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भारत में प्रेम एक दिन की कामना का सुख नहीं, सृजन और कर्त्तव्य का शाश्वत मार्ग है...

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प्रेम मानव की सद्यजात प्रवृत्ति है और बंधन से परे...। प्रेम मुक्त करता है और प्रेम ही संसार का सबसे बड़ा बन्धन भी है । ऐसा बन्धन जिसमें ईश्वर स्वयं ही बंध जाते हैं । वह सर्वशक्तिमान ईश्वर भी प्रेम की चाह में बार - बार धरती पर आना चाहते हैं...आखिर सर्वशक्तिमान होना भी तो एक बन्धन है कर्त्तव्य का....संसार को चलाना भी आसान कहाँ है...पाप - पुण्य के चक्र में, ज्ञान की सूखी थाली में जब तक प्रेम का रस न हो...जीवन जीया भी कैसे जा सकता है । मनुष्य को ही नहीं बल्कि ईश्वर को भी प्रेम चाहिए इसलिए वह उतरता है धरती पर...कभी कौशल्या का प्रेम पाने के लिए तो कभी यशोदा का नंदलाल बनने के लिए...उसे अच्छा लगता है प्रेम के बंधन में बंधकर माता के हाथों से पिट जाना तो उसे अच्छा लगता है कि मुट्ठी भर छाछ के लिए गोपियों की ताल पर नाचते रहना । वसन्त प्रेम का रंग है...वैसे प्रकृति के हर रंग में ही प्रेम है...संसार का हर कण ही तो प्रेम से सींचा गया है..फिर क्यों लोग खींचने लगते हैं सम्बन्धों की रेखा । बहुत कुछ अव्यक्त रह जाता है प्रेम के संसार में परन्तु वह व्यक्त से अधिक महत्वपूर्ण होता है...मुझे सबसे अनोखा लगत

बात रंग पर नहीं, अश्लीलता पर कीजिए...खुद को देखिए, सुधरिए या रुदन बंद कीजिए

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बात रंग से अधिक अश्लीलता पर होनी चाहिए...बिकनी हिन्दी सिनेमा में कोई नयी बात नहीं है...दीपिका ने पहली बार नहीं पहनी...मैंने गाना थोड़ा सुना, अच्छा नहीं है, गीत और संगीत, दोनों खिचड़ी है...नरगिस से लेकर शर्मिला टैगोर और भी बहुतों ने पहनी है, मेरा नाम जोकर में सिमी ग्रेवाल को याद कीजिए एक समय था जब दीपिका अच्छी लग रही थीं, उन्होंने पीकू, छपाक, चेन्नई एक्सप्रेस जैसी, फिल्म भी की है, शाहरुख खुद राजू बन गया जेंटलमैन वीर- जारा, स्वदेश , चक दे इंडिया जैसी अच्छी फ़िल्में कर चुके हैं पठान में दोनों जैसे थके और खुद को, स्टारडम को बचाने की कोशिश कर रहे हैं, समय आ गया है कि दोनों को अपनी उम्र के अनुसार अपने किरदार चुनने चाहिए,स्मिता पाटिल तब्बू, काजोल, विद्या बालन और कंगना ये कर चुके हैं शाहरुख को राजकुमार राव, फारुख शेख और संजीव कुमार से सीखना चाहिए आप हमेशा युवा नहीं रह सकते....वैष्णो देवी जाना सिर्फ एक स्टंट था और ये विवाद भी स्टंट है कहने का मतलब यह....फिल्म को फिल्म की तरह देखिए....पठान....अटेंशन की हकदार नहीं है स्टंट्स से कॅरियर न तो बचता है और न चल पाता है....शाहरुख

लड़कियों....प्यार के नाम पर सब कुछ कुर्बान मत करो...प्यार के आगे भी जिन्दगी है

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लड़कियाँ..बड़ी भावुक होती हैं लड़कियाँ..अगर कोई इनसे पूछे कि जिन्दगी में क्या चाहिए तो अधिकतर लड़कियाँ कह देंगी कि सिर्फ प्यार चाहिए...सुकून चाहिए...कोई समझे...कोई ऐसा चाहिए..। जब प्यार करती हैं तो आगे - पीछे नहीं देखतीं...भरोसा करती हैं..हद से ज्यादा...इतना ज्यादा विश्वास करती हैं कि उनको एक पल के लिए भी अपने प्यार के लिए सब कुछ छोड़ने में हिचक नहीं होती...और उनको क्या मिलता है..उनको मारकर टुकड़ों में काटकर कभी फ्रिजर में रखा जाता है, कभी जंगलों में फेंक दिया जाता है और कभी बहा दिया जाता है । श्रद्धा ने भी तो यही चाहा होगा.. और उसे मिला क्या....? क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है कि लड़कियाँ सिर्फ प्यार के पीछे क्यों भागती हैं....? जन्म से ही उनका जीवन मृगतृष्णा सा रहता है..जहाँ पैदा होने के बाद से ही पराया बना दिया जाना...अपने ही परिवार में अवांछितों की तरह जीना..हर कदम पर भेदभाव किया जाना...हर कदम पर रोक - टोक लगाना, पाबंदी लगाना...आपके समाज में लड़कियों की परवरिश के लिए प्यार शब्द रहा ही कहाँ हैं ? वह इसी प्यार की तलाश में रहती हैं और जब प्यार के नाम पर छल करने वाले मिलते हैं

बात तो उठेगी..क्योंकि बोलना जरूरी है

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जब भी कोई महिला उत्पीड़न की बात होती है तो घर की शांति के नाम पर चुप्पी, मौन और खामोशी जैसे शब्द साथ लिए जाते हैं। मुखर स्त्रियाँ कभी भी पसन्द नहीं की गयीं। अपनी मर्यादा और आत्म सम्मान को दाँव पर लगाकर जिन्दगी गुजार देने वाली और एक दिन मर जाने वाली स्त्रियों का गुणगान बहुत होता है। यदि कोई स्त्री बोलती है तो उसे पहले ही दरकिनार कर दिया जाता है और कई बार स्त्री के विरोध और विद्रोह को दबाकर ऐसी कहानी बना दी जाती है कि उस स्त्री का विद्रोह दिखता ही नहीं है। आजकल एक मुहिम सी चल पड़ी है उत्पीड़न को दबाने की और इस माइंड वॉश में कवि और लेखक खुलकर सामने आ रहे हैं। कुमार विश्वास और मनोज मुन्तशिर, दो ऐसे दिग्गज नाम हैं जो इस मामले में खुलकर अपनी लोकप्रियता का इस्तेमाल भी कर रहे हैं। यही समाज है कि जिसने मुखर द्रोपदी को देवी तो कहा मगर हाशिए पर रखा। सीता के मौन आर्तनाद को श्रीराम के गुणगान से ढक दिया गया। अच्छा है जहाँ आपके प्रभु का गुणगान हो, वह भाग सत्य है और जहाँ उन पर निष्पक्षता से बात की जाए, वह आपको जोड़ा हुआ लगता है। आप सीता वनवास के स्थलों, ऋषि वाल्मिकी के आश्रम, लव - कुश के जन्मस्थल, ऐस

वह उपेक्षित, प्रताड़ित स्त्री....मेरी माँ है

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मन....मनोविज्ञान...मानसिक स्वास्थ्य और स्त्री का मन...हलचल मचा रहे हैं मन में। मन को कौन समझ पाया है भला...और स्त्री के मन को समझने की कोशिश भी कौन करता है। स्त्री माने मातृशक्ति.....स्त्रीत्व अपने आप में एक पूरा शब्द है और मातृत्व इसका एक रूप मगर इस एक रूप ने स्त्री के समूचे अस्तित्व को ढक दिया है। स्त्री माँ है मगर सिर्फ माँ ही नहीं है..जाहिर है कि जब समाज उस पर यह दायित्व थोपता है तो उसके मन में ममता की जगह द्वेष लेने लगता है। आज मैं स्त्री के मन को समझने की कोशिश कर रही हूँ। कोई भी चीज पूरी तरह श्वेत या पूरी तरह श्याम नहीं हो सकती, वह धूसर भी हो सकती है। हमारे समाज में पितृसत्तात्मक सोच ने स्त्री को इतना असुरक्षित किया...कि वह अपनी करुणा, अपनी ममता...अपना स्त्रीत्व सब खो बैठी...जब उस पर किसी और के दायित्व थोपे गये तो उसके मन में जो विद्रोह हुआ...उसने ही द्वेष का रूप ले लिया और पता है उस द्वेष का बोझ उस दूसरी स्त्री के निरपराध बच्चे उठाते हैं..............आजीवन....जो जिन्दगी भर समझ ही नहीं पाते कि आखिर उनसे ऐसा क्या अपराध हुआ कि वह जिसे माँ कहते आ रहे हैं, वह उनसे प्यार ही नहीं करत

