वह बहुत खटती है, वह सिर झुकाए रखती है, वह बहुत अच्छी है
औरतों की भोर तड़के ही होती है, इस भोर में उनके लिए सुबह एक कप चाय नहीं
लिखी होती, लिखा होता है तो गैस का चूल्हा, सफाई, पति का नाश्ता, बच्चों का टिफिन
और कामकाजी हुई तो अपने हिस्से का लंच। औरतें खुद को बाँटती नहीं हैं, अपनी
जिम्मेदारियों को साझा नहीं करना चाहतीं। उनकी उम्मीदें बेटियों से जुड़ी होती
हैं, ननदों से भी थोड़े संकोच से जुड़ी होती हैं मगर देवर, पति, बेटा या घर के
बड़े इस दायरे में नहीं आते। अपने हिस्से की खुशियों को त्यागना उन्होंने जन्म से
सीखा है, अपनी माँ को ऐसा करते हुए देखा है और अपनी बेटियों को भी वे ऐसा ही कुछ
सिखाना चाहती हैं। आजकल बहुत सी माएँ बेटियों के मामले में ऐसा नहीं करतीं तो कहीं
न कहीं, यह व्यवस्था के प्रति उनका विद्रोह ही है, वे बेटियों को एक बेहतर जिन्दगी
देना चाहती हैं। बेटियों को ससुराल भेजना है इसलिए न चाहते हुए भी उनको ऐसा करना
पड़ता है। हमारे समाज में औरतों के अच्छा कहलाने के लिए कुछ नियम तय हैं....वह
बहुत खटे, सिर झुकाए रखे, जवाब नहीं दे और सवाल नहीं करे। समाज को गूँगी औरतें
पसन्द हैं। हमारी फिल्में भी यही सिखाती हैं, क्या आपने बॉलीवुड की किसी माँ को यह
कहते सुना है कि बेटा बहू के लिए नौकरी छोड़ दे या फिर उसके लिए नाश्ता बना दे? फिल्मों में तो बेटा जब भी बहू लाने की बात करता
है तो उसका पहला वाक्य होता है कि वह तेरा काम कर देगी, आराम देगी। सवाल यह है कि
माँ ने बेटे को पाला तो आराम देने की उम्मीद और कुछ हद तक लालच देकर शादी की कोशिश
क्यों? ये अच्छी बात है कि पति अपनी पत्नी का हाथ बँटाते
हैं, बेटे भी माँ के साथ खड़े हो रहे हैं मगर क्या देवर या जेठ भाभी या घर की बहू
का हाथ बँटाते हैं? ये सवाल करना ही घर
में कलह का कारण बन सकता है। मैंने देखा है कि घर में जेठानी और देवरानी के बीच
कहीं न कहीं ये खाई तो है, देवर अगर भाभियों के साथ काम करें तो सासू माँ और
देवरानी की भृकटि तन जाए। दामाद अगर जरा सी सहायता कर दे तो बेटी का सम्मान घायल
हो जाता है जबकि घर के सदस्यों में इनका भी नाम शामिल है। जब घर सबका है, घर की
सुविधाएँ सबकी है तो जिम्मेदारियाँ शिर्फ घर की बहू की क्यों है? औरतें अपनी
जिम्मेदारियाँ नहीं बाँटना चाहतीं तो कहीं न कहीं इसके पीछे असुरक्षा की भावना भी
है और एकाधिकार की जिद भी। यह एक मनोभाव है जहाँ सब कुछ अकेले, अपने दम पर सम्भालना
उसे संतुष्टि देता है और उसकी जरूरत भी बनता है पर क्या यह समाधान है?
