रिश्तों के बाईप्रोडक्ट और पीछे छूटता ननद का रिश्ता




भारतीय संस्कृति में जिस चीज को लेकर सबसे ज्यादा गुमान किया जाता है, वह है परिवार और बदलते समय के साथ परिवार का स्वरूप बदला है जिसे हमारे पाठ्यक्रमों ने और ज्यादा छोटा कर दिया है। कहने को पाश्चात्य सभ्यता को कोसते नहीं थकते, वही लोग किताबें बना रहे हैं और वहाँ परिवार का मतलब छोटा और छोटा होता जा रहा है। बच्चे जब कार्ड बनाते हैं तो उसमें मम्मी पापा, दीदी और भइया भर होते हैं और हमारे स्कूलों में भी यही स्वीकृत है। थोड़ा सा आगे बढ़े तो दादा दादी और नाना नानी, बाकी रिश्ते तो अंकल और आँटी में सिमट गए। ये हमारी संस्कृति नहीं है, ये हम सब जानते हैं और इसके बावजूद हमारी किताबों में ये नहीं पढ़ाया जा रहा क्योंकि परिवार की शाखाएँ- प्रशाखाएँ बड़ी हो जाएँगी। बड़े होने तक पता नहीं था कि चचेरे, ममेरे और फुफेरे भाई या बहन क्या होते हैं मगर आज बच्चे जानते हैं कि ये सिर्फ उनके कजन हैं, कजन यानि ऐसा दूर का रिश्ता जहाँ औपचारिकता तो है मगर मस्ती और अपनापन नहीं है....बच्चा अगर इनको अपने परिवार में शामिल करे तो स्कूल से नोटिस आ जाती है। ऐसा लगता है कि बाकी सम्बन्ध तो जैसे फैमिली ट्री का बाई प्रोडक्ट बनते जा रहे हैं और इनमें से एक रिश्ता है ननद का....जब किसी लड़की की शादी होती है तो उसकी ससुराल में कभी सहेली तो कभी बड़ी बहन वाला रिश्ता जो होता है, वह ननद का ही होता है मगर हमारे यहाँ शादियाँ जब होती हैं जो जिन रिश्तों को लेकर कोई बहू तनाव में होती है, वह सास और उसके साथ ननद का ही होता है....अजीब सी असुरक्षा....औपचारिकता भरा माहौल इस रिश्ते को मिलता है। रामायण में श्रीराम की बहन शांता का चरित्र है मगर वह गुमनाम है, सीता का कष्ट तो बिखरा भी है मगर जिस शांता को गोद देकर सुध नहीं ली गयी...उसके लिए रोने वाला कोई नहीं है। न तो राम रोते हैं, न कौशल्या याद करती हैं और न सीता को ही ननद की चिन्ता है। अगर कहीं ननदें हैं, तो वे मूक हैं और पतियों के अत्याचार का साथ देती हुआ या फिर सहती हुईं। देवरों को लेकर सशक्त चरित्र बहुत हैं मगर किसी ननद का सकारात्मक और मजबूत चरित्र मेरी जानकारी में नहीं है..इतनी उपेक्षा क्यों? युगों से एक भी स्त्री का सकारात्मक रूप नहीं होगा, यह बात तो गले नहीं उतरती...कहीं यह स्त्री के खिलाफ स्त्री को खड़ा करने की साजिश तो नहीं थी। आज भी ऐसे सकारात्मक चरित्र कम हैं। रुक्मिणी और सुभद्रा के सम्बन्धों पर न के बराबर लिखा गया, शांता तो कहीं है ही नहीं और न ही सीता के साथ उनके सम्बन्धों पर बात की गयी। शूर्पनखा और मन्दोदरी के सम्बन्ध हैं भी तो नकारात्मकता की भरमार है और शूर्पनखा का चरित्र ही खलनायिका का है। हमारे लोकगीतों से लेकर फिल्मों में भी ननद को भाभी की दुश्मन बताया जाता है जो भाभी की शिकायत भाई और माँ से करती है और दहेज न लाने पर जलाने में मदद भी करती है....कुल मिलाकर खलनायिका वाली छवि...