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प्रियंका को इन्दिरा न बनाइए..शालीन बनिए और सम्मान दीजिए उनकी मौजूदगी को

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बयानवीरों के बयान उनकी पितृसत्तात्मक सोच और असुरक्षा का प्रतीक हैं...सुन्दर होना गुनाह नहीं है भारतीय राजनीति में महिलाओं की इन्ट्री कभी भी आसान नहीं रही है। महिला नेत्रियों के अस्तित्व को स्वीकारना ही समाज ने तो सीखा ही नहीं है। आप वैदिक युग से होते हुए कोई भी युग देखिए, आपको रानियाँ परदे के पीछे ही दिखती हैं, उनका शौर्य, साहस, उनकी बुद्धिमता अगर शासन करती भी है तो परदे के पीछे से करती है और इसका उल्लेख भी कवि से लेकर इतिहासकार तक बड़े गर्व के साथ करते हैं। किसी आम स्त्री की सबसे बड़ी उपलब्धि ही किसी बड़े राजा -महाराजा की पत्नी बनने में दिखी। कभी कोई रानी ऐसी हुई भी तो या तो उसके पिता या पति ने आगे बढ़ाया या उनकी अनुपस्थिति में वह आगे बढ़ी या विवशता में ही उसे स्वीकार किया गया। पुरुषों के होते हुए स्त्रियों को नेतृत्व देने के उदाहरण हैं भी तो विरल हैं और अल्पजीवी हैं...उस समय में भी जब ये कहा जा रहा था कि स्त्रियाँ युद्ध और प्रशासन कला में निपुण रहीं..उनके लिए हमेशा से ही एक लक्ष्मण रेखा तय की गयी या फिर उसे संरक्षण में रहने की हिदायतें मिलती रहीं। भारतीय पुराणों से लेकर इतिहास त