घर जिम्मेदारियों को साझा करने की जगह है, बोझ बनाने की नहीं


कई बार यह देखना जरूरी हो जाता है कि आप कहाँ पर हैं.. क्या जब किसी बात के लिए खड़ा होना पड़ता है तो आपमें इतनी हिम्मत होती है कि आप उस बात पर अडिग रह सकें। हाँ, यह परीक्षा ही है जब आपको पुराने प्रतिमान ध्वस्त करने के लिए आगे आना होता है। अभी जो हालात हैं, हम उससे ही गुजर रहे हैं। बचपन से ही चूल्हे के पीछे माँओं, दादियों को देखा, ईंधन के तौर पर कोयला इस्तेमाल होता था, फिर दीदियों और बहनों को देखा। चूल्हे की आँच में वे खुद को झोंकती रहीं मगर घर के पुरुषों को कोई फर्क नहीं पड़ा, उनकी नजर में यह हमेशा से औरतों का काम रहा है। इस अघोषित नियम के कारण कई बार लम्बे समय तक घर की बहुओं ने मायके का मुँह नहीं देखा। लड़कों की शादी कर देने का बड़ा कारण यह भी है कि पत्नी घर आयेगी तो रसोई सम्भाल लेगी... घर का काम सम्भाल लेगी, इस बीच में यह सब भूल ही जाते हैं कि घर मे औरतों की अपनी जिन्दगी है, अपनी सोच है और एक हृदय भी हो सकता है जिसमें कुछ इच्छाएं होंगी। मैं नहीं जानती क्यों, लड़कों के हिस्से में घर की जिम्मेदारियाँ क्यों नहीं रखी गयीं, भारतीय पुरुषों में महिलाओं के प्रति यह जो मालिकाना भाव है, उसका बड़ा कारण भी यही है कि उनको महसूस करना नहीं सिखाया गया। मैं समझ नहीं पाती कि क्या वह वजह होती होगी कि घर के कामों में अपना अपमान देखते हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि यह कौन सा नियम है कि 50 साल के बेटे के कपड़े भी 70 साल की माँ को या उसकी पत्नी को धोने पड़े। जब बड़े - बड़े बुद्धिजीवियों को मंच पर देखती हूँ और अपने स्वार्थ को जब वे पत्नी या किसी घर की स्त्री के त्याग का नाम देते हैं तो समझ में नहीं आता कि रोऊँ या हँसूं। मेरी नजर में अपने कॅरियर या सफलता के लिए किसी की प्रतिभा और उसके सपनों को मार डालना और उसे त्याग का नाम देना एक प्रकार की हत्या और उससे बड़ा अपराध है। फर्क इतना है कि आप यहाँ खुद अदालत भी बन जाते हैं और खुद ही न्यायाधीश बनकर खुद को या तो माफ कर देते हैं या जस्टीफाई कर देते हैं कि वह तो चाहती ही यही थी। ये उसकी ही इच्छा है...मगर इससे गुनाह आपका कम नहीं होता। खुद शिक्षित समाज ऐसा है तो हम किस तरह की दुनिया गढ़ने जा रहे है और अपने बच्चों को क्या देने जा रहे हैं, यह सोचने वाली बात है। यह सुपर विमेन की जो अवधारणा है, वह हमारी सबसे बड़ी शत्रु है...इसके चक्कर में आपने अपने बचा -खुचा आराम भी खो दिया है। अपने घर के पुरुषों को पंगु बनाकर वो कोई नया आयाम नहीं खड़ा कर रही हैं बल्कि अपनी शारीरिक और मानसिक सेहत के साथ खिलवाड़ कर रही हैं..यह दूसरी औरतों पर भी वह बनने का दबाव बना रहा है जो वे नहीं हैं।
