अकेला व्यक्ति भी होता मनुष्य ही है... प्रमाणपत्र नहीं चाहिए उसे

मनुष्य का जीवन विचित्र होता है। हम सब अपनी असुरक्षाओं से घिरे डरे हुए लोग हैं। समाज का चलन कुछ ऐसा है और यह सदियों से ऐसा ही है कि यह स्त्री और पुरुष को सिर्फ स्त्री और पुरुष के रूप में ही देख पाता है। उसे यह समझ ही नहीं आता दोनो ही मनुष्य के रूप में एक स्वतंत्र इकाई हैं जिनका अपना एक विवेक और अस्तित्व है। कई बार लगता है कि हमने शरीर और यौनधर्मिता को इस अतिरेक के साथ सहेज कर रखा है कि आप सृष्टि देखिए या धर्म, पुराण देखिए या इतिहास, साहित्य देखिए या कला..संबंधों का दायरा सिकुड़कर रह गया है। समाज ही क्यों, खुद मनुष्य भी अपने संबंधों एक विस्तृत परिप्रेक्ष्य में देखना भूल गया है। प्रेम, दाम्पत्य, देह, वासना और स्वार्थ से घिरी इस दुनिया में संबंधों के समीकरण ऐसे उलझे हुए हैं कि सम्बन्धों की निश्चल शुचिता लुप्त प्राय हो गयी है। बगैर किसी संबंध के दो विपरीत लिंगी मनुष्य एक दूसरे को समझ सकते हैं, अब तो यह कल्पना भी यूटोपिया ही है। ईश्वर की पूजा करने वाले खुद ईश्वर को ही नहीं छोड़ते इसलिए अपने चरित्र की शुचिता को अपने इर्द-गिर्द लपेटते हुए थक जाते हैं और जीवन भर एकाकीपन का बोझ ढोते चलते हैं। यह ऐसा ही है कि आप नदी के बीच खड़े हैं, प्यास लगी है परंतु पानी नहीं पी सकते क्योंकि नदी की धारा पर आपका अधिकार नहीं है। बात सही भी है मगर सोचिए कि अगर हम नदी को नदी ही रहने दें और उसमें वैचारिक मलिनता न मिलने दें तो जीवन कितना आसान हो जाएगा। सम्बन्ध निभाने से अधिक संबंधों को नाम देने में दिलचस्पी रखने वाले इस समाज में वैचारिक और मानसिक कलुषता ऐसी है कि हमने तो राधा -कृष्ण को भी नहीं छोड़ा। समाज के चार लोग मिलकर तय करते हैं वो सारी बातें जो उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं हैं । चरित्र को लेकर प्रमाणपत्र वह देते हैं जिनका अपना कोई चरित्र नहीं अगर ऐसा न होता अयोध्यावासियों को यह अधिकार था कि वह सीता के चरित्र पर उंगली उठाते। जिस अयोध्या को अपने राजा पर विश्वास न हुआ, जिस राघव को वह न समझ सकी..उसने अपनी कुंठा को पोषित करने के लिए अपने राजा से उसकी प्रिया को छीन लिया। आज भी कृष्ण के पावन चरित्र को अपनी मानसिक गंदगी में डुबाने वालों की कमी नहीं है। वह न तो राधा को समझते हैं और न कृष्ण को समझते हैं मगर उनके प्रेम को अपनी वासना की चादर ओढ़ा जरूर देना चाहते हैं जिससे वे अपनी चारित्रिक मलिनता को ढक सकें। देखा जाए तो पति - पत्नी और प्रेमी -प्रेमिका के सम्बन्धों में इतनी असुरक्षा होती है कि साथी को चोट न पहुंचाने देने के प्रयास में लोग अपने पास एक आवरण बनाकर रखते हैं और सच यही है कि आवरण रखना उनका दायित्व है और सही भी है। सवाल यह भी है जहां आवरण है, वहां विश्वास कहां है। यह विश्वास सम्भवतः बहुत कठिन होता होगा । एक साधारण मनुष्य के लिए इस घेरे को बरकरार रखना सम्भव भी होता होगा मगर जो लोग सार्वजनिक जीवन जी रहे हों और जो जन सेवा के कार्यों से जुड़े हों, वह क्या अपने कर्त्तव्यों से इसलिए मुँह मोड़ सकते हैं कि मदद मांगने वाला कोई विपरीत लिंगी है। मसलन, स्त्री हो या पुरुष हो, मर्यादा और सामाजिक शिष्टाचार निभाने के लिए एक सीमा तय कर सकता है और कहीं न कहीं खुद को भी सुरक्षित रखता है क्योंकि सार्वजनिक जीवन में फंसाने वालों और चरित्र हनन करने वालों की कमी नहीं है। यह उसकी जरूरत है। आज पता नहीं इस पर बात