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अकेला व्यक्ति भी होता मनुष्य ही है... प्रमाणपत्र नहीं चाहिए उसे

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मनुष्य का जीवन विचित्र होता है। हम सब अपनी असुरक्षाओं से घिरे डरे हुए लोग हैं। समाज का चलन कुछ ऐसा है और यह सदियों से ऐसा ही है कि यह स्त्री और पुरुष को सिर्फ स्त्री और पुरुष के रूप में ही देख पाता है। उसे यह समझ ही नहीं आता दोनो ही मनुष्य के रूप में एक स्वतंत्र इकाई हैं जिनका अपना एक विवेक और अस्तित्व है। कई बार लगता है कि हमने शरीर और यौनधर्मिता को इस अतिरेक के साथ सहेज कर रखा है कि आप सृष्टि देखिए या धर्म, पुराण देखिए या इतिहास, साहित्य देखिए या कला..संबंधों का दायरा सिकुड़कर रह गया है। समाज ही क्यों, खुद मनुष्य भी अपने संबंधों एक विस्तृत परिप्रेक्ष्य में देखना भूल गया है। प्रेम, दाम्पत्य, देह, वासना और स्वार्थ से घिरी इस दुनिया में संबंधों के समीकरण ऐसे उलझे हुए हैं कि सम्बन्धों की निश्चल शुचिता लुप्त प्राय हो गयी है। बगैर किसी संबंध के दो विपरीत लिंगी मनुष्य एक दूसरे को समझ सकते हैं, अब तो यह कल्पना भी यूटोपिया ही है। ईश्वर की पूजा करने वाले खुद ईश्वर को ही नहीं छोड़ते इसलिए अपने चरित्र की शुचिता को अपने इर्द-गिर्द लपेटते हुए थक जाते हैं और जीवन भर एकाकीपन का बोझ ढोते चलते हैं।