पद्मावती...राजपूत...स्त्री....इज्जत के नाम पर.....हजार खून माफ



कहते हैं कि कुछ चीजें होती हैं तो उसे होने देना चाहिए क्योंकि उसके बहाने बहुत सी बातें सामने आती हैं और पद्मावती प्रकरण में अभी यही हो रहा है। आप हर बात के लिए मीडिया का मुंह ताकते हैं और जब संजय लीला भंसाली ने मीडिया का मुंह देखा तो आपको मिर्च लग गयी। स्त्री को देवी और मां बनाकर उसके मनुष्य होने की तमाम सम्भावनाओं को खत्म कर देना और उसे प्रतिष्ठा के नाम पर महिमामंडित करना ही वह कारण है जिससे बड़े से बड़ा अन्याय ढका जा रहा है। आप औरतों से जीने और सांस लेने का अधिकार छीन रहे हैं और आप कहते हैं कि आप औरतों की बड़ी इज्जत करते हैं। भारतीय परिवारों में प्रतिष्ठा की पराकाष्ठा हिंसा और रक्तपात पर खत्म होती है मगर ये समझने की कोई जहमत नहीं उठाता कि वह स्त्री क्या चाहती है? सच तो यह है कि आपने स्त्रियों के व्यक्तित्व को अपनी मूँछों के अनुसार काटा और रखा है और यही कारण है कि आज तक भारत में ऑनर किलिंग चली आ रही है। आप किसी स्त्री को अपने साथ रखैल के रूप में रख सकते हैं और आपके दरबार में नाचने के लिए भी एक स्त्री ही चाहिए मगर आपके घर की स्त्री अगर अपने उल्लास को व्यक्त करने के लिए थिरकती है तो यह आपको अपमान लगता है और वह भी उस देश में जहाँ संगीत की देवी सरस्वती और नृत्य के देवता के रूप में शिव की आराधना नटराज के रूप में की जाती है। दोहरेपन की हद यह है कि खुद वसुंधरा राजे सिंधिया राजस्थान की मुख्यमंत्री हैं मगर वोटबैंक की राजनीति के लिए वह भी प्रतिबंध की राजनीति खेल रही हैं। आप औरतों की इज्जत करते हैं मगर औरतें आपको आग में जलती हुई ही अच्छी लगती हैं और आप इसे शौर्य से जोड़ रहे हैं। एक स्त्री का हंसना और बोलना आपके लिए इतनी बड़ी चुनौती है और एक फिल्म आपके अस्तित्व को चुनौती दे रही है....हास्यास्पद है। राजपूतों की समूची दुनिया एक फिल्म से डोल उठी है क्यों? पद्मावती से इतनी समस्या है तो उसे मत देखिए....जनता को तय करने दीजिए न....इतिहास किसी राज्य विशेष का नहीं होता....तो उस पर किसी राज्य विशेष का अधिकार कैसे हो सकता है? कोई करणी सेना या कोई राजनीतिक पार्टी क्यों तय करेगी कि हमें क्या देखना है और क्या नहीं? आप बेटियों की इतनी इज्जत करते थे कि अपनी इज्जत के लिए आप उनको जन्म ही नहीं लेने देते थे। इतना ज्यादा सम्मान करते थे कि एक पत्नी से जी नहीं भरता था इसलिए पूरा महल ही रानियों से भर लिया करते थे और यह परम्परा तो लम्बे अरसे तक रही है। इतने जागरुक थे कि गोद की बच्चियों के विवाह कर दिया करते थे और शिक्षा का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। क्यों आखिर एक स्त्री का व्यक्तित्व एक पुरुष के इर्द – गिर्द घूमता रहता है? मुझे 1986 का रूपकंवर कांड याद आ रहा है जिसे जलती आग में झोंककर सती के नाम पर देवी बना दिया गया था। अगर प्राचीन भारत की बात करें तो सती प्रथा ऐच्छिक थी मगर बाद में इसे स्त्रियों पर थोपा ही गया और अब कंडिशनिंग ऐसी कर दी गयी है कि मृत्यु में भी लोगों को गौरव दिखता है। इस देश में इज्जत के नाम पर सात नहीं हजार खून माफ हैं....कन्या भ्रूण हत्या करते हैं आप क्योंकि इज्जत घट जाएगी, झुकना पड़ेगा, दहेज देना पड़ेगा। प्रेम आख्यानों से किताबें और इतिहास पटा पड़ा है मगर आपके बच्चों ने प्रेम किया तो उसे फांसी से लटका देंगे या खून कर डालेंगे.....