मोमबत्ती मत गलाइए...मशाल बनाइए और उसे पहले घर से जलाइए


लोग मुझे फेमिनिस्ट कहते हैं...मुझे ही नहीं बल्कि लड़कियों के हक की बात करने वाले या लैंगिक समानता में विश्वास रखने वाले हर व्यक्ति को यह शब्द सुनना ही पड़ता है और यह कुछ बुरा भी नहीं है। कारण यह है कि जिस वातावरण में हम पल रहे हैं...जी रहे हैं...वहाँ लड़कियों को सिमटना तो सिखाया जाता है मगर लड़कों को सम्भलकर रखना नहीं सिखाया जाता। लड़की से छेड़छाड़ हुई तो आपने उसका स्कूल जाना बन्द करवा दिया..मगर छेड़छाड़ बन्द नहीं करवायी...स्कूल में शौचालय नहीं हैं तो लड़कियों का स्कूल छुड़वा दिया मगर स्कूलों में शौचालय बनवाने के लिए आगे नहीं आये। सड़क पर मनचलों ने परेशान किया तो उस सड़क से बचकर चलने की नसीहत दी...कार्यालय में उत्पीड़न हुआ तो नौकरी छोड़ दी..और इस तरह हम लड़कियों की दुनिया सिमटती चली गयी।
भारत में बेटे की माँ होना प्रिविलेज है...और औरतें यह प्रिविलेज चाहती हैं वरना क्या वजह है कि तीन बेटियो के बाद भी उनको एक बेटा चाहिए..बेटी होना ठीक है मगर बेटा होना एक शौक है..और जब ये शौक पूरा नहीं होता तो औरतें ये प्रिविलेज कई दूसरे तरीकों से तलाशती हैं..कभी भाभी की सन्तान के रूप में तो कई देवरानी  या जेठानी की सन्तान के मोह में...कई औरतों के लिए यह प्रतियोगिता भी है और ससुराल में सम्मान पाने का तरीका...इसका सीधा मतलब यह है कि आप अपने अस्तित्व को खुद खारिज कर रही हैं...मैं बहुत सख्त हूँ इसलिए अक्सर मुझे बताया जाता है कि मेरी बुद्धि मेरे घुटनों में है या एड़ियों में है। आपत्ति इस बात पर भी है कि मैं इतनी फेमिनिस्ट क्यों हूँ...क्यों हर बात में लड़का - लड़की का मसला खोज लेती हूँ...मेरी बहनें इस बात से परेशान हैं इसलिए यह वाक्य,,,,ओहो...तुमसे तो कुछ कहना ही बेकार है...या बस करो भाषण मत शुरू करो...जैसे वाक्य सुनती हूँ और तब भी बात करती हूँ....दरअसल, उंगली जब अपनी तरफ उठे तो परेशानी होती है...।
मेरी माँ ने मुझे बताया जो सहेगा, वह रहेगा मगर जिन्दा लाश बनकर या कठपुतली बनकर रहना भी कोई रहना है? आज बहुत से लोग दक्षिण भारत की फिल्मों को याद कर रहे हैं...सिंघम रिर्टन्स जैसे संवाद मारे जा रहे हैं। यह सच है कि हैदराबाद इन्काउन्टर से सन्तुष्टि तो मुझे भी मिली है मगर हकीकत तो यही है कि यह तो आधा न्याय है।
हम हमेशा पॉर्न फिल्मों की बात करते हैं तो कभी ये भी सोचिए कि इनमें काम कौन करता है? कपड़े उतारते हुए किसको दिखाया जाता है...क्या इस तरह के दृश्य लड़कियों के बगैर पूरे होते हैं? अगर नहीं तो हम सिर्फ पुरुषों को दोष क्यों दे रहे हैं...वह नायिकाएँ, वह निर्देशक दोषी क्यों नहीं हैं जो अपनी फिल्मों में स्त्री के हर रिश्ते को तार - तार कर रहा है और उन फिल्मों को कला के नाम पर परोसने वाले लोग क्यों जिम्मेदार नहीं हैं? आये दिन हर चैनल और वेबसाइट पर इस तरह की चटखारेदार खबरें परोसने वाले और न्यूनतम वस्त्रों में नायिकाओं की तस्वीरें छापने वाले सम्पादक जिम्मेदार क्यों नहीं हैं...?
