व्यवस्था अगर अपराधियों को प्रश्रय देगी तो परिवार हो या समाज, उसका टूटना तय है

महिला दिवस हम हर साल मनाते हैं । आँकड़े गिनवाते हैं...शुभकामना संदेश भेजकर सम्मान जताते हैं मगर सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि हम क्या महिलाओं के मुद्दों को समझ पाते हैं। क्या हम लड़कियों की मनःस्थिति को समझ पाते हैं । क्या हमारे भीतर इतना साहस है कि हम समस्याओं की जड़ तक जाकर उनसे टकराएं और उनको सुलझा सकें । महिलाओं के मुद्दों को मैं चार तरफ से देखती हूँ...किचेन प़ॉलिटिक्स, माता - पिता द्वारा किया जाने वाला पक्षपात, सिबलिंग राइवलरी और ऑफिस पॉलिटिक्स ...सबसे अधिक खतरनाक ..अपराधियों को प्रश्रय, प्रोत्साहन और सम्मान देने वाली व्यवस्था । यह एक सत्य है कि परिवार से लेकर समाज तक, राजनीति से लेकर इतिहास तक सब के सब अपराधियों के पक्ष में खड़े होते रहे हैं...अगर न खड़े होते तो महाभारत के भीषण युद्ध की नौबत ही नहीं आती । सबसे पहले सिबलिंग राइवलरी की बात करती हूँ...। महाभारत सिबलिंग राइवलरी का सबसे बड़ा उदाहरण है और इसके लिए दोषी भी वह व्यवस्था है जहाँ गांधारी द्रोपदी को शाप देने से रोकती हैं....मगर बचपन में दुर्योधन को शकुनि से दूर रखने के लिए कुछ नहीं करती...। अगर वह दुर्योधन को थप्पड़ मारना जानती तो शायद उसमें अहंकार होता ही नहीं...अगर द्यूत सभा में भीष्म पितामह द्रोपदी के पक्ष में खड़े होते तो न चीरहरण की नौबत आती और न कुरुवंश खत्म होता । सीता की अग्निपरीक्षा हुई और सबने मौन होकर देखा....अगर उस दिन कौशल्या राम को रोकतीं तो शायद सीता को धरती में समाना नहीं पड़ता । अगर मीरा के पक्ष लोग खुलकर बोलते तो इतना अन्याय न होता और आज की बात करूं तो संदेशखाली मामले में सीएम पहले बोलतीं या फिर महिला पहलवानों के प्रकरण में ब्रजभूषण सिंह पर कार्रवाई होती तो हमारे देश की इन विजेताओं को सड़क पर न उतरना पड़ता । आपकी व्यवस्था ने हमेशा प्रताड़कों का साथ दिया है । हमने स्त्रियों को प्रताड़ित होते देखा और उनको ही दबाया है, उनको ही बहिष्कृत किया है, उनका ही मनोबल तोड़ा है और जब वह टूटी हैं तो उनको ही कमजोर किया है। इसके बाद हम शिकायत करते हैं कि पहले क्यों नहीं बोली....तब बोलना था...। ऐसे ही मामलों में युवा भटकते हैं.. क्योंकि उनको कुएं और खाई में किसी एक को चुनना होता है...उनके पास विरोध का विकल्प कहाँ होता है? खासकर लड़कियों के मामलों में...जो विरोध करके...लड़ते हुए...बगैर किसी सहारे के उत्पीड़न सहते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रही है...। विरोध करेगी...घर में बताएगी तो उसकी पढ़ाई या नौकरी छुड़वाने के लिए उसके घर में मगरमच्छ बैठे हैं जो उसको सम्पत्ति से बेदखल कर अपने परिवार के साथ सुख से जीवन गुजारने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। हम गृहिणियों का उत्पीड़न जानते हैं...मगर ननदों का भी उत्पीड़न होता है...बहनों को भी प्रताड़ित किया जाता है...यह एक सत्य है । आर्थिक तौर पर उसे एक -एक पाई के लिए मोहताज किया जाता है....आप बताइए..कि यह सब देखकर वह लड़की उस एक आर्थिक सहारे को कैसे छोड़ देगी...और क्यों छोड़ेगी इसलिए वह ऑफिस पॉलिटिक्स भी सहती है और उसका फायदा उठाने वाले शोषकों को भी बर्दाश्त करती है...