बढ़ते तलाक और लड़कियों की बदलती दुनिया
एक समय था जब तलाक की बात सोचना ही पाप समझा जाता था । खासकर महिलाओं के मामले में डोली जाएगी, अर्थी निकलेगी वाली मानसिकता के कारण औरतों ने घरों में घुट-घुटकर प्रताड़ित होकर मार खाते हुए जिन्दगी गुजार दी । उनके पास आर्थिक मजबूती नहीं थी, सामाजिक सहयोग नहीं था और बच्चों का मोह भी एक बंधन था...शादियां खींच दी जाती थीं । लोग एक छत के नीचे दो अजनबियों की तरह रहते हुए जिन्दगी गुजार दिया करते थे । पुरुष हमेशा विन - विन सिचुएशन में रहते थे क्योंकि स्त्रियां उनको नहीं, वह अपनी स्त्रियों को छोड़ दिया करते थे । कुछ ऐसे विद्वान भी देखे गये जो शहरों से ताल मिलाने की जुगत में अपनी गंवार पत्नी को छोड़कर आगे बढ़ गये और पत्नी उपेक्षा के अन्धकार में दफन हो गयी । इसके बाद महिलाओं के अधिकारों की बात चली, कानून बने..गुजारा -भत्ता, भरण - पोषण जैसी सुविधाएं मिलीं । औरतें आर्थिक स्तर पर मजबूत हुईं, मुखर हुईं और सहनशक्ति कम हुई । आज भी हालिया आंकड़ों के अनुसार भारत में तलाक की दर एक प्रतिशत से भी कम है। यह विश्व में सबसे कम है। हालांकि पहले के मुकाबले तलाक के मामलों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। यह बात फैमिली ला इन इंडिया विषय पर वकीलों की संस्था न्यायाश्रय द्वारा किए गए शोध में सामने आई है। एक समय था जब लड़कियों को बचपन से ही ससुराल में मार खाने और ताने सुनने के लिए मानसिक तौर पर तैयार किया जाता था और इस तैयारी की आड़ में लड़कियों के मायके में उनका खूब शोषण किया गया है । पराई लड़की..दूसरे घर जाना है...कम खाओ...पतली हो जाओ....पढ़कर क्या करोगी...रसोई सीखो...की आग में लड़कियों के सपने आग में खूब झोंके गये हैं । लड़कों पर भी कमाने का दबाव रहा है, बेरोजगार लड़के भी अविवाहित लड़कियों की तरह कोने में धकेल दिए जाते रहे हैं..। कहने का मतलब है कि उत्पीड़न और प्रताड़ना बराबर की रही मगर लड़कों का पलड़ा भारी रहा क्योंकि शादी में उसकी स्थिति तुलनात्मक रूप से बेहतर रही । संयुक्त परिवारों में जिनके पति कमाते नहीं थे..उनकी पत्नियों की जिन्दगी नर्क बना दी जाती रही है..करोड़पति परिवारों में बच्चे पाई - पाई को मोहताज रहे हैं । अमीर घरों में रहने वालों ने गरीबी को बहुत नजदीक से देखा है मगर तब संयुक्त परिवारों में कोई न कोई एक बड़ा जरूर रहता था जिसने समझदारी से काम लेते हुए डोर को जोड़े रखा। एकल परिवारों में वह डोर नहीं दिख रही और जो संयुक्त परिवार हैं, वहां पर बड़ों का हस्तक्षेप अपने व्यक्तिगत परिवार तक सिमट गया है । शोध में कहा है कि पिछले 10 सालों के आंकड़ों के विश्लेषण से यह बात सामने आई है कि भारत में प्रति 1000 विवाह में से लगभग 7 विवाह तलाक की वजह से समाप्त होते थे, किंतु यह आंकड़ा तेजी से बढ़ रहा है। वर्तमान में यह प्रत्येक 200 विवाह में 3 विवाह तक पहुंच गया है। यह पहले के मुकाबले लगभग दोगुना है। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में तलाक दर 30 प्रतिशत तक पहुंच रही है। यही स्थिति अब अन्य शहरों की भी होती जा रही है।