अगर ननद की शादी हो गयी होती है तो शायद बहुत सी नयी बहुएँ भी राहत की साँस लेती होंगी और अगर शादी नहीं हुई तो उसकी शादी का इंतजार करेंगी। इस देश में किसी भी स्त्री का सम्मान उसके विवाह से जोड़कर देखा जाता है और उसे मिलने वाला प्यार और तोहफे भी इसी आधार पर तय होते हैं। भाभी के लिए उसकी ननद पति की बहन भर होती है....एक दायित्व...जाहिर है कि जहाँ जज्बातों पर फर्ज भारी पड़ता है, उस रिश्ते में दिल नहीं जुड़ सकता....बहन से जो जुड़ाव होता है, वह ननद से नहीं हो सकता...ये एक सच्चाई है जिसे स्वीकार करने में हमेशा हिचक रहती है। सही है कि भाभियों और ननद के बीच हँसी मजाक, नोंक झोंक सब होती है मगर उसमें एक दूरी रहती है। कटु सत्य यह है कि ननद तभी तक सहेली रहती है जब तक देवरानी न आ जाए या फिर बेटी बड़ी न हो जाए....किसी भी लड़की के लिए अपने ही घर में उसी लाड़ प्यार के साथ अपनी शर्त पर रहना आसान नहीं है...कतई नहीं खासकर अगर वह बगैर शादी के जीना चाहती है....आज सिंगल मदर की तरह सिंगल विमेन की तादाद बढ़ रही है मगर ये भी एक सच है कि वे कहीं न कहीं अलग रहना चाहती है क्योंकि उनको अपनी शर्त पर जीना है। परिवार का गुणगान अपनी जगह है मगर लड़कियों के मामले में अगर पैर खींचने का काम कोई करता है तो यही परिवार करता है। रिश्तों का हवाला देकर मनोबल तोड़ने से लेकर उसे अकेला छोड़ने तक का काम...भारतीय साहित्य से लेकर पारिवारिक सम्बन्धों के इतिहास में ननद के साथ मुझे लगता है कि न्याय नहीं हुआ...जब इंटरनेट पर खोजने बैठी तो ननद सताया...नेग लेत...जैसी चीजें मिलीं और कुछ आधुनिक पत्रिकाओं में रिश्ते निभाने की नसीहतें मिलीं। भारतीय इतिहास में अच्छे पति, अच्छी बहुएँ, पत्नियाँ, देवर, देवरानी हैं और मौसी का स्वरूप भी माँ जैसा है। कुंती को आदर्श बुआ के रूप में चित्रित किया गया है मगर बाद में बुआ, सास और ननद और खलनायिका ही बनाया गया है....सच तो यह है कि ससुराल पक्ष से मिलने वाले रिश्तों में औपचारिकता और आडम्बर इतने हैं कि किसी भी रिश्ते के लिए साँस लेना मुश्किल है...जब सम्बन्धों का मायाजाल ऐसा है तो सकारात्मक होने की उम्मीद करना ही फिजूल है। आदर्श ननद जैसी कल्पना यूटोपिया के अलावा कुछ नहीं है...भारत के पारिवारिक सम्बन्धों में देवर देवरानी को जो स्वीकृति है, वह ननद को नहीं मिलती...जब स्वीकृति ही नहीं मिलेगी तो औपचारिकता के बीच इस बात की उम्मीद करना कि वह हमेशा सकारात्मक होगी, फिजूल है। देखा जाए तो ये सम्बन्ध स्त्री की असुरक्षा के अनुसार ही तय हुए हैं...आपसी असुरक्षा जो इस पितृसत्तात्मक समाज के कारण हैं। भाभियों के लिए ननद शादी के बाई प्रोडक्ट या पति की बहन से ज्यादा कुछ नहीं है। ननद में नाराजगी हैै कि भाई अब भाभी का हो गया है और उसकी अब नहीं चलेगी तो दूसरी ओर भाभी को लगता हैै कि ननद केे कारण पति से उसका सम्बन्ध खराब होगा क्योंकि वह परिवार में उसके खिलाफ कान भरेेगी। कई बार ननदों को अनावश्यक रूप से भाभी की हर चीज पर अधिकार और स्पेशल ट्रीटमेंट चाहिए...