ये खामोशी हमें अखरती है
![]() |
पंचकुला में हिंसा की जिम्मेदार.... |
हनीप्रीत गिरफ्तार हो चुकी है और बीएचयू के वीसी छुट्टी पर जा चुके हैं।
कहने को ये दो घटनाएँ हैं मगर इन दोनों घटनाओं में एक बात बेहद सोचने वाली
है....खामोशी या उत्पीड़कों के साथ खड़े होने की प्रवृति। कहने को इस देश में हर
पार्टी में महिलाएँ आ रही हैं मगर ऐसे मसलों पर कुछ न कहना अखरता है। खासकर ऐसी
महिलाएँ जो हर बात पर मुखर रही हैं...विरोध भी यह देखकर किया जा रहा है कि पार्टी
को नुकसान न हो। अगर उत्पीड़न अपनी ही पार्टी की कमजोरी के कारण है तो बस मुँह
नहीं खोलना है और खोलना भी है तो पीड़ितों को ही कठघरे में खड़ा करना है और पिछली
2 -3 घटनाओं को देखें तो यह हर पार्टी की महिला नेताओं ने किया है।
![]() |
कोई कुछ नहीं बोल रहा....क्या ऐसे बढ़ेंगी और पढ़ेंगी लड़कियाँ? |
हमारे घरों में
भी यही हो रहा है और लड़कों की गलतियों पर परदा डालने के लिए औरतें मोर्चा लेकर
निकल पड़ी हैं...एक संवेदनहीनता है...या फिर महिलाओं में महिलाओं के प्रति
भावनात्मक लगाव ही नहीं है तो फिर कुछ भी बदले तो बदले कैसे? आश्चर्यजनक रूप से
महिलाएँ एक दूसरे के लिए कुछ भी महसूस नहीं कर रहीं...एक महिला विरोध करती है तो 4
महिलाएँ उस विरोध को दबाने के लिए खड़ी हो जाती हैं और उस पर रोना यह कि उनको
दबाया जा रहा है। बीएचयू मामले में भी यही हुआ...सुषमा स्वराज, स्मृति ईरानी से
लेकर उमा भारती और मेनका गाँधी तक ने वीसी को लेकर एक शब्द नहीं कहा। न ही गोरखपुर
मामले को लेकर उनमें नाराजगी देखी गयी। सोशल मीडिया पर तो कई बार महिलाएँ ही
उत्पीड़न करने वालों के पक्ष में खड़ी हो जाती हैं। तृणमूल में ही तापस पाल पर
अभद्र और अश्लील टिप्पणी के आरोप लगे, मदन मिला का पियाली कांड सामने आया....ममता
बनर्जी चुप रहीं। यहाँ तक कि तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी उन्होंने
स्वागत नहीं किया और जब उनके मंत्री ने इस फैसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट को ललकारा,
तब भी कुछ नहीं बोलीं। ममता ने पहले भी पार्क स्ट्रीट से लेकर कामदुनी कांड को
शाजानो घटना कहा था....सोनिया ने भी शशि थरूर पर सुनंदा की मौत के बारे में कोई
कार्रवाई नहीं की।
![]() |
सब के सब खामोश हैं....इनसे उम्मीद कैसे की जाए |
सच तो यह है कि आज भारतीय राजनीति में एक भी महिला नेता ऐसी
नहीं है जो पार्टी का रंग देखे बगैर स्त्री के मसलों पर बात करे या फिर विरोध
करे....ममता नहीं बोलतीं तो शशि पाँजा कैसे बोलेंगी? देखा जाए तो महिलाओं के मुद्दे पर महिलाओं के साथ
पुरुष लड़े हैं और ज्यादा लड़े हैं....कहावत चली आ रही है कि महिलाएँ महिलाओं को
देखना नहीं चाहतीं.....पहले मानने को तैयार नहीं थी मगर अब मानना पड़ रहा है
क्योंकि हम आपस में ही छोटे – छोटे मसलों पर बँटे हैं तो बड़ी लड़ाइयाँ कैसे
लड़ेंगे...सोचने वाली बात है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें