मन्दारमणि...लहरों की अटखेलियों में खुद को तलाशती दो लड़कियाँ
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| मन्दारमणि के समुद्र तट पर हम |
जल...जीवन है और जल आनन्द भी है....जल सृजन भी है और जल विनाश भी है मगर इन सबसे परे जल जीवन का सौन्दर्य भी है। प्रकृति और इतिहास, दोनों मुझे खींचते हैं और विशाल लहराता समुद्र तो बाँध लेता है। सबसे पहले काम के सिलसिले में ही 2008 -09 के बीच मुम्बई जाना हुआ और वहाँ पर जुहू बीच देखा था। उसके साथ वहाँ फैली गन्दगी भी देखी और शहर को राहत के छींटे देती लहरें भी देखीं मगर तब समुद्र अजनबी था। उसे जानने और देखने की इच्छा बलवती थी...आज वर्षों के बाद दुनिया घूमने और इतिहास को समझने की इच्छा प्रबल हो गयी है तो बस मौका मिलने पर भी भाग जाने का प्रयास करती हूँ। अच्छी बात यह है कि नियति और अवसर, दोनों मुझे अवसर देते हैं और एक अवसर इस बार भी मिला। कार्यालय के साप्ताहिक अवकाश के बीच एक दिन अपने लिए निकालने का और जब एक अपनी सी सहेली मिल जाए तो आनन्द को दोगुना तो होना ही था। वाराणसी से नीलम दो साल बाद जब कोलकाता आयी तो बस उसके सामने प्रस्ताव रखा और वह मान भी गयी..यह उसके लिए अनायास और अत्प्रत्याशित घटना थी, मेरे लिए यह सुखद आश्चर्य से भरा अवसर था। आखिरकार 3 जून को हमने तय किया जो रविवार था, मेरा साप्ताहिक अवकाश और अगले दिन यानि 4 जून को लौट आना था।
इसी के बीच होटल और बुक भी बस करवा ली ऑनलाइन बुकिंग की माया से। आमतौर पर कुरता और सलवार कमीज या कभी - कभी साड़ी (इसकी भी गाथा है, फिर कभी सुनाऊँगी) पहन लेती हूँ मगर समुद्र के किनारे तो ये काफी नहीं था....तो फिर...स्कर्ट पहनना मैंने सामाजिक और आस - पास की अड़चनों के कारण छोड़ दिया था। बाजार जाती तो तीव्र इच्छा होती और जीन्स पहनना भी रूढ़ियों को तोड़ने जैसा था। जाहिर है कि स्कर्ट छूटी तो टीशर्ट कहाँ से खरीदती। पिछले साल लगभग 23 -24 साल बाद अपने दिल की सुनी और एक मधुबनी प्रिंट वाली स्कर्ट खरीदी जो कई महीनों तक यूँ ही पड़ी रही और आखिरकार उसे अब जाकर पहनने लगी हूँ। हम दोनों सहेलियों के लिए ये पाश्चात्य परिधान पहनना...कुछ तोड़ने और जर्जर परम्पराओं को चुनौती देने जैसा ही था। कपड़ों को पहनने और उस पर आस - पास का वातावरण भी खुद में एक कहानी है...ये कहानी अगली बार कही जायेगी क्योंकि लड़कियाँ खासकर जब कपड़े खरीदती हैं तो उनको बहुत सी सफाई देनी पड़ती है, कारण समझाना पड़ता है और कई बार कोप का भाजन भी बनना पड़ता है। लोग हम लड़कियों को अपनी दृष्टि से देखने के आदी हैं और हम भी वही करती रही हैं....दूसरों को खुश करते - करते आलोचना और तानों से निजात पाने के लिए हम सबसे पहले अपनी इच्छाओं को परम्पराओं और परिवार की मयार्दा के नाम पर मारती हैं। कोई ये नहीं सोचता कि हमें क्या पहनना पसन्द हैं। कई बार प्रत्यक्ष रूप से न कहे मगर आँखों से समझा दिया जाता है कि हमारी इच्छाएँ उनकी इच्छाओं के दायरे में फिट नहीं बैठतीं। दरअसल, कपड़ों का भी अपना समाजशास्त्र है। जाहिर है कि ये कपड़े खरीदना ही बहुत कुछ अपने संकोच को तोड़ने जैसा था और 2 जून शनिवार को एस्प्लैनेड में वह टूटा...2 दशक के बाद हमने टीशर्ट के साथ कैपरी खरीदी...। एक दूसरे को देकर मुस्कुरा दिए...कॉलेज में कभी ये क्षण हमें नसीब नहीं हुए थे और सालों बाद हमने अपने हिस्से के लम्हों को चुराया था।
