थप्पड़ के बहाने....प्यारी बहनों, अपने अधिकार लेना सीखिए और सजा देना सीखिए
घर...साहित्य,...सिनेमा....थियेटर...सब.....क्या अपने ही घर में बहनों को सम्मान के साथ जीने के लिए भाई की अनुमति चाहिए और वे होते कौन हैं अनुमति देने वाले? आखिर कोई माँ ऐसे बेटे के सिर पर हाथ रख भी कैसे देती है जिसने उसकी बेटी के चरित्र पर सवाल उठाया और उसे थप्पड़ लगाने की जगह उसके लिए खाना बनाती है....क्या यह किसी लड़की का अपमान नहीं है.. क्या बहनों का आत्मसम्मान नहीं होता या वह यह समझ बैठी है कि वह मिट्टी का कोई खिलौना है जिसे कभी भी ठोकर मारी जा सकती है....? मिट्टी का खिलौना भी एक समय के बाद ठोकर मारने पर दर्द दे सकता है...। इस मसले को लेकर फिल्म तो दूर कोई बात ही नहीं करता...हैरत है...एक यशपाल के झूठा - सच को छोड़ दें तो बता दीजिए कि साहित्य की कौन सी विधा बहनों के सम्मान या उनके साथ होने वाली घरेलू हिंसा पर बात करती है? किस फिल्मकार ने बहनों के साथ होने वाले अत्याचार पर फिल्म बनायी....? भाई भले ही अनपढ़...जाहिल हो....भले ही उसकी जुबान पर गालियाँ और सिर पर घमंड हो...लेकिन राज उसी को करना है जबकि काबिल तो आप भी थीं...रात भर जागकर पढ़ाई आपने भी की थी....। क्या भाई हमेशा संरक्षक ही होता है.? लगभग हर फिल्म में भाइयों को महान ही दिखाया जाता है जो बहनों की रक्षा करता है...हीरो की तरह उसकी इज्जत बचाता है....60 -70 के दशक से लेकर अब तक की फिल्मों में बहनों के हिस्से में क्या आया है...वह एक पीड़िता है और भाई उसका रक्षक मगर हम सब जानते हैं कि असल दुनिया ऐसी नहीं है....यहाँ भाई की आँख का पानी मर गया है...उसे शर्म नहीं आती जब वह अपनी बहन का कटा सिर लेकर गर्व से थाने में जाता है कि उसने बहन को प्रेम करने की सजा देकर खानदान की इज्जत बचा ली...वह खुद को भगवान समझ बैठता है जो कुछ भी कर सकता है....उसके लिए बहन या बेटी छुपाने की चीज है...या ब्याह कर शान दिखाने की चीज है...यह भी कि उसे ब्याहकर वह यह बताना नहीं भूलता कि बहन या बेटी की शादी में कितना खर्च कर चुका है...या लड़का देखने के लिए उसने कितनी तकलीफें उठायीं....वह यह नहीं कहता कि उसने इमोशनल ब्लैकमेलिंग कर बहन की नौकरी छुड़वायी और उसकी तकदीर ससुराल वालों के भरोसे छोड़ दी...कभी सोचिएगा कि बहनों की शादी को फिल्मों में इतना ग्लैमराइज क्यों किया जाता है...बहनें हमारी फिल्मों से लेकर साहित्य में बराबरी के दर्जे पर कहीं नहीं हैं....घर की बेटी होने के बावजूद उसे सम्पत्ति में से हक नहीं मिलता...अब जब कि सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि सम्पत्ति पर उनका बराबर का अधिकार है...याद कीजिए कि पुरुषों की प्रतिक्रिया क्या थी...? भावनात्मक होने का मतलब अपने अधिकार दान में देना नहीं होता...मैंने पहले भी पूछा था...आज भी पूछती हूँ जब भाई - भाई में बँटवारे को लेकर विवाद सामान्य है तो बहनों का हक माँगना गुनाह कैसे है...जब भाइयों की शादी से पैतृक सम्पत्ति के अधिकार पर फर्क नहीं पड़ता तो बहनों की शादी से उनका पैतृक सम्पत्ति पर अधिकार कम कैसे हो जाता है। लड़कियाँ भूल गयी हैं कि वह इन्सान हैं....उनके अधिकार और मानवाधिकार भी हैं...और अधिकार ट्रॉफी की तरह दान में नहीं दिये जाते...हो सकता है कि वह चीजों को बेहतर तरीके से सम्भाल लें....क्या उनकी शिक्षा...उनके अनुभव का उपयोग बेहतर को बेहतरीन बनाने में नहीं हो सकता और क्यों नहीं होना चाहिए....?