उसके पास विकल्प कहाँ है ? आपका सिस्टम अगर ब्रजभूषणों और शेखों के पक्ष में खड़ा होगा...दुर्योधनों और दुःशासनों की पूजा करेगा तो समानता और सुरक्षा कहाँ से आएगी? अभी लोकसभा चुनावों के टिकट आवंटन की बात करूँ तो सब पवन सिंह का इतिहास जानते हैं...मगर उनको टिकट दिया गया..तो क्या यह लड़कियों का अपमान नहीं है...और वह भी भाजपा ने दिया....वाकई आपके लिए लड़कियाँ...महिलाओं के मुद्दे और उनका सम्मान मैटर करते हैं...? अब बात करूँगी सिबलिंग राइवलरी और किचन पॉलिटिक्स पर और दोनों एक दूसरे से जुड़े मुद्दे हैं । एकता कपूर के धारावाहिकों की निंदा हम कर सकते हैं मगर यह धारावाहिक हवा में नहीं बनते...समस्या से दूर भागने से समस्या सुलझने वाली नहीं है। उत्पीड़न की शुरुआत तो लड़कियों के जन्म के साथ ही शुरू हो जाती है। पहले तो दुनिया में आने से पहले ही उसे मार दिया जाने की परम्परा रही और इस पर गर्व भी किया जाता रहा है। कानूनन रोक लगी तो अब यही काम चोरी छिपे होता है और हो रहा है। बाकायदा इसके लिए क्लिनिक चलते हैं । जब हम उत्पीड़न की बात करते हैं तो हमें चीजों को समग्रता से देखने की जरूरत है और स्वीकारने की जरूरत है जो कि होता नहीं है । ससुराल में लड़की को प्रताड़ित किया जाए तो वह प्रताड़ना है मगर लड़कियों को उसके तथाकथित माता - पिता के घर में परेशान किया जाता है, उसके साथ भेदभाव होता है, पक्षपात होता है तो वह परिवार की बात है...ऐसा दोहरा मापदंड लेकर तो समानता की बात नहीं की जा सकती । खुद लड़कियों को माता - पिता के तानों से...भाइयों के थप्पड़ से परेशानी नहीं हो रही, भाभियों के तानों से दिक्कत नहीं होती....बहनों की ईर्ष्या से परेशानी नहीं होती क्योंकि उनके लिए मायके एक ठौर है..तो क्या यह उनका दोहरा मापदंड नहीं है । जिस देश में स्वयंवर की परम्परा रही है, वहाँ स्त्रियों को इसलिए मार डाला जाता है क्योंकि उसने अपनी मर्जी से जीवनसाथी चुना है...और इसको समर्थन देने वाली महिलाएं ही हैं । एक लड़की को रास्ते से हटाएंगी तभी तो उनका राज चलेगा । जन्म लेते ही लड़कियों भोजन से लेकर शिक्षा से लेकर नौकरी तक ....हर चीज में पक्षपात का सामना करना पड़ता है और यह कोई और नहीं उसके माता - पिता करते हैं। इस देश में हत्या के मामलों को उठाकर देखिए...पारिवारिक विवाद, सम्पत्ति विवाद हैं मगर हम सिबलिंग राइवलरी को समस्या मानते ही नहीं हैं। परिवार के स्तर पर ही समानता नहीं है...। सुरक्षा और संरक्षण की आड़ में उसके हिस्से की सम्पत्ति भी भाई - भौजाई खा जा रहे हैं मगर उन सबको कोई दिक्कत नहीं है । जिस पक्षपात के लिए ससुराल पक्ष के लोगों को सजा होती है, वैसी ही प्रकृति के अपराध के लिए भाई और खासकर बहनों के अधिकार की रक्षा के लिए कोई कानून, कोई समाज सामने नहीं आता । उल्टे उस लड़की को परिवार की इज्जत का हवाला देकर चुप करवाया जाता है, उसे बहिष्कृत किया जाता है । वह लड़की अपने ही घरों में नौकरों से बदतर जिंदगी जीने को बाध्य की जा रही है, बहिष्कृत की जा रही है और अपराधी भी ठहरायी जा रही है...। शादी के पहले होने वाले इस उत्पीड़न के दोषियों के लिए सजा और उनके सामाजिक बहिष्कार की बात की बात क्यों नहीं होती? यहाँ तक की उस लड़की के साथ सहानुभूति जताने वाले भी व्यावहारिक तौर पर उसके साथ नहीं बल्कि उन प्रताड़कों के साथ खड़े होते हैं और उनको पीड़ित को ही समझाने एवं दोषी ठहराने में उसकी सारी शक्ति खर्च हो रही है । भौजाइयां जब मन करे...498 ए का दुरुपयोग करके अपनी पूरी ससुराल को जेल भिजवा सकती हैं मगर ननदों को सब कुछ सहते जाना है...