आखिर हम महिला मीडियाकर्मियों से आपको इतना भय क्यों है साहब?

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मैंने जब अपराजिता और शुभजिता शुरू की थी तो तय किया था कि यह लड़कियों की मीडिया में भागेदारी बढ़ाने का माध्यम बनेगी। इसका मतलब यह नहीं था कि मुझे लड़कों से लिखवाने या उनको टीम में लेने से आपत्ति थी बल्कि इसका कारण यह था कि मीडिया में लड़कियों की जगह पहले से ही बहुत कम है। अगर है भी तो उनको कोने में रखा जाता है मतलब फिलर की तरह..ताकि यह भ्रम बना रहे कि हम स्त्री विरोधी नहीं हैं क्योंकि हमारे मीडिया माध्यमों में लड़कियों की उपस्थिति को स्वीकार करने में हिचक है। मीडिया में रहते हुए यह पक्षपात पिछले 18 साल से देखती आ रही हूँ। निश्चित रूप से लड़कियों की जिम्मेदारी होती है और उनको अपने काम के साथ घर भी सम्भालना पड़ता है और इस वजह से उनके लिए उतना समय दे पाना सम्भव न होता मगर वे लगातार परिश्रम करती हैं। आज अगर महिलाएं काम कर रही हैं तो ऐसा नहीं है कि उनके लिए बहुत अधिक सुविधाएं दी जा रही हैं। यह जरूर है कि कुछ मीडिया संस्थानों में या कुछ सहकर्मियों की सदाशयता के कारण उनको छुट्टी मिलती है या कई बार उनकी परिस्थितियों को समझा जाता है मगर अधिकतर मामलों में लड़कियाँ यह ताना जरूर सुनती हैं कि '

रुढ़ियों का पिंजरा अगर सोने का भी हो तो भी वह पिंजरा ही है, उड़ान आसमान की होनी चाहिए

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वह घूंघट, हिजाब और परदे का समर्थन करते हैं क्योंकि उनको लगता है कि औरत बेशकीमती है और उस पर किसी की नजर नहीं पड़नी चाहिए। एक छोटा सा प्रश्न यह है कि औरतें बेशकीमती हैं तो पुरुष क्या हैं? पुरुष क्या कबाड़ हैं जो उनको यूँ ही भटकने के लिए खुली सड़क पर फेंक दिया जाए। गुलामी की जंजीर को अगर धर्म और समाज के नाम पर जेवर बनाकर पहन लिया जाए, तो भी वह जंजीर ही रहती है... आज मामला नौ सो चूहे खाय, बिल्ली हज को चली वाला हो गया है और उसके पीछे कहीं न कहीं सामाजिक और पारिवारिक स्वीकृति की चाह भी है और स्वीकृति के जरिए ही बड़े निशाने साधे जाते हैं। यही कारण हैं कि जींस पहनने वाली अभिनेत्रियाँ भी जनता के सामने जाते ही साड़ी पहनने लगती हैं। मजे की बात यह है कि पहनावा औरतों का, शरीर औरतों का, जीवन औरतों का और सिर फुटोव्वल मर्द कर रहे हैं। वह समाज औरतों को हथियार बनाकर लड़ रहा है जिसके मंच पर औरतों को देखा तक नहीं जाता। इस्लाम में बहुत कुछ गलत माना जाता है लेकिन आप वह सारे काम करती आ रही हैं और आपको कोई परहेज नहीं है लेकिन लोकप्रिय बनने के लिए और स्वीकृति के लिए आपने गुलामी को भी ग्लैमराइज करना शुरू क