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पद्मावती...राजपूत...स्त्री....इज्जत के नाम पर.....हजार खून माफ

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कहते हैं कि कुछ चीजें होती हैं तो उसे होने देना चाहिए क्योंकि उसके बहाने बहुत सी बातें सामने आती हैं और पद्मावती प्रकरण में अभी यही हो रहा है। आप हर बात के लिए मीडिया का मुंह ताकते हैं और जब संजय लीला भंसाली ने मीडिया का मुंह देखा तो आपको मिर्च लग गयी। स्त्री को देवी और मां बनाकर उसके मनुष्य होने की तमाम सम्भावनाओं को खत्म कर देना और उसे प्रतिष्ठा के नाम पर महिमामंडित करना ही वह कारण है जिससे बड़े से बड़ा अन्याय ढका जा रहा है। आप औरतों से जीने और सांस लेने का अधिकार छीन रहे हैं और आप कहते हैं कि आप औरतों की बड़ी इज्जत करते हैं। भारतीय परिवारों में प्रतिष्ठा की पराकाष्ठा हिंसा और रक्तपात पर खत्म होती है मगर ये समझने की कोई जहमत नहीं उठाता कि वह स्त्री क्या चाहती है ? सच तो यह है कि आपने स्त्रियों के व्यक्तित्व को अपनी मूँछों के अनुसार काटा और रखा है और यही कारण है कि आज तक भारत में ऑनर किलिंग चली आ रही है। आप किसी स्त्री को अपने साथ रखैल के रूप में रख सकते हैं और आपके दरबार में नाचने के लिए भी एक स्त्री ही चाहिए मगर आपके घर की स्त्री अगर अपने उल्लास को व्यक्त करने के लिए थिरकती...

मी टू का चक्कर बंद कीजिए और नर्क से निकलने का रास्ता दिखाइए

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मी टू....पूरा सोशल मीडिया मी टू की चपेट में है...रोज नयी कहानियाँ सामने आ रही हैं..रोज नए खुलासे हो रहे हैं और पीत पत्रकारिता को रोज मसाले मिल रहे हैं...सच है...लगभग हर दूसरी औरत अनचाहे स्पर्श का दंश झेलती है...और महज 2 प्रतिशत या उससे भी कम मामलों में उसे इंसाफ मिल पाता है...मगर मी टू एक बानगी है। जब भी कोई सिने तारिका या अभिनेत्री या ग्लैमर की दुनिया से जुड़ी महिला अपनी किसी तकलीफ को सामने रखती है..खबरें कुछ ऐसी बनती हैं कि उस घटना को रिक्रिएट कर दोबारा सनसनी का मजा लिया जा रहा है। महिलाओं का उत्पीड़न अखबारों और पत्रिकाओं से लेकर मीडिया के बड़े तबके के लिए एक मजा है जिसे वे पाठकों के सामने परोसते हैं...इनर वेयर में हाथ डाला...दबाया..मजे लिए...बस पाठकों के लिए उस घटना को जिन्दा करने का काम कर रहा है...मुझे कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि कोई अखबार इसमें सहानुभूति देखता हो या उस महिला की पीड़ा को महसूस कर रहा हो...कहने की जरूरत नहीं है कि मीडिया में आज भी पुरुषों की प्रधानता है...बहुत से पुरुष ऐसे हैं जो समझते हैं मगर बड़ा तबका ऐसा ही है जो स्कैंडल ढूंढता है..ये दोबारा बलात्कार में धक...