अगर इतिहास नायक बाजीराव किसी मस्तानी से दूसरा विवाह करते हैं तो वह आख्यान है तो मगर आपकी बेटी ने किया तो वह लव जेहाद है। लड़कियों की पढ़ाई, नौकरी छुड़वाना, कैद में डालना और जबरन विवाह करना तो आम बात है और वह भी इज्जत के नाम पर क्षम्य है...औऱ लड़के को मार डालना या धमकियाँ देना भी आपकी शान बढ़ाता है....सचमुच इज्जत की कितनी खतरनाक और अमानवीय व्याख्या कर डाली है आपने.....लाशें बिछ जाएं....पूरा परिवार खत्म हो जाए...बच्चे मर जाएं तो क्या शमशान में बैठकर इज्जत का अचार डालेंगे आप? इज्जत और परम्परा के नाम पर विवाह को तो कारोबार बना ही चुके हैं....जिस तरह बिजनेस डील बराबर के लोगों में होती है, उसी प्रकार शादियाँ भी समान जाति और दर्जा देखकर होंगी मगर शोषण करना हो तो स्त्री की देह ही काफी है। सच तो यह है कि आपके समाज में स्त्री मात्र भोग्या और वस्तु मात्र से अधिक नहीं रही। आज अगर वसुन्धरा राजे जैसी महिलाएँ इज्जत के नाम पर उसी नारकीय जीवन को सम्मान के नाम पर महिमामंडित करना चाहती हैं तो यह वोटबैंक की राजनीति का घिनौना रूप भर है....इससे अधिक कुछ नहीं। 
बहुत से लोगों का कहना है कि रानी पद्मिनी या राजपूत स्त्रियाँ ऐसे वस्त्र नहीं पहनती थीं जिनमें उनका जरा सा भी शरीर दिखे। वहीं राजपूत शैली की ही ऐसी पेंटिंग्स दिखती हैं जिनमें उनका पेट  दिखता था....वो नृत्य भी करती थीं....और इसमें कोई बुराई नहीं है...फिर हंगामा किस बात का।
इज्जत के नाम पर कुछ भी चलेगा...हत्या भी चलेगी...और उस पर नीलामी भी होगी...हो ही रही है..कोई कम नहीं है..न मौलवी और न हमारे धार्मिक ठेकेदार...हर तरह का फतवा....खुद भले गृहस्थ धर्म से पलायन कर गए मगर नसीहत 4 बच्चे पैदा करने की देंगे...अब कोई पूछे इनसे बच्चे पैदा करने और नाली के कीड़े पैदा करने में कोई फर्क है या नहीं? सवा सौ करोड़ की आबादी हो गयी इस सोच से और आधी आबादी को खाना तक नसीब नहीं होता...वह क्या खाकर काम करेंगे...सबसे ज्यादा आसान है औरतों को लक्ष्य बनाना...और यही हो रहा है और पद् मावती के पक्ष –विपक्ष में भी राजनीति ही हो रही है....नीतिश को कौन सा गुजरात दिख रहा है, वही जानें कि बिना फिल्म देखे उस पर प्रतिबंध लगाया। आप इतिहास को चारण काव्य बनाना चाहते हैं तो यह तो होगा नहीं...क्योंकि ये तो सच है कि आपमें फूट थी...आपने एक दूसरे को नीचा दिखाया...आप में ही कोई जयचंद भी थे जिन्होंने पृथ्वीराज को अन्धा करवा दिया..और 1857 की क्रांति में भी आप पीछे हटे...राजाओं ने अगर लोहा लिया है तो बहुत से राजाओं ने अँग्रेजों की पालकी ढोई है और दर्जन भर खिताब बटोरे हैं...तब आपकी राजपूती शान कहाँ गयी...शायद आपको याद ही नहीं होगा। महल की मोटी दीवारों के पीछे न जाने कितनी दर्दनाक चीखें होंगी...ये तो शायद आपको भी याद नहीं होगा...कहानियाँ ऐसे ही नहीं बनती साहेब...जिस तरह हिन्दी साहित्य में महिलाओं का आरम्भिक लेखन दबाया गया है...उसी तरह आपने भी महिलाओं की उपलब्धियों को दरकिनार कर अपनी नाक ऊँची रखने के लिए अपने अन्याय को महिमामंडित किया है और कर रहे हैं। हमने राजस्थान में स्त्रियों की स्थिति को लेकर जरा सी खोज की तो ये सब सामने आया जो हम साभार दे रहे हैं ताकि स्थिति स्पष्ट हो सके और आप खुद देखें कि किस तरह के कुकर्म आपकी नाक बचाते आ रहे हैं...मगर ये याद रहे है कि वक्त बदल रहा है इसलिए जरूरी है कि आप भी खुद को आगे बढ़ाएं वरना कोई आपका नाम लेवा न होगा। 

राजपूतों की वीरता.....मुग़लों से लेकर अँग्रेजों की अधीनता तक

Blockquote-open.gif जनश्रुतियों के अनुसार राजपूत उन सूर्यवंशी एवं चन्द्रवंशी (सोमवंशी) क्षत्रियों के वंशज हैं, जिनकी यशोगाथा रामायण और महाभारत में वर्णित है। किन्तु अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुहिलोत या सिसोदिया शाखा, जिसमें मेवाड़ के स्वनामधन्य राणा हुए और जो अपने को रामचन्द्र जी का वंशज मानती हैं, वस्तुत: एक ब्राह्मण द्वारा प्रवर्तित हुई थी। Blockquote-close.gif
नौवीं और दसवीं शताब्दी में राजपूत राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरे। 800 ई. से राजपूत वंशों का उत्तर भारत में प्रभुत्व था और बहुत से छोटे-छोटे राजपूत राज्य हिन्दू भारत पर मुस्लिम आधिपत्य के रास्तें में प्रमुख बाधा थे। पूर्वी पंजाब और गंगा घाटी में मुस्लिम विजय के बाद भी राजपूतों ने राजस्थान के दुर्गों और मध्य भारत के वन्य प्रदेशों में अपनी स्वतंत्रता क़ायम रखी। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी (शासनकाल,1296-1316) ने पूर्वी राजस्थान में चित्तौड़गढ़ और रणथम्भौर के दो महान् राजपूत दुर्गों को जीत लिया, लेकिन वह अपने नियंत्रण में नहीं रख सके। मेवाड़ के राजपूत राज्य ने राणा साँगा के नेतृत्व में अपनी प्रभुत्ता बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें मुग़ल बादशाह बाबर ने खानवा (1527) में पराजित कर दिया। बाबर के पोते अकबर ने चित्तौड़गढ़ और रणथम्भौर के क़िले जीत लिए (1568-69) और मेवाड़ को छोड़कर सभी राजस्थानी राजकुमारों के साथ एक समझौता किया। मुग़ल साम्राज्य की प्रभुता स्वीकार कर, ये राजकुमार दरबार तथा बादशाह की विशेष परिषद में नियुक्त कर लिए गए और उन्हें प्रान्तीय शासकों के पद व सेना की कमानें सौंपी गईं। हालाँकि बादशाह औरंगज़ेब (शासनकाल, 1658-1707) की असहिष्णुता से इस व्यवस्था को नुक़सान पहुँचा, लेकिन इसके बावजूद 18वीं सदी में मुग़ल साम्राज्य का पतन होने तक यह क़ायम रही।

शक्ति का नष्ट होना

राजपूतों ने मुसलमान आक्रमाणियों से शताब्दियों तक वीरतापूर्वक युद्ध किया। यद्यपि उनमें परस्पर एकता के अभाव के कारण भारत पर अन्तत: मुसलमानों का राज्य स्थापित हो गया, तथापि उनके तीव्र विरोध के फलस्वरूप इस कार्य में मुसलमानों को बहुत समय लगा। दीर्घकाल तक मुसलमानों का विरोध और उनसे युद्ध करते रहने के कारण राजपूत शिथिल हो गए और उनकी देशभक्ति, वीरता तथा आत्म-बलिदान की भावनाएँ कुंठित हो गईं। यही कारण है कि भारत में अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना के विरुद्ध किसी भी महत्त्वपूर्ण राजपूत राज्य अथवा शासक ने कोई युद्ध नहीं किया। इसके विपरीत 1817 और 1820 ई. के बीच सभी राजपूत राजाओं ने स्वेच्छा से अंग्रेज़ों की सर्वोपरि सत्ता स्वीकार करके अपनी तथा अपने राज्य की सुरक्षा का भार उन पर छोड़ दिया। स्वतंत्रता (1947) के बाद राजस्थान के राजपूत राज्यों का भारतीय संघ के राजस्थान राज्य में विलय कर दिया गया।

