होलिका....पितसत्ता का उपकरण बनने वाली स्त्रियों की नियति है

होली का त्योहार मनाया जा रहा है...होलिका जलायी जा चुकी है...वैसे तो दशहरे पर रावण भी हर साल जलता है...मगर उसकी वाजिब वजह है...होलिका हो शूर्पनखा हो...दोनों ही तो भाइयों की महत्वाकाँक्षा की बलि चढ़ गयीं। दोनों को ही इस्तेमाल ही किया गया...देखने वाली बात यह है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था का हथियार बनने वाली औरतों की नियति यही होनी थी..यही हुई। अगर इतिहास को देखा जाये तो पुरुषों के अहंकार के साथ ही पितृसत्ता को प्रश्रय देने वाली स्त्रियों ने ही युद्धों की पृष्ठभूमि रची है और सीता हो या द्रोपदी के सिर पर दोष हमेशा से मढ़ा जाता रहा है। साहसिक अवतार वाली स्त्रियों को समाज ने हाशिये पर डाला है। हम होलिका की ही बात करें...यह सच है कि प्रह्लाद को लेकर गोद में बैठी और अति आत्मविश्वास इसका एक बड़ा कारण था लेकिन होलिका के पास क्या दूसरा विकल्प था...सत्ता से तो सबको भय रहता है..मरना तो उसे था ही मगर आप खुद प्रह्लाद की हत्या के षडयंत्र में भागीदार बनने का कारण क्या सिर्फ उसका निहित स्वार्थ था या भाई की सत्ता को बरकरार रखने की जिद या राजाज्ञा का भय...कारण जो भी हो..हम होलिका को विक्टिम नहीं मान सक...