बच्चों की जीत अगर आपकी हार है, तो आपको हार ही जाना चाहिए


कहा गया है कि क्रोध नहीं करते..। क्रोध को काबू में रखो...संयम रखो...यह सभी सूत्र वाक्य घुट्टी भर - भर के पिलाये जाते हैं...खासतौर से लड़कियों के मामले में तो यह ज्ञान बहुत ही ज्यादा दिया जाता है और बच्चों के बारे में...उनके बारे में तो पूछिए ही मत। इस समय मेरे दिमाग में सवाल घूम रहे हैं...परेशान नहीं हूँ पर प्रश्न का उत्तर तलाशना भी तो जरूरी है। ऐसा क्यों है कि बड़ों का क्रोध सम्मान पाता है और छोटे जब क्रोध करें तो उसे अपमान समझा जाता है? बड़ी विकट परिस्थिति है न्याय की, युवा भारत में युवाओं की आवाज और इच्छाओं को दबाना इतना सामान्य क्यों मान लिया गया है। तथाकथित प्रतिष्ठा और अहंकार सिर्फ बड़ों को ही शोभा क्यों देते हैं?  छोटों ने अगर अपनी इच्छा से कोई कदम उठाया तो वह बड़ों को अपना अपमान क्यों लगती है?  यकीन मानिए कि घर वापसी की कामना के पीछे भी बेटी को सम्पत्ति मानने वाली प्रवृत्ति ही काम कर रही है...समाज में बेटे की नाक नीची हो गयी...तो माँओं को बड़ा दुःख होता है...ममतामयी माताएँ अचानक इतनी क्रूर और कठोर कैसे हो जाती हैं...यह तो बाकायदा शोध का विषय है। माता - पिता बच्चों को घर से निकाल दें तो जरूर बच्चे ने ही कुछ किया होगा, बच्चों ने अपना जीवनसाथी खुद चुना तो बच्चे नालायक हैं..अपने मन की करते हैं...माँ - बाप की नहीं सुनते...मेरा सवाल है कि बच्चों का दिल अगर सच्चा हो तो उनको क्यों नहीं अपने मन की सुननी चाहिए...? क्यों माँ - बाप की जिद के लिए अपनी इच्छाओं को, अपने मान - सम्मान को दांव पर लगा देना चाहिए...क्यों जिन्दगी भर खुद को आज्ञाकारी साबित करने के लिए धोखेबाज और बेवफा का टैग लेकर घूमना चाहिए...क्या इज्जत सिर्फ माँ - बाप की होती है...यह एकहरी मानसिकता कब टूटेगी.. ? दो जीते - जागते, बालिग और समझदार लोग..अपने सपनों को इसलिए तोड़ें क्योंकि आप चाहते हैं...आपने अपने अहंकार को प्रतिष्ठा का नाम दे रखा है...जो टूटना नहीं जानता, फिर भले ही उसके लिए सारी दुनिया को टूट जाना चाहिए पर आप नहीं झुकेंगे...क्या आपके सामने आपके बच्चे दुःखी, टूटे हुए उदास रहते हैं तो आप उस चेहरे में भी अपने लिए खुशी तलाश लेंगे..क्या यह खुदगर्जी और बेईमानी नहीं है...। बेटे आगे नहीं बढ़ सके इसलिए बेटियों को भी आगे बढ़ने का सपना तोड़ देना चाहिए...और यह जिद माताओं की होती है..। यह जिद माताओं को कितना हिंसक और क्रूर बना देती है..यह मैंने आँखों देखा है। क्या यह एक तरह मानसिक रोग नहीं है...औरतों को ही ढाल बना दिया जाता है....गौर कीजिएगा...ये जितने भाई और पिता हैं....बड़े चालाक होते हैं...वह अपनी पत्नियों को मोहरा बनाकर चाल चलते हैं...अपनी छवि पाक - साफ रखेंगे और उस महिला को उसके बच्चे का दुश्मन बना देंगे। जिन्दगी भर झूठ बोलेंगे...साजिशें करेंगे...