उत्पीड़न पुरुष ही नहीं महिलाएँ भी कर रही हैं, विरोध और कार्रवाई में भी संतुलन लाइए
एतराज फिल्म क्या
आपको याद है? अगर याद है तो शायद आपको वह मुद्दा भी याद होगा
जो फिल्म में उठाया गया था। एक महिला बॉस द्वारा अपने अधीनस्थ कर्मचारी पर दबाव
डालकर यौन उत्पीड़न, प्रियंका चोपड़ा को महिला बॉस के रूप में खूब सराहा गया था
मगर बहुत से लोग ऐसे होंगे जो पुरुष उत्पीड़न के मुद्दे को मुद्दा मानते ही नहीं हैं। बहुत से
पुरुष ऐसे हैं जो इन परिस्थितियों से गुजर चुके हैं या गुजर रहे हैं मगर वे बात
करने को तैयार नहीं हैं क्योंकि उनको लगता है कि उनका मजाक उड़ेगा या फिर औरत से
दब गए वाली मानसिकता उनका जीना दूभर कर देगी। महिला हूँ, महिलाओं पर लिखती हूँ मगर
इसके साथ ही मुझे यह मानने में कोई परहेज नहीं है कि हर महिला गाय नहीं हैं, कुछ
ऐसी हैं जो लोमड़ी की तरह लड़कों का शिकार करती हैं और अपनी हवस का शिकार बनाती
हैं (आपने सही पढ़ा, वे पुरुषों खासकर बच्चों से भी दुष्कर्म करने से पीछे नहीं
हटतीं)। शर्म के साथ मुझे यह स्वीकार करना पड़ रहा है कि घरेलू हिंसा अधिनियम का
दुरुपोग हो रहा है और इसका खामियाजा उन औरतों को भोगना पड़ रहा है जिनकी शिकायतों
में सच था। बलात्कार की धमकी हथियार बन गयी है, छेड़छाड़ का आरोप लगा देना सहज हो
गया है जो कभी तलाक पाने के लिए तो कभी सम्पत्ति पाने के लिए तो कभी मनचाहा मर्द
पाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। एतराज फिल्म में नायक की भूमिका निभाने वाले
अक्षय कुमार ने स्वीकार किया कि उनको बचपन में गलत तरीके से छुआ गया है।
एक
लिफ्टमैन ने उनको गलत तरीके से छुआ। अनचाहा स्पर्श दंश ही होता है, चाहे वह महिला
का हो या पुरुष का। जिस तरह महिलाओं की मर्जी के बगैर कोई छुए तो वह गलत है और वह
यौन उत्पीड़न है, उसी तरह जब आप किसी लड़के को या पुरुष को छूती हैं, तो वह यौन
उत्पीड़न ही है। जिस तरह लड़के पीछा करते हैं तो वह अपराध है, उसी तरह आप किसी
पुरुष की इच्छा के बगैर उसे परेशान कर रही हैं तो वह भी अपराध ही है। आप मानिए या
न मानिए, हमारे संविधान में कानूनन महिलाओं को अधिकार अधिक मिले हैं, बगैर पड़ताल
के गिरफ्तारियाँ होती हैं और उसमें कई बेकसूर पुरुष फँसते हैं,उनकी नौकरी चली जाती
है, उनका चरित्र हनन होता है, पूरी जिन्दगी तबाह हो जाती है। मुझे आश्चर्य है कि
हमारे लेखन में पुरुष उत्पीड़न का जिक्र न के बराबर क्यों हैं या उसे लेकर चटखारे
लेकर क्यों लिखा जाता रहा है? हाल ही में कोलकाता
में नशे में धुत एक महिला ने पुलिसकर्मी को जबरन चूम लिया था, ये भी एक अपराध ही
है क्योंकि यह उस पुलिसकर्मी की इच्छा के खिलाफ ही हुआ था, इसे इतने हल्के से
क्यों लिया जा रहा है, मेरी समझ के बाहर है? क्या किसी महिला के
साथ पुलिसकर्मी ने इस तरह का बर्ताव किया होता तो क्या आप खामोश रहते? 26 जुलाई
को देर रात एक औरत शराब में धुत होकर गाड़ी चला रही थी। उसके साथ गाड़ी में उसका
पति और एक और औरत थी. गाड़ी चिंगड़ीहाटा मोड़ पर डिवाइडर से टकरा गई। मौके पर एक
पुलिसवाला आया तो औरत ने उसे गले लगाना और ज़बरदस्ती किस करना शुरू कर दिया।