तो कभी भाभी चाहती हैै कि घर अब उसका हैै और उसकी बात मानी जानी चााहिए। यह वर्चस्व का मामला है और इन दो या तीन रिश्तों के बीच में पिसता कई बार पुरुष है। आपसी मतभेद हैं और यही वजह है कि वे खटकती हैं....खटकती हैं इसलिए गाहे बगाहे तानों का आदान प्रदान होता है। जिन बातों के लिए ननदों को ताने सुनने पड़ते हैं, बेटियों को वही सुविधाएँ और प्यार मिलता है क्योंकि तब वह स्त्री एक माँ होती है जो बेटियों के लिए किसी से भी लड़ सकती है। दूसरी ओर अगर ननद आत्मनिर्भर हुई तो अब वह किसी के पीछे घूमना नहीं चाहती। कल तक जो भाभी के पीछे घूमती थी, साड़ी और लिपस्टिक के मैचिंग तैयार करती थी, हर बात साझा करती थी...वह एक दूरी बनाती है क्योंकि अनचाहापन उसे गवारा नहीं होता...अब वह चुपचाप सुनती नहीं बल्कि जवाब देती है...धीरे धीरे दीवार बनती है और फिर जो होता है, वह महज औपचारिकता होती है। एक समय आता है जब इन छोटी छोटी बातों के लिए दोनों को एक दूसरे की जरूरत नहीं पड़ती और दीवार कब खाई बन जाती है..पता ही नहीं चलता।   जो महिलाएँ अपने पति और परिवार के कहने पर ननद का बाहर आना जाना बन्द करवाना चाहती हैं, वहीं अपनी बेटियों के लिए रात भर जगती हैं और हर पल अपनी ममता का घेरा उसे देती हैं..जिन परिधानों के लिए ननदों को ताने सुनने पड़ते हैं, वही परिधान बेटियाँ पहनती हैं क्योंकि युग बदला है और अगर नयी पीढ़ी को आगे लाना है, बेटियों को उन्मुक्त वातावरण देना है तो नए जमाने की ननदें सारी बातें भूलकर इसे स्वीकार करती हैं...मगर ये त्याग और समझ कहीं भी महत्व नहीं पातीं...क्या ये अन्याय नहीं है? खासकर नौकरी के सिलसिले में बाहर रहने वाली महिलाओं के लिए घर से जुड़ा न होना उनकी तमाम सफलताओं पर पानी फेर देता है। आप चाहे कितने भी आधुनिक हों या रिश्तों में आपसी सम्मान रखते हों मगर आपकी सफलता एक गोल रोटी और सफाई के आगे हार मानती है। अनायास ही महसूस होता है कि आप यहाँ क्यों और किसलिए है। आखिर क्यों शादी के बाद सम्बन्धों में दूरी आती है और ऐसा समय आता है जब मायका ही छूट जाता है, क्यों एक स्त्री दूसरी स्त्री को सम्बन्धों से परे सिर्फ स्त्री होने के नाते समझ नहीं सकती और सम्मान नहीं दे सकती। समय बदला जरूर है मगर इतना सकारात्मक बदलाव अभी नहीं हुआ है.. सम्बन्धों का त्रिकोण सिर्फ स्त्री और पुरुषों के सम्बन्धों में नहीं होता, असुरक्षा सिर्फ पति और पत्नी के रिश्तों में नहीं होती बल्कि इन बाईप्रोडक्ट रिश्तों में भी होती है जिनका जिक्र हमारी संस्कृति में है मगर उसकी सकारात्मक पहचान कहीं नहीं है...जरा सोचिए कि समझ और स्वीकृति मिले तो भारतीय पारिवारिक व्यवस्था कितनी मजबूत होगी...जरूरी है कि इन बाईप्रोडक्ट रिश्तों को भी वही जगह मिले....स्त्री को स्त्री की समझ होगी और एक दूसरे का साथ मिलेगा तो सशक्तीकरण होगा वरना एक दूसरे की जड़ें खोदते हुए स्त्रियाँ अपनी जड़ें खोद रही हैं और खोदती रहेंगी और यही पितृसत्तात्मक समाज चाहता भी है।

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