पुरुषों के शब्दकोश में त्याग शब्द का होना अब जरूरी है

लोग कहते हैं कि स्त्री को समझना बहुत कठिन है मगर मुझे लगता है कि स्त्री को फिर भी समझा जा सकता है, पुरुष को समझना बहुत कठिन है। स्त्री को प्रेम दीजिए, सम्मान दीजिए..वह आपके जीवन में ठहर जाना चाहेगी मगर मानसिकता अब भी उसे भोग की वस्तु या सम्पत्ति समझने की है । समाज की रवायत ऐसी है कि यह सिखा दिया गया है कि स्त्री को पुरुष की तुलना में कम सफल होना चाहिए..कद छोटा होना चाहिए...सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक दृष्टिकोण से । कई लोग बड़े गर्व से कहते हैं कि उन्होंने घर की स्त्रियों को बहुत आजादी दे रखी है । किसी स्त्री ने कभी पलटकर न पूछा कि आजादी तो प्राणाी मात्र का नैसर्गिक अधिकार है, उसे देने अथवा छीनने वाले आप कौन? कई पुरुषों को देखा है, बड़े गर्व से बताते हैं कि उन्होंने अपनी पत्नी या बेटी को यह बता दिया है कि उसके कार्यक्षेत्र क्या हैं, उसे क्या करना चाहिए..कैसे चलना चाहिए....। बहनों की बात इसलिए नहीं कर रही कि परिवारों के अधिकार के क्षेत्र में बहनों का अस्तित्व ही नहीं है । अधिकार की बात हो तो वह सबसे पहले बाहर की जाने वाला सम्बन्ध हैं....पुरुष अपनी बेटियों को लेकर सपने सजा सकते हैं, माताओं एवं पत्नियों के लिए घर - सम्पत्ति खरीद सकते हैं मगर बहनें और उनका अस्तित्व उनके लिए चुनौती हैं । इस पर भी परिवार की कोई लड़की आगे बढ़ जाए तो वह उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है और उनको पीछे कर देना, पैर खींच देना..उनका जन्मसिद्ध अधिकार । पुरुष इसी मानसिकता के बीच बड़े होते हैं। उनको हमेशा से शासन करना सिखाया जाता है, नेतृत्व करना सिखाया जाता है। अगर आर्थिक परिस्थितियों को छोड़ दिया जाए तो सामाजिक या पारिवारिक तौर पर उनके सामने यह समस्या नहीं होती कि उनको दूसरे घर जाना है तो पढ़ाई या नौकरी छोड़ देनी होगी। शादी के बाद जिन्दगी लड़कों की बदलती जरूर है, कुछ बंधन भी लगते हैं मगर वह रहते अपने दोस्तों के बीच ही हैं। वहीं लड़कियों के साथ एक वारंटी पीरियड जुड़ा है..भाई को पहले पढ़ाना है, पढ़ लिखकर भी तो चूल्हा -चौका ही सम्भालना है...जैसी बातें तो आम हैं जहां लड़कियों की शिक्षा को आज भी गंभीरतापूर्वक नहीं लेने वाले अधिक हैं । अगर घर में नौकरीपेशा बहू आ रही है तो उसे घर - बाहर, दोनों की जिम्मेदारियां सम्भालनी हैं । लड़कियों से कुछ कहा भले न जाए मगर उम्मीद की जाती है कि वह अपनी शादी के बाद अपने काम को बैकफुट पर ले जाएं । मातृत्व से जुड़ी जिम्मेदारियों के कारण अधिकतर औरतें अच्छा - खासा कॅरियर छोड़ने को बाध्य होती हैं और पुरुष बड़े आराम से इसे त्याग का दर्जा देकर खुद को अपराधबोध से मुक्त कर लेता है। पुरुषों को कभी अपराधबोध नहीं होता कि उसने अपनी बहन, पत्नी या बेटी की पढ़ाई या नौकरी छुड़वा दी, फिर भले ही वह उससे अधिक योग्य क्यों न हो। अभिमान जैसी फिल्में यूं ही नहीं बनतीं । यशपाल का झूठा -सच पढ़ लीजिए..। असफल व्यक्ति किसी भी सूरत में सफल बहन या पत्नी को बर्दाश्त नहीं कर सकता । शादियों की तह में जाकर देखिए तो पता चलेगा कि अधिकतर शादियां इसलिए टिकी रहीं क्योंकि महिला ने अपना अच्छा - खासा कॅरियर पारिवारिक जिम्मेदारियों के नाम पर त्याग दिया था और पुरुषों में इसे लेकर कोई अपराधबोध नहीं देखा मैंने कभी । परिवार इसलिए टिके रहे क्योंकि बहनों ने कभी अपना अधिकार मांगा ही नहीं। भाई - भाई के बीच सम्पत्ति का बंटवारा सामान्य बात है जबकि शादी दोनों की होती है, बच्चे दोनों के होते हैं मगर एक सोची समझी साजिश के तहत बहनों को पराया कहकर ही बड़ा किया जाता है और शादी के बाद वह अपने ही घर में मेहमान बना दी जाती हैं। जिस घर की एक - एक चीज बहन ने जतन से सजायी, उस घर की एक भी चीज पर उसका अधिकार नहीं...गजब का भयंकर न्याय शास्त्र है । एक नयी बहस चल पड़ी है कि लड़की बेरोजगार लड़के से शादी नहीं कर सकती। सवाल यह है कि लड़की अगर बेरोजगार लड़के से शादी कर ले तो क्या वह लड़का लड़की के घर में किसी बहू की तरह घर - बाहर की जिम्मेदारियां सम्भाल सकेगा? क्या किसी लड़के को यह मान्य होगा कि उसकी पढ़ाई शादी के नाम पर छुड़वा दी जाए और वह क्या त्याग के नाम पर अपना कॅरियर छोड़ सकता है? लोग कहते हैं कि गृहणियों को वेतन दिया जाए मगर सबसे बड़ी बात है कि नौकरी या काम सिर्फ पैसे के लिए नहीं किया जाता। वह पहचान के लिए किया जाता है, आत्म संतोष, सृजनात्मकता और संतुष्टि का मामला है। अगर लड़कों को वेतन दिया जाए तो क्या वह हाउस हस्बेंड बनना पसन्द करेंगे? आपको 24 में से 18 - 20 घंटे बाहर रहने की आदत है, कभी घर की चहारदीवारियों के बीच रहकर देखिए । यह दीवारें किसी कामयाब महिला को चिड़चिड़ी और फ्रस्टेटेड औरत में बदल देती हैं, उसका सबसे बड़ा उदाहरण जया बच्चन हैं जो कभी गुड्डी हुआ करती थीं । खुद एक सफल महिला होकर भी जिस तरह से वह अभिषेक - ऐश्वर्या के रिश्ते के बीच में आई हैं...कहने की जरूरत नहीं है। बच्चन परिवार ऐश्वर्य की सफलता के सामने खुद को कहीं न कहीं बौना महसूस करता रहा है । ऐश्वर्या की सफलता को देखकर उनसे विवाह करने वाले अभिषेक आखिरकार एक असफल पति भी साबित होते दिख रहे हैं । वहीं धर्मेद्र, आमिर जैसे अभिनेता सफल होते ही कम सफल पत्नी से पीछा छुड़ाने में जरा भी नहीं हिचकते मगर अमृता सिंह, डिम्पल कपाड़िया जैसे महिलाओं के लिए मूव ऑन करना आसान नहीं रहा । रेखा तो जैसे वहीं की वहीं ठहर गयी हैं। अमिताभ ने जया और रेखा, दोनों को अंघेरे में रखा मगर वह महानायक हैं । ऐसे अनगिनत उदाहरण भरे पड़े हैं मगर विडम्बना यह है कि पुरुषों को महिलाओं के त्याग को महिमामंडित करते हुए उनको पीछे धकेलने की आदत पड़ गयी है। पुरुषों के शब्दकोश में त्याग शब्द का होना अब जरूरी है जिससे वह छूटने, खोने और टूटने की पीड़ा समझ सकें । पीड़ा को समझेंगे तभी समाज संतुलित और रहने लायक होगा ।

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