...माँ भी अंततः एक स्त्री और मनुष्य है और उसे देवी मत बनाइए



हर साल की तरह इस बार भी मदर्स डे आ गया है। सोशल मीडिया पर पहले से ही माँ की जिन्दगी को आसान बनाने वाली चीजों के विज्ञापन छा चुके हैं, रेस्तराँ उसके लिए खास तौर पर तैयारी कर रहे हैं। कई अग्रेसित संदेश मेरे मोबाइल पर आने को तत्पर हैं.....ऐसे दिन....बहुत से हैं और जब जश्न मनता है तो लगता है कि सारी दुनिया तो सिर्फ माँ के इर्द – गिर्द ही घूमती है। जरा खुद से सवाल करिए तो क्या ये प्यार तब भी रहेगा...जब माँ अपनी इच्छा जाहिर करेगी या अपने हिसाब से एक बार अपनी जिन्दगी जीना चाहेगी ? मेरी समझ में नहीं आता है कि ये निःस्वार्थ प्यार होता क्या है....सच तो यह है कि हम बगैर स्वार्थ के किसी को न चाह सकते हैं और न उसके बारे में सोच सकते हैं....एक दिन या कुछ महीने माँ आपका नाश्ता न बनाए, आपके कपड़े न धोए, बच्चों को स्कूल से न लाने जाए....एक दिन आपकी जगह अपने हिसाब से अपने कपड़े खरीदे.....आप क्या तब भी उतना प्यार कर सकेंगे माँ को? कई बार बच्चों को भी ये तय करते मैंने देखा है कि उसकी माँ क्या पहने और क्या न पहने...स्लीवलेस ब्लाउज न पहने क्योंकि बेटे को पसन्द नहीं है...बेटी को ससुराल में अपना मान बढ़ाना है इसलिए उसे माँ का रानीहार चाहिए जो कि माँ को उसकी माँ से मिली धरोहर है, बेटी को दिया तो बहू को क्यों न मिले....इसलिए दूसरा और अंतिम जेवर तुड़वा दिया...माँ के पास आपने बचा क्या रहने दिया है जो सिर्फ उसका हो...और आप एक दिन सोशल मीडिया पर कसीदे पढ़कर सोचते हैं कि माँ खुश हो गयी। अपने दोस्तों के साथ मस्ती करने वाले बच्चों ने क्या कभी सोचा होगा कि माँ की सहेलियाँ कितनी पीछे छूट गयी हैं...माँ अपनी माँ के आँगन की छाँव को तरस गयी मगर अपने मुँह से एक आवाज नहीं निकालेगी...पिता के दोस्तों की महफिल फिर भी हर रविवार को जमती है मगर माँ तो सहेलियों के नाम भी भूल गयी है। बेटी अपने बच्चों में व्यस्त है इसलिए अपनी माँ के पास नहीं आ सकती...क्या बेटों के पास इस तरह की कोई विवशता है?  फिर ये ढोंग किसलिए.....दिमाग से सोचने वाली औरतों को आपकी संस्कृति में खलनायिका बनाया गया है और अपने लिए आवाज तोड़ने वाली औरतें घर तोड़ने वाली हैं....अगर आपकी माँ या आपकी बहन, बेटी या पत्नी घर में अपने हिसाब से रहें तो क्या आप स्वीकार करेंगे...अगर नहीं तो यह ढोंग क्यों?? माँ खुद को भूल कर, अपनी दुनिया लुटाकर आपका जीवन सँवारती है इसलिए आप उसे प्यार करते हैं...प्यार में खालिस स्वार्थ है तो फिर यह महिमामण्डन क्यों?  कई बार तो आप अपनी बहुओं, बेटियों और पत्नियों पर मातृत्व थोपते हैं....समाज का हवाला देकर और रिश्तेदारों के बच्चों के चेहरे दिखाकर...अगर वह तैयार नहीं होती तो न जाने उस पर कितने लाँछन लगते हैं और खुद माएँ भी ऐसा करने से पीछे नहीं हटती। उनको पोता चाहिए, नाती चाहिए क्योंकि फलाने के घर में शर्मा जी की बहू को 2 बच्चे हो गए और दोनों लड़के हैं इसलिए अब तो यह खानदान की इज्जत का सवाल है? लड़की हुई तो चल जाएगा मगर थाली तो पोता होने पर ही बजेगी....कई बार शुभ अवसरों पर संतानविहीन स्त्री का चेहरा देखना भी आपको अशुभ लगता है...