दिक्कत यह है कि पुरुषों की शिकायतों के लिए कोई व्यवस्था ही नहीं है, कानून में
संतुलन होना जरूरी है खासकर ऐसी स्थिति में जब महिलाओं के लिए बने कानून का इस कदर
दुरुपयोग हो रहा है। हम ये नहीं कहते कि आप इन कानूनों को खत्म करिए मगर इसके
समानान्तर पुरुषों की सुरक्षा के लिए, उनके विकास के लिए एक आयोग तो हो, जहाँ वे
अपनी बात कह सकें, लैंगिक समानता के लिए महिलाओं और पुरुषों को साथ मिलकर काम करना
होगा। इससे भी शर्मशार करने वाली घटना पंजाब से आई हैं। पंजाब के पटियाला में सरकारी
इंटर कॉलेज की प्रिंसिपल अपने ही स्कूल में पढ़ने वाले 12वीं के छात्र से जबरन शारीरिक संबंध बनाती थी।
छात्र के परिजनों की शिकायत के बाद से आरोपी प्रिंसिपल फरार है।
मीडिया रिपोर्ट्स के
मुताबिक, मामला राजपुरा क्षेत्र के एक गांव का है। पीड़ित
छात्र ने पुलिस को बताया कि स्कूल की प्रिंसिपल ने एक बार उसे अपने घर बुलाया.
वहां पर उन्होंने जबरन उसके साथ शारीरिक संबंध बनाए। इसके बाद वह अक्सर उसके साथ छेड़छाड़ करने
लगी. वह उसे गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी देकर संबंध बनाती थी।
पीड़ित ने बताया कि
एक बार उसने संबंध बनाने से इनकार किया तो प्रिंसिपल ने स्कूल से उसका नाम काट
दिया और फिर से नाम लिखने के लिए शारीरिक संबंध बनाने की शर्त रखी। थक-हारकर छात्र
ने परिजनों को इसके बारे में बताया। पुलिस के साथ-साथ शिक्षा विभाग ने भी मामले की
जांच शुरू कर दी है। विदेशों में इस तरह की घटनाएँ होती हैं मगर भारत में इस तरह
की घटनाएँ होती हैं। अब आँखों देखी बात बताती हूँ, सेंट्रल से दफ्तर जाने के लिए
बस पकड़नी थी, एक बस रुकी, उसमें से एक महिला टिकट के पूरे पैसे दिए बगैर उतरी थी,
कन्डक्टर ने उसे टिकट देने से मना कर दिया, उस दिन कोई रैली भी थी जिस वजह से बस
का रूट बदल दिया गया था। अब यह समझने वाली बात है कि यह परिवर्तन यातायात व्यवस्था
को ध्यान में रखकर किया गया है मगर हद तो तब हो गयी जब वह महिला पूरे पैसे नहीं
देने के बावजूद कन्डक्टर से उलझ पड़ी और कॉलर तक पकड़ लिया। कन्डक्टर ने किसी तरह
खुद को छुड़ाया और बस पर चढ़ा तो उसका बैग उस महिला ने पकड़ लिया। बस चल पड़ी थी,
कोई हादसा भी हो सकता था, कन्डक्टर की जान भी जा सकती थी, अब ऐसी घटनाओं को देखकर
आप कहाँ से महिला को हमेशा पीड़िता कहेंगे? उत्पीड़न की घटनाओं
में जेंडर देखा जाना ही गलत है बल्कि इसे व्यक्ति के तौर पर लेने की जरूरत है।
महिलाएँ अगर जीवनशैली को आलीशान बनाने के चक्कर में पति को ताने सुनाती हैं या
बेरोजगार बेटे हमेशा बरसती हैं तो यह भी उत्पीड़न है। बेटी अगर ससुराल में अपनी
नाक रखने के लिए पिता पर दहेज देने का दबाव बनाती है या भाई के सस्ते उपहार देने
पर ताने मारती है तो आप इसे किसी भी प्रकार से सही नहीं ठहरा सकते। स्कूलों में
शारीरिक उत्पीड़न के अधिकतर मामलों में महिला शिक्षिकाएँ ही दोषी पायी गयी हैं।
मुझे आज भी गृह शिक्षिका द्वारा साढ़े 3 साल के बच्चे को पीटने का वीडियो देखकर
सिहरन हो जाती है। ताजा मामला ओडिशा का है जहाँ के बानरपाल ब्लॉक अंतर्गत अपर प्राइमरी स्कूल का है जहां एक महिला
