपना जीवन ढाल ले...यह भी भूल जाये कि वह क्या हुआ करती थी...तो वह महान है...पवित्रता की प्रतिमूर्ति है..आप चाहेंगे कि तुलना न हो मगर असमानता होगी तो तुलना भी होगी....क्योंकि पतियों के लिए कोई नियम नहीं बना...और न ही उनको अपना जीवन कभी पत्नी के लिए बदलना पड़ा है...जब भी कुछ छोड़ा है, वह स्त्री ने ही छोड़ा है इसलिए वह सवाल तो करेगी और आपको जवाब भी देना होगा। कहानियों की अलौकिकता को छोड़कर अगर धरातल पर बात की जाए....एक स्त्री की आँकाक्षाओं...उसकी सोच के लिए तो समाज में कभी जगह बनी ही नहीं...सदियों से चली आ रही परम्परा औऱ पति की इच्छा के अनुसार खुद को ढालकर एक युवती देवी बन गयी औऱ हम उनको माँ शारदा कहते हैं। इनको भी अपना जीवन दरिद्रता के बीच ही गुजारना पड़ा।</div><div class="separator" style="clear: both;">आपका समाज सिर्फ नाम बदलता है... स्त्रियों का जीवन खुद तय करता है और अपने साँचे में ढालकर उनको देवी बना डालता है... मुझे देवियों में गरिमा से अधिक करुणा दिखती है....क्योंकि देवी नहीं...ये सब मुझे स्त्री लगती हैं....मानवी लगती हैं...जीवन का सत्य तो यही है।</div><div class="separator" style="clear: both;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both;"><br /></div></div><br /><p><br /></p>सुषमा त्रिपाठी कनुप्रियाhttp://www.blogger.com/profile/06039738470335508025noreply@blogger.com0