घर, धर्म, राजनीति : मर्दों के साम्राज्य में मर्दों सी वर्चस्ववादी औरतें
बाबा,
मौलवी और आश्रम के साथ औरतों का बड़ा तगड़ा कनेक्शन होता है और राजनीति से जब यह जुड़ जाता है
तो यह और भी खतरनाक हो जाता है। धर्म के नाम पर औरतों का शोषण भी होता है और इस शोषण में बलात्कारियों का
साथ भी औरतें ही देती हैं कभी शिष्या बनकर तो कभी साध्वी बनकर। ये वो धर्मभीरु
औरतें हैं जो घर की सलामती के नाम पर तो कभी पति और बच्चों की लम्बी उम्र के नाम
पर अपने घर की बेटियों को बलि चढ़ाने से बाज नहीं आतीं और किसी न किसी बाबा या
किसी और बलात्कारी के आगे घर की इज्जत बचाने के लिए बेटी की इज्जत को तमाशा बना
देती हैं। अन्दाज बहुत तल्ख है मगर इससे भी तल्ख एहसास हुआ जब टीवी के परदे पर एक
घोषित बलात्कारी को बचाने के लिए शहर को जलाने में औरतें आगे दिखीं।
वे धरने पर
दिखीं और बाबा के दर्शन के नाम पर जो तांडव हुआ, उनमें इन औरतों ने बढ़चढ़ कर
हिस्सा लिया। बाबाओं की हवस के अड्डे पर किसी मासूम की बलि चढ़ाने के लिए बरगलाने
का काम कोई औरत ही करती है जबकि वह खुद उस बाबा की हवस का शिकार हो चुकी होती है
और अपनी यही नियति वह दूसरी लड़कियों की नियति भी बना देती हैं। इस पितृसत्ता को
मजबूत करने में जितनी मेहनत मर्दों ने नहीं की, उससे कहीं ज्यादा मेहनत औरतों ने
की है।
राजनीति के खेल में मर्दों से आगे निकलने के चक्कर में वे खुद को उसी निचले
स्तर तक ले जा रही हैं जहाँ उनको दूसरी औरतों की तकलीफ से कोई फर्क नहीं पड़ता। सही है कि आज राजनीति
में महिलाओं की तादाद बढ़ रही है मगर लाख का सवाल यह है कि राजनीति में महिलाओं की
बढ़ती तादाद का फायदा क्या आम औरतों को मिला है? क्या भारतीय महिला नेत्रियाँ महिलाओं की
बेहतरी के लिए ठोस प्रयास कर रही हैं या फिर उसी वर्चस्ववादी परम्परा का प्रतीक
खुद बन रही हैं। अगर हाँ, तो बलात्कारियों के साथ उनकी तस्वीर कैसे आ गयी।
मायावती
बसपा की सुप्रीमो हैं मगर बलात्कार के आरोपियों को भी टिकट देने में उन्होंने
कंजूसी नहीं की। मायावती से लेकर
वसुन्धरा और सोनिया और ममता तक, सब खामोश हैं। ये ममता ही थीं जिन्होंने खुद महिला
होकर भी राज्य में होने वाली बलात्कार की घटनाओं को साजानो घटना करार दिया था।
पार्क स्ट्रीट सुजैट केस को जहाँ एक महिला आईपीएस अधिकारी दमयंती सेन ने सुलझाया
तो इस बहादुर महिला को तबादले का इनाम देने वाली भी ममता ही थीं। कामदुनी से लेकर
मध्यमग्राम बलात्कारकांड को विरोधियों की साजिश बताने वाली भी ममता ही थीं
जिन्होंने दो बार बलात्कार का शिकार हो चुकी उस बच्ची से मिलने की जहमत नहीं
उठायी। कौन कहता है कि महिला राजनेता आम महिलाओं का साथ देती हैं, ऐसे किस्से
उंगली पर गिनने लायक ही होते हैं। खुद राइटर्स अभियान में मार खाने वाली ममता के
राज में विरोधी दलों की महिला नेताओं को पीटे जाने की घटनाएँ होती हैं। तापसी मलिक से बलात्कार को जीतने के लिए जिस क्रूरता केे साथ भयावह तस्वीेरें दिखाकर तृणमूल काँग्रेस ने भुनाया था, वह कौन सी महिला समर्थक मानसिकता सामने रखता है, यह भी सोचने वाली बात है।
वे तीन
तलाक जैसे मुद्दे पर खामोश रहती हैं और पीड़िताओं को सुरक्षा नहीं मिलतीं। जो
मौलवी औरतों को पैर की जूती बनाकर रखते हैं, वे धर्म के नाम पर उनका साथ देती हैं
और औरतों को दबाने में उनका पूरा साथ देती हैं। इस राज्य में सियासी मतभेद के कारण
एक भी वन स्टॉप सेंटर नहीं खुल पाता जहाँ पीड़ित महिलाओं को सहारा मिल सके। सोनिया
गाँधी राम रहीम मसले से बचकर निकलना चाहती हैं। एक बलात्कारी को सजा होती हैं और
एक भी महिला नेत्री की जुबान नहीं खुलती। खुलेगी कहाँ से, जब राजस्थान की
मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे सिंधिया खुद राम रहीम जैसों के साथ तस्वीरें खिंचवाती
