परिवार, समाज और देश और तेजपत्ता सा जीवन

गोरखपुर में मां के शव को अंतिम संस्कार के लिए चार दिन फ्रिज में रखने की बात कहने वाले बेटों को समाज में बहुत अपमान झेलना पड़ा। जब बेटों को पछतावा हुआ, तो उन्होंने पिता से माफी मांगी और पिता भुआल ने उन्हें माफ कर दिया। अब पंडित की सलाह पर परिवार ने मां का आटे का पुतला बनाकर उसका दाह संस्कार करने की सलाह दी। दरअसल, बुजुर्ग दंपती भुआल मद्धेशिया और शोभा देवी वृद्धाश्रम में रहते थे। बुजुर्ग भुआल मद्धेशिया(68) 17 महीने से पत्नी शोभा (65) के साथ जौनपुर में एक वृद्धाश्रम में रह रहे थे। बीते 19 नवंबर को शोभा का निधन हो गया था। जिसके बाद वृद्धाश्रम संचालक रवि कुमार चौबे ने भुआल के छोट बेटे अज्जू को फोन किया। अज्जू ने बताया कि घर में बड़े भाई संजय के बेटे की शादी है। इसलिए उन्होंने इस समय दाह संस्कार के लिए मना कर दिया है और कहा कि शव को फ्रिज में रखवा दो, शादी के बाद आकर दाह संस्कार करवाएंगे। इसके बाद भुआल को करमैनी घाट पर पत्नी का शव दफनाना पड़ा। इस बात से बेटों की बहुत बदनामी हुई और उन्हें अपमान झेलना पड़ा। बेटों ने पंचायत में पिता से माफी मांगी और पिता ने उन्हें माफ भी कर दिया। शुक्र है कि दौर सोशल मीडिया का है। तेजपत्ता देखा है आपने ? कोई भी सब्जी हो, दाल हो, पकवान हो, छौंक लगाने के लिए तेजपत्ता हम डालते हैं। यह तेजपत्ता अपनी खुशबू और गुणों से हर व्यंजन का स्वाद बढ़ा देता है और इस प्रक्रिया में वह अपना अस्तित्व भूल जाता है, रूप खत्म हो जाता है इसका। पकवान बनता है और लाजवाब बनता है और जब थाली में पकवान आता है तो सबसे पहले तेजपत्ता ही फेंका जाता है। वह किसी काम का नहीं रहा, कड़वा हो चुका है, उसे निगला नहीं जा सकता और अंत में फेंक दिया जाता है। आज परिवार, समाज और कॉरपोरेट लोग तेजपत्ते की तरह होते हैं। माता -पिता, भाई-बहन तेजपत्ता हैं। परिवार की बात करें तो यह स्थिति माता-पिता और भाई -बहनों के सामने आती है और कॉरपोरेट दुनिया में उन कर्मचारियों के साथ जो अपनी निजी जिंदगी भूलकर अपनी सारी जिंदगी स्वाहा कर देते हैं और नयेपन के नाम पर अपने कर्मचारियों की जिंदगी की खुशियां वसूलने वाली कम्पनी उनको बाहर का रास्ता दिखा देती है। परिवार में किसी भी व्यक्ति की सफलता के पीछे माता -पिता के साथ भाई -बहनों का भी योगदान रहता है। चाचा-चाची, बुआ-फूफा जैसे कई रिश्तों का योगदान रहता है मगर जैसे -जैसे समय बीतता है, ये सारे रिश्ते अप्रासंगिक हो जाते हैं। जब कोई लड़की घर में कदम रखती है तो सबसे पहले घर का कोई जेठ, देवर या ननद एक अनजान लड़की के लिए अपना कमरा छोड़ते हैं मगर उनका यह त्याग कोई त्याग नहीं बल्कि उनका फर्ज मान लिया जाता है। माता - पिता बहू के लिए अपने जीवन भर की कमाई दांव पर लगाकर गहने बनवाते हैं। जिस लड़के की पढ़ाई और भविष्य के लिए कर्जा लिया, एक दिन वह लड़का भी वह इस अनजान लड़की को दे आते हैं मगर समाज में यह भी त्याग नहीं फर्ज समझा जाता है। वहीं लड़कियों के मामले में यह माता-पिता का फर्ज नहीं त्याग समझा जाता है। त्याग और फर्ज के बीच गजब का असंतुलन है और कितना एकतरफा है। अधिकतर लड़कियां ससुराल में रहने नहीं आतीं, वह अपना साम्राज्य बनाने आती हैं और उनके निशाने पर वह सारे रिश्ते रहते हैं जिनका सहारा लेकर वह उसने घर में कदम रखा। लड़के की दुनिया लड़की और फिर अपने बच्चों में सिमट जाती है और ठगे से रह जाते हैं, वह तमाम रिश्ते जिनके सहारे वह वर्तमान की बुलंदियों पर पहुंचा है। अपने अनुभव से कहूँ तो ऐसी भी स्थिति आती है कि घर के फैसलों में नौकरों की राय ली जाती है, ससुराल की राय ली जाती है मगर अपने भाई -बहनों की राय लेना व्यक्ति को