महिलाओं की सबसे बड़ी चुनौती पितृसत्तात्मक सोच वाली शातिर महिलाएं ही हैं
महिला दिवस को लेकर आज जब हम बात कर रहे हैं तो हमें चीजों को अलग तरीके से देखना होगा क्योंकि आज की परिस्थिति में और कल की परिस्थिति में बहुत नहीं तो थोड़ा अन्तर तो आया ही है। महिला दिवस मेरे लिए आत्मविश्लेषण का अवसर है क्योंकि आज महिलाएं दो अलग छोर पर हैं, एक ऐसा वर्ग जो आज भी जूझ रहा है, जिसके पास बुनियादी अधिकार नहीं हैं, कुरीतियों और बंधनों से जकड़ी हैं...जीवन के हर कदम पर उनके लिए यातनाएं हैं, प्रताड़नाएं हैं। दूसरी तरफ एक वर्ग ऐसा है जो अल्ट्रा मॉर्डन है और उसे इतना अधिक मिल रहा है कि वह उसे बनाए रखने के लिए साजिशों पर साजिशें रच रहा है और दूसरी औरतों को सक्षम बनाने की जगह उनके साथ माइंड गेम खेल रहा है। उसे महिला होने की सुविधा चाहिए पर समानता को लेकर जो दायित्व हैं, उससे उसका सरोकार नहीं। पहले वर्ग पर बातें खूब हो रही हैं इसलिए आज मैं दूसरे वर्ग पर बात करना चाहूँगी। पितृसत्तात्मक सोच वाली ऐसी शातिर महिलाएं किचेन पॉलिटिक्स व ऑफिस पॉलिटिक्स में माहिर हैं। ऐसी औरतें हमारे घरों में हैं और दफ्तरों में हैं और इन सबका टारगेट हर वह संघर्ष कर रही महिला है जो प्रखर है, मुखर है, कहीं अधिक प्रतिभाशाली है और अपने दम पर आगे बढ़ने के लिए जूझ रही हैं और इन दोनों के बीच पिस रही है।
मेरा मानना है कि महिला हो या पुरुष, देवी या देवता जैसी चीज कभी नहीं रही। अच्छा और बुरा दोनों जगह रहा मगर चीजें आज जिस तरह से रूप ले रही हैं, मुझे लगता है कि घरेलू हिंसा के स्वरूप और दायरे को लेकर फिर से सोचने की जरूरत है। समानता के अर्थ को लेकर विचार करने की जरूरत है । यह सरासर हिप्पोक्रेसी है जब घरेलू हिंसा को सिर्फ ससुराल में की गयी हिंसा से ही जोड़कर देखा जाता है क्योंकि घरेलू हिंसा तो लड़कियां जन्म से ही झेलती हैं जब कन्या भ्रूण हत्या होती है। नियंत्रित तो बचपन से ही उनको किया जाता है, मां उनके हिस्से की रोटी से लेकर सम्पत्ति तक सब अपने बेटों को सौंप देती है..जीवनसाथी चुनने पर ऑनर किलिंग आज भी होती है। आप मुझे एक बात बताइए कि कितनी लड़कियों ने इसलिए घर छोड़ दिया और अपने घरवालों से मुआवजा मांगा या एफआईआर दर्ज करवायी कि उनके पिता शराबी हैं, भाई मारपीट करता है, मां पक्षपात करती है, भाभियां या रिश्तेदार ताने मारते हैं...आज तक आपने सुना है..अपवाद तो सब जगह होते हैं..आप हर एक गलत सहकर हर कीमत पर अपने मां-बाप की कमियां छुपाती हैं, मायके वालों से रिश्ते निभाती हैं। महान बनकर अपनी सम्पत्ति तक छोड़ देती हैं जो कि वाकई आपकी है क्योंकि आपका जन्म वहीं हुआ है। वहीं यह सारी बातें ससुराल में होती हैं तो आप क्रांति करने लगती हैं। अगर आप एक अनजान घर में अपना सब कुछ छोड़कर जा रही हैं तो वह घर भी आपके लिए अपने सालों पुराने कायदे बदल रहा है। अगर आप दलील देती हैं कि आप सब कुछ छोड़कर आ रही हैं और एक मां और बहन ने भी अपने बेटे पर से अधिकार आपको सौंपे हैं.। मां –बाप दहेज देते हैं तो अपनी बेटी के लिए और कई बार स्टेटस के लिए भी देते हैं और लड़के वाले लेते समय यह नहीं सोचते कि अगर वह कुछ ले रहे हैं तो इसके लिए उनको बहुत सी चीजों से समझौता करना पड़ेगा। अपनी सास और अपने ससुर को आप माता – पिता नहीं मानतीं...पति के भाई –बहन आपके लिए जान भी निकालकर रख दें तो भी वे आपके भाई बहन नहीं हैं तो आपको इतनी उम्मीद क्यों है। आज तक क्या किसी लड़की ने अपने पिता या भाई से एलिमनी की तरह मुआवजा मांगा है। महिलाएं आज के समाज में दो छोर पर खड़ी हैं...एक जो बहुत सशक्त है और दूसरी जो अभी भी जूझ रही है। महिलाओं की किचेन पॉलिटिक्स ऐसा मेंटल ट्रॉमा है जो न जाने कब से चला आ रहा है..राजमहलों में क्या षड्यंत्रकारियों में महिलाएं नहीं होती थीं। महिलाओं को खुद महिलाओं ने पीछे खींचा है...महिलाओं के साथ सबसे ज्यादा राजनीति खुद महिलाएं ही करती हैं। आप हर बात के लिए पितृसत्ता को दोष देकर पीछा नहीं छुड़ा सकते क्योंकि पितृसत्ता तो है मगर उसे पालने वाली महिलाएं ही हैं । अगर सम्पत्ति के अधिकारों की बात करूँ तो ससुराल में उनका अधिकार उतना ही होना चाहिए जितना उनके पति का है...मगर बहुएं अपना ही नहीं..घर के बाकी सदस्यों का हिस्सा हड़प रही हैं। घर में राशन छिपाना, आर्थिक तौर पर कमजोर सदस्य को प्रताड़ित करना, उसे नीचा दिखाना, ताने मारना...यह काम घर की औरतें ही करती हैं। सब कुछ मुझे चाहिए...मायके में वह घर जोड़ती हैं और ससुराल में हर चीज तहस-नहस कर रही हैं। मायके में इनको बेटी का अधिकार चाहिए मगर जिम्मेदारी नहीं निभानी तो दूरी का बहाना बनाती हैं और ससुराल में खुद को पराया कहकर बार – बार विक्टिम कार्ड खेलती हैं और घर की बेटी को ही बहिरागत बनाकर रख देती हैं। क्या हम ऐसी औरतों की पूजा करें? अपने पति को उसके परिवार से छीनकर अलग करने वाली महिलाओं को घर जोड़ने वाली लड़की कहां से मिलेगी? आप घर छोड़कर आईं और बदले में आपने अपने पति का घर छीन लिया । जिन रिश्तों को जी रहा था, आप उसके बीच में आ गयीं। बच्चे ने कभी वह रिश्ते देखे ही नहीं तो निभाएगा कैसे? आपने नहीं अपनाया तो कोई आपको क्यों अपनाएं?
आप दहेज मत दीजिए मगर एलिमनी भी मत लीजिए । समानता और निर्भर होना, यह दोनों एक साथ नहीं चल सकते। बस की सीट चाहिए तो भी महिला होने का फायदा उठाइए और दफ्तर में छुट्टी चाहिए तो भी आप महिला बनकर लाभ उठाइए...अतुल सुभाष जैसे मामले जिस तरह से सामने आ रहे हैं..जिस तरह करोड़ों की एलिमनी एक आत्मनिर्भर व सक्षम महिलाएं ले रही हैं...वह महिलाओं को कहीं से सशक्त नहीं करने जा रहा। अभी एक फिल्म आई है मिसेज... सहमत भी हूँ...किरदार से पर एक सवाल..कमियां तो आपके पिता..भाई- बहन या माँ भी निकालते हैं..ताने भी मारते हैं..उत्पीड़न भी करते हैं..आपमें से कितनी महिलाओं ने उनके मुँह पर गंदा पानी फेंका है या विरोध किया है या कर रही हैं..अपने मायके को शराबी पिता या भाई के और उनकी घरेलू हिंसा कारण छोड़ देने की हिम्मत दिखाई है? वहाँ तो सब ओके ही है... मेरा आशय यह है कि हिंसा तो हिंसा है..वो तो कहीं भी अस्वीकार्य है तो फिर मायके में चलता है और ससुराल में नहीं सहेंगे और क्रांति...! ये दोहरा रवैया या यूं कहें दोगलापन क्यों????? महिला दिवस बाजार का दिवस बनकर रह गया है। अगर आप महिला हैं तो इसमें आपका कमाल क्या है और कोई पुरुष है तो उसमें उसका दोष क्या है...अगर आप सशक्त हैं तो दूसरों को सशक्त बनाइए। समानता का मतलब एक को कमजोर करना या हुकूमत चलाना नहीं है..। घर सिर्फ स्त्रियों के ही नहीं होते, पुरुषों के भी होते हैं...कभी उनको भी कहिए आज मैं सम्भाल लूंगी...इन्जॉय करो।
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