हैं। दलितों का राग अलापने वाली मायावती खामोश हैं। याद कीजिए भाजपा नेता दयाशंकर सिंह की बयानबाजी के बाद देवी मायावती ने स्वाति सिंह के साथ क्या किया था। मायावती के व्यवहार ने ही स्वाति की राजनीति चमका दी। महिलाओं के प्रति उनकी सहानुभूति कहााँ गयी थी, यह भी सोचने वाली बात है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो
के अनुसार 1971 से 2012 तक रेप के मामलों में 880 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। 2010 के मुकाबले 2011 में रेप के मामले 8 प्रतिशत बढ़े हैं। ये आंकड़े
सिर्फ रेप के खिलाफ दर्ज मामलों के हैं। हमारे समाज में बहुत सारे रेप के मामले
सामाजिक व पारिवारिक दबाव, भेदभाव, बदनामी का डर इत्यादि के कारण
दर्ज ही नहीं हो पाते हैं।
कितने ऐसे अपराध हैं जिनके लिए हमारे कानून में सजा का
कोई प्रावधान तक नहीं है। कभी उन्हें मानसिक रुप से तनाव मिलता है तो कभी
पारिवारिक दवाब, कभी उन्हें
सबके सामने अपमानित होना पड़ता है तो कभी बेवजह सजा मिलती है। स्थिति यह
है कि आज के दौर में नव उदारवादी बाजारवादी संस्कृति के हमले से रिश्तों के लिहाज
के सामाजिक मूल्य छिन्न भिन्न हो गए हैं। प्रशासन,समाज सभी इन पर हो रहे अपराधों को
अनदेखी करती है। जब कोई गुनाह होता है सियासी खेल शुरू हो जाता है। पल भर के लिए
राजनीति गरम होती है बयानबाजी होती है और फिर सब ज्यों का त्यों हो जाता है। वसुन्धरा और उमा भारती हिन्दुओं, मायावती दलितों और ममता मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति ही करती आ रही हैं। तीन तलाक पर उनकी खामोशी और उनकेे मंत्री की ललकार भी इसी तुष्टिकरण का नतीजा है।
इन अपराधों
के खिलाफ न तो तत्परता से कोई कदम उठाया जाता हैं और ना ही कड़ी कार्रवाई की जाती
है। इसी का नतीजा है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के जो मामले अदालत तक पहुंचते भी
हैं, उनमें से 4 में से 1 में ही अपराधी को सजा मिल पाती
है। प्रशासन की यही विफलता, महिलाओं व
युवतियों के बीच असुरक्षा फैला रही है।
अभी हाल
में पुरुलिया में जिस साढ़े 3 साल की बच्ची की मौत यौन शोषण के कारण हुई, उसमें भी
उसकी माँ का हाथ था जिसने बच्ची का शोषण करवाया और खुद भी प्रताड़ित किया। दहेज
हत्या जैसे मामलों में महिलाओं की भागीदारी को बताने की जरूरत नहीं है। सच तो यह
है कि राजनीति में कदम रखने के बाद बहुत कम महिलाएँ ऐसी हैं जो सचमुच महिलाओं के
लिए काम करना चाहती हैं या करती हैं। अधिकतर मामलों में वोटबैंक की राजनीति महिला
नेताओं को उतना ही क्रूर बनाती हैं जितने कि पुरुष नेता हो सकती हैं।
इतना ही नहीं
महिलाओं को पीछे धकेलने वाली सोच में भी महिलाओं का योगदान कुछ कम नहीं है। अभी
हाल ही में काँग्रेस नेता रेणुका चौधरी पर बालश्रम जैसे आरोप लगे थे। तमिलनाडु में
जयललिता की हत्या का आरोप भी शशिकला पर ही है और कहने की जरूरत नहीं है कि गद्दी
हथियाने के लिए उन्होंने जो चालें चलीं, वह किसी भी सूरत में पुरुषों से कम नहीं
है। राजनीति में महिलाओं की संख्या की संख्या बढ़ना महिला सशक्तिकरण का प्रतीक
नहीं हो सकता क्योंकि सशक्तिकरण तो तब होगा जब ये महिलाएँ महिलाओं के लिए काम
करेंगी मगर हकीकत इसके उलट है। राम रहीम के साम्राज्य को बढ़ाने में महिलाओं की
तगड़ी भूमिका रही है और जिस हनीप्रीत को उसका वारिस बताया जा रहा है, वह भी एक औरत
ही है।
राधे माँ भी उसी वर्चस्ववादी परम्परा को आगे बढ़ा रही हैं। बाबाओं के शोषण
के साम्राज्य में महिलाओं को धकेलने का काम महिलाओं ने ही किया है। तीन तलाक मामले
में भी इस लड़ाई को छेड़ने वाली महिलाओं की राह महिलाओं ने ही मुश्किल की है। आज
के राजनीतिक और धार्मिक परिदृश्य में महिलाएँ पुरुषों की पितृसत्ता को मजबूत ही
नहीं कर रही हैं बल्कि उसे बेहद क्रूर तरीके से आगे भी बढ़ा रही हैं। महिलाओं के
रूप में पितृसत्ता ही मजबूत हो रही है।
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