प्रेम से बड़ा वैराग्य नहीं..संन्यासी से अच्छा कोई शासक नहीं
अभी हाल ही में युवाओं के बीच जाने का मौका मिला। परिचर्चा थी एक किताब पर और वह किताब प्रेम पर आधारित थी, रिश्तों की उलझन पर आधारित थी। किताब पर चर्चा के बहाने बात प्रेम पर भी हुई। युवाओं ने जब अपनी बात रखी तो प्रेम पर भी रखी और रिश्तों को लेकर एक ऐसी धारणा सामने आई जहां प्रेम की परिभाषा पर आज की कॉरपोरेट संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुआ। कुछ ऐसी बातें जहां विशुद्ध भावुकता और कुछ ऐसी बातें जहां पर प्रेम और संबंध स्पष्ट रूप से एक डील से अधिक कुछ नहीं लग रहा था । ऐसे में चाहे साहित्य हो या सिनेमा हो, वहां प्रेम को या तो इतना व्यावहारिक बना दिया जा रहा है कि उसमें संवेदना ही शेष न रही है या फिर यौन संबंधों का इतनी अधिकता है कि प्रेम के अन्य सभी स्वरूप दम तोड़ रहे हैं। जरूरी है कि अब इस पर बात की जाए। सबसे मजेदार बात यह है कि जब आप प्रेम की बात करते हैं तो लोग इसकी उम्मीद ऐसे लोगों से की जाती है जिनके पास प्रेमी - प्रेमिका हों या वे पति - पत्नी हो......प्रेम किया है क्या ..का मतलब ही मान लिया जाता है कि क्या आपके कभी अफेयर रहे हैं .....विचित्र किन्तु सत्य... हम यह क्यों नहीं समझ सकते कि प्रेम किसी पात्र में पड़ जल की तरह है और पात्र के अनुसार अपना आकार बदलता है बस...प्रेम का स्वाद तो वही है..अनकहा, अकथनीय...रंगहीन...आकारहीन..।
अब अपनी बात करूँ तो विवाह किया नहीं...और लड़कों में रुचि नहीं रही तो मैं भला प्रेम के बारे में बात कैसे कर सकती हूँ..मगर न...प्रेम किया थोड़ी न जाता है..हो जाता है..संवेदना और अहसासों से जुड़ा कुछ भी करना पड़े तो वह अधूरा रह जाता है...उसमें एक उम्मीद जुड़ जाती है..मेरे विचार से चाहत भी प्रेम के लिए पर्याप्त पारिभाषिक शब्द नहीं है..क्योंकि जब प्रेम हुआ तो कोई चाहत बचती ही नहीं...आप इसे महसूस करते हैं ...ऐसा बस एक ही भाव है प्रेम का जिससे सारे भाव अपने -आप जुड़ने लगते हैं...ऐसा प्रेम सिर्फ ईश्वर से हो सकता है जहां आपको सारे भाव एक साथ मिल जाते हैं। जब आप किसी को चाहते हैं तो इस धरती पर वही किसी न किसी रूप में आपके पास आता है आपका ख्याल रखने के लिए...धरती पर किसी प्राणी के वश की बात नहीं कि वह आपकी जरूरतों को आपसे भी ज्यादा समझे..यह सिर्फ वही समझ सकता है जिसने आपको रचा है..और आपकी जरूरत के अनुसार वह किसी न किसी से मिला देता है..... तो उस दिन इतनी उलझी - उलझी बातें सुनीं कि लगा कि यह दुःस्साहस तो कर ही डालना चाहिए।
संयोग से बोलने का अवसर भी मिला तो दिमाग में जो चल रहा था और इस प्रसंग के बाद जो ख्याल आया, फिलहाल आपसे यही साझा कर रही हूं। प्रेम किसी सम्बन्ध का मोहताज नहीं है..वह एक फूल से होता है, मां -बाप बच्चे से कर सकते हैं, या फिर किसी रिश्ते और स्पर्श के बगैर भी कर सकते हैं...क्योंकि प्रेम का संबंध भावना से है..उर्जा से है और उर्जा पूरे ब्रह्मांड में फैली है..मष्तिष्क और हृदय का संबंध है..