जिस घर में जन्मी है...वह अधिकार वहीं से लेगी

 



सुप्रीम कोर्ट ने पैतृक सम्पत्ति में बेटियों को अधिकार दे दिया है...बात सुनने में जितनी सीधी लग रही है, उतनी है नहीं...क्योंकि इस बात को हजम कर पाना आपके पितृसत्तात्मक समाज के लिए इतना आसान नहीं है। ऐसा है कि अधिकार तो कानून ने पहले से ही दे रखे हैं मगर उनका पालन करवाने के लिए सरकारें कभी गम्भीर नहीं रहीं। फैसलों को लागू करवाना राजनीतिक हितों पर निर्भर करता है...कौन सी सरकार और कौन सी पार्टी अपने वोट बैंक को लेकर जोखिम उठाएगी...और सबसे बड़ी बात इतनी ईमानदारी किसमें है कि वह फैसले को मानकर ईमानदारी से अपने घर की औरतों को हक देना शुरू करेगा?

भारत में बहुओं के हक की लड़ाई खूब लड़ी जाती है...बेटियों के लिए आवाज उठती है तो उसका अन्दाज भी गजब का होता है....दीवारों पर लिखे नारे...'कैसे खाओगे रोटियाँ...जब नहीं होंगी बेटियाँ'...मगर बहनों के लिए आप रक्षाबन्धन के दिन बसों में निःशुल्क यात्रा वाले ऑफर ही देखते हैं....। बहनों की बात कर रही हूँ क्योंकि पिता तो फिर भी अधिकार बेटी को दे ही दे मगर जिन घरों में पिता नहीं हैं....औऱ हों भी तो बेटियों का सम्पत्ति में अधिकार है, यह बात उनके लिए पचाना ही कठिन होगा....। वहीं दूसरी तरफ समस्या भाइयों की तरफ से है...क्योंकि दहेज देकर भव्य तरीके से ताम - झाम के साथ बहनों की शादी कर देना भाइयों को एकमात्र कर्तव्य लगता है....और इसका कारण यही है कि यही होता आया है....यह इसलिए भी है क्योंकि बहनें इसके बाद सम्पत्ति पर हक नहीं जतातीं...क्योंकि उनको लगता है कि उनको दहेज में सब कुछ मिल चुका है....और मायके तो भाइयों से है...रिश्ता कौन बिगाड़े...?

रिश्ता कौन बिगाड़े के चक्कर में अपने अधिकार ताक पर रखे...रखती चली आ रही हैं औऱ अब तो अपने फायदे के लिए अधिकारों की बात कहने वाली लड़कियों को कमजोर भी करने के लिए भी लड़कियाँ ही खड़ी हो जा रही हैं...। मुझे समझ में नहीं आता कि रिश्तों का दम्भ भरने वाले समाज में आप इतने निर्लज्ज कैसे हो जाते हैं कि बेटियों को जरूरत के समय भाग्य भरोसे इसलिए छोड़ देते हैं कि उनकी शादी हो गयी है...उसके बच्चे हैं....आँख का पानी कैसे मर जाता है कि सामने जरूरत में पड़ी बहन को देखकर भी उनको यही ख्याल आता है कि वह उनके आगे हाथ पसारे,....क्या एक राखी बाँधने और कुछ रुपये देने से कर्तव्य पूरा हो जाता है...आप इतने बेईमान कैसे हो सकते हैं....कि बहन को एक कोने में रखकर आप आराम से सो जाएँ.....?

जिस घर में जन्म लिया, जब वहाँ से उसे हटा दिया गया तो आप समझते हैं कि जिस घर में वह कभी रही नहीं,....वहाँ उसे अधिकार मिलेंगे....जबकि वह घर भी उसका नहीं....लड़कियों की जड़ उनके माता - पिता का घर ही होता है...फिर विवाह हो या न हो...कोई फर्क नहीं पड़ता....ऐसे लोग अपनी बेटियों के साथ होने वाले अत्याचार पर भी इसलिए खामोश रह जाते हैं कि बेटी के लिए आवाज उठायी तो बहनें सवाल पूछेंगी...और ऐसी माँओं का क्या किया जाए...जो ये सब देखती हैं....और शांति के नाम पर पल्ला झाड़ लेती हैं....बेटे ही क्यों...ऐसी हर औरत जिम्मेदार है...और कोई शिक्षित लड़की इस तरह की हरकतों को गुड बुक में रहने के लिए नजरअन्दाज करे....तो उसे अपने साथ गलत होने पर शिकायत करने का हक नहीं है....वह इसी के लायक है..।

बहरहाल...यह मेन्टल ब्लॉक तोड़ना बहुत जरूरी है और इससे भी जरूरी है कि ऐसी मुहिम चलायी जाए कि सरकार इसे लागू करे...बाई हुक औऱ बाई क्रुक...कोई भी लाइसेंस या कर्ज देने से पहले...इसकी जाँच की जाए...घर की बेटी या बहन को अधिकार मिला है या नहीं...अगर नहीं मिला तो बाकायदा जुर्माना लगाया जाए और सम्पत्ति पर कर दुगना किया जाए...सामाजिक तौर पर ऐसे व्यक्ति का बहिष्कार किया जाए...और दहेज की जगह सम्पत्ति में अधिकार देने का कानून लाया जाए। मेन्टल ब्लॉक तोड़ने के लिए मुहिम चले...लेने में शर्म नहीं होनी चाहिए...अधिकार मिलेंगे तो जिम्मेदारियाँ भी अच्छी तरह से निभायी जा सकेंगी। भारतीय समाज ने अगर लड़कों को झुकना या अधिकार देना नहीं सिखाया तो अब उसे सिखाना होगा...बहरहाल सुप्रीम कोर्ट ने उम्मीद दी है...सपने को सच तो हमको ही करना है।


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