अभिलेखीय एवं साहित्यिक स्रोतों से पता चलता है कि महाराणा राजसिंह द्वितीय के शासन काल तक राज परिवार एवं कुलीन वर्ग की स्त्रियों में पर्दा-प्रथा नहीं थी। मराठों एवं पिण्डारियों के आक्रमण काल से ही 'पर्दा प्रथा' आरंभ हो गई थी, जिसका प्रभाव अन्य द्विज जातियों पर भी पड़ा था। पर्दा प्रथा के प्रचलन ने समाज में स्त्रियों की स्थिति को और भी निम्न बना दिया। अब समाज में स्त्री की मर्यादाएँ निश्चित कर दी गईं। किसी भी त्योहार, उत्सव और मेला आदि के अवसार पर उनका स्वतंत्रतापूर्वक घूमना, पर-पुरुषों से बातें करना आदि कुछ हद तक सीमित होने लगा। घर में स्त्री केवल अपने पति की कामेच्छा पूर्ति का साधन मानी जाती थी।

बहुविवाह तथा रखैल प्रथा

मेवाड़ के अभिजात वर्ग में सामाजिक-आर्थिक प्रतिष्ठा के प्रदर्शन और रति-सुख की मानसिक प्रवृत्ति के कारण 18वीं एवं 19वीं शताब्दी में 'बहुविवाह प्रथा' तथा 'रखैल' रखने की प्रथा का भी प्रचलन रहा। मेवाड़ के राजघराने में महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय से महाराणा स्वरूप सिंह के शासन काल तक लगभग आठ पत्नियाँ और नौ उप-पत्नियाँ रही थीं। मेवाड़ के सामंतों में भी बहु-पत्नियाँ रखने का प्रचलन था, किंतु सामंतों को प्रत्येक विवाह के लिये महाराणा से पूर्व स्वीकृति लेनी पड़ती थी। भील जाति में भी श्रम शक्ति की आवश्यकता के कारण एक से अधिक पत्नियाँ रखने का प्रचलन था तथा मुस्लिम वर्ग में भी चार पत्नियाँ तक रखने की धार्मिक स्वीकृति थी। समाज के अन्य वर्गों में भी रखैल रखने पर कोई प्रतिबंध नहीं था, लेकिन अधिकांशतः संपन्न लोग ही रखैल रखते थे। 'बहुविवाह प्रथा' 'रखैल प्रथा' पुरुषों का स्त्रियों के प्रति दलित दृष्टिकोण स्पष्ट करता है।

बाँझपन

वे स्त्रियाँ जो बच्चे को जन्म नहीं दे सकती थीं, उन्हें 'बाँझ' कहा जाता था। बाँझ स्त्रियों को अपने परिवार में तथा समाज में घोर प्रताड़ना सहन करनी पड़ती थी। घर-परिवार और समाज की ओर से उन्हें प्रताड़ित किया जाता था। कई बार इन प्रताड़नाओं से मजबूर होकर पुत्र-प्राप्ति की इच्छा से प्रेरित स्त्रियाँ मंदिरों के पुजारियों, मठाधीशों, उपासकों के संतों व भोपों से यौन संपर्क तक कर लेती थीं।

कन्या जन्म
बढ़ते सामाजिक उत्तरदायित्व, जैसे- उच्च वंश की परंपरा, त्याग प्रथा आदि के कारण कन्या के जन्म को अभिशाप माना जाता था। पुत्र का जन्म होने पर तो परिवार में उत्सव जैसा माहौल रहता था, लेकिन यदि कन्या का जन्म हो जाए तो उसे एक तरह से बोझ जैसा समझा जाता था। कन्या जनने वाली स्त्री की प्रतिष्ठा भी कम हो जाती थी। परिवार के सदस्य उसे तब तक सम्मान की दृष्टि से नहीं देंखते थे, जब तक कि वह पुत्र को जन्म नहीं देती।

