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मई, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

रिश्तों के बाईप्रोडक्ट और पीछे छूटता ननद का रिश्ता

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भारतीय संस्कृति में जिस चीज को लेकर सबसे ज्यादा गुमान किया जाता है, वह है परिवार और बदलते समय के साथ परिवार का स्वरूप बदला है जिसे हमारे पाठ्यक्रमों ने और ज्यादा छोटा कर दिया है। कहने को पाश्चात्य सभ्यता को कोसते नहीं थकते, वही लोग किताबें बना रहे हैं और वहाँ परिवार का मतलब छोटा और छोटा होता जा रहा है। बच्चे जब कार्ड बनाते हैं तो उसमें मम्मी – पापा, दीदी और भइया भर होते हैं और हमारे स्कूलों में भी यही स्वीकृत है। थोड़ा सा आगे बढ़े तो दादा – दादी और नाना – नानी, बाकी रिश्ते तो अंकल और आँटी में सिमट गए। ये हमारी संस्कृति नहीं है, ये हम सब जानते हैं और इसके बावजूद हमारी किताबों में ये नहीं पढ़ाया जा रहा क्योंकि परिवार की शाखाएँ- प्रशाखाएँ बड़ी हो जाएँगी। बड़े होने तक पता नहीं था कि चचेरे, ममेरे और फुफेरे भाई या बहन क्या होते हैं मगर आज बच्चे जानते हैं कि ये सिर्फ उनके कजन हैं, कजन यानि ऐसा दूर का रिश्ता जहाँ औपचारिकता तो है मगर मस्ती और अपनापन नहीं है....बच्चा अगर इनको अपने परिवार में शामिल करे तो स्कूल से नोटिस आ जाती है। ऐसा लगता है कि बाकी सम्बन्ध तो जैसे फैमिली ट्री का बाई

तीन तलाक : उतरते सियासत और मजहबी नकाबों के बीच सुबह का इंतजार

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कुछ घटनाएँ इतिहास बदलने के लिए ही होती हैं और बदलाव इतना आसान नहीं है, कम से कम तीन तलाक  के मामले को देखकर तो यह कहा जा सकता है। देखा जाए तो यह मसला समानता और सम्मान से जुड़ा है मगर राजनीति भी इस मसले को हथियाने में लग गयी है। तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित कर दिया है मगर 6 दिनों तक जो सुनवाई चली, उसमें एक – एक करके नकाब उतरते दिख रहे हैं। हैरत तब होती है जब कपिल सिब्बल जैसा कद्दावर अधिवक्ता अपने प्रोफेशन का हवाला देकर एक घिनौनी प्रथा को आस्था का मामला बताता है। सिब्बल जब कहते हैं कि तलाक राम जन्मभूमि की तरह आस्था का मामला है तो शक होने लगता है कि क्या वे वाकई सुशिक्षित हैं या जनप्रतिनिधि होने के लायक हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की पैरवी कर रहे सिब्बल कहते हैं कि समानता का नियम तीन तलाक पर लागू नहीं होता तो समझ आ जाता है कि वोट बैंक की राजनीति के कारण हमारे जनप्रतिनिधि किस हद तक  गिर सकते हैं। ये भी आश्चर्य की बात थी कि सुप्रीम कोर्ट ने भी यह कहा कि अगर तीन तलाक धर्म का मामला हुआ तो वह दखल नहीं देगा। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या धर्म के नाम पर सातों खून माफ क

...माँ भी अंततः एक स्त्री और मनुष्य है और उसे देवी मत बनाइए

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हर साल की तरह इस बार भी मदर्स डे आ गया है। सोशल मीडिया पर पहले से ही माँ की जिन्दगी को आसान बनाने वाली चीजों के विज्ञापन छा चुके हैं, रेस्तराँ उसके लिए खास तौर पर तैयारी कर रहे हैं। कई अग्रेसित संदेश मेरे मोबाइल पर आने को तत्पर हैं.....ऐसे दिन....बहुत से हैं और जब जश्न मनता है तो लगता है कि सारी दुनिया तो सिर्फ माँ के इर्द – गिर्द ही घूमती है। जरा खुद से सवाल करिए तो क्या ये प्यार तब भी रहेगा...जब माँ अपनी इच्छा जाहिर करेगी या अपने हिसाब से एक बार अपनी जिन्दगी जीना चाहेगी ? मेरी समझ में नहीं आता है कि ये निःस्वार्थ प्यार होता क्या है....सच तो यह है कि हम बगैर स्वार्थ के किसी को न चाह सकते हैं और न उसके बारे में सोच सकते हैं....एक दिन या कुछ महीने माँ आपका नाश्ता न बनाए, आपके कपड़े न धोए, बच्चों को स्कूल से न लाने जाए....एक दिन आपकी जगह अपने हिसाब से अपने कपड़े खरीदे.....आप क्या तब भी उतना प्यार कर सकेंगे माँ को ? कई बार बच्चों को भी ये तय करते मैंने देखा है कि उसकी माँ क्या पहने और क्या न पहने...स्लीवलेस ब्लाउज न पहने क्योंकि बेटे को पसन्द नहीं है...बेटी को ससुराल में अपना मा

अगर गृहिणियों से घर है तो उजियारे पर पहला हक भी उसे दीजिए

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एक औरत की पहचान क्या हो सकती है भारत में...एक गृहिणी...एक पत्नी...एक बहू...एक माँ....इसके आगे...इस देश में बात करने से कतरा रहे हैं। अर्थशास्त्री भले ही मानते रहे हों कि देश की अर्थव्यवस्था में गृहिणियों का योगदान है मगर हमारी पितृसत्तात्मक सोच आज भी यह सोचकर ही घबरा जाती है कि महिलाएँ अगर काम करेंगी तो घर कौन सम्भालेगा ? भारत बदल रहा है मगर हमारी परम्परा की रक्षा में जुटे पुरुषों को अब भी ये सोचना नागवार गुजरता है कि महिलाएँ अपने बारे में सोचें...अपने हिस्से की प्रतिभा का उपयोग करें। हर काम पैसे के लिए नहीं होता...कुछ काम अपनी संतुष्टि के लिए होते हैं मगर अपनी अस्मिता के बारे में महिलाएँ सोचें...ये आज भी हमारा समाज नहीं चाहता और न ही महिलाओं को इस बाबत सोचने दिया जा रहा है। इस सोच का सीधा सम्बन्ध अपनी सुविधा भरी उस सोच से है....जो आज भी नहीं स्वीकार करना चाहती कि महिलाओं की दुनिया उनकी गृहस्थी के आगे है। वे अपनी गृहस्थी को बरकरार रखकर भी अपनी जगह बना सकती हैं। हमारी सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि महिलाओं को देवी बनाकर उनको ऐसी जगह पर जबरन बैठा देना चाहते हैं जहाँ हम उसके हिस्से की