आयुवर्ग के हिसाब से देखें तो 25 से 34 वर्ष के बीच सबसे ज्यादा तलाक के मामले आ रहे हैं। शोध में यह बात भी सामने आई है कि भारत में तलाक के कारणों में नगरीयकरण, आधुनिकीकरण, मोबाइल इंटरनेट का अत्याधिक इस्तेमाल, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, घटती निर्भरता, महिला सशक्तिकरण, ससुराल पक्ष का व्यवहार, बढ़ता मतभेद, वैचारिक तालमेल का न मिलना, कानून का दुरुपयोग इत्यादि शामिल हैं। यह बात भी सामने आई है कि दहेज प्रताड़ना के मुकदमे यानी धारा 498 के केस प्रस्तुत होने के बाद परिवार फिर से जुड़ पाना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। इसी प्रकार भरण पोषण देने में त्रुटि करने वाले पति को जेल होने के पश्चात तलाक के मामले भी बढ़ रहे हैं। काउंसलिंग एवं अनुभवी समाजशास्त्रियों की मदद लेकर इन समस्याओं को दूर किया जा सकता है। शोध में यह सुझाव भी दिया गया है कि पारिवारिक मामलों में कानूनी दखल को कम से कम किया जाना चाहिए।
दरअसल, बच्चे एक यूटोपिया में जी रहे हैं और इसे मजबूत करने में सिनेमा का महत्वपूर्ण योगदान है क्योंकि इनके सपनों में उनका एक साथी है, एक बच्चा है...और उसके आस - पास कोई नहीं है । कभी सोशल मीडिया पर नजर दौड़ाइए तो पता चलेगा कि 95 प्रतिशत लोग परिवार के नाम पर मैं...बीबी या मेरे साहेब व हमारा बच्चा टाइप तस्वीरें लगा रहे हैं तो बच्चों को पारिवारिक मूल्य कैसे पता चलेंगे जब उन्होंने वह रिश्ते देखे ही नहीं हैं । जब उनको दादा - दादी, नाना - नानी की जगह ग्रैंडपैरेट्ंस ही समझाए जा रहे हैं। कॅरियर के बाद परिवार के कहने पर जब शादियां हो रही हैं तब भी वह एक वायवीय दुनिया से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं क्योंकि शादी उनके लिए सपना है, जिम्मेदारी नहीं और जिम्मेदारी अगर है भी तो वह अपने माता - पिता तक ही सीमित है । आज की पीढ़ी के लिए मौसी - मौसा, बुआ - फूफा जैसे रिश्ते एक मेहमान हैं, परिवार का हिस्सा नहीं हैं...जिनके आते ही जाने के दिन गिनने की तैयारी शुरू हो जाती है। ऐसे में शादी होने पर अनायास जब वे यथार्थ से टकराते हैं तो सपने चकनाचूर होते हैं..। तालमेल, एडजस्टमेंट...जैसे शब्द ऑफिस में चल सकते हैं क्योंकि नौकरी करके कमाई होती है मगर घर में नहीं । कई बार घर के बड़े भी युवाओं के लिए ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देते हैं क्योंकि वह भी कहीं न कहीं वर्चस्व चाहते हैं । उनके दिमाग में अब भी नाती - पोते देखने या सेवा करवाने जैसे सपने हैं जो पूरे नहीं हो पा रहे हैं तो यह जेनरेशन गैप हमेशा से रहा है । इस दबाव और निजता के लिए चाहे - अनचाहे दूरी हो जाती है और बहुओं के दबाव में बेटे घर से दूर हो रहे हैं । यहां तक तो फिर भी बात समझ आ रही है मगर तलाक और जरा - जरा सी बात पर तलाक और उसे व्यवसाय बना लेना..इसका समर्थन कतई नहीं किया जा सकता...कम से कम वहां..जहां पर महिला शिक्षित है, आत्मनिर्भर है, अच्छा - खासा कमा रही है । गुजारा भत्ता उन औरतों को मिले जिनके पास नौकरी नहीं, आय का दूसरा साधन नहीं है..