सुबासिनी देवी : सब्जी बेची, बेटे को डॉक्टर बनाया और खड़े किये दो अस्पताल

सुषमा त्रिपाठी
कहते हैं कि मुश्किलें इंसान को तोड़ देती हैं और हालात के सामने हर कोई घुटने टेक देता है मगर कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके सामने मुश्किलें और हालात दोनों हार मान जाते हैं। अपने संकल्प और जिद के दम पर वे ऐसा कुछ कर डालते हैं जो कि एक साधारण इंसान के लिए अकल्पनीय होता है...वह खुद ईश्‍वर का प्रतिबिम्ब बन जाते हैं। कोलकाता के ठाकुरपुकुर बाजार से होती हुए संकरी गलियाँ एक ऐसी जगह जाकर खत्म होती हैं जहाँ आप दृढ़ इच्छाशक्ति का चमत्कार देख सकते हैं। यहाँ आपको जो दिखेगा, वह सिर्फ महिला सशक्तीकरण तक सीमित नहीं है... वह उससे कहीं आगे है...वह मानव सशक्तीकरण है और ऐसा करने वाली एक महिला है।
एक ऐसी महिला जिन्होंने चार किताबें भले ही न पढ़ीं हों मगर वो सशक्तीकरण ही नहीं बल्कि प्रेम का सही अर्थ समझा जाती हैं। ये 1971 की बात है जब इस महिला ने अपनी आँखों के सामने अपने पति को दवा और इलाज के अभाव में दम तोड़ते देखा...वह टूटीं और इस व्यथा के बीच उन्होंने एक संकल्प लिया...‘मैंने जो तकलीफ सही...वह कोई और नहीं सहेगा’। इसी संकल्प के साथ उन्होंने तय किया कि वे एक ऐसा अस्पताल बनायेंगी जहाँ कोई इलाज से वंचित नहीं होगा। वह अस्पताल आज दक्षिण 24 परगना के हांसपुकुर इलाके में एक ईश्‍वर के अकल्पनीय चमत्कार की तरह खड़ा है और वह महिला आज सबकी माँ बन गयी हैं....सुबासिनी मिस्त्री माँ...जिनको भारत सरकार ने पद्मश्री सम्मान के लिए चुना है और भारत सरकार का यह पत्र अस्पताल के रिसेप्शन कक्ष में लगा है। 
जाते हुए कौतहूल था...उस जगह को देखने का और सुबासिनी मिस्त्री से मिलने का उत्साह भी। समय पर हम पहुँच भी गये... कुछ देर इंतजार के बाद हाथ में प्लास्टिक  का छोटा सा थैला लिये सुबासिनी देवी सामने थे...साधारण पर बेहद असाधारण। सुबासिनी देवी एक नहीं दो अस्पताल चलाती हैं...ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल के बार में सब जानते हैं मगर उनका दूसरा अस्पताल सुन्दरवन इलाके में है। वह 77 साल की आयु में दोनों अस्पतालों को समय देती हैं और उनके सपने को साकार किया है उस बेटे ने...जिसे उन्होंने डॉक्टर बनाया। डॉ. अजय मिस्त्री हॉस्पिटल और ह्ययूमैनिटी ट्रस्ट के चेयरमैन हैं। सुबासिनी देवी बताती हैं कि ‘जब मेरे पति का निधन  हो गया। तब मेरे 4 छोटे - छोटे बच्चे थे और आय का कोई साधन नहीं था। बच्चों को खिलाने के पैसे नहीं थे...पढ़ाई का खर्च कहाँ से उठाती।’ वह बताती हैं यह अस्पताल मेरी जिद थी। मैंने जो कष्ट पाया है, वह किसी और को न मिले। गाँव में, धापा में, हर जगह काम किया। कचरे के ढेर में कोयला चुना और बेचा...खेत में मजदूरी की, सब्जियाँ बेचीं, दूसरों के घरों मे काम किया। 20 साल तक हर तरह का काम किया और 1 लाख रुपये किसी तरह जोड़े। छोटे बेटे को डॉक्टर और छोटी बेटी को सिस्टर (नर्स) बनाया।’ एक शाहजहाँ था जिसके ताजमहल के गुण सारी दुनिया गाती है मगर सुबासिनी देवी ने जो चैरिटेबल अस्पताल बनाया है, वह ताजमहल से कहीं आगे है। वह इसे ईश्‍वर की इच्छा मानती हैं।


 वह कहती हैं कि ‘पढ़ी - लिखी नहीं हूँ...मुझे लगता है कि यह ईश्‍वर की इच्छा थी। मेरे पति का निधन दवा के अभाव में हो गया और दुःख मेरे मन में संकल्प ला गया।’मैंने तय किया कि ऐसा अस्पताल बनाऊँ जहाँ कोई इलाज से वंचित न हो। यही मेरे मन में था। मेरे बेटे ने बहुत काम किया है...चाय दुकान में काम किया है। भूखे रहकर परीक्षा दी है। मजबूरी में छोटे बेटे को 12वीं तक अनाथाश्रम में रखकर पढ़ाना पड़ा। सुबासिनी मिस्त्री के छोटे बेटे अजय मिस्त्री आज डॉक्टर हैं और ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल के चेयरमैन के रूप में अपनी माँ का सपना पूरा कर रहे हैं। अस्पताल अत्याधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण है मगर प्रांगण में कदम रखते ही आप इस सकारात्मक ऊर्जा को महसूस कर सकते हैं। अस्पताल की इमारत में अभी भी विकास हो रहा है। दो एम्बुलेंस भी हैं। हरा - भरा बगीचा....और बीच में सफेद इमारत...सुबासिनी देवी स्वाभिमानी महिला हैं और प्रचार से दूर रहना पसन्द करती हैं। यहाँ तक कि अस्पताल बनाने की बात भी उन्होंने किसी को नहीं बतायी। कहती हैं कि ‘आय का कोई साधन नहीं था मगर मेरे मन में जिद थी।’