करने का मन हुआ क्योंकि इस आवरणीय प्रतिबद्धता के कारण कहीं न कहीं अकेले रहने वालों को बहुत ज्यादा सहना पड़ता है। ऐसा कई बार यह होता है कि अगर आप किसी की सहायता करना चाहते हैं और इसकी पहल करते हैं तो अगर आप सिंगल हैं तो आपको गलत दृष्टि से ही देखा जाता है। अगर आप युवक हैं और सामने आपके कोई स्त्री है तो वह आप पर विश्वास नहीं करती, आप चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते क्योंकि आप उसके लिए मनुष्य से पहले एक पुरुष हैं । ठीक इसी तरह अगर कोई युवती अथवा महिला किसी की सहायता करना चाहती है, सहानुभूति रखना चाहती है तो कुछ बातें ऐसी जुड़ती हैं । वह महिला आपसे प्रभावित है या वह आपकी गर्लफ्रेंड बनने को इच्छुक है या फिर आपसे रोमांस करना चाहती है और अगर व्यक्ति किसी बड़े पद पर आसीन है तो यह तमाम गलतफहमियां आस -पास के लोगों को ही नहीं बल्कि उसे भी होती हैं। यदि चालाक हुआ तो खुद को बॉलीवुड नायक समझने लगता है और उस महिला को वर्कप्लेस वाइफ..। उसी प्रकार अधिकार जताता है, काम करवाता है, अपनी सम्पत्ति समझता है और अगर महिला ने इनकार किया तो उसके जीवन को नर्क बना देता है। यह व्यक्ति कभी भी अफवाहों का खंडन नहीं करता बल्कि उसे अच्छा लगता है क्योंकि उसका पौरुष ग्लोरीफाई हो रहा है। दूसरी कोटि के मनुष्य ऐसी महिलाओं को हेय दृष्टि से देखते हैं और उसे खुद से ऐसे दूर कर देते हैं जैसे वह कोई मक्खी हो जो दूध में पड़ गयी हो। यही कारण है कि महिलाएं अपने आस - पास किसी को फटकने नहीं देतीं। अगर अनुभवों की बात करूँ तो ऐसे अनुभव होते रहे हैं और तब हमने ऐसे महानुभवों को दूर से प्रणाम कर दिया है। सत्य तो यह है कि व्यक्तित्व में अगर ओज हो और वह स्त्री हो तो उसकी ओजस्विता लोगों को डराती है। आज भी कार्यस्थलों पर किसी महिला को निर्णायक पदों पर देखने और स्वीकार करने वाले न के बराबर हैं। वह किसी महिला पदाधिकारी को गम्भीरता से लेते ही नहीं हैं। अगर वह विवाहित है..तब तो थोड़ा -बहुत सम्मान मिल भी सकता है मगर वह अविवाहित हो तो उसकी सुनने वाले न के बराबर हैं और ऐसे अनुभव कहानियों के पिटारे में ही खुलते हैं। विश्वविद्यालय के दिनों में एक महाशय सहपाठी ऐसे मिले जिनको यह लगता था कि लड़कियां लड़कों से दोस्ती नोट्स प्राप्त करने के लिए करती हैं। हमने उनसे कभी नोट्स नहीं लिये क्योंकि उनसे अच्छा लिख सकते थे। फिर एक महोदय मिले जिनको लगता था कि लड़कियां लड़कों के पीछे भागती रहती हैं। खुद अपनी एक सहपाठी के साथ घंटों किसी कोने में जाकर बतियाते रहे हों मगर किसी और ने टोक दिया तो वह बुरा बन गया। जिन्दगी में कई बार ऐसा लगा कि हमने गलत लोगों को जरूरत से ज्यादा महत्व दे दिया । वह महाशय हमारे लिए भगवान बनना चाहते थे और बुरी तरह दुत्कारते हुए पेश आते जैसे कि वह भाग रहे हैं। अब कोई बताए, आपको भगवान बनने को किसने कहा था और मुझे क्या करना चाहिेए, यह बताने वाले आप कौन ? एक अच्छा दोस्त समझकर...उनको मनाने के लिए बरसों कोशिशें कीं मगर जब उनका असली रूप सामने आया तो हमने तौबा कर ली । किसी से प्यार कीजिए, सम्मान दीजिए मगर अपने स्वाभिमान को दांव पर लगाकर मत कीजिए। अगर कोई जबरदस्ती का हीरो बनता है और आप पर अहसान जताता है तो आप उसे हवा में उड़ाना सीखिए..आपमें अकेले चलने, लड़ने और जूझने की शक्ति है। समवयसी लोगों की दुविधा समझ में भी आती है मगर जब कोई आपसे उम्र में बेहद बड़ा हो..