मगर यहां भी बात समानता पर अटक जाती है । यह कौन सी समानता है कि आप अपने गुजारे के लिए जीवन भर उस व्यक्ति पर निर्भर रहने को तैयार हैं जिसके साथ आप रहना नहीं चाहते, जिसकी सूरत तक आप देखने को तैयार नहीं हैं । डेटिंग ऐप बंबल पर हाल ही में शादी और रिलेशनशिप को लेकर सर्वे किया गया। जिसमें भारत की महिलाओं की एक अलग ही तस्वीर उभर कर सामने आई। अध्ययन के मुताबिक 5 में से करीब 2 (39%) डेटिंग करने वाले भारतीयों का मानना है कि उनके परिवार वाले उनसे शादी के मौसम के दौरान पारंपरिक जोड़े बनाने को कहते हैं। शादी के मौसम आते ही शादी करने के लिए दबाव दिया जाता है। डेटिंग ऐप बंबल के एक हालिया अध्ययन के अनुसार भारत में 81 प्रतिशत महिलाएं अविवाहित और सिंगल रहने में सहज महसूस करती हैं। उन्होंने कहा कि वो सिंगल रहने में ज्यादा आराम और अच्छा महसूस करती हैं।वहीं, 83 प्रतिशत महिलाओं ने कहा कि वो जल्दीबाजी में शादी नहीं करेंगी। तबतक प्रतीक्षा करेंगी जब तक की कोई सही व्यक्ति नहीं मिल जाता है। वहीं, 63 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे अपनी प्राथमिकताओं, जरूरतों या आवश्यकताओं के आगे नहीं झुकेंगे। सर्वे में यह पूछा गया कि वे कब शादी करना चाहते हैं? इसपर 39 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वो इसके लिए प्रेशर महसूस करते हैं। खासकर शादियों के सीजन में।
कुंवारे भारतीयों में से करीब एक तिहाई (33 प्रतिशत) ने कहा कि वे एक लॉन्गटर्म और कमिटेड रिलेशनशिप में जाने के लिए मजबूर महसूस करते हैं। वो लंबे समय तक चलने वाली शादी के रिश्ते के लिए खुद को प्रेशर में फील करते हैं। भारत में अभी भी माता-पिता अपने बच्चों की शादी तय करते हैं। शादी का मौसम आते ही उनपर शादी के लिए दबाव बनाया जाता है। कुछ लोग तो इसके आगे झुक जाते हैं। लेकिन अब लड़का हो या लड़की अपनी च्वाइंस को पैरेंट्स से बताने लगी हैं। बता दें कि 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 7.14 करोड़ सिंगल वुमन हैं। इसमें बिना शादीशुदा महिलाओं के साथ-साथ तलाकशुदा और विधवा भी शामिल हैं। साल 2001 में ये संख्या 5.12 करोड़ थी। 2001 से 2011 में यह अनुपात 40 फीसदी बढ़ा है। मतलब भारतीय महिला बदल रही है।जो लड़कियां या लड़के शादी के बाद एकछत्र राज्य चाहते हैं, उनसे हमारा विनम्र निवेदन है कि अगर आप मीशो से नहीं आईं या आए तो आपका जीवनसाथी भी फ्लिपकार्ट से डिलिवर नहीं किया गया। उसका पालन - पोषण किया गया है और वह आपकी सास - ननद या जेठ अथवा देवर ने किया है। आंकड़ों की मानें तो 2005 और 2012 के बीच 20 मिलियन महिलाओं ने अपनी नौकरी छोड़ दी और उनमें से लगभग 65 प्रतिशत महिलाओं ने दोबारा नौकरी नहीं की। ऐसी स्थितियों में, गुजारा भत्ता तलाक के बाद उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाने में मदद करता है। ऐसे में तलाक के बाद इसकी मांग करने वाली महिला को शर्मसार करना ठीक नहीं है। हिंदू विवाह अधिनियम 1965 के अनुसार अगर पत्नी पति से अधिक कमाती है या पुरुष पैसा कमाने में असमर्थ है तो वो भी गुजारा भत्ता की मांग कर सकते हैं। 2008 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि अगर कोई पत्नी तलाक के बाद खुद का पाल-पोषण करने में सक्षम है तो उसका गुजारा भत्ता का रद्द भी किया जा सकता है। हालांकि एक अध्ययन के अनुसार, भारत में महिलाओं में बेरोजगारी दर पुरुषों की तुलना में दोगुने से भी अधिक है।