सुबासिनी देवी के निकट संबंधी रॉबिन मंडल बताते हैं कि तब इलाके में पानी बहुत जमता था और आज जहाँ अस्पताल है, वहाँ खेती हुआ करती थी। यह मुश्किल था....मगर मैं किसी की बात पर ध्यान नहीं देती थी। मैंने किसी को बताया नहीं, मैं जानती थी और मेरा बेटा जानता था। लोगों से पैसे माँगकर और खुद खटकर पढ़ाया। वह भी कभी मिलता तो कभी नहीं मिलता था। मैं यहाँ खेत में श्रम करती थी। पता चला कि जिसके लिए काम करती हूँ, उनकी जमीन बिक रही है। मैंने उनसे कहा कि मेरे जितने रुपये बनते हैं, उसके एवज में जमीन मुझे दें। उनसे मैंने कम कीमत पर 19 कट्ठा जमीन खरीद ली। एक छोटे झोपड़ीनुमा कमरे में डॉक्टर बैठने लगे। किसी ने रस्सी, किसी ने बाँस तो किसी ने कुछ और सामान दिया और एक छोटे से कमरे में सबसे पहले एक छोटा सा क्लिनिक जो बाँस की झोपड़ीनुमा खुला। आज भी वह कमरा अस्पताल में मौजूद है मगर टाली की जगह टीन ने ले ली है। 1993 में ह्ययूमैनिटी ट्रस्ट बना जो इस अस्पताल को संचालित करता है। सरकार से और अधिक सहायता की उम्मीद है। पद्मश्री की घोषणा ही हुई। अब उम्मीद है कि अब और मदद मिलेगी। हमारा आउटडोर कभी खाली नहीं रहता। डॉक्टर आते हैं और कुछ डॉक्टर यहाँ खुद आ जाते हैं। दूसरे अस्पतालों की तुलना में किफायती इलाज होता है और गरीबों का इलाज नि:शुल्क होता है। अनुदान से आता है और देश - विदेश से डॉक्टर अस्पताल की सहायता के लिए आ रहे हैं मगर यह काफी नहीं है। वह चाहती हैं कि कोई भी अस्पताल गरीबों को पैसों के लिए न लौटाये। अगर अस्पताल को सरकार से और अधिक सहायता मिले तो यह सुबासिनी देवी ही नहीं बल्कि गरीबों के लिए बड़ी सहायता होगी। 

अजय ने अपनी माँ के परिश्रम को देखा है और यही कारण है कि उन्होंने माँ का सपना साकार किया और उसे और बेहतर बनाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। आज 20 साल से ऊपर हो गये....अस्पताल गरीबों के लिए लगातार निःशुल्क काम कर रहा है। इलाके में भारी बारिश होने पर बेहद सजग रहना पड़ता है। मन यदि साफ रहे तो ईश्‍वर शक्ति देते हैं। मुझे इस बात का अहंकार नहीं है। कुछ लोग यहाँ आते हैं और कुछ दूसरे अस्पतालों में जाते हैं। आमिर खान के सत्यमेव जयते, सौरभ गाँगुली के दादागिरी में भी सुबासिनी देवी नजर आ चुकी हैं। इन सबके साथ उनकी तस्वीरें लगी हैं। अस्पताल का हर कोना उपलब्धियों और सफलता के साथ अनवरत संघर्ष की गवाही देता है। सुबासिनी देवी बताती हैं कि आउटडोर हमारा कभी बंद नहीं होता फिर चाहे रविवार हो या कोई त्योहार हो....हमेशा खुले रहते और रोगी आते हैं।   हांसपुकुर में 45 बेड और सुन्दरबन में 25 बेड का अस्पताल है। हमारे पास खड़े रहें कि रोगियों की सेवा हो। 9 -10 डॉक्टर हैं। सुन्दरवन में इस अस्पताल के कारण लोगों को अब इलाज के लिए दूर तक जाना नहीं पड़ता।
ईश्‍वर ने जो सही समझा, वही तो कर रही हूँ्। खाने को लेकर कोई रुचि नहीं, जो मिलता है...खा लेती हूँ्। रोज एक बार जाकर देख लेती हूँ्। यहाँ रहने वाले प्रलयजीत सेन बताते हैं कि मासी माँ एक मिसाल हैं। उन्होंने कभी किसी को पता नहीं चलने दिया कि वे क्या कर रही हैं और न ही कभी किसी से मदद माँगी। सुबासिनी देवी को ईश्‍वर पर बहुत विश्‍वास है और वह मानती हैं कि ईश्‍वर ही है जो उनको यह शक्ति दे रहा है कि वे यह अकल्पनीय लगने वाला काम भी कर सकें।सुबासिनी देवी से मिलकर लगता है कि ईश्‍वर यही कहीं हैं...कम से कम जिन हजारों लोगों को उनके अस्पताल ने जीवन दिया... कम से कम उनके लिए ईश्‍वर तो सुबासिनी देवी जैसा ही होगा, वह ईश्‍वर का ही प्रतिबिम्ब हैं। 

(सलाम दुनिया में प्रकाशित आलेख)

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