तो क्या किया जाए...। एक बार ऐसा हुआ कि एक दिग्गज हस्ती की प्रेरणा से हमने एक काम शुरू किया। जब उनके शहर जाने का समय आया तो दिमाग में आया कि कृतज्ञतापूर्वक कोई उपहार दिया जाए..क्योंकि प्रेरणा तो वहीं हैं...मगर हम भूल गये कि हम स्त्री हैं और वह भी दूसरे शहर की...वह हमसे नहीं मिले। हम उनका आदर करते हैं क्योंकि सिंगल लोगों की तरह विवाहित लोग स्वतंत्र नहीं होते। उनकी अपनी सीमाएं और अपने आवरण होते हैं मगर याद रखने लायक बात यह है कि अविवाहितों की भी अपनी मर्यादाएं होती हैं और वह उनका पालन करना जानते हैं। दुःख हुआ मगर जीवन यही है..। फिर एक इसी प्रकार का मिलता - जुलता हुआ अनुभव हुआ और तब हमें सुजाता और गौतम बुद्ध की खीर वाली कहानी याद आ गयी। स्त्री और पुरुष होने की सीमा से परे जाकर अगर कोई व्यक्ति किसी की सहायता भी करना चाहे तो दो बातें होती हैं - या तो वह दया दिखाना चाह रहा है या फिर फंसाकर काम निकलवाना चाह रहा है। कई बार सोचती हूँ कि अगर आज सुजाता भूखे गौतम बुद्ध को खीर खिला रही होती तो शायद आज के बुद्ध मरना पसन्द करते मगर सुजाता के हाथ से खीर खाना पसन्द नहीं करते क्योंकि उनको भय होगा कि सुजाता उनको फंसा रही है। समाज देखता तो कहता कि पक्का इन दोनों का चक्कर रहा होगा...छीजते हुए समय में हम छीजते सम्बन्धों को जीने वाले लोग हैं । विवाहितों पर विश्वास करने वाले लोग अधिक हैं और सिंगल लोगों पर संशय करने वाले लोग अधिक हैं। अब ऐसी परिस्थिति में किया क्या जाए । कुछ नहीं परिस्थिति को समझकर एक गरिमामय दूरी रखिए और अपने जीवन में आगे बढ़िए..क्योंकि व्यक्ति कई बार सचमुच बंधा हुआ होता है। कई बार जीवन से इतनी चोट खाया हुआ होता है कि वह न तो किसी पर विश्वास कर पाता है और न ही किसी को अपने निकट आने देना चाहता है । उसकी अपनी एक दुनिया है, वह खुश है, उसे रहने दीजिए। हम लोगों में से हर कोई हर रोज अपने हिस्से का युद्ध लड़ रहा है। खुद टूटा है और जबरन खुद को समय की चट्टान के आगे खड़ा कर रहा है, उसकी इस जीजीविषा का सम्मान कीजिए। अगर आप किसी का साथ देना ही चाहते हैं तो उसकी बैसाखी मत बनिए, सामर्थ्य बनिए...उसमें अपने लिए सहारा मत खोजिए..वह टूटा हुआ व्यक्ति भी परिपूर्ण है, उसे किसी की जरूरत नहीं...उसे उसकी राह पर चलने दीजिए...हम चाहकर भी किसी के हिस्से का युद्ध नहीं लड़ सकते हैं। चाहकर भी किसी के लिए कुछ नहीं कर सकते हैं..अगर आप सचमुच किसी से सहानुभूति रखते हैं तो जबरन खुद को थोपने की जगह खुद को ऐसा बनाइए कि लोग भरोसा कर सकें। किया तो अच्छी बात है, वरना कोई बात नहीं। जब आप खुद टूटे हों तो खुद से बातें कीजिए, खुद को दुलार कीजिए, उस सर्वशक्तिमान से कनेक्ट करिए। इसके लिए जंगल में जाने की नहीं, खुद के भीतर झांकने की जरूरत है। इसके साथ ही अपने शौक,, अपनी रुचियों को समय दीजिए..यह आपको आपके होने का अहसास दिलाती रहेंगी। इस पर भी सबसे अधिक जरूरी यह है कि आप क्या हैं, यह किसी और को नहीं, समय को तय करने दीजिए..मुझे पता है कि यह सारे अनुभव बहुत ही अपमानजनक और वेदनादायक होते हैं मगर जिंदगी यही है। यह अधिकार किसी को नहीं है कि वह चाहे कितना भी बड़ा हो...वह आपको प्रमाणपत्र दे। अगर आप एकल हैं, सिंगल हैं तो फिर आप स्त्री हों या पुरुष हों, कोई फर्क नहीं पड़ता। स्वाभिमान के साथ सिर उठाकर जीने का अधिकार आपको उतना ही है जितना इस समाज में विवाहितों को है। सिंगल होने का मतलब दयनीय, लालची या चरित्रहीन होना नहीं होता क्योंकि इस समाज में परिवर्तन लाने वाले, अपने जीवन को दूसरों की भलाई के लिए होम कर देने वाले अकेले ही रहते आ रहे हैं। ईश्वर जिससे बड़ा काम करवाना चाहते हैं, उसे अकेला रखते हैं या अकेला कर देते हैं। वह व्यक्ति कभी भीड़ में नहीं रह सकता और रहता भी है तो जल में कमलवत...