प्रेम से बड़ा वैराग्य नहीं..संन्यासी से अच्छा कोई शासक नहीं

अभी हाल ही में युवाओं के बीच जाने का मौका मिला। परिचर्चा थी एक किताब पर और वह किताब प्रेम पर आधारित थी, रिश्तों की उलझन पर आधारित थी। किताब पर चर्चा के बहाने बात प्रेम पर भी हुई। युवाओं ने जब अपनी बात रखी तो प्रेम पर भी रखी और रिश्तों को लेकर एक ऐसी धारणा सामने आई जहां प्रेम की परिभाषा पर आज की कॉरपोरेट संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुआ। कुछ ऐसी बातें जहां विशुद्ध भावुकता और कुछ ऐसी बातें जहां पर प्रेम और संबंध स्पष्ट रूप से एक डील से अधिक कुछ नहीं लग रहा था । ऐसे में चाहे साहित्य हो या सिनेमा हो, वहां प्रेम को या तो इतना व्यावहारिक बना दिया जा रहा है कि उसमें संवेदना ही शेष न रही है या फिर यौन संबंधों का इतनी अधिकता है कि प्रेम के अन्य सभी स्वरूप दम तोड़ रहे हैं। जरूरी है कि अब इस पर बात की जाए। सबसे मजेदार बात यह है कि जब आप प्रेम की बात करते हैं तो लोग इसकी उम्मीद ऐसे लोगों से की जाती है जिनके पास प्रेमी - प्रेमिका हों या वे पति - पत्नी हो......प्रेम किया है क्या ..का मतलब ही मान लिया जाता है कि क्या आपके कभी अफेयर रहे हैं .....विचित्र किन्तु सत्य... हम यह क्यों नहीं ...