सिन्दूर पोतना..बुर्का पहनना चयन का सवाल है...बौद्धिक संवेदनहीनता को दूर रखें

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 ‘ छठ के त्योहार में बिहार वासिनी स्त्रियां मांग माथे के  अलावा नाक पर भी सिंदूर क्यों पोत रचा लेती हैं ?   कोई  खास वजह होती है क्या ?’  मैत्रेयी पुष्पा.... आदरणीय मैत्रेयी जी, मैं सोचती थी कि साहित्यकार दूसरों की वैचारिक स्वतन्त्रता  का आदर करते हैं...आपसे काफी प्रभावित भी थी...पढ़ा है  आपको...अच्छा लिखती हैं मगर मुझे सन्देह है कि  अभिव्यक्ति की यह स्वतन्त्रता आप अपने जीवन में देती भी  होंगी कि नहीं। खैर, मैं देती हूँ मगर वहीं तक जहाँ तक  आपकी संवेदनहीन बौद्धिकता न पहुँचे। एक समय में आपका  साक्षात्कार भी ले चुकी है और तब आपने कहा था कि आप तोड़-फोड़ की नहीं, जोड़ने की बात करती हैं। क्या आपने बंगाल के सिन्दूर खेला के बारे में सुना है....वहाँ सिन्दूर भावुकता भर ही सीमित नहीं है...वह शक्ति का प्रतीक भी है....वैसे मंगलवार और शनिवार को हनुमान जी को भी सिन्दूर लगाया जाता है...आपकी नजर में वे कौन सी पितृसत्तात्मकता से पीड़ित हैं....कोई आप पर अपने विचार नहीं लाद रहा...आपके विचारों में अगर ताकत होगी और उनकी वह स्वीकार्यत...

रेखा : आँधियों को आँखों की मस्ती से मात देती शम्मे फरोजा

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जिसकी आँखों में कशिश और जिसने खामोशी से अपनी जिन्दगी गुमनाम इश्क के नाम कर दी। जिसने बचपन से ही तकलीफें देखीं, माँ की आँखों में आँसू देखे, पिता का छल देखा, उस रेखा ने अपना जन्मदिन इस साल मना लिया है। साँवली रंगत और एक साधारण चेहरे के लिए ताने सुनने वाली सावन भादो की उस रेखा ने जिन्दगी के 63 साल देख लिए....जिन्दगी को खामोशी से जीया, तोहमतें सुनते हुए जिया मगर खामोशी से ही सही अपनी शर्तों पर जीया...बचपन में जिन नायिकाओं ने मुझे प्रभावित किया...उनमें रेखा का नाम पहला था...जब पति की मौत के लिए रेखा को जिम्मेदार ठहराते हुए अखबारों में उनको मनहूस कहा गया तब भी रेखा मुझे भली ही लगीं।  प्यार से वंचित...प्यार को तलाशती रेखा की जिन्दगी में बहुत से लोग आए...बॉलीवुड के नायकों की जिन्दगी में भी नायिकाएँ आती रही हैं मगर उनकी जिन्दगी पर कभी इस तरह सवाल नहीं उठे जिस तरह अकेली अपनी शिद्दत से जी रही इस अभिनेत्री को लेकर उठे हैं...एक ही तरह के जुर्म में दो अलग इंसाफ...ये हमारे समाज की हकीकत है। रेखा की माँग का सिंदूर...अखबारों की सुर्खियाँ बना और इसे न जाने कितने लोगों से जोड़ दिया गया...कई ब...

संवेदनशील मानवीय परम्पराओं को सहेजिए....आपके साथ दुनिया का भी भला होगा

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पद् मावती का जलना उसकी इच्छा नहीं हो सकती थी....ये सामूहिक आत्महत्या है...क्या ये हमारा आदर्श होना चाहिए? पद्मावती का ट्रेलर सामने आ चुका है। तथ्यों और कल्पना को लेकर बहस अपनी जगह है मगर विरोध मानसिकता को दर्शाता जरूर है। इतिहास पढ़िए या पुराण पढ़िए या कोई कल्पनापरक कहानी ही पढ़िए...स्त्रियों को पसन्द करने के लिए हमारे पास एक ढांचा है...एक खास तरह का फ्रेम है और उस फ्रेम में फिट होने वाली स्त्रियाँ ही हमारा आदर्श बन जाती हैं....हमें लड़ने, जूझने और सवाल उठाने वाली औरतें पसन्द नहीं है....अपनी अस्मिता का सम्मान करने वाली औरतें भी पसन्द नहीं हैं...हमको ऐसी औरतें पसन्द हैं जो परिवार के लिए जीए...उसकी सलामती के लिए भूखी – प्यासी रहे...लाख अन्याय हो...आवाज न करे....दूसरी श्रेणी की मनुष्य बनने की नियति को स्वीकार करे....सम्मान बचाने के लिए आग में कूद जाए...हम उनको लड़ना नहीं सिखाते....हमने कभी लड़कियों को लड़ना नहीं सिखाया..हमने उनको जान देना सिखाया...मारपीट और घरेलू हिंसा को स्वीकार करना सिखाया अगर कोई छेड़े तो उस गली से जाना छोड़ दो...अगर पति हाथ उठाए तो उसे उसका अधिकार समझ लो और अगर ...