संवेदनशील मानवीय परम्पराओं को सहेजिए....आपके साथ दुनिया का भी भला होगा

पद् मावती का जलना उसकी इच्छा नहीं हो सकती थी....ये सामूहिक आत्महत्या है...क्या ये हमारा आदर्श होना चाहिए?
पद्मावती का ट्रेलर सामने आ चुका है। तथ्यों और कल्पना को लेकर बहस अपनी जगह है मगर विरोध मानसिकता को दर्शाता जरूर है। इतिहास पढ़िए या पुराण पढ़िए या कोई कल्पनापरक कहानी ही पढ़िए...स्त्रियों को पसन्द करने के लिए हमारे पास एक ढांचा है...एक खास तरह का फ्रेम है और उस फ्रेम में फिट होने वाली स्त्रियाँ ही हमारा आदर्श बन जाती हैं....हमें लड़ने, जूझने और सवाल उठाने वाली औरतें पसन्द नहीं है....अपनी अस्मिता का सम्मान करने वाली औरतें भी पसन्द नहीं हैं...हमको ऐसी औरतें पसन्द हैं जो परिवार के लिए जीए...उसकी सलामती के लिए भूखी – प्यासी रहे...लाख अन्याय हो...आवाज न करे....दूसरी श्रेणी की मनुष्य बनने की नियति को स्वीकार करे....सम्मान बचाने के लिए आग में कूद जाए...हम उनको लड़ना नहीं सिखाते....हमने कभी लड़कियों को लड़ना नहीं सिखाया..हमने उनको जान देना सिखाया...मारपीट और घरेलू हिंसा को स्वीकार करना सिखाया अगर कोई छेड़े तो उस गली से जाना छोड़ दो...अगर पति हाथ उठाए तो उसे उसका अधिकार समझ लो और अगर शादी के बाद वह जबरदस्ती तुम्हारे साथ संबंध बनाए तो उसे शादी का हिस्सा समझ लो...ये सारी बातें बचपन से ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सीखकर बच्चियाँ स्त्री बनती हैं और इन मूल्यों को आदर्श के नाम पर बचाने में पुरुषों से ज्यादा स्त्री तत्पर है।
अपने नीरस जीवन में रस डालने के लिए साझेदारी की जरूरत है....
सास बहू से व्रत करवाती है..परिवार की सलामती और अपने बेटे को बचाने के लिए...फिर बहू को बेमन से करना पड़े या भूखे रहना पड़े...माएँ बेटियों को भूखा रखवाने में यकीन करती हैं ताकि उनका भाई सलामत रहे। अच्छी बात है मगर क्या आपने कभी अपने बेटों और पतियों को भी कहा कि वे अपनी पत्नियों और बहनों के लिए खाना छोड़ें या दिन भर बगैर पानी का एक घूँट पीये...बाहर रहें। घर में रहने के नाते भूखे रहना आसान है...क्यों भला? क्या घर में स्त्रियाँ काम नहीं करतीं या कभी किया नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि व्रत और त्योहार हमारी असुरक्षा से जुड़े मामले रहे हैं...और हम उन पर ठेस नहीं पहुँचाना चाहते..सच तो यह है कि हमारी परम्पराओं को हमने रूढ़ियों में बदल दिया है। करवा चौथ जैसे व्रत भी प्रेम में लिपटे अहं का मामला लगते हैं जिसमें पति – पत्नी दोनों का अहं संतुष्ट होता है...पति कृतज्ञ है कि उसके लिए कोई भूखा है...एक एहसान मानने वाला भाव है...तो जो पत्नी को संतुष्टि देता है तो दूसरी तरफ पत्नी को पानी पिलाकर पति खुद को बड़ा मान लेता है...यह एक दूसरे के इगो को खुश करने वाला मामला है...इसलिए औरतें करवा चौथ जैसे व्रतों की तरफदारी ज्यादा करती हैं...उत्सव में साझेदारी होनी चाहिए..मगर ऐसा नहीं होता क्योंकि औरतें ही नहीं होने देंगी...यही वो शस्त्र है जिससे वे पुरुष को नियंत्रित कर रही हैं...उस पर तोहफे हैं....बाजार है...सबका हित सध रहा है...ऐसे में विरोध कौन करे...खुद अपने शरीर की जरूरतों को नजरअंदाज कर देवी होने का जो परम एहसास है..जो कहीं न कहीं एक तरह की इमोशनल ब्लैकमेलिंग जैसा ही है। भूखे रहना और देवी बनना आपका हथियार है तो यह पतियों के अहं को संतुष्ट करने का मामला भी है..उस पर सजना – संवरना...16 श्रृंगार करना...वृद्धावस्था में पहुँचकर यौवन के एहसास को जीना...य़ह उनके लिए ऑक्सीजन है....जो उनके नीरस और मोनोटोनस जीवन में रस डालता है...और इसने ही तमाम व्रतों को बचाए रखा है। यहाँ समानता...साझेदारी वाला भाव कहीं नहीं है...और इससे महिलाओं को कोई मतलब नहीं है। 