मुझे याद है जब निर्भया कांड हुआ तो हर पुरुष शैतान ही लगता था मगर आज मुड़कर देखती हूँ तो लगता है कि दोषी तो दोनों हैं...पुरुषों को शैतान और हिंसक कोई और नहीं बल्कि स्त्रियाँ बना रही हैं...कभी अपनी दया, ममता और दुलार के नाम पर बना रही हैं तो कभी अपनी असुरक्षा के कारण बना रही हैं...आपको दिक्कत होती है तो दूसरी औरतों से होती है जो आपके पति के पीछे हैं, आपको अपने पति से दिक्कत क्यों नहीं है जो उनका इस्तेमाल कर रहा है..आप जानती हैं कि आपका पति एक अय्याश शख्स है मगर आपको तब उससे परेशानी नहीं होती..जब तक आपका सिंहासन खतरे में न पड़े...आप जानती हैं कि आपका बेटा शराबी है और लड़कियों से बदसलूकी करता है...छेड़ता है...मगर आप उसका स्वागत करती हैं...आप बच्चों के साथ बैठकर शराब पीते हैं...। आप तमाम वह फिल्में देखते हैं जिनमें हिंसा...और स्त्रियों के प्रति कुंठा का बढ़ावा हो..स्त्री के नाम पर दी जाने वाली गालियाँ हों...आप तमाम अश्लील गानों को हिट बनाते हैं...कभी पूनम पांडे तो कभी सनी लियोनी को खोजते है। आप कैसी बहन हैं जिसे अपनी सुरक्षा तो चाहिए मगर उसका भाई किसी और स्त्री के साथ बदतमीजी करे...तो आपको कोई परेशानी नहीं है।
मेरे आस - पास औरतों के नाम पर गालियाँ देने वाले लोग भी हैं और ऐसी हिंसक व वाहियात फिल्मों में ही मनोरंजन खोजने वाले लोग भी हैं। हम वह हैं जो औरतों को तन्दूरी चिकन बनाते हैं और विरोध कहने पर दलील देते हैं कि इसे गम्भीरता से नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि यह तो सिर्फ मनोरंजन के लिए है...आपका मनोरंजन इतना सस्ता क्यों है..इस बारे में कभी सोचिएगा....क्यों एक इत्र की खुशबू को स्त्री की ही देह चाहिए...मार्क जकरबर्ग ने तो अश्लीलता की खुली छूट दे रखी है..आखिर स्त्रियों के प्रति ये कैसा सम्मान है? क्यों आपकी हर गाली स्त्रियों को समर्पित है....हर अच्छा काम करने वाले शख्स की पहचान मर्द ही क्यों है....मनुष्य क्यों नहीं?
संसद में हायतौबा मचाने वाली पार्टियों ने क्या दागियों को टिकट नहीं दिये?  हकीकत यह है कि इसी साल हुए लोकसभा चुनाव के वक्त सबका रवैया एक जैसा ही रहा था। कई दलों ने 88 ऐसे उम्मीदवार उतारे, जिन पर महिलाओं के खिलाफ आपराधिक मुकदमे चल रहे थे।
इन आरोपी 88 उम्मीदवारों में से 19 अभी लोकसभा में हैं। इनमें से तीन पर दुष्कर्म के आरोप हैं। ऐसे प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारने के मामले में सबसे आगे भाजपा रही थी। भाजपा ने चुनाव के दौरान ऐसे 15 उम्मीदवारों को टिकट दिया।
इनमें से 10 प्रत्याशी चुनाव जीतकर संसद पहुंचे हैं। वहीं, दूसरे नंबर पर कांग्रेस रही, जिसने 9 ऐसे नेताओं को टिकट दिया। इनमें से 5 चुनाव जीत भी गए। 38 निर्दलीय उम्मीदवारों पर भी ऐसे मामले थे, लेकिन वे सभी चुनाव हार गए। ये आंकड़े 7,928 प्रत्याशियों के शपथ पत्रों के आधार पर तैयार हुई एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक हैं।
 बीते पांच वर्षों में 29 राज्यों और 2 केंद्रशासित प्रदेशों में विधानसभा चुनाव हुए। कुल 40,690 उम्मीदवार मैदान में थे। इनमें 443 उम्मीदवारों पर महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले थे। ऐसे सबसे ज्यादा 49 प्रत्याशी भाजपा के थे। कांग्रेस के ऐसे 41 प्रत्याशी थे। इन 443 उम्मीदवारों में से 63 विधायक बने। इनमें भाजपा के 13 और कांग्रेस के 14 विधायक हैं।
हालत यह है कि महिला नेता भी पार्टी लाइन के घेरे के कारण इस तरह के मामलों में बँध जाती हैं। कब और क्या बोलना है...यह तय होता है कि सम्बन्धित राज्य में सरकार किसकी है..गठबन्धन किससे है...याद कीजिए आजम खान और जया प्रदा का कांड और हमारी नेत्रियों का रवैया। शशि थरूर को लेकर सोनिया खामोश हैं, तापस पाल को लेकर ममता...उन्नाव को लेकर ही किस भाजपा नेत्री ने मुँह खोला है....78 प्रतिशत महिला सांसदों या 33 प्रतिशत आरक्षण भी कोई फायदा नहीं पहुँचा सकता जब तक कि हमारी नेत्रियाँ सशक्त नहीं होतीं। आज जया बच्चन मॉब लीचिंग चाहती हैं मगर जया प्रदा को उनकी ही पार्टी के सांसद ने अशब्द कहे थे...तब जया जी खामोश रहीं,,,। आप किनसे न्याय की उम्मीद कर रहे हैं जब इस एक जरूरी मुद्दे पर ही एकता नहीं है।