उसकी यह अभिव्यक्ति है..तब मैंने बताया कि आप जिसको चाहते हैं...(शब्द यही लेने पड़ेंगे)...आप उसे महसूस करते हैं...उसका सुख, उसका दुःख..उसका आह्लाद....उसका स्पर्श, उसका दुलार..चाहे वह भौतिक रूप से यानी शारीरिक रूप से आपके पास हो या न हो । कभी सोचकर देखिएगा..भौतिक रूप में तो मीरा बिल्कुल अकेली थीं..फिर क्या कारण था कि पूरा का पूरा राजपूताना समाज उनको कृष्ण से अलग नहीं कर सका..क्योंकि मीरा अगर कृष्ण को चाहती थीं तो कृष्ण भी मीरा से प्रेम करते थे..यही कारण है कि मीरा को कभी किसी की जरूरत नहीं पड़ी। सूर और तुलसी..सारे दुःख, सारी पीड़ा अपनी भक्ति के कारण सह गये भक्ति का आधार प्रेम ही है और जब इसमें विश्वास मिल जाए तो यह श्रद्धा बन जाती है। लौकिक कब अलौकिक बन जाता है ..पता ही नहीं चलता..तभी तो घनानंद ने सुजान के नाम पर उसकी उपेक्षा पर भी उम्र काट दी और सुजान बाद में कृष्णमय हो गये।
आज पति - पत्नी के सम्बन्धों में शारीरिक संबंध न हों तो लोग तलाक ले लेते हैं, ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं..कल्पना कीजिए एक नवोढ़ा पत्नी कि जिसे उसका पति उसे मां कह दे..क्या आज ऐसी शादियां टिकेंगी जहां पति पत्नी को पत्नी होने का सुख न दे, वह दाम्प्त्य सुख न दे? ठाकुर रामकृष्ण परमहंस और मां शारदा का प्रेम वही उदाहरण है, मां शारदा सब समझती थीं...ठाकुर की साधना को उन्होंने अपने त्याग से परिपूर्ण किया। वह ठाकुर की कर्मसंगिनी थीं । प्रेम के सभी स्वरूपों को एक ही फ्रेम में देखना हो तो कृष्ण को देखिए...रुक्मिणी को कृष्ण की जरूरत थी, कृष्ण से उनको पत्नी का सम्मान मिला।, परिवार मिला, पटरानी बनीं मगर सोचिए कि कृष्ण को क्या मिला। रुक्मिणी से विवाह करके कृष्ण ने उनको संरक्षण दिया मगर राधा की जगह न तो रुक्मिणी को मिली और न ही उन्होंने ऐसा प्रयास किया । यही प्रेम है क्योंकि रुक्मिणी ने कृष्ण के लिए हर एक संबंध के महत्व को समझा था..इसलिए वह जानती थीं कि राधा कृष्ण के लिए क्या हैं, द्रौपदी कृष्ण के लिए कितनी जरूरी हैं। रुक्मिणी ने खुद को कृष्ण पर थोपने का प्रयास नहीं किया, कभी यह नहीं कहा कि आपका विवाह मुझसे हुआ है, आप सिर्फ मेरे होकर रहिए, किसी अन्य स्त्री से बात मत कीजिए। वह कभी सुभद्रा और कृष्ण के संबंध में नहीं आईं। वह जानती थीं कि कृष्ण ने जग के उद्धार के लिए अवतार लिया है, धर्म की स्थापना के लिए जन्मे हैं..उनका जीवन किसी एक परिवार या राज्य के लिए नहीं हो सकता। जो लोककल्याण के लिए जीता है, वह कभी किसी एक संबंध में बंधककर सिर्फ किसी एक का होकर नहीं रह सकता है और कृष्ण तो परमेश्वर हैं, योगेश्वर हैं। सम्भव ही नहीं है अब आज के दम्पत्ति खुद अपनी तुलना करें जहां स्त्री - पुरुष के बात करने पर ही तलाक हो रहे हैं......उनको अपने साथी के जीवन पर एकछत्र अधिकार चाहिए.....उसके जीवन में वही एकमात्र रहे, कोई और न रहे, वह अपना पिछला जीवन, अपना अतीत, अपना प्रेम, अपना काम, अपने मित्र सब भूल जाए...