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| माँ मनसा का मंदिर, जिसे स्थानीय निवासी ही बनवा रहे हैं। मंदिर का स्थापत्य देखकर लगता है कि यह जगह और भी लोकप्रिय होने जा रही है |
बस खोजना अमेरिका खोजने जैसा था
रविवार 3 जून - सुबह 8.15 की बस थी और एस्प्लैनेड से पकड़नी थी। सुबह 7 बजे घर से निकली क्योंकि बस का नम्बर तक पता नहीं था..यह हमें काउंटर तक जाकर पता करना था। एस्प्लैनेड का बस स्टैंड और उसकी भागमभाग कोलकाता वाले बखूबी समझते हैं। पीठ पर एक बैग और कन्धे पर बैग था जो भारी था। खोजते - खोजते पहुँची, नीलम मिली तो उसे स्टैंड के सामने चाय की दुकान पर बैठा दिया क्योंकि बुकिंग की सारी जानकारी मेरे ही पास थी। सुबह 8 बजे पता चला कि जो एसी बस हमें मिलने वाली थी, वह खराब हो गयी। बंगाल में अच्छी बात यह है कि यात्रियों का हंगामा कई चीजें आसान कर देता है..। यहाँ भी यही हुआ मगर थोड़ी भागमभाग बढ़ गयी। वह इसलिए क्योंकि हमें साँतरागाछी जाकर दोबारा मन्दारमणि की बस पकड़नी थी। मतलब बस ने तो विलम्ब किया ही था..चमकती - धमकती..चिलचिलाती धूप में....मेहनत भी बढ़ गयी।
और....हम तो दीघा पहुँच गये
खैर बस तो एक स्थानीय स्टैन्ड के पास पहुँची और ए सी बस हमें मिल भी गयी। सुबह के 10 बज चुके थे...और यह तो बस थी या बैलगाड़ी...कहना कठिन है...बगैर कसरत के हमारी कमर सीधी होती रही और हम बतियाते - बतियाते 2 घंटे गुजार चुके थे। अरसे बाद जब 2 सहेलियाँ मिलती हैं तो ऐसा होना तो स्वाभाविक ही था। हमारी सीट पीछे थी और कन्डक्टर महाशय कहते थे...समझ नहीं आता था...आखिरकार बस रुकी और हमारे मन में एक ही सवाल...मन्दारमणि कब आएगा...और जब हमने पूछा तो पता चला कि उस चालखोला स्टैन्ड को तो हम पीछे छोड़ आए। कोई और होता तो परेशान हो जाता...क्योंकि जगह अनजान थी..मगर हमारी...यात्रा में तो यह ट्विस्ट बन गया...बस स्टैन्ड पर जाकर दूसरे कन्डक्टरों की मदद से हम चालखोला वाली बस में चढ़े...जो वापस 40 -45 मिनट का रास्ता था..सीट मिलने की सम्भावना कम थी मगर मिल गयी और सीट मिलते ही हमने जो अट्टहास किया...उसे सोचकर अब भी आनन्द आता है....चालखोला जाने तक और उसके बाद भी अपनी बेवकूफी पर हम हँसते ही रहे...अनायास जब दाँत चियार देती हूँ तो चुपके से यह घटना शामिल हो जाती है। वहाँ से ऑटो लिया और स्थानीय राजनीति का पता चला। हमने जो ऑटो लिया था..वह ऑटो चालक तृणमूल समर्थक था और उसके चाचा भाजपा समर्थक...और चाचा पर तृणमूल के एक कद्दावर नेता ने मामला कर रखा था। सच, राजनीति देश ही नहीं बाँटती बल्कि अब तो उसने घर भी बाँटने शुरू कर दिये हैं। बहरहाल, होटल लीव सी वैली में बुकिंग थी जहाँ हमें 1.30 बजे पहुँचना था...पहुँचे 2.30 बजे। थक चुके थे तो भूख भी जोरों की लगी थी...तरोताजा होकर खाने पर हम ऐसे टूटे जैसे कोई युद्ध जीतना था। दाल, चावल था तो घर के खाने जैसा ही था...अब समन्दर हमें पुकार रहा था।