देखा जाये तो शांता राम से बड़ी थीं....अयोध्या के सिंहासन पर अधिकार उनका ही था मगर हमने कभी इस नजरिए से सोचा ही नहीं...अधिकार कभी माँ तो कभी पत्नी या कभी बेटी के हिस्से आए...बहनों को क्या मिला? फिल्में भाइयों को देवता बनाती हैं तो बहनों को देवी बना दिया जाता है...मगर अपने घर के पितृसत्तात्मक समाज से टकराती बहन नहीं दिखायी देती..कभी कल्पना कीजिएगा जब उनके हाथ से किताब छुड़वायी जाती है तो उनको कितना दर्द होता होगा...कल्पना कीजिए कि जिस आसमान पर उनका हक था....उनके पंख काटकर पिंजरे में फेंका गया होगा...तो वह कितना तड़पी होंगी....। सबसे अधिक शर्म की बात यह है कि ऐसे भाइयों और पिता को शर्म तो जरा भी नहीं होती बल्कि वह उस लड़के के प्रिय या नौकरी को उससे छीनकर इस बात पर इतराता है कि उसने घर की इज्जत बचा ली....? पिता की सम्पत्ति से उसे बेदखल किया जाता है और एक कोने में कबाड़ की तरह रखा जाता है जिससे उसका आत्मविश्वास टूट जाये....और फिर उसकी शादी की जाये....क्या यह अत्याचार नहीं है और अगर है तो फिर इसकी सजा क्यों नहीं है? यह हर उस लड़की के साथ होता है जो अपने सपनों को जीना चाहती है और हर बात में उस की कोई औरत और कई बार शिक्षित औरतें भी उसे ताना मारती हैं कि 'अगर उसने शादी की होती'...या 'शादी हो जानी चाहिए'....तो ऐसी औरतों को मानसिक उत्पीड़न के जुर्म में जेल क्यों नहीं होनी चाहिए क्योंकि वह तो उस प्रताड़क का मनोबल बढ़ा रही है यानी उस अत्याचार में बराबर की भागीदार...तो उसे माफी क्यों दी जाये? शादी करना या न करना...एक नितांत निजी मामला है तो क्या इसे जस्टीफाई किया जा सकता है कि शादी नहीं करने पर आप किसी को जेल में डाल दें...ये कुछ ऐसा नहीं है कि अपना बच्चा देख नहीं सकता तो सारे जमाने को अंधा करने की जिद पाल। अगर आपका बेटा उड़ना नहीं जानता तो उसे उड़ना सिखाइए...नहीं उड़ सकता तो रेंगने दीजिए मगर आपको कोई अधिकार नहीं उसे पंख देने के लिए आप अपनी बेटियों के पंख नोंच लें या इस काम में बेटों की मदद करें...आप बराबर की अपराधी हैं....।
महिलाएं देवियाँ नहीं होतीं....एक मनुष्य होती हैं और वह उतनी ही कठोर तथा अमानवीय हो सकती हैं जितने आपके खलनायक हो सकते हैं...इसलिए किसी भी अपराध को अपराध की तरह देखना जरूरी है.... तो घरेलू हिंसा की जो जड़ आप खोज रहे हैं...वह यहाँ पर है....।
सबसे बड़ा प्रश्न यह कि लड़कियाँ दूसरों की नजर से खुद को देखती ही क्यों है....क्यों नहीं उनके लिए बहनों का सम्मान उनका सम्मान होता है ? आखिर क्यों नहीं वह ऐसे भाइयों से बहन होने का, माँओं से बेटी होने का भाभियों से ननद होने का और भतीजियों से बुआ होने का अधिकार छीन लेतीं? ऐसी एक भी कलाई में राखी नहीं होनी चाहिए जिसने आपके सपनों को नोंचा हो...थोड़ी सख्त बनिए....क्योंकि जब आप अधिकार छोड़ती हैं तो यह सिर्फ आपके साथ नहीं बल्कि पूरी पीढ़ी और पूरी दुनिया की लड़कियों के साथ अन्याय की आग में घी डालता है...दयालु बनना छोड़िए और बहिष्कार का अस्त्र उठाइए...हर उस पिता का..जो बेटी के सपनों को नोंचने में लगा है....हर उस भाई का जिसने अपनी बहन को अपमान का जहर दिया....हर उस माँ का जिसने चुपचाप तमाशा देखा भी और उसे बढ़ावा भी दिया... फिर भले ही ये आपके ही पिता, भाई या माँ क्यों न हों....जब तक जड़ यहाँ से नहीं उखाड़ी जाती....जब तक बात यहाँ से शुरू नहीं होती...हम आँकड़े गिनवाते रह जाएंगे मगर बदलेगा कुछ भी नहीं इसलिए अपने अधिकार लेना सीखिए और सजा देना सीखिए। मुझे उस दिन का इंतजार है जब हर लड़की अपना सम्मान करना सीखेगी....हर उस औरत का बहिष्कार करेगी जिसने गलत को बढ़ावा दिया है.... और हर उस हाथ से अपनी राखी छीनेगी...जिसने उसका या उसकी किसी बहन या अन्य स्त्री का अपमान किया है और यह पितृसत्ता के मुँह पर सबसे बड़ा थप्पड़ होगा.....मैं इंतजार में हूँ।
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