क्या कभी बेटा या संतानविहीन पुरुष अशुभ और अपशगुन वाला लगा है? क्या आपके समाज ने कभी बेटों का सिर्फ इसलिए बहिष्कार किया है कि वे संतानहीन हैं। जब प्रजनन में दोनों की भागीदारी है तो संतानहीनता सिर्फ और सिर्फ स्त्री के सिर पर आप क्यों मढ़ते आ रहे हैं? क्यों नहीं पुरुषों के सिर पर परिवार नियोजन की जिम्मेदारी है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मातृत्व को आपने स्त्री को पीछे धकेलने का माध्यम बना दिया है क्योंकि मातृत्व से जुड़ी तमाम जिम्मेदारियाँ अब भी स्त्री के नाम ही हैं। एक अच्छे – खासे पद पर काम कर रही स्त्री को अपना काम सिर्फ इसलिए छोड़ना पड़ता है या फिर इसलिए ब्रेक लेना पड़ता है क्योंकि उसका बच्चा छोटा है और परवरिश में अच्छे – बुरे की तमाम जिम्मेदारी उसको लेनी है। बेटा अगर बहू के लिए कुछ करता भी है तो वह आपको फूटी आँखों नहीं भाता। आज तक माँओं ने अपने बेटों को कहा है कि बहू के लिए उसका बेटा घर बैठे....बहू को कभी इशारे से तो कभी सीधे आपने समझा दिया है कि आप माँ हैं और अपने बेटे को दुःखी नहीं देख सकतीं। जब किसी घर में बहू को बेटे या बेटी की तरह आप प्यार नहीं दे सकते, सम्मान नहीं दे सकते तो आपको उम्मीद क्यों है कि वह आपके उस घर को अपना समझे जहाँ उसके लिए कोई जगह ही नहीं है। अगर बेटे ने बहू को अधिक तवज्जो दे दी तो लगता है कि बेटा हाथ से छूट गया और जोरू का गुलाम हो गया मगर दामाद से उम्मीद यह है कि वह आपकी बेटी को उसकी माँ से अधिक प्यार दे। बेटे ने आपकी मर्जी के बगैर शादी की तो आप या तो उससे रिश्ता ही तोड़ लेती हैं या फिर उसका जीना हराम कर देती हैं। लड़कियों पर तानों की बरसात करने वाली महिलाएँ ही होती हैं....दहेज के लिए दूसरों के घरों की बहुओं से अपने बहू की तुलना कर हर बात पर अपनी बहू को नीचा दिखाने वाली भी माएँ ही होती हैं। बेटे की हर बुराई को ढकने वाली ही कोई माँ ही होती है, बेटे की थाली में बेटी और बहू की थाली से अधिक घी डालने वाली भी कोई माँ ही होती है। आपके ताने हर दिन लड़कियों को मारते हैं और एक दिन वह या तो फाँसी लगा लेती है या जहर खा लेती है। लीजिए...दहेज के बाजार में खड़ा करने के लिए आपने बेटे को एक बार फिर खड़ा कर दिया और आपको बेटे के लिए खरीददार भी मिल जाएँगे....लाखों रुपए नकद, फ्रिज, टीवी, वॉशिंग मशीन, गाड़ी...घर भर गया...एक और लक्ष्मी को मारने के लिए ले आयीं...इतने में बेटी की ससुराल से फोन आता है तो आप उसके ससुरालवालों को धमकी देती हैं कि आपकी बेटी को हाथ लगाया तो आप उनको जिन्दा नहीं छोड़ेंगी। आपको यह ध्यान रहता है कि बेटा खाए और अच्छी तरह खाए मगर आपने अपनी बहू से कब पूछा है कि वह भी अच्छी तरह खाए और अपने पास बैठाकर कब खिलाया है? बेटियाँ और बहुएँ जब दफ्तर से थकी – हारी लौटती हैं तो आपको कभी याद नहीं आता कि वह भी बेटे की तरह थकी है तो उसका ख्याल भी आपको बेटे की तरह रखना चाहिए...ममता भी समाज का मुँह देखकर की जाती है और आप कहते हैं कि माँ के लिए सब बराबर हैं...ये बात हजम नहीं होती। आपने हमेशा ठंडी रोटी खायी और बेटी को भी यही सिखाया है कि सबके खाने के बाद ही वह खाए....फिर भले ही उसे भूखा रहना पड़े....अपना ख्याल रखना इतना बड़ा पाप क्यों है औरतों के लिए और माँ होने का मतलब अपनी हर छोटी इच्छा को मारना क्यों है...माँ होना जिन्दगी का हिस्सा है...माँ होना ही स्त्री की जिन्दगी नहीं है...माँ भी अंततः एक स्त्री और मनुष्य है और उसे देवी मत बनाइए...वह हमेशा ममता की मूरत नहीं होती...उसकी अपनी इच्छा है, संवेदना है, अच्छाई है. बुराई है...और उसे इसी रूप में स्वीकार करिए। मनुष्य के रूप में उसे रहने दीजिए और तभी वह कुँठा से मुक्त समाज आपको दे सकेगी।

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