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पितृसत्ता नहीं, मातृसत्ता ही रही है भारत की शाश्वत परम्परा

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भारत में मातृ सत्ता को हमेशा से महत्व दिया गया है..अगर प्राचीन भारत पर दृष्टि डालें तो देवियों और मातृ शक्ति को दर्शाने वाले कई मंदिर और यत्र - तत्र प्रतिमाओं में बिखरा इतिहास गवाही देता है। एक खास बात यह कि मातायें आज की तरह निरीह, निर्भर और करुणा तक सीमित नहीं होती थीं बल्कि उनकी प्रशासनिक व आर्थिक स्तर पर समाज में भागीदारी होती थी। ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ स्त्रियों ने अपनी संतानों को अकेले बड़ा किया...यहाँ तक कि मध्यकालीन भारत में भी आपको ऐसे उदाहरण मिलते हैं मगर यह सत्य है कि इस मातृसत्तात्मक परम्परा को हाशिए पर डाला गया और धीरे - धीरे स्त्रियों के जीवन पर पितृसत्ता का आधिपत्य हुआ।  यहाँ तक कि प्राचीन भारत में स्वयम्बर अथवा विवाह विच्छेद का अधिकार भी स्त्रियों को प्राप्त था मगर सभी जानते हैं कि आज के युग में स्त्रियों की स्थिति क्या है और एक बार फिर धीरे - धीरे स्त्रियाँ जागरुक हो रही हैं, यह अच्छी बात है और सरकारी स्तर पर सहयोग मिल रहा है। यह अच्छा है मगर अब समय आ गया है कि मातृत्व की छवि और परिभाषा को संतुलित किया जाए। सिर्फ करुणा और निर्भरता के आधार पर स्वस्थ समा