इस बात से इन्कार नहीं है कि यह घर और रसोई जिम्मेदारी है मगर यह सिर्फ स्त्रियों की ही जिम्मेदारी ही क्यों है? ऐसा क्यों है कि किसी बेटे की पढ़ाई पर किसी काम का असर नहीं पड़ता और क्यों एक गिलास पानी देने के लिए किसी लड़की को ही उठना पड़ता है? किसने बना दिया यह अघोषित नियम, पिता जब आएँ तो पानी का गिलास बेटी के ही हाथ में होना चाहिए...क्यों ये जड़ता नहीं टूटती कि रात को 11 बजे घर लौटने पर भी बहू ही खाना बनाएगी...। खिड़की के जाले कोई भाई क्यों नहीं साफ कर सकता..क्या हमारी आने वाली नस्लों में भी यह जिम्मेदारी सिर्फ बेटियों के हिस्से ही रह जाएगी? पहले कहा जाता था कि लड़के बाहर जाते हैं इसलिए वे काम नहीं कर सकते..किसी ने नहीं पूछा कि क्या लड़कियाँ घर में मेहनत नहीं करतीं...मैं बहुत सोचती हूँ कि ऐसा किस तरह हुआ होगा मगर जवाब नहीं मिलता...आखिर समय बदल रहा है तो हमारी पितृसत्ता क्यों नहीं बदलती? आज तो लड़कियाँ भी काम पर जा रही हैं......फिर भी क्यों नहीं मिटता यह फर्क..दरअसल, यह परस्पर असुरक्षा और अहंबोध का मामला है...असुरक्षा इस बात की कि स्त्रियों ने घर और रसोई, दोनों को सुकून की जगह अपना हथियार बना लिया है, वह उनको इस बात की गारंटी देता है कि अपने पति का प्रेम पा सकेंगे...तारीफें अलग से उनको झाड़ पर चढ़ाती हैं और उनको याद नहीं रहता है कि उनके हाथ कब फटने लगे...कब कमजोरी होने लगी...कब आँखों के आगे अन्धेरा छाने लगा..और इस भरम में वह अपनी जिन्दगी ही खत्म नहीं करती बल्कि जान देने को भी तैयार है...घर उसका एकाधिपत्य है मगर याद रहे कि कोई राजा या रानी भी अपनी सत्ता अकेले नहीं सम्भाल सकती...उसे भी मदद की जरूरत पड़ती है...सहयोग की जरूरत पड़ती है। बगैर साझीदारी के न तो घर चल सकता है और न देश। इस साझीदारी का सबसे बड़ा शत्रु है अहंबोध..जो आपने अपने बेटों, पतियों और बच्चों में कूट - कूटकर भरा है और वह उनको जिन्दगी के अनुसार ढलने नहीं देता। उनको लचीला बनकर स्थिति को स्वीकारने नहीं देता....यही कारण है कि उनको घर और रसोई सम्भालना अपमान लगता है। आप एक बुरी परम्परा और सोच की संवाहक हैं। इससे ज्यादा कुछ नहीं..आपको याद नहीं कि आज आप अपने परिवार के पुरुषों की मदद नहीं ले रहीं तो आप उनका भविष्य नष्ट कर रही हैं क्योंकि आपके पति किसी के बेटे और भाई भी हैं, बेटा किसी का पति और पिता भी है। अगर आप उनको लेकर मोह नहीं छोड़तीं तो कल आपकी बेटियों के पतियों से आप उम्मीद नहीं कर सकेंगी कि वे उसकी जिम्मेदारियाँ साझा करें। जब आपने बहू के लिए अपने बेटे को तैयार नहीं किया तो आपकी बेटी के लिए आपके दामाद को कोई कैसे तैयार करेगा..वह भी आपकी तरह ही अपने सपने टूटते हुए देखेगी..कुंठा में जीएगी..और उसका पति इसे त्याग का नाम देगा। अपनी जिम्मेदारियाँ आप घर के पुरुषों से साझा नहीं कर रही हैं...कल को न तो वे अच्छे भाई साबित होंगे, न अच्छे पति, न बेटे और न दामाद... और यह एक अमानवीय परम्परा है इसलिए जो व्यवस्था मनुष्य को क्रूर बनाती है, उसे टूटना ही चाहिए।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पितृसत्ता नहीं, मातृसत्ता ही रही है भारत की शाश्वत परम्परा

रेखा : आँधियों को आँखों की मस्ती से मात देती शम्मे फरोजा

व्यवस्था अगर अपराधियों को प्रश्रय देगी तो परिवार हो या समाज, उसका टूटना तय है