क्या यह अव्यावहारिक नहीं है? आपको अपने लिए स्पेस चाहिए, आपको अपना व्यक्तित्व, अपना कॅरियर, अपना परिवार प्यारा है मगर आपके साथी को भी यह सब चाहिए, यह आप समझने को तैयार नहीं हैं। जहां प्रेम मैं और मेरी जरूरतें, मेरी इच्छाओं में बंध जाए, उस संबंध की परिणति संदेह और अंततः घुटन में होती है और वह एक दिन दम तोड़ देता है। मुझे तो लगता है कि आपको तय कर लेना चाहिए कि आपको साथी चाहिए या गुलाम चाहिए । आपको दो बातों में से एक चुनना है या आप साथी के रूप में पिंजरे का तोता चुनिए जो अपना व्यक्तित्व खोकर आपका रहे या फिर उसे उड़ान दीजिए, आसमान दीजिए..उसकी उड़ान में ही आपको सुख मिलेगा। यह बात मैं सिर्फ पति-पत्नी या माता - पिता के संबंध को लेकर नहीं कह रही। अति हर जगह वर्जित है फिर चाहे वह ओवर प्रोटेक्टिव होना हो या पजेसिव होना। प्रेम अगर बंधन है तो वह हृदय का है, अगर वह नहीं है तो वह कभी नहीं टिकेगा।
प्रेम में सिर्फ प्रेम रह जाता है..जैसे शिव-शक्ति..जिनमें आदि वैराग्य और गार्हस्थ समाहित हैं । संसार के भौतिक सुखों के बीच निष्काम कर्म करना ही वास्तविक संन्यास है..इसे कर्म योग कहते हैं जैसे कृष्ण...यहां रास लीला में परमात्मा से मिलन ही है...प्रेम जब चरम पर होता है..वो आध्यात्मिक हो जाता है..पारलौकिक हो जाता है..मीरा..राधा और द्रौपदी..द्रौपदी इसलिए क्योंकि वो कृष्ण के कर्म योग को पूर्णता देती हैं अपना सब कुछ देकर..। मुझे शिव और कृष्ण एक दूसरे में समाहित लगते हैं...अभिन्न ..दोनों ने ही स्त्री को पूर्णता में देखा । जो नहीं मिला, उसके पीछे मत भागिए, जाने दीजिए...जिसके मिलने की उम्मीद है. उसको पाने की कोशिश बगैर किसी उम्मीद के कीजिए...जिससे प्रेम है..नेह है..उसे बताइए ..आंखों की भी भाषा होती है...शब्द दीजिए...हर कोई आंखे नहीं पढ़ पाता..सिर्फ इतना । मैं हूँ ना..ये तीन शब्द..आई लव यू से ज्यादा जादुई लगते हैं मुझे ..मैं हूँ ना
जो है उसे सहेजिए...। प्यार का भूखा या प्यार की भूखी...होने का मतलब जिस्म का भूखा होना नहीं होता...मेरे विचार में हरगिज नहीं होता। इसका मतलब सिर्फ यही है..उसे सुना जाए..समझा जाए..... कहा जाए बातों में.सहभागिता में..जिम्मेदारी में..चुंबन से ज्यादा जादुई आपके द्वारा बनाई गई एक कप चाय होती है...गुलाब से ज्यादा सुन्दर...साथ बैठना होता है...दूर तक साथ चलना होता है..आलिंगनबद्ध होने से अधिक सुंदर असहमति का सम्मान करना होता है...साथ मिलकर बर्तन धोना होता है...सिर्फ इतना कह देना होता है । सुनो...मैं हूँ तुम्हारे साथ ।
जो आपसे प्रेम करता है, वह आपको गलत राह पर नहीं जाने देता, वह आपके लिए घृणा का पात्र बन जाता है, आपके उपहास का पात्र भी बन जाता है मगर वह जानता है कि आप जो कर रहे हैं, उसका दूरगामी प्रभाव अगर आपके भविष्य के लिए अच्छा नहीं तो वह किसी भी सूरत में आपको रोकेगा। प्रेम वह है जो आपके लक्ष्य का साथी बनता है, आपकी गलतियों का नहीं। जो आपको खुद तक सीमित रखकर आपको आपके कल्याण से जुड़े लक्ष्य से दूर करे, वह न तो आपका मित्र है, न ही प्रेम है । सम्भवतः यही कारण है कि मंदोदरी का नाम आदर के साथ पंचकन्याओं में लिया जाता है। ज्योतिबा फुले और सावित्री फुले को हम भूल नहीं पाते। जरूरत पड़े तो प्रेम साहस बनता है और आपके आगे वैसे ही चलता है जैसे द्रौपदी पांडवों के आगे चलीं। साथी न रहने पर उसके सपनों को पूरा करता है.......