क्या अपराधियों के घर में स्त्रियाँ नहीं हैं...आखिर अभद्र टिप्पणियाँ करने वाले, गालियाँ देने वाले आसमान से तो नहीं टपकते...आप सीधे उन पर कार्रवाई कर सकते हैं..मेरा मानना है कि अभद्र और विवादास्पद विवाद देकर सुर्खियाँ बटोरने वालों के खिलाफ भी सख्त कारर्वाई होनी चाहिए मगर जिस देश में अर्जुन रेड्डी और कबीर सिंह जैसी फिल्में सुपरहिट हो जाएँ, वहाँ के लोगों को गला फाड़ने से पहले एक बार सोचना तो चाहिए।
अनुशासन रखने में कोई बुराई नहीं है मगर अनुशासन सबके लिए एक सा होना चाहिए। जब आप लड़कियो को दुप्पटा ठीक रखने की सलाह देते हैं तो लड़कों को भी बताइए कि वे बगैर बनियान के पारदर्शी शर्ट पहनते हैं और बटन खोलकर घूमते हैं तो वे कूल नहीं बल्कि लोफर लगते हैं। अगर आप लड़कियों को सलीके से कपड़े पहनना सिखा रहे हैं तो लड़कों को बताइए कि उनके लिए भी अंडरवियर और बनियान पहननी आवश्यक है। आप जिन्दगी भर लड़कियों को एक आदर्श बहू के रूप में तैयार करते रहे तो लड़कों को भी अच्छा दामाद बनने का प्रशिक्षण दीजिए। अगर आपके घर में मेहमान आते हों तो आपका बेटा भी पानी ला सकता है। बर्तन धोने, बिस्तर झाड़ने, कपड़े धोने से लेकर खाना बनाना भी सिर्फ लड़कियों की नहीं बल्कि दोनों की जिम्मेदारी होनी चाहिए। सड़क पर किसी पुरुष का कहीं भी पैंट खोलकर खड़े हो जाना भी अश्लील है...उतना ही जितना मिनी पहनकर किसी लड़की का सड़क पर चलना...।
बलात्कार या महिलाओं के प्रति होने वाला कोई भी अपराध सिर्फ औरतों का मुद्दा नहीं है....पीड़िता किसी की बेटी, बहन, पत्नी या माँ भी है यानी पुरा पुरुष वर्ग उसकी पीड़ा में शामिल है। अपराध जेंडर का मामला हो ही नहीं सकता क्योंकि उत्पीड़न का शिकार लड़कियाँ ही नहीं बल्कि लड़के भी हो रहे हैं...और उसका दर्द कोई माँ, बहन, पत्नी ही सहती है। अपराधी महिलाएँ ही निकलती हैं....। फर्जी मामलों में वह पुरुषों को फँसाती भी हैं...अपराध धर्म का मामला भी नहीं है क्योंकि अपराध हिन्दू या मुस्लिम नहीं होता और न ही हो सकता है। मोमबत्तियाँ मत गलाइए, मशाल बनिए...और उसे जलाने की शुरुआत अपने घर से करिए
लड़कियों का सम्मान ही क्यों लड़कों का भी सम्मान होना चाहिए...तमाम समस्याओं का समाधान सूत्र एक ही है..बच्चों को मनुष्य बनाकर बड़ा कीजिए, लड़का या लड़की नहीं....अच्छे काम की शाबाशी देनी हो तो मर्द बनाना जरूरी नहीं है...बच्चे को डर लगे तो उसे यह मत कहिए कि मर्द डरते या रोते नहीं...वह मनुष्य है...वह डर सकता है...रो सकता  है....उसे गुड़िया से खेलना अच्छा लग सकता...और सबसे जरूरी बात यह कि एक बेहतर दुनिया बनानी है तो बच्चों और समाज से पहले खुद को बदलिए...और हाँ अगली बार औरतों के नाम की गालियाँ याद आयें तो एक बार सोच लीजिएगा कि माँ या बहन की जगह पिता या भाई इसमें इस्तेमाल किया जाए तो कैसा लगेगा....यह आप ही कर सकते हैं।
अगर आने वाला कल युवाओं का है तो इस दुनिया को बेहतर बनाने की जिम्मेदारी आपको उठानी ही होगी। आपका कोई दोस्त, भाई..अपनी गर्लफ्रेन्ड के किस्से चटखारे लेकर सुनाए तो उसे रोकिए क्योंकि हर बार होने वाले किस्से आपकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हैं..थक नहीं जाते आप यह सुनकर....तुम सारे लड़के एक जैसे होते हो....नहीं सारे लड़के एक जैसे नहीं होते.....और समय आ गया है कि अब आप यह बात साबित करें। लड़कियों और कितना छोड़ोगी...कितना सिमटोगी..कितना बंधोगी....कितना बदलोगी....कब तक अपने सपनों को जमींदोज करती रहोगी...अब फैलना और सुधारना शुरू करो क्योंकि ये तुम ही कर सकती हो..।

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