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| समुद्र मेरा सारथी बन गया |
शाम 4 बजे...समुद्र का विशाल तट...सामने डूबता हुआ सूरज.....यही तो वह दृश्य था....जिसने हमें बाँध लिया...। मुझे कोलकाता के जलजमाव में चलने का अभ्यास थोड़ा - बहुत था...कॉलेज में थी तो हम चारों सहेलियाँ घुटने भर तक का जल जमाव भी हाथ पकड़कर पार कर लेती थीं....यही प्यार था..यही आदत थी..यही मित्रता थी..कभी बारिश की फिक्र नहीं हुई मगर पेशेवर जीवन ऐसा नहीं होता। कम से कम आरम्भिक दिनों में तो ऐसा बिलकुल नहीं था...यहाँ लोग आपके डूबने का तमाशा देखते हैं और शायद इन्तजार भी करते हैं...मुझे याद है जब मैंने पत्रकारिता की शुरुआत की तो आपके द्वार होता था जो हमारे समय में ही शुरू हुआ था...तब बीटी रोड के खुले नाले में मेरा पैर फिसला था क्योंकि जल जमाव के कारण मुझे जमीन दिखायी नहीं दी। उस समय मौत को करीब से देखा था..मेरे हाथ में लाल रंग की छतरी थी...जो अधिकारी हमें ले गये थे....वे निर्विकार होकर कार में बैठे रहे मगर उस समय सोमाद्रि शर्मा नामक एक सहकर्मी थी...उसने ऐन मौके पर मेरा हाथ पकड़ लिया और फिर स्थानीय लोगों की सहायता से मुझे बाहर निकाला गया। मेरी उससे अक्सर बहस होती थी मगर इस घटना के बाद मेरे दिल में उसके लिए इज्जत बढ़ गयी...आज अगर मिले तो सबसे पहले शुक्रिया कह दूँ....मैं और सोमाद्रि ठेले पर आये...उसकी चप्पल बह गयी थी मगर तमाम कटुताओं के बावजूद दो लड़कियाँ एक दूसरे का सम्बल बन गयीं। मैंने सीखा कि अन्तत: आप अपनी सहायता जब खुद करते हैं तो रास्ते बन जाते हैं...मेरी लाल रंग की वह छतरी मेरा रक्षक बन गयी जिसे देखकर सोमाद्रि ने शायद देखा था..मुझे अब भी यही लगता है मगर इस घटना के बाद कहीं कोई पछतावा नहीं था..अगले 10 साल तक यह घटना किसी के लिए शर्मिन्दगी का विषय नहीं बनी बल्कि मेरा उपहास उड़ाया जाता रहा क्योंकि मैं डूब रही थी और नाले का पानी पी लिया.....ये उन लोगों का मानना था...मगर ऐसा हुआ नहीं। दरअसल..डूब रहा व्यक्ति उपहास का विषय नहीं होता....उपहास के योग्य वह होते हैं जो तमाशा देखते हैं और सदाशयता का ढोंग रचते हैं। यह घटना मेरा पेशेवर जीवन की पहली सच्चाई से क्रूर परिचय करवा गयी मगर मैं तब भी जस की तस रह गयी। इस घटना के बाद पानी से थोड़ा डरने लगी थी...मुम्बई गयी तो भी जुहू बीच के तट पर ही खड़ी रही मगर मन्दारमणि के तट पर शायद समुद्र ने मेरा डर बहा दिया। नीलम तो पानी देखकर पागल हो गयी थी....मैं उसे गहरे समुद्र में जाने से रोकती रही...और वह अन्दर तक जाती रही...फिर मैंने धीरे से डरते हुए समुद्र का वह नमकीन पानी छुआ।
समुद्र जैसे मेरा सारथी बन गया
पानी छुआ..और धीरे बैठ गयी...नीलम का हाथ पकड़ रखा था...मगर उस पर तो धुन सवार थी...मैं जितना खींचती...वह उतनी ही दूर भागती...मगर अब मुझे आनन्द आने लगा था...मैंने खुद को छोड़ दिया। अब समुद्र ही मेरा सारथी बन चुका था और मन्दारमणि में लहरों की अच्छी बात यह थी कि यहाँ लहरें आपको तट की तरफ ले जाती हैं तो...डर और कम हुआ...हम आपस में ही तस्वीरें खींच रहे थे..वीडियो बना रहे थे कि समुद्र तट पर घूम रहे एक दादा फोटोग्राफर आये...फिर क्या जमकर फोटो शूट हुआ...दो - ढाई घंटे बाद हम निकले...। हर तस्वीर 20 रुपये की थी और फोटोग्राफर के अनुसार यूनियन के दबाव में वह चार्ज कम नहीं कर सकते थे। समुद्र में खतरा तो है..एक पतला सा लाइफ जैकेट पहनकर बोटिंग के लिए लोग उतरते हैं...हमने भी बोटिंग की...और मैं तो जहाज के बीच में ही बैठ जाती थी...सूरज ढल चुका था और हम होटल वापस लौटे।
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| पहले तो थोड़ी सी हिचक और थोड़ा सा संशय भी था मुझमें |
अन्धकार में डूबी आर्तनाद करता समुद्र का सन्नाटा
मन्दारमणि तट पर रात को बिजली की समुचित व्यवस्था नहीं हो सकी है। बैठने की जगह बन रही है..विश्व बांग्ला भी आपको दिखेगा और आस -पास मोती के गहनों से लेकर लकड़ी के सामान व मिठाइयों के स्टॉल तक भी मिलेंगे मगर अब भी बहुत काम होना बाकी है। बल्ब के धुँधले प्रकाश में लोग जाते हैं...मगर अन्धकार में समुद्र के तट पर लहरों का गर्जन किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को अन्दर से भिगा देता है...सुबह चमकती लहरें और रात के अन्धेरे में रह जाती है उनकी आवाज...लहरें दिखायी नहीं देतीं...मौन आर्तनाद भी हम कहाँ सुन पाते हैं।
रात के 10 बजे वाली चाय और वे पराठे
भूख लगी थी मगर होटल में खाने की बिल्कुल इच्छा नहीं थी बल्कि सुबह से चाय नहीं पी थी। चाय तलाशते हुए हम दुर्गा होटल पहुँच गये जो पास ही है..मगर पराठे देखकर भूख भी लग गयी। चाय के साथ आलू के भरवाँ पराठे खाए...और तृप्ति मिली। छोटे होटलों में कई बार वह अपनत्व मिल जाता है जो आप बड़े होटलों की चमक में नहीं पा सकते..यहाँ भी ऐसा ही हुआ और यह बहुत किफायती भी है।
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| सुबह की सुनहरी किरणें और हम |
सुबह भी सुनहरे समुद्र के साथ
समुद्र तट पर उगते हुए सूरज को देखना बेहद खूबसूरत दृश्य होता है। हम सुबह 6 बजे ही पहुँच गये थे मगर नजर रह -रहकर घड़ी पर जाती थी क्योंकि बस पकड़नी थी। इस बार हम बहुत ज्यादा सजग थे....हम भीगते रहे...मैं सीपियाँ चुनती रही....हम साथ चलते रहे और फिर एक बार फोटो शूट हुआ मगर इस बार थोड़ा कम। तरोताजा होकर फिर पराठों का आनन्द लिया।
अच्छा समुद्र अगली बार फिर...मिलते हैं
मन्दारमणि के पास एक मंदिर बन रहा है। यह मनसा मंदिर है और निश्चित रूप से इस स्थान का आकर्षण बढ़ाने जा रहा है। यहीं से गुजरते इस यात्रा के अंतिम पड़ाव पर एक बार दोपहर की तपती किरणों के बीच समुद्र को अलविदा कहा। ऑटो से फिर चालखोला स्टैन्ड....इस बार बस अच्छी मिली थी। शाम 5 बजे हम धर्मतल्ला पहुँचे। नीलम अपने घर और मैं दफ्तर.....आखिर काम ने ही तो ये अनमोल लम्हे जीने के लिए सक्षम बनाया था....अब मौका मिले तो किसी और तट पर..जिन्दगी यायावरी भी है।





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