छोटों को गिराने और फँसाने की तिकड़मबाजी करेंगे और दाँव उल्टा पड़ गया तो खुद को निरीह साबित करके अपने घर की स्त्रियों को आगे कर देंगे...और खुद को महान साबित करने के लिए ऐसी महिलाएँ पितृसत्ता की पहरेदार बन जाती हैं। यह बहुत अजीब है पर होता यही है। बेटी ने घर को छोड़ दिया तो बात कलेजे में लग गयी और ऐसी लगी कि बेटी की खुशी, बेटी का आत्मसम्मान, बेटी की इच्छा...सबका ख्याल गायब हो गये...दरअसल माँ - बाप को तय कर लेना चाहिए कि बच्चे चाहते हैं कि बच्चों की आड़ में जिन्दगी भर अपने अहं को सन्तुष्ट करने के लिए अपनी परवरिश का कारोबार करना चाहते हैं। माँ - बाप की और बड़ों की चिन्ता सबको है...सबको भाईयों की प्रतिष्ठा का ख्याल है..मगर यह समझने की जहमत कोई नहीं उठाता कि जब इतना कठोर फैसला लिया गया है तो उसके पीछे की वजह कितनी बड़ी रही होगी। आखिर आप यह क्यों मान लेते हैं कि हर बार बड़े और माँ - बाप ही सही हो सकते हैं...क्यों नहीं आप बच्चों के सच को सम्मान देना सीखते..आपको बच्चे घर में इसलिए चाहिए क्योंकि आपको बदनामी का डर है..क्योंकि यह आपको अपनी हार लगती है...आप जिन्दगी भर हराते और दबाते आ रहे हैं..छीनते आ रहे हैं...और महान बनते आ रहे हैं...आपको कहीं न कहीं, कभी न कभी टूटना तो होगा...थमना तो होगा...आपको भी तो पता चलना चाहिए कि टूटने और खो देने की पीड़ा क्या होती है। सब कहते हैं कि बड़ों को दुःख नहीं देना चाहिए, कभी बड़ों को भी टोकिए कि बच्चों से उनकी खुशी, उनकी जिन्दगी नहीं छीननी चाहिए। माफ कीजिएगा लेकिन सम्मान, प्रेम. करुणा जैसे शब्द खून का रंग या उम्र का लिहाज देखकर नहीं दिये जा सकते...दिये भी जायें तो यह मात्र औपचारिकता है, छलावा है और खुद को धोखा देने से बड़ा पाप कुछ भी नहीं है। हमेशा यह कहा जाता है कि दिल की सुनो. और जब हम दिल की सुनते हैं तो हमें बागी करार दिया जाता है, हम पर पाबंदियाँ लगती हैं...आखिर इतने हिप्पोक्रेटिक आप लोग क्यों हैं..यह भी शोध का विषय है। क्या आपने अपनी जिन्दगी में सारे फैसले सही लिये हैं आ आप इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि आप जो भी फैसला करेंगे...सब के सब सही ही होंगे?  जब आप सारी जिन्दगी सुख भोगकर...अपने हिसाब से चलकर...अपने अच्छे -बुरे फैसले थोपकर भी त्याग करना नहीं सीख सके, त्याग का सबक जब खुद पर नहीं लागू कर सके तो दूसरों से इसकी उम्मीद क्यों?  जब आपको बच्चों की जीत अपनी हार लगती है तो बच्चों को भी आपकी हार अपनी जीत क्यों नहीं लगनी चाहिए?  वैसे भी प्रेम और सम्मान, दोतरफा मामला है,  अगर आप सम्मान देना सीखेंगे...तभी आपको सम्मान मिलेगा और प्यार भी मिलेगा...। अपनी सारी जिन्दगी का फ्रस्टेशन बच्चों पर निकालने से पहले एक बार सोच लीजिए कि अगर आपके साथ यही व्यवहार होता तो आप क्या करते। बच्चे आपके स्टेटस का पैरामीटर नहीं हैं...और न ही शेयर बाजार का रिटर्न..तो अब उनकी जिन्दगी पर अपना हक जमाना और जताना बंद कीजिए।


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