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समाज की जरूरत हैं प्रसाद की मुखर स्त्रियाँ और उनके प्रश्न

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सुषमा कनुप्रिया जयशंकर प्रसाद हिन्दी साहित्य की निधि हैं और उनका साहित्य समाज की धरोहर। छायावाद का उत्कर्ष उनकी रचनाओं में दिखता है और 'कामायनी' इस उत्कृष्टता का शिखर। राष्ट्रवाद का उत्कर्ष देखना हो तो प्रसाद के समूचे साहित्य में वह भरा पड़ा है। प्रसाद इतिहास के शिलालेख पर संवेदना से समाज को समेटते हुए लिखते हैं मगर मुझे लगता है कि स्त्री के सन्दर्भ में कामायनी उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति नहीं है अपितु इसका शिखर तो 'ध्रुवस्वामिनी' में दिखता है जो पहले प्रकाशित हुई थी। यह आश्चर्य की बात लगती है कि एक ही व्यक्ति के दो रूप उसके साहित्य की दो अलग विधाओं में दिखते हैं। अगर कामायनी की बात की जाए तो वे नारी को श्रद्धा कहते हैं, प्रकृति का रूप बताते हैं मगर पुरुष के प्रतिकार का सामर्थ्य वे उसे नहीं देते हैं जबकि मनु गर्भवती श्रद्धा को छोड़कर चल देता है। वह इड़ा के प्रश्रय में रहता है और उसके साथ उसकी प्रजा पर भी अत्याचार करता है, इसके बावजूद इड़ा को बुद्धि और पश्चिम की बताकर प्रसाद उसे उपेक्षित करते हैं....यह बात बड़ी अजीब लगती है कि तमाम प्रताड़नाओं के बावजूद श्रद्धा मनु को

हर वहशी अपराध का अंत तो हमारे हाथों से ही होना है

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हर बार कोई निर्भया या आसिफा शिकार होती है, हर बार मोमबत्तियाँ गलायी जाती हैं और हर बार रैलियाँ निकाली जाती हैं। ये कोई नयी बात नहीं है। अपराधियों की सजा की माँग पर सोशल स्टेटस शेयर किये जाते हैं और नेता इस पर अपनी गोटियाँ फिक्स करते हैं। इस पर तब कहाँ थे, टाइप लोग और भी वीभत्स तस्वीरें लाते हैं और पुरानी गलतियों से सीखने की जगह नयी गलती और अपराध को ढकने की कोशिश करते हैं। अच्छा, जरा सोचिए तो ये बलात्कारी पैदा कहाँ से होते हैं? बलात्कार के नाम पर बेटिय़ों को मारने वाले स्टेटस जो चिपका रहे हैं, वह उसी पुरानी हताशा को सामने ला रहे हैं, मारना है तो अपराध को मारिए क्योंकि अपराधी तो रक्तबीज की तरह हैं, एक को मारियेगा...10 और पैदा होंगे। अपराधी को सजा जरूर दीजिए मगर उससे भी जरूरी है कि अपराध को ही जड़ से खत्म किया जाये और इसके लिए फाँसी के अलावा बहुत कुछ करने की जरूरत है। इसके लिए हर स्त्री और पुरुष को आगे आने की जरूरत है, जरूरत पड़े तो कठोर बनने में कोई बुराई नहीं है और सब चाहें तो ऐसा होना नामुमकिन नहीं है। यहाँ गौर करने वाली बात है कि असम से लेकर उत्तर प्रदेश, बिहार से लेकर जम्म

मैं का होना इतना खराब नहीं.इतना बुरा नहीं खुद से प्रेम होना

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कोई भला अपने लिए क्यों लिखता है? क्या अपने लिए लिखना अहंकार है या उस स्पेस की तलाश, जो आपको जिंदगी नहीं देती...वो लोग नहीं देते...वो समाज नहीं देता...वो रिश्ते नहीं देते...जो आपकी जरूरत है। इस दुनिया में प्यार की कमी नहीं है बस वह मिलता तब है जब आप पानी की तरह ढल जाते हैं...बगैर अपनी इच्छाओं, सपनों और व्यक्तित्व का खयाल किये..। बहुत आदर भी मिलता है जब आप दूसरों के सम्मान और तथाकथित इज्जत और आँकाक्षाओं के लिए अपने सम्मान और इच्छाओं की बलि दें...और पूरा जीवन इस महिमामंडन के साथ गुजार दें...जबकि आपके भीतर त्याग कुंठा बन चुका होता है....और इस पर भी कहा जाता है कि प्रेम, रिश्ते, परिवार, समाज सब नि:स्वार्थ हैं...गलत है...नि:स्वार्थ दुनिया में कुछ नहीं होता...जब आप करेंगे तब आपको मिलता है कुछ और वह भी सशर्त...आपकी मुश्किलों में आप अकेले होते हैं...। परिवार भी प्रेम के आधार पर नहीं समाज की शर्तों के अनुसार चलते हैं और वहाँ संतानों के मोह पर भी समाज और उससे मिलने वाली तथाकथित इज्जत भारी पड़ती है। यकीन न हो तो आँकड़े उठाकर देख लीजिए...क्रूरता की तमाम हदें परिवार ही पार करते हैं...हमारे कोलक