आपको कोई अधिकार नहीं है कि अपनी कुंठित मानसिकता के लिए किसी का बसा - बसाया परिवार तोड़ डालें । अगर आपको सास - ननद, देवर नहीं चाहिए तो प्लीज डोंट गेट मैरेड....। अलग होकर भी आप अपने परिवार के लिए मटर जरूर छीलेंगी तो सास - ननदों के साथ मटर छीलने में आपत्ति क्यों है? आपको किसने अधिकार दे दिया कि आपकी ननद कब आएगी, कब तक रहेगी...अपने घर से क्या लेगी या क्या नहीं लेगी...ये आप तय करें...जबकि आप अपने मायके में अपने माता - पिता के साथ अपनी भाभी का यह व्यवहार नहीं सह पा रहीं । आपके अधिकार आपके पति पर हैं..आप अपने देवर - ननदों के जीवन से जुड़े फैसले नहीं ले सकतीं, ठीक उसी प्रकार जैसे आपके पति तय नहीं करेंगे कि आपके भाई - बहन जिंदगी कैसे जीएंगे । अगर अपने मायके को कुछ देना है तो वह आप अपनी कमाई से दीजिए । आप अपने मायके से कुछ नहीं मांगेंगी...अच्छी बनी रहेंगी और ससुराल में हिस्सा हड़पने के लिए चालें चलती रहेंगी....नॉट फेयर । यह घर आपके पिता ने नहीं बनाया...आपके पति के पिता ने बनाया है जो आपकी ननद के भी पिता हैं...इस रिश्ते में दरार डालकर अपना घर बसाने से बाज आइए और अधिकार मांगना है तो अपने मायके से मांगिए....फिर देखिए कि आपके वह अपने कितने अपने हैं । बहनों का अधिकार उनके भाइयों पर होता है, भौजाइयों पर अधिकार मत जताइए...हुक्म मत चलाइए...मानिए कि रिश्ते में दूरी है और उसे बने रहना चाहिए । मजे की बात यह है कि सोशल मीडिया पर देवरानी व जेठानी व सास को लेकर मेलजोल और अंडर स्टैंडिंग वाले मीम बन रहे हैं... क्या आपको नहीं लगता कि यह बड़े ही सुनियोजित तरीके से हो रहा है...यह अनायास नहीं है......अपना कॅरियर, अपना परिवार..अपना फ्यूचर मगर आपको यह सब करने के लिए जरूरत दूसरों की पड़ रही है....सोलह श्रृंगार करके कैमरे पर इतराने वाली वधुएं जरा बताएं..अगर इतनी ही तकलीफ है रिश्तेदारों से तो शादी ही क्यों की? मां की गालियां और चप्पल अमृत समान है और मां जैसी बुआ कुछ कह दे तो उसने जीना हराम कर रखा है...वाह रे हिप्पोक्रेट जेनेरेशन तो अब बुआ को लेकर मीम बनाना बंद करो यूट्यूबरों । जीवन में परफेक्ट कुछ नहीं होता...अगर कुछ बुरा होता है तो वह है मौकापरस्त होना...आप खुद स्वार्थी हैं तो दूसरों से दरियादिली की उम्मीद क्यों? आपके पति के पास अपनी बहन को देने के लिए समय चाहिए...वह आपके भाई..आपके माता - पिता की इज्जत करे मगर अपने भाई - बहनों का पक्ष ले तो वह खलनायक बन गया....गजब हैं जी आप। या तो किसी के साथ रहिए या बिल्कुल मत रहिए...तलाक के नाम पर भरण - पोषण और गुजारा भत्ता जैसे हथियारों से किसी का जीवन नर्क मत बनाइए। जिसकी शक्ल तक नहीं देखनी, उसके पैसे से काहे का मोह..एक समय तक आर्थिक तौर पर कमजोर लड़कियां जरूर गुजारा भत्ता लें मगर सक्षम बनाकर खुद को अलग कर लें वरना जिस रिश्ते से निकलना चाह रही हैं, कभी निकल नहीं सकेंगी।
शादी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है...इसे खेल मत बनाइए...नहीं निभा सकते तो अकेले रहिए..।
कहीं न कहीं...दोनों को ठहरकर सोचने की जरूरत है...लड़का हो या लड़की हो...समझने की जरूरत है कि शादी वह नहीं है जो फिल्मी परदे पर या सोशल मीडिया पर दिखती है...। हो सकता है कि आप जिनके मीम देख रहे हैं...वह आपका सबसे बड़ा सपोर्ट सिस्टम बन जाएं...। कदम मिलाकर चलना सीखिए.. क्योंकि अगर आप किसी की आँख का नूर हैं तो वह भी किसी की आंख का तारा है ।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें