अधिकार संरक्षण, स्नेह और करुणा से बनते हैं...सम्बन्धों के दावों से नहीं

मैथिलीशरण गुप्त की कविता है...माँ, कह एक कहानी...और उसमें अन्त में पँक्तियाँ हैं ...यशोधरा के प्रश्न के उत्तर में राहुल के माध्यम से कवि ने ये पँक्तियाँ कहलवायी हैं - कोई निरपराध को मारे तो क्यों अन्य उसे न उबारे? रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।" भारत में परिवार का सम्बन्ध रक्त सम्बन्धों से लगाया जाता है,,,फिर भले ही वे कितने ही खराब क्यों न हों...उम्मीद की जाती है कि उनके हर जहर को व्यक्ति अमृत समझकर पी जाये...उनकी प्रताड़ना को अपना भाग्य समझकर स्वीकार कर ले...माँ तो माँ होती है...जैसे वाक्य...अब बहुत घिसे - पिटे हो गये हैं...मेरे लिए। ऐसा नहीं है कि संसार में माँ बुरी होती है...मनुष्य होती है...उसे उसी रूप में स्वीकार करना चाहिए। अच्छी बात है मगर मेरा सवाल यह है कि हर हाल में गलत को सही क्यों कहा जाना चाहिए? सम्बन्धों का सही अर्थ जीवन ने समझा दिया है..और अब मैं उसी रूप में स्वीकार कर रही हूँ। पता है कि परिवार व्यक्ति को ग्रांटेड क्यों लेता है क्योंकि वह मान लेता है कि लौटकर तो वह व्यक्ति उसी के पास आएगा...? बदलाव के लिए अब इस कहानी के अन्त को बदलना ही चाह...