टीचर संयुक्ता मांझी ने अपने विद्यार्थियों से हाथ में छड़ी हाथ में लिए स्कूटी
साफ कराती दिखीं। आप मानिए या न मानिए मगर सच तो यह है कि महिलाओं को सुरक्षा
प्रदान करने तथा उनके अधिकारों के संरक्षण हेतु बनाये गए कठोर कानूनों के दुरुपयोग
ने पुरुषों और उनके परिजनों का जीवन नारकीय बना दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी
स्वीकार किया है कि स्त्री-हितैषी कानूनों का उपयोग पुरुषों के विरुद्ध घातक
हथियार की तरह किया जा रहा है, दहेज अधिनियम 498-ए उनमें से एक है। इस कानून के दुरुपयोग के
मामलों में वृद्धि के कारण सर्वोच्च न्यायालय ने भी धारा 498-ए में संशोधन की आवश्यकता जतलायी थी और अब पुनः
कहा है कि दहेज प्रताड़ना के मामलों में तत्काल गिरफ्तारी न की जाए। पहले आरोपों
की पुष्टि की जाए, फिर कार्रवाई की जाए।
हम बता दें कि वर्ष 1984 में कानून में दहेज प्रताड़ना की धारा 498-ए और दहेज हत्या की धारा 304-बी जोड़ी गई। इसका उद्देश्य स्त्रियों को राहत
पहुंचाना था मगर इस कानून का दुरुपयोग अधिक हो रहा है। वर्ष 2012 में केवल मध्यप्रदेश में दहेज प्रताड़ना के
सर्वाधिक 3988 केस दर्ज किए गए। जिनमें से सिर्फ 697 में सजा हुई, बाकी मामले झूठे
साबित हुए। झूठे दहेज-प्रकरण या हिंसा के आरोप में पुरुषों को फंसा देना स्त्रियों
के लिए मामूली बात है। कुछ कानून पुरुषों के लिए ऐसी मुसीबत बन गए हैं कि अकेले
मध्यप्रदेश की संस्कृतिधानी जबलपुर में विगत पांच वर्षों में पत्नियों द्वारा दर्ज
कराई गई शिकायतों के बाद 4500
पति ऐसे फरार हुए कि अब तक लापता हैं। दरअसल
पत्नियों द्वारा थाने में शिकायत दर्ज करवाने के बाद पतियों पर गिरफ्तारी के अलावा
जिन मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है उनसे बचने के लिए घर से भाग जाने या आत्महत्या
के अलावा अन्य कोई विकल्प उन्हें नहीं सूझता। सन 2012 में 1554 पुरुषों ने केवल मध्यप्रदेश में ही, पत्नी से विवाद के कारण आत्महत्या कर ली। हाल ही में
उत्तर प्रदेश के आई.जी. अमिताभ ठाकुर ने हाई कोर्ट में याचिका दायर कर ‘पुरुष आयोग’ बनाने की मांग की
है। आई.जी. ने कहा कि ‘समाज के बदलते स्वरूप में आज कई क्षेत्रों में
महिलाएं पुरुषों के मुकाबले सशक्त हैं। ऐसी महिलाओं द्वारा प्रभाव और कानूनों का
उपयोग कर उत्पीड़न की बातें सामने आने लगी हैं। अतएव कोर्ट राष्ट्रीय और राज्य
स्तर पर पुरुष-आयोग के गठन का निर्देश दे।’ सचमुच, यह विडम्बना ही है कि सारे कानून स्त्री के
पैरोकार हैं जबकि स्त्री की हरकतों से परेशान होने वाले पुरुषों की संख्या भी कम
नहीं।
वक्त आ गया है कि
हिंसा और यौन उत्पीड़न की घटनाओं को किसी लिंग विशेष से जोड़ने की जगह व्यक्ति के
स्तर पर लिया जाए और दोनों ही मामलों में पड़ताल के बाद सख्त कारर्वाई की जाए। अब
सेल्फी विद डॉटर से काम नहीं चलेगा, सन यानी पुरुष संतान को भी शामिल कीजिए वरना
यह असंतुलन कम नहीं होने वाला है क्योंकि न तो पुरुष अब पहले की तरह राक्षस हैं और
न ही महिलाएँ, पहले की तरह देवी इसलिए कानून में समानता लानी होगी।
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