जनकल्याण को अपना ध्येय मान लेता है जैसे रानी लक्ष्मीबाई ने किया, जैसे अहिल्याबाई होल्कर बनीं।
प्रेम परीक्षा नहीं लेता..परीक्षाओं से गुजरता जरूर है...अगर मुझसे प्यार करते हो तो..की जरूरत नहीं पड़ती वहां। किसी का ट्रायल लेना रिश्ते की मजबूती की गारंटी नहीं है...लेने से पहले सोच लीजिए कि क्या आप ट्रायल देने को तैयार हैं। कैसा लगेगा आपको जब आप किसी रिश्ते में अपना सब कुछ देते हैं और आपको पता चलता है कि आपका ट्रायल हो रहा था और आप रिजेक्ट कर दिए गये हैं।
अभी सोचती हूँ कि जब प्रेम होता है तो हम पीड़ा महसूस करते हैं, क्या यही पीड़ा ईश्वर को महसूस होती होगी? मुझे लगता है, होती होगी..अर्थात जब हम प्रेम के कारण पीड़ित की सहायता करते हैं तो दरअसल स्वयं को पीड़ा से मुक्त कर रहे होते हैं । ईश्वर तो भक्तों के वश में हैं, उनकी पीड़ा को आत्मसात करते हैं और सह नहीं पाते तो सहायता के लिए उतरकर खुद को उस पीड़ा और बेचैनी से मुक्ति देते हैं...मेरी समझ में प्रेम व भक्ति का यही ताप है कि कृष्ण द्रौपदी की रक्षा करते हैं, श्रीराम हनुमान के बन जाते हैं, शिव पार्वती के हो जाते हैं। प्रेम हमें इच्छाओं से खाली करता है, ईश्वर जब आपसे प्रेम करते हैं तो आपका अहं स्वतः छूटता है, वह लोग छूटते हैं जो आपके लिए नहीं थे, वह जब आपको थामता है तो फिर आपको किसी की जरूरत नहीं पड़ती। आप निष्काम होते जाते हैं..प्रेम दरअसल लौकिक संबंधों की लोककल्याणकारी अभिव्यक्ति है। जैसा कि मैंने कहा कि जो लोककल्याण के लिए जन्मा है, वह किसी एक रिश्ते में नहीं बंध सकता । उसे एकाकी रहना है पर वह एकाकी कभी नहीं होता। उसका ध्यान रखने के लिए सृष्टि किसी न किसी को किसी न किसी रूप में भेज ही देती है,,,,और वह सम्बन्ध कुछ भी हो सकता है या नहीं भी हो सकता है ...सिस्टर निवेदिता और स्वामी विवेकानंद, अमृता प्रीतम- इमरोज, निराला - महादेवी, रतन टाटा और शांतनु..असंख्य उदाहरण हैं। यह संबंध सृष्टि ने गढ़े, ईश्वर ने रचे इसलिए इनको तोड़ने की शक्ति किसी में नहीं।
अंत मे प्रेम अपने आप से कीजिए...सृष्टि की सबसे सुन्दर रचना हैं आप..जिसे ईश्वर ने गढ़ा है। खुद को सेलिब्रेट कीजिए..अपनी खुशी के लिए दूसरों के आसरे मत रहिए..खुद को दुलार दीजिए...तोहफे दीजिए...खुद को माफ़ भी करना सीखिए...शाबाशी दीजिए। उसे single का टाइमपास नहीं...सेल्फ केयर और सेल्फ लव कहते हैं...आप अपने बेस्ट फ्रेंड व पार्टनर खुद हैं..कोई न तो आपको आपसे बेहतर समझेगा और न सोचेगा.सिवाय उस ईश्वर के...तो दोस्ती करनी ही है..उससे कीजिए...वह न तो आपको छोड़ेगा और न ही रिप्लेस करेगा।
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