रास नहीं आता। ऐसे लोगों को अपनी पत्नी हमेशा बिचारी नजर आती है और बच्चे हमेशा प्रताड़ित दिखते हैं। भाई की शादी हो तो देवरानी के रूप में सहेली भी मिल जाती हैं और दो परायी औरतें उस घर पर अपना कब्जा जमाती हैं जो उन लोगों ने बनाया ही नहीं है। इन औरतों को एक वृद्धा की तपस्या पर हक जताना है, एक बुजुर्ग के उस घर में हिस्सा लेना है जिसे बनाने में उसके पति का कोई योगदान तक नहीं रहता है। यह पारिवारिक विषमता कहीं नहीं दिखती। यह साम्राज्यवाद नहीं नजर आता। उनको नहीं दिखती, वह पीड़ा जिससे वह सारे रिश्ते जूझ रहे हैं। यह कैसा समाजवाद है जो साथ रहकर चलना नहीं सिखाता। यह कैसी समानता है जो किसी और की मेहनत को लूटकर महल खड़े करते हैं। भारतीय कानून में दहेज के मामलों में देवर व ननद को आसानी से टारगेट किया जाता है मगर कोई भी धारा देवर और नदद के पक्ष में खड़ी नजर नहीं आती। भाभियों को 16 -18 साल की ननद भी बोझ दिखती है जिसे वे घर के काम सिखाकर बस विदा कर देना चाहती हैं जिससे उनकी संतानों का रास्ता साफ हो। क्या कोई धारा है जो भाइयों और भौजाइयों के जहरीले वाणी बाणों से छोटे या बड़े भाई बहनों को बचा सके ? बॉडी शेमिंग, अपने ही घर में अछूत बना देना, पति को उसके माता-पिता व भाई-बहनों से दूर करना, भड़काना किसी की जिंदगी बरबाद कर देता है मगर भारतीय संविधान की कोई धारा इनको नहीं बचाती। लड़कियों का मायका छुड़वा देने वाली, बहनों को घर में अछूत बना देने वाली और अपने बच्चों की नजर में बुआ -चाचा जैसे तमाम रिश्तों को जहर बना देने का काम कोई और नहीं बल्कि घर की तथाकथित लक्ष्मियां ही करती आ रही हैं। ससुराल में मायका बसा देने वाली औरतें अपनी गृहस्थी में अपने सास-ससुर का हस्तक्षेप नहीं चाहतीं और उनको वृद्धाश्रम का रास्ता दिखा देती हैं। क्यों कोई समाज और कानून इन सारे रिश्तों की रक्षा नहीं करता और नहीं करता तो पारिवारिक व्यवस्था की रक्षा कैसे होगी? आखिर शादी के बाद ऐसा क्या हो जाता है इंसान अपने पार्टनर का गुलाम बन जाता है। जिन लोगों की मदद से उसने सफलता प्राप्त की, वह अब उनके लिए तेजपत्ता हैं। अलग होने वाले लोग और वधुएं कभी अपनी गलती नहीं देखते। बहनें आती हैं तो उनके आने से ज्यादा शगुन की चिंता रहती है। दिखावा बढ़ गया, प्यार सतह पर चला गया और आप इसे परफेक्शन कहते हैं। बुआ जितनी पुरानी होगी, घर उससे उतना ही दूर होता जाएगा...यह कौन सी व्यवस्था है? रोज रात को नाना-नानी, मौसा-मौसी, मामा-मामी और भाई -बहनों को फोन करना याद रहता है मगर रूठे भाई -बहनों से दो बातें करना याद नहीं रहता और आप चले हैं कि भारतीय पारिवारिक व्यवस्था को बचाना है। घर के छोटे- छोटे बच्चे अपने व्यवहार से जब हर चीज पर हक जताते हुए खुद को थोड़ा अधिक अधिक सर्वश्रेष्ठ और बड़ों को थोड़ा और पराया बताने की कोशिश करते हैं तब उनकी असुरक्षा देखकर हंसी नहीं आती। तरस आता है उन लोगों पर जिन्होंने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया। मध्य प्रदेश सरकार में आईएएस अधिकारी संतोष कुमार वर्मा द्वारा बीते दिनों ब्राह्मणों की बेटियों को लेकर विवादास्पद बयान देने के चलते, उनके खिलाफ राज्य शासन ने नोटिस जारी की है। बता दें कि “एक परिवार में एक व्यक्ति को आरक्षण तब तक मिलता रहना चाहिए, जब तक मेरे बेटे को कोई ब्राह्मण अपनी बेटी दान में न दे, या उससे संबंध न बन जाए।” समाज में जो वर्ग विक्टिम कार्ड खेलता है, वह उतना ही बड़ा शोषक होता है और यह बात मैं आरक्षण के सन्दर्भ में कह रही हूँ तो समझ नहीं आता कि ब्राह्मण और सामान्य श्रेणी के लोग निशाने पर क्यों हैं जबकि आज उनके हिस्से की नौकरियां कोटाधारी खा रहे हैं। एक को 70 प्रतिशत पाने पर भी दाखिला और नौकरी नहीं मिलती और एक आप हैं कि 45 प्रतिशत पाकर भी उच्चासन पर आसीन हैं। 