बेटी का मतलब सिर्फ 'अपनी बेटी' नहीं होता

 




आज 27 सितम्बर है...बेटी दिवस मनाया जा रहा है..हम आयोजनों में जीने वाले बन गये हैं...इस पर सोशल मीडिया ने इस आयोजनप्रियता को हवा दी है...वहीं आज ही एक खबर पर नजर पड़ी....8 साल से अपनी सगी बहन से भाई दुष्कर्म करता रहा और वह भी माँ की जानकारी में। पिछले कुछ दिनों में ऐसी घटनाएँ हुई हैं..सारे के सारे परदे...एक - एक करके गिरते गये हैं...और सत्य का ऐसा पथरीला रूप देखने को मिल रहा है जिसकी आशंका पहले से ही थी। 

सच कहूँ तो आज कुछ कहने का या लिखने का मन नहीं था मगर लिखना और कहना एक दायित्व है...यही आता है...तो आज बेटियों के बहाने बेटियों पर ही बात की जाए और हर तरीके से की जाए...कहाँ से शुरू करूँ...? अगर माँ को सब कुछ पता हो और तब भी बहन की यह अवस्था हो...तो यह देखने की जरूरत है..कि रोग कहाँ है..दिल पर हाथ रखकर कहिए तो क्या आप यही नहीं करती रही हैं...आखिर आप पुरुषों पर खासकर अपने भाई, पति या बेटे पर आँख बन्द करके भरोसा कैसे कर लेती हैं? आप यह मानना ही नहीं चाहतीं कि आपके साथ रहने वाले ये लोग अपराधी भी हो सकते हैं...क्योंकि यहाँ आपका भरोसा दरकता है..लेकिन जो व्यक्ति किसी दूसरी स्त्री का उत्पीड़न और शारीरिक शोषण करता है...आप उसके साथ रह कैसे लेती हैं...? आपको उसकी चीखों में अपना दर्द क्यों नजर नहीं आता...औऱ वे स्त्रियाँ...वे पत्नियाँ..माएँ..जिनके पति दफ्तरों में बड़े पदों पर हैं या किसी संस्थान के मालिक हैं...क्या वह नहीं जानतीं कि उनका पति कैसा है...वह क्यों चुप रहती हैं...क्या इसलिए कि वह लड़की आपकी कुछ भी नहीं लगती...आपको सारी सुविधाएं मिल रही हैं...आपके पास एक शानदार घर है...इसलिए आपको कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है...पता है...पहले ऐसी औरतों से चिढ़ होती थी...अब घृणा आती है...आपकी सहनशीलता की महिमा अपरम्पार है...पति चाहे बलात्कार करके आए...किसी बच्चे का यौन शोषण करके आए...बेटा चाहे किसी के चेहरे पर तेजाब फेंक आए...मगर आपको कोई फर्क नहीं पड़ता....आप इतनी निष्ठुर कैसे हो जाती हैं...यह बाकायदा शोध का विषय है....आपको घृणा नहीं होती जब ऐसे गंदे हाथ आपको छूते हैं...आपका मन नहीं करता क्या कि ऐसे इन्सान को जहर दे देना अच्छा कि बहुत सी बच्चियों का जीवन बच जाए...लेकिन न....आप महान हैं...सती - सावित्री...भारतीयता की मूरत...और बेटियों या बहनों या माँओं से भी यही पूछने को मन करता है...किस मिट्टी की बनी हैं कि आप अपने घर को बचाने के लिए अपनी आँख के सामने सारे कांड देखती हैं औऱ चुप रहती हैं क्योंकि वे आपकी बेटियाँ नहीं हैं....जमीर...आत्मा...ये शब्द तो आपके लिए हैं ही नहीं...। 

अब चलते हैं दूसरी तरफ...अन्याय के खिलाफ खामोशी भी बड़ा अपराध है...खासकर तब जब आप शिक्षित हों....महिला मुक्ति का झंडा उठाए खड़ी हों...मगर आप इसलिए नहीं बोलेंगी क्योंकि आपको अपने रिश्ते नहीं बिगाड़ने...इसलिए नहीं बोलेंगी क्योंकि ऐसे व्यक्ति की पद - प्रतिष्ठा है और आपको उससे लाभ है....इसलिए आप चुप रहेंगी और कोई बोले तो समझदारी से खामोशी ओढ़ लेंगी....आखिर आप खुद को इतनी सफाई से धोखा कैसे दे देती हैं...खुद से नजर कैसे मिला पाती हैं...इस पर शोध होना चाहिए और कल उत्पीड़न की ऐसी घटनाएँ अगर आपकी बच्ची के साथ हों तो क्या आप शिकायत करने का हक रख पाएंगी....अगर आप किसी के लिए खड़ी नहीं हो पा रहीं तो आपके लिए कोई खड़ा क्यों होगा...और तब आप कहेंगी कि समय खराब है...व्यवस्था खराब है...जमाना खराब है...मगर खुद अपने भीतर झाँकने की जहमत आप नहीं उठाएंगी। मुझे हैरत होती है जब ऐसी महिलाएं समाज के उस वर्ग से आती हैं जिस पर सामाजिक जागरूकता का भार है...युवाओं को सही राह पर लाने का भार है...क्या विद्यार्थी आपकी जिम्मेदारी नहीं हैं....आपकी मीठी बातों पर चढ़ा मुल्लमा भी आपके दोष कम नहीं कर पाता....औऱ वाकई ऐसा है तो आप महानता का लबादा ओढ़े क्यों घूमती हैं....ऐसी शिक्षा औऱ ऐसी उपलब्धियों का क्या लाभ जो आपको एक बेहतर मनुष्य न बना सके। जो आपको संवेदना से ओत - प्रोत न करे...। सुरक्षित होना कई बार बेईमान भी बना देताहै..