हमारी परम्परा और मिथकों ने स्त्री को कभी शरीर से ऊपर न तो देखा है और न ही देखना चाहा है...वह सम्पत्ति अधिक है..किसी एक पुरुष की सम्पत्ति....उसकी देह उस एक पुरुष का अहंकार है इसलिए उसके चरित्र को भी ढाला इसी रूप में गया है। हमें दिमाग वाली औरतें पसन्द नहीं हैं...इसलिए हमारे ग्रन्थों में स्त्री का चित्रण ही उसके शरीर से शुरू होता है और वहीं खत्म हो जाता है...इसलिए लोग उसकी देह में आत्मा नहीं देखते और किसी और के पास जाने से पहले उस शरीर का खत्म हो जाना उनको ज्यादा सही लगता है...इसीलिए पद्मावती जलती है तो हम उसकी विवशता नहीं देखते....यहाँ विरोध हो सकता है मगर मुझे आग में जलती औरतें देवी नहीं लगतीं....मुझे आग पर चलने वाली सीता में महानता नहीं दिखती बल्कि मुझे वो तब ज्यादा महान लगती है जब वो लव और कुश को बगैर अयोध्यापति की सहायता के पालती हैं और बाद में लौटने की जगह धरती की गोद में जाना अधिक श्रेयकर है मगर सीता का यह रूप प्रमुखता नहीं पाता। अनुगामिनी बनकर वह अधिक सम्मान पाती हैं...क्योंकि हमें यही देखना पसन्द है। नायक की प्रतीक्षा में भूखी मरकर या जलकर स्त्री देवी बन जाती हैं मगर जलना उनकी विवशता होती है..उसे इच्छा का नाम नहीं दिया जाए तो बेहतर है...आज के इस युग में यह चरित्र हमें संघर्ष करने की चाह नहीं देता..जूझना नहीं सिखाता...स्त्री का झुलसा हुआ शरीर और उसकी राख ऐतिहासिक क्रूरता है....यह आदर्श रहा तो हम कभी भी मनुष्य के रूप में उसे स्वीकृति नहीं दिलवा सकती और हमारी फिल्मों में भी इसे ही महिमामंडित किया जा रहा है। अगर पद्मावती लड़ी होती...तो शायद इतिहास की दिशा बदल सकती थी...वह अकेली नहीं थी...उसके साथ किले की महिलाएँ थीं...मगर वह लड़ी नहीं...आग में कूद गयी...सती बनी और अमर कर दी गयी...पद्मावती की विवशता हमें नहीं दिखती, उसका झुलसा हुआ शरीर नहीं दिखता बल्कि हम उसे महिमामंडित कर रहे हैं। परम्पराओं में छिपी क्रूरता को जिन्दा रखना भी क्रूरता ही है। आज भी जो महिलाएँ जीना चाहती हैं, उसके लिए जगह नहीं है। पुरानी पीढ़ी की महिलाएँ इसी देवी के भाव को ओढ़े न सिर्फ कठोरता के साथ खुद जी रही हैं...महान बन जाने का जो भाव है.....उसे महिलाएँ नहीं छोड़ना चाहतीं और यही एहसास वे आने वाली पीढ़ी पर लादती हैं...जो व्रत महिलाएँ इस दायरे में फिट होने में रुचि नहीं रखतीं.....उनको महानता और आदर्श के दायरे से बाहर कर दिया जाता है। हम पितृसत्ता के तमाम पोषक तत्वों को लादे फिरते हैं....स्त्री की बेबसी को महानता का आवरण पहनाते हैं। यही वजह है कि हमारे यहाँ ऐसे चरित्र पूजे जाते हैं जो इसे जिन्दा रखते हैं मगर समय बदल रहा है, पुरुष अब मानवीय होने लगे हैं और उनको देवी नहीं एक इन्सान चाहिए...इस बात को समझने की जरूरत है। 
अब पुरुष अधिक मानवीय हो रही हैं...उनको देवी की नहीं साथी की जरूरत है
यह भी सही है कि परम्परागत स्तर पर बदलाव अब भी होना बाकी है मगर शुरुआत हो चुकी है और करवा चौथ को लेकर हुए एक सर्वे में यह बात सामने आयी है। इस सर्वे के अनुसार ज्यादातर भारतीय पुरुष नहीं चाहते कि पत्नी उनके लिए करवाचौथ जैसे व्रत रखे। अगर पत्नियां व्रत रखेंगी तो 61 फीसदी पुरुष भी उनके लिए व्रत रखेंगे। 93 फीसदी पुरुष नहीं चाहते कि पत्नी व्रत रखे और किसी और तरीके से इन दिन को मनाए।
एक मेट्रीमोनियल साइट द्वारा करवाए गए इस सर्वे में करवा चौथ को लेकर पतियों की सोच पर करवाया गया था। यह साइट एक सालाना कैंपेन भी चला रही है जिसमें पतियों को अपनी पत्नी के साथ व्रत रखने की अपील की गई है। सर्वे के दौरान पतियों से पूछा गया कि अगर उनकी पत्नी उनके लिए उपवास रख रही है तो क्यो वो भी अपनी पत्नी के लिए उपवास रखेंगे।
इसके जवाब में 61 प्रतिशत ने हां में जवाब दिया जबकि 39 प्रतिशत ने इन्कार कर दिया। वहीं 93 प्रतिशत पति ऐसे थे जिन्होंने यह कहा कि वो नहीं चाहते कि उनकी पत्नी उनके लिए व्रत रखे बल्कि किसी और तरीके से इस दिन को मनाए।
जब उनसे किसी और तरीके से इस दिन को मनाने पर सवाल पूछ गया तो उनमें से 50 प्रतिशत ने कहा कि वो इस दिन छुट्टी लेकर अपनी पत्नी के साथ क्वालिटी टाइम बिताना चाहेंगे। जबकि 23 प्रतिशत ने कैंडल लाइट डिनर की बात कही। 8 प्रतिशत ऐसे थे जिन्होंने छुट्टी लेने की बात कही। यह सर्वे 24 से 40 आयुवर्ग के 6,537 पुरुषों के बीच किया गया। जरूरत है कि परम्पराओं को लेकर हमारी प्राथमिकताएं ज्यादा संवेदनशील हों..और यह बात भी स्त्रियों को समझनी होगी, तभी स्त्री के साथ समाज भी खुलकर सांस ले सकेगा।


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