दरअसल, यह
मृगतृष्णा है क्योंकि अगर ऐसा होता तो घर के हर फैसले में उसकी भागीदारी होती, घर
में उसका हिस्सा होता...घर के चक्कर में खुद पर ध्यान नहीं देना, अपनी क्षमता से
बाहर जाकर काम करना और अपनी सेहत पर ध्यान नहीं देना, यह त्याग से अधिक उस प्रेम
का छलावा है जिसमें औरतें जी रही हैं। एक उदाहरण – पत्नी काम करे, नौकरी करे तो
महिलाएँ सशक्त हो रही हैं मगर भाभियाँ स्वावलम्बी होंगी तो यह परिवार की गरिमा के
खिलाफ होगा, या आपके अहं के खिलाफ होगा या यूँ कहें कि कटु सत्य यह है कि यह आपकी
सुविधा के खिलाफ है, जहाँ पत्नी के न रहने पर भी आपको हर सुविधा मिलती है, समय पर
नाश्ता मिलता है। हमारे समाज में बहुओं का झुकना भी अच्छा माना जाता है, विनम्रता
कहते हैं, भले ही बहू गर्भवती हो या सद्द प्रसूता हो, मगर ऑपरेशन के बावजूद हर
किसी के पैर छूना उसके शिष्टाचार में शामिल कर दिया गया है, झुकाने और पैर छुआने
की इतनी जिद, भले ही ऑपरेशन के टांके टूटे या गर्भवती महिला के पेट पर जोर पड़े।
भले ही वह किसी को पहचानती न हो मगर पैर छूने हैं क्योंकि एक दूसरे व्यक्ति को
शिकायत का मौका नहीं देना है। मैं इस
मामले में बेहद बुरी हूँ (अच्छा होने का शौक भी नहीं)। पैर नहीं छूती, संस्कृतिहीन
कहिए मगर मुझे लॉजिक समझ में नहीं आता कि मैं जिसकी शक्ल तक नहीं देखना चाहती, आदर
को दिखाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए, एक नमस्कार काफी है, वरना पैर छूने पर भी दिल
में सम्मान न हो तो झुकना किसी काम का नहीं है। जिसे सम्मान नहीं देना, जो मुझे
समझ नहीं सके, उसके सामने क्यों झुकूँ और झुकाने की यह जिद क्यों। अगर आप अपनी इच्छा जब किसी के पैर छूते हैं तो उसमें आदर होता है क्योंकि आप उस व्यक्ति का सम्मान अपने दिल से करते हैं मगर जब आप निभाने के चक्कर में किसी के आगे झुकते हैं तो आप उस वक्त खुद को धोखा ही नहीं दे रहे होते बल्कि उस व्यक्ति को भुलावे में रखते हैं। किसी भी व्यक्ति का परिचय उसके जन्म, जाति और पद से अधिक उसके कर्म होते हैं। अगर जन्म और जाति या पद के आधार पर सम्मान चाहते हैं तो यह व्यक्ति के तौर पर न तो आपका सम्मान है और न ही इसमें आपकी गरिमा झलकती है क्योंकि जो बड़ा है, वह समानता सिखाता है, झुकना नहीं। झुकाना आपके अहं का प्रतीक है। यह बीमारी
गुरुओं में भी है (मैं इसे रोग ही समझती हूँ) और बहुत ज्यादा है जो कि कई बार
क्रूरता की हद तक जाता है। मुझे फिल्म प्राक्तन याद आ रही है जहाँ ऋतुपर्णा के
किरदार को इस पैर छुआई के चक्कर में अपना बच्चा खोना पड़ता है। ये औरतों को खटाने
और झुकाने वाली संस्कृति बेहद क्रूर संस्कृति है, इसे जब तक आप खत्म नहीं करते,
भूल जाइए कि कुछ अच्छा होगा। जिम्मेदारियाँ बाँटने से आप अपने लिए वक्त निकालेंगी
और आने वाली पीढ़ी की राह आसान करेंगी क्योंकि भविष्य में बेटे और बहू, बेटी और
दामाद, देवरानी और देवर, जेठानी और जेठ से लेकर सास और ससुर और माँ और पिता, ननद
और ननदोई, साली और सलहज, भाई और भाभी.....इन सारे रिश्तों और बचे हुए रिश्तों के
बीच एक रिश्ता मजबूत करने के लिए यह जरूरी है। यह आपको ही नहीं आपके परिवार को एक
सूत्र में बाँधेगा। झुकाने की जिद छोड़ेंगे तो बड़प्पन सामने आएगा और बड़ा वही
होता है जिसमें बड़प्पन होता है। अच्छा लगने की परिभाषा बदलिए और यह औरतें ही कर
सकती हैं क्योंकि आने वाली पीढ़ी भी उनको ही तैयार करनी है।
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