या फिर ससुराल में रमकर दूरी बनानी है...क्यों...? ननदें या देवर भौजाइयों और उनके परिवारों को जेल क्यों नहीं भिजवा सकतीं? औरतें हमेशा बिचारी नहीं होतीं बल्कि शातिर होती हैं और उनको राजनीति करनी अच्छी तरह आती है ।...दो चेहरे होते हैं...उनके समाज के लिए कुछ और घर के भीतर कुछ और..लड़की हो या लड़का हो...आपको मानसिक तौर पर इतना प्रताड़ित किया जाता है कि आप अंततः खुद घर छोड़ने को बाध्य हो जाते हैं....यही कॉरपोरेट में भी होता है....और चूंकि आपने वह जगह छोड़ी है.इसलिए आपकी जगह भी वह हड़प लेते हैं...कमजोर, पलायनवादी, विभाजनकारी का टैग आपके माथे पर लगता है...ऐसे बहुत से मामलों को जानती हूँ जहाँ...भाई - भावजों ने मिलकर मानसिक रूप से इतनी प्रताड़ना दी है...इतने ताने दिए हैं...लड़की मानसिक रूप से टूट जाती है...अपने सपनों को टूटता देखती है और शादी करती है जो कि कभी उसकी इच्छा थी ही नहीं....और इस सारी कवायद को खुद उनके अभिभावकों का समर्थन और प्रोत्साहन प्राप्त है...तो क्या यह षड्यंत्र नहीं है...। कई भाई तो संरक्षण के नाम पर लड़कियों के पहचान पत्र से लेकर पैन कार्ड और आधार कार्ड तक अपने पास रख लेते हैं । लड़कियों को उनकी छोटी से छोटी जरूरत के लिए आर्थिक तौर पर निर्भर रहना पड़ता है,,,वह इस डर में घुट - घुटकर जीती है कि विरोध किया तो पढ़ाई छुड़वा दी जाएगी ...विरोध कर नहीं सकती क्योंकि न तो पैसे हैं, न तो कानून और समाज साथ देगा और न ही उसके अभिभावक उस पर विश्वास करते हैं....करते भी हैं तो अपना बुढ़ापा सुधारने के लिए वह बहू - बेटों के साथ ही खड़े होते हैं...। आप कहते हैं कि लड़कियाँ बोलती क्यों नहीं, विरोध क्यों नहीं करतीं...वह शोषण के खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठातीं...उठाएंगी तो उनके साथ खड़ा कौन होगा...? एक भाई या बहन अपने ही भाई या अपनी बहनों को नीचे गिराने के लिए हर तरह के दांव खेलता है, उसकी किताबें जलाता है...उसकी नौकरी छुड़वाता है,. उसे घर से शादी के नाम पर पीछा छुड़वाने के लिए वह किसी भी कीमत पर किसी भी शराबी, जुआरी से उसको ब्याह देना चाहता है...और आप कहते हैं कि यह अपराध नहीं है.. तो इन लड़कियों के अधिकारों को लेकर कौन बात करेगा क्योंकि इन बच्चियों को किसी भी समाज, किसी रिश्तेदार का समर्थन भी प्राप्त नहीं है...क्योंकि परिवार की इज्जत अन्याय से नहीं जाती मगर अन्याय का विरोध करने के लिए कोई खड़ा हो जाए तो वह परिवार का दुश्मन है । क्या यह अपराध नहीं है? आज मैं शादीशुदा नहीं...अनब्याही सिंगल लड़कियों की बात करने जा रही हूँ...बहनों को लेकर विमर्श कहाँ है...साहित्य और सिनेमा से लेकर समाज में बहनों से उम्मीद यह की जाती है कि वह अपने अधिकारों को त्यागकर देवी बनी रहे, सहती रहे ...और ऐसे ही चरित्रों को सम्मान भी मिलता है। सीता धरती में समा गयीं तो आप पूजते हैं, द्रोपदी ने विरोध किया तो उनको कहीं पर जगह नहीं मिलती....जबकि महाभारत के धर्मयुद्ध की धुरी वहीं थीं....जिन्होंने अपने जीवन, सम्मान....परिवार सब कुछ गंवा दिया मगर नायकों के समाज में कृष्ण हैं...कृष्णा याज्ञसेनी कहाँ हैं । लक्ष्मी से लाभ है तो आप घर में रखते हैं, दुर्गा के हाथ में त्रिशूल है तो दूर से प्रणाम करते हैं...आप बताइए ज्ञान की देवी सरस्वती के कितने मंदिर हमारे आस - पास हैं ? पिछले साल 33 सालों से लटका हुआ महिला आरक्षण बिल नारी शक्ति वंदन अधिनियम बनकर पारित हो गया और अब तो कानून बन चुका है । अब सवाल यह है कि संसद में बैठने के लिए जिस तरह की मुखर महिलाओं की वाकई जरूरत है...क्या उनको सुनकर....उनको समझ पाने की शक्ति है ....संसद तो दूर की बात है...क्या आपके घरों और परिवारों में महिलाओं को बोलने की अनुमति है । आपके लिए स्त्री का मतलब अगर माता, बेटी और पत्नी है और बहनें नहीं हैं तो आप समग्रता में महिलाओं को कैसे समझेंगे। इस समाज में एक तरफ परिवार की बात की जाती है और दूसरी तरफ बुआ, मौसी, दीदी जैसे रिश्तों को समाज की खलनायिका के रूप में उकेरा जाता है..वहाँ आप महिलाओं के अधिकार को लेकर सामग्रिक रूप से सहानुभूति के संचार की भावना का प्रसार कहाँ से देखते हैं । सोशल मीडिया पर जहाँ भी देखिए....गृहिणियों को बेचारी के रूप में दिखाया जा रहा है...या तो सास या तो बहू...औरतों का दूसरा रूप आपको कहाँ दिख रहा है ....भाई - भाभी से लेकर उनके बच्चों की सारी चिंता इस बात की है कि बुआ ने अगर हिस्सा माँग लिया तो क्या होगा । इसके बाद अगर बहनें अपना हिस्सा माँग रही हैं तो आप उसे सीधे घर तोड़ने वाली बताकर नजरअंदाज करते हैं और न माने तो उसे समाज से बहिष्कृत करवाने की चाल समझते हैं... राजनीति सिर्फ बाहर नहीं होती....और औरतें सिर्फ बिचारी नहीं होतीं...अक्सर लड़कियों से...खासकर उन लड़किय़ों से जो आगे बढ़ना चाहती हैं...उनसे पूछिए कि वह क्या - क्या सहकर और सुनकर बाहर निकलती हैं और किस तरह का भेदभाव उनको अपने घर में झेलना पड़ रहा है...मगर कौन सा विमर्श और कौन सा कानून बहनों के हित की रक्षा के लिए बना है । अदालतों ने तो कह दिया कि सम्पत्ति में बहनों का अधिकार है मगर कौन सी सरकार ने उसे लागू करने के लिए सख्ती दिखाई और कौन सा समाज बहनों को उनके हक दिलवाने के लिए खडा हुआ । साहित्य से लेकर सिनेमा में भाइयों को रॉबिनहुड बना दिया गया और बहनों को शरणागत के रूप में दिखाया गया । माएं अपनी बेटियों के भरोसे घर छोड़कर काम पर निकलती रही हैं और उनको बेटी की जगह घर की देखरेख के लिए नियुक्त एक सहायिका की तरह देखा गया...और कई बार तो इस देश के संयुक्त परिवारों में घर के नौकरों को घर की बेटियों से अधिक इज्जत मिलती रही है । संयुक्त परिवार और समाज इसलिए नहीं टूट रहे कि पश्चिम का असर है...वह इसलिए टूट रहे हैं क्योंकि आपने हमेशा प्रताड़कों और अपराधियों का साथ दिया है। आपने सत्य की राह पर चलने वालों को कमजोर करने की कोशिश की है, उसे बहिष्कृत किया है और आज वह पीड़ित योद्धा बन चुका है । वह अन्याय के आगे सिर झुकाने को तैयार नहीं है....वह अपना रास्ता तलाश रहा है । लड़कियाँ आत्मनिर्भर हो रही हैं, अपने अधिकारों के लिए खड़ी हो रही हैं...आप खड़े रहिए अपनी जर्जर सोच के साथ...वह तो आगे बढ़ चुकी हैं....तो परिवार और समाज या देश में परिवार की व्यवस्था को जिन्दा रखना है तो अपने गिरेबान में झांकिए और अपराधियों को प्रश्रय देना बंद करिए वरना एक दिन आप खुद अकेले रह जाएंगे...।

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