विधवाओं की स्थिति
समाज में विधवाओं पर अनेक तरह के सामाजिक प्रतिबन्ध थे। उनकी स्थिति भी बहुत दयनीय थी। उनके लिए श्रृंगार करना तथा रंग-बिरंगे वस्त्र धारण करना वर्जित था। प्रायः वे काले रंग की ओढ़नी तथा सफ़ेद छींट का घाघरा पहनते हुए संन्यास व्रत के नियमों का पालन करती थीं। ऐसी स्त्रियों का किसी उत्सव तथा धार्मिक क्रिया-कलापों में जाना भी वर्जित था।

दास-दासी प्रथा

प्राचीन काल से ही प्रचलित 'दास-दासी प्रथा' 19वीं सदी के अंत तक जारी रही। इस प्रथा के कारण स्त्रियों और लड़के-लड़कियों की ख़रीद-फरोख्त भी प्रचलित थी। राजपूत और अभिजात वर्ग की कन्याओं के विवाह में दहेज के सामान के साथ दास-दासियाँ देने की परंपरा भी समाज में प्रचलित थी। ये दास-दासियाँ वंशानुगत रूप से सेवकों के रूप में अपने स्वामी की सेवा करते थे। दासियाँ अपने स्वामी की आज्ञा के बिना विवाह नहीं कर सकती थीं। जब कोई दासी विवाह योग्य हो जाती तो उसे शासक के समक्ष उपस्थित किया जाता था। यदि शासक को वह दासी पसंद आ जाती थी तो किसी दूसरे दास के साथ उस दासी का विवाह करके शासक उसे अपने रनिवास में भेज देता था और उसके पति को कुछ नकद रुपया तथा दहेज का सामान देकर विदा कर दिया जाता था। जब तक वह दासी राजमहल के रनिवास में रहती थी, उसका पति के साथ कोई संबंध नहीं हो सकता था। इस प्रकार उप-पत्नी के रूप में स्वीकृत दासी 'पड़दायत' कहलाती थी। स्वामी की प्रसन्नता, अप्रसन्नता के आधार पर पड़दायत की प्रतिष्ठा घटती-बढ़ती रहती थी। यदि स्वामी प्रसन्न होकर उसे हाथ-पैरों में सोने के आभूषण पहनने की स्वीकृति दे देता था, तो उसका पद और सम्मान बढ़ जाता था। वह 'पासवान' कहलाने लगती थी। पासवानों को राज्य से अच्छी आय तथा जागीरें प्रदान की जाती थीं और स्वामी की अत्यधिक प्रिय होने पर राज्य प्रशासन में भी उनका हस्तक्षेप रहता था।
पड़दायतों एवं पासवानों की पुत्र-पुत्रियों की शादी बड़ी धूमधाम से की जाती थी। इनके पुत्रों को जागीरें व उच्च पद भी प्रदान किये जाते थे। पड़दायतों और पासवानों को उनकी जाति के अनुसार सम्मान दिया जाता था। जिन दासियों को रनिवास में दाखिल नहीं किया जाता था, उन्हें 'डावड़ी' कहा जाता था। उन्हें राजमहल के जनाना में दासी जीवन व्यतीत करना पड़ता था या राजकुमारियों के दहेज में दे दिया जाता था। किंतु मेवाड़ में दास-दासियों के साथ सामान्य व्यवहार राजपूताना के अन्य राज्यों से अच्छा था और यहाँ के दास-दासियों को अपने स्वामियों को छोड़ने तथा इच्छानुसार आने-जाने की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी। फिर भी वंशानुगत दास-दासियाँ स्वामी की संपत्ति मानी जाती थीं।

कोई भी करणी सेना इस देश की एकता, लोकतांत्रिक परिवेश, अभिव्यक्तिगत स्वतंत्रता को नहीं छीन सकती और न ही इतिहास को चारणकाव्य बनने दिया जाएगा....अगर कला और साहित्य को आप निशाना बना रहे हैं तो याद रखिए कि बड़े – बड़े घरानों को कलाकारों और साहित्यकारों ने पलटा है इसलिए उनकी जिद भरी नाराजगी से बचकर रहिए क्योंकि आपके बच्चे भी आपसे तंग आ चुके हैं और आपकी नफरत को वे नहीं ढोने वाले...तो विवरण इस प्रकार है और शोधकर्ता को हमारा सलाम जिन्होंने इतनी बारीकी से काम किया।




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