जैसे अयोध्या में सीता के जाने के बाद राम रहे, द्वारिका में तथाकथित 16 हजार रानियों के रहने के बाद भी कृष्ण मन से अकेले ही रहे। कृष्ण की बात करूँ तो अपनी ही बात को दोहराती हूँ...कृष्ण राधा से अधिक द्रोपदी से कनेक्ट करते हैं । राधा बचपन की सखी थीं जिन्होंने कृष्ण को आधार दिया मगर द्रोपदी कृष्ण की कर्मसंगिनी थीं जिन्होंने अपने हृदय पर अपमान का घाव लिया और युग परिवर्तन में अपना सब कुछ गंवाकर भी कृष्ण का सामर्थ्य बनीं। वह भी बलशाली पांडवों के होते हुए भी अकेली ही रहीं। दरअसल, अकेलापन समाज का स्टेटस तय नहीं करता, आप भरे - पूरे परिवार में रहकर भी अकेले रह सकते हैं और अकेले रहकर भी अपने आप में पूर्ण । इस बात को ऐसे समझते हैं - कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, निराला के पास कौन था..स्वामी विवेकानंद के पास कौन था? उनके पास ईश्वर थे और जो ईश्वर के दिखाए मार्ग पर चलता है तो उसका ख्याल खुद वही परमशक्ति रखती है इसलिए इन सबके साथी स्वयं ईश्वर थे। इनकी रक्षा करने वाले भी ईश्वर थे और जिनके साथ ईश्वर हो, वह कभी अकेला नहीं रहता। ईश्वर किसी न किसी रूप में उसका साथ निभाने, उसकी रक्षा करने और उसे आगे बढ़ाने के लिए खुद धरती पर उतर आते हैं। चलते -चलते मीराबाई की कहानी याद आ गयी । कहते हैं कि एक बार मीरा द्वारिका से वृंदावन आयी। इनके साथ साधु-संतों की टोली थी जिसमें कई स्त्रियां भी थी। शाम हो जाने के कारण सभी ने आगे जाना उचित नहीं समझा। मीरा ने कहा पास ही जीव गोस्वामी जी का आश्रम है। सभी लोग जीव गोस्वामी के आश्रम पहुंचे। गोस्वामी जी के सेवक ने मीरा की टोली को आश्रम के बाहर ही रोक दिया। सेवक ने कहा कि गोस्वामी जी किसी स्त्री से नहीं मिलते हैं। सेवक की बात सुनकर मीरा मुस्कुरायी और एक पत्र लिखकर सेवक को दिया। सेवक उस पत्र को लेकर गोस्वमी जी के पास पहुंचा। पत्र पढ़ते ही गोस्वामी जी दौड़कर बाहर आये और मीरा से क्षमा मांगने लगे। मीरा ने पत्र में लिखा था, 'मैंने तो सुना है कि वृंदावन में सिर्फ एक पुरूष हैं श्री कृष्ण बाकि सभी तो गोपी भाव से श्री कृष्ण की भक्ति करते हैं। मुझे नहीं पता है कि कृष्ण के अलावा कोई दूसरा पुरूष भी वृंदावन में मौजूद है।' मीरा के इस कथन का सार गीता में भी मिलता है। श्री कृष्ण कहते हैं, 'यह संसार प्रकृति अर्थात स्त्री है और मैं परमात्मा ही एक मात्र पुरूष हूं। मैं ही प्रकृति में बीज की स्थापना करके सृष्टि चक्र का संचालन करता हूं। इसलिए स्त्री और पुरूष का भेद करना मूर्खता है। मृत्यु के बाद स्त्री हो अथवा पुरूष सभी लिंग भेद से मुक्त हो जाते हैं।' भगवान शिव का अर्धनारीश्वर रूप भी यह ज्ञान देता है कि स्त्री और पुरूष का भेद अज्ञानता है। जो इनमें भेद करता है वह ईश्वर का अपमान करता है। ईश्वर को पाने के लिए जरूरी है कि स्त्री-पुरूष का भेद-भाव त्याग कर सभी में समभाव रखें। सचमुच इस समूचे संसार में ईश्वर को छोड़कर कोई वास्तविक रूप में स्त्री या पुरुष है क्या...? हमारा अस्तित्व और हमारी औकात...अंत में सिर्फ दो मुट्ठी राख रह जानी है और राख का कोई जेंडर नहीं होता ।

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