75 साल से ज्यादा लंबा वक्त बीत गया, बता दीजिए कि किस दलित ने कहा कि उसकी तीन पीढ़ियां पढ़ गयीं और अब वह किसी जरूरतमंद को अपने हिस्से का आरक्षण देने जा रहा है। अधिकार मिल जाने से योग्यता और मेधा नहीं मिल जाती। जो मेधावी है, वह कहीं भी हों, अपना मार्ग बना लेते हैं। हर घर में बाल्मीकि रामायण मिलती है, उसे किसी ब्राह्मण ने नहीं लिखा....बाल्मिकि मेधा का प्रतिनिधित्व करते हैं। कबीर, रैदास, रसखान ये सब किसी अगड़ी जाति से नहीं आते। भीमराव आंबडवेकर के नाम में अंबेडकर जुड़ने का किस्‍सा स्‍कूल के ही दिनों का है. बाबा साहब पढ़ने-लिखने में काफी तेज थे। इसी खूबी के कारण स्‍कूल के एक शिक्षक कृष्णा महादेव आंबेडकर उनसे खास स्‍नेह करते थे। कृष्णा महादेव आंबेडकर एक ब्राह्मण थे। खास स्‍नेह के कारण शिक्षक कृष्‍णा महादेव ने भीमराव के नाम में अंबेडकर सरनेम जोड़ दिया। इस तरह बाबा साहब का नाम हो गया भीमराव अंबेडकर। इसके बाद से ही इन्‍हें अंबेडकर उपनाम से पुकारा जाने लगा। हम आपको बताते हैं उस महाराजा के बारे में, जिसने युवा अंबेडकर की मदद की। ये मदद उन्हें तीन साल तक दी गई। पढाई पूरी करने के बाद जब अंबेडकर वहां से लौटे तो महाराजा से मिले. इसके बाद लंबे समय तक वो उनसे जुड़े रहे। वैसे ये तो तय है कि अगर महाराजा सायाजीराव गायकवाड़ तृतीय ने उनकी मदद नहीं की होती तो शायद अंबेडकर के लिए वहां तक पहुंचना मुश्किल होता, जहां पर वो थे। इन महाराजा का नाम तो आपको ऊपर की पंक्तियों में बताया जा चुका है। वो उस समय भारत के सबसे समृद्ध राज्यों में एक बडौदा के शासक थे। उन्होंने अपने शासन के दौरान सामाजिक सुधार से लेकर जात-पांत खत्म करने और शिक्षा के क्षेत्र में कई बड़े काम किए। बेनगुल नरसिम्हा राव (बी एन. राव) का जन्म 26 फ़रवरी 1887, मंगलौर में हुआ। इन्होंने केनरा हाई विद्यालय (1901), ट्रिनिटी कॉलेज, और मद्रास विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। बेनगुल नरसिम्हा राव (बी एन. राव) अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय मेंन्यायाधीश थे, इससे पहले वे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे। इन्होंने भारतीय संविधान निर्माण में सहलाकर के रूप में भूमिका अदा की थी, तथा भारतीय संविधान निमार्ण के समय संवैधानिक सलाहकार थे। इन्होंने भारतीय संविधान का प्रथम प्रारूप इनके द्वारा तैयार किया था। भारतीय संविधान का मूल प्रारूप बी. एन. राव ने तैयार किया था, इसके अलावा संविधान निर्माण के लिए सारी सामग्री राव ने ही उपलब्ध करवाई थी। संविधान निर्मात्री सभा ने डॉ भीमराव अम्बेडकर की अध्यक्षता में जिस प्रारूप की जांच की उसे बी एन. राव ने ही तैयार किया था। जब संविधान अंगीकार किया उस वक्त सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने बी एन राव को उनके योगदान के लिए धन्यवाद दिया। इतना ही नहीं, डॉ. अंबेडकर ने अपनी पहली पत्नी रमाबाई की मृत्यु के बाद, 15 अप्रैल 1948 को दूसरी शादी की। यह शादी उन्होंने डॉ. सविता कबीर से की जो एक पढ़ी-लिखी, पेशे से डॉक्टर और ब्राह्मण परिवार से थीं। इस शादी को लेकर उनके अपने परिवार और कुछ साथियों ने नाराज़गी जताई, क्योंकि वह एक अलग जाति की थीं। अम्बेडकर संविधान निर्माताओं में से एक थे,एकमात्र नहीं थे। बी.एन. राव और महाराजा सायाजीराव गायकवाड़ तृतीय अम्बेडकर के जीवन में तेजपत्ता बने। आज आरक्षण की आग में सामान्य वर्ग तेजपत्ता है जो कर तो देता है मगर उसके हिस्से की सब्जी आज तक दूसरे खा रहे हैं।

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