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जो वंचित हैं, अधिकारों पर अधिकार उसका भी है

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पत्रकारिता में सम्पादक बहुत महत्वपूर्ण होता है और हिन्दी पत्रकारिता के केन्द्र में ही सम्पादक ही घूमता है। पत्रकारिता पर जितना भी पढ़ा है, उसमें अखबार और सम्पादक पर ही बात होती है, वाजिब भी है। सम्पादकों की सत्ता को चुनौती देने वाली बात नहीं है मगर अखबार एक सामूहिक कर्म है, किसी भी और क्षेत्र की तरह इसलिए इसमें छोटे से छोटे अंग का अपना महत्व है। कोई भी सम्पादक चाहे कितना भी बड़ा हो, अकेले अखबार नहीं निकाल सकता, अगर टीम अच्छी न हो तो आपकी सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं क्योंकि उनको क्रियान्वित करने वाला नहीं होता। सम्पादक अखबार का चेहरा होता है मगर क्या चेहरे पर ही ध्यान देने से समूचा शरीर स्वस्थ रह सकता है ? थो ड़ा सा श्रेय तो शरीर के अन्य अंगों को दिया जाना चाहिए। संवाददाता, जिला संवाददाता, कैमरामैन, फोटोग्राफर, पृष्ठ सज्जाकार, तकनीकी पक्ष, विज्ञापन, प्रसार करने वाले लोग.....किताबों में इनको एक पैराग्राफ में सलटा देने की परम्परा है और यही वास्तविकता में भी हो रहा है। बेहद कम सुविधाओं में काम करने वाले लोग हैं ये। संवाददाताओं और कुछ हद तक छायाकारों को सुविधा कम या कई बार न क

सामाजिक समरसता आम आदमी की भी जिम्मेदारी है

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साहित्य की तरह पत्रकारिता भी समाज का प्रतिबिम्ब होती है। पत्रकारिता एक ऐसा औजार है, जिसमें समाज को जाँचा परखा जाता है। पत्रकार और समाचार पत्र भी इसी समाज का अंग होने के बावजूद अपना एक अलग महत्व रखते हैं। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ होने के नाते उसकी जिम्मेदारी भी बड़ी होती है। डॉ. रत्नाकर पांडेय अपनी पुस्तक हिन्दी पत्रकारिता और समाचार पत्रों की दुनिया में कहते हैं कि जनसेवा और समाजसेवा ही सच्ची पत्रकारिता है। निर्भिक पत्रकार अन्याय को देखकर स्थिर चित्त नहीं रह सकता। सामाजिक समरसता को बरकरार रखने में निश्चित रूप से पत्रकारिता की बड़ी भूमिका है मगर आज के दौर में उसे निभाना आसान नहीं है। पत्रकारिता आंशिक रूप से साहित्य भी है इसलिए उसका सामाजिक सरोकार भी है। मेरा मानना है कि पत्रकार भावुक भले न हो मगर जब तक स्थिति को संवेदनशील होकर नहीं समझता, उसकी कलम में धार नहीं आ सकती है। पत्रकार की कलम में उसका व्यक्तित्व भी नजर आता है। कलम में ताकत है, तभी कहा गया है – कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली, दिल ही नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली।  बात जब आग की है तो यह ध्यान रखना भी आवश्

निराला की तरह अकेले समय को चुनौती देते हैं जटिल मुक्तिबोध

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मुक्तिबोध परेशान करने वाले कवि हैं। वो परेशान करते हैं क्योंकि वे आसानी से समझ में नहीं आते और एक जटिल कवि हैं। इनकी कविताओं में संघर्ष है मगर इस संघर्ष को वे चमकीला बनाने की कोशिश नहीं करते इसलिए वे नीरस कवि भी हैं। जब तक आप मुक्तिबोध के जीवन की कठिनाइयों को नहीं समझते, तब तक आप उनकी कविताओं का सत्य भी नहीं समझ सकते। मुझे मुक्तिबोध के जीवन और कविताओं में कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की झलक मिलती है। दोनों की कविताओं और जीवन का संघर्ष एक जैसा ही है और जो उपेक्षा तत्कालीन साहित्यिक और सामयिक वातावरण से इन दोनों कवियों को मिली, वे स्वीकार नहीं कर सके और दोनों की मृत्यु कारुणिक परिस्थितियों में ही हुई। मुक्तिबोध मूलत:   कवि   हैं। उनकी आलोचना उनके कवि व्यक्तित्व से ही नि:सृत और परिभाषित है। वही उसकी शक्ति और सीमा है। उन्होंने एक ओर प्रगतिवाद के कठमुल्लेपन को उभार कर सामने रखा , तो दूसरी ओर नयी कविता की ह्रासोन्मुखी प्रवृत्तियों का पर्दाफ़ाश किया। यहाँ उनकी आलोचना दृष्टि का पैनापन और मौलिकता असन्दिग्ध है। उनकी सैद्धान्तिक और व्यावहारिक समीक्षा में तेजस्विता है।   जयशंकर प्रसाद ,

जरूरतों और मानवीय संबंधों का आधार भी है बाजार

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बाजार आज चुनौती है, बाजार सारे फसाद की जड़ है, बाजार ने हर चीज बिगाड़ रखी है और बाजारवाद मानवीय सभ्यता को खत्म कर देगा। सवाल यह है कि सारी खामियों का ठीकरा बाजार पर फोड़ने से हम और आप अपनी जवाबदेही से बच सकते हैं। याद रहे बाजार तो मेले में भी लगता है और प्रेमचंद का हामिद भी दादी का चिमटा कहाँ से खरीदता, अगर बाजार न होता। बाजार रिश्ते बिगाड़ता है तो कई रिश्ते बनाता भी है। बचपन में खोमचों को देखकर दौड़ पड़ना, माँ या दादी से अठ्ठनी माँगकर मूँगफली खरीदना और तोहफों के रूप में अपनों का प्यार बटोरना और बाँटना, ऐसे कितने ही खूबसूरत पल हमें बाजार देता है। बाजार का जन्म ही दो लोगों की जरूरतों से होता है जो आत्मीय रिश्तों को जन्म देता है। काबुलीवाला न होता तो क्या रवींद्रनाथ की दुनिया पूरी होती, यह सोचने वाली बात है। बाजार न होता तो बनारसी साड़ी, मिष्टी दोई, लखनऊ की चिकनकारी और दक्षिण के स्वाद में भला क्या संबंध होता, बाजार आज संबंधों के जीवित रहने का आधार है क्योंकि प्रेम की अभिव्यक्ति अगर दो पैसे के फूल से होगी, तो वह भी बाजार में ही मिलेगा।   रेणु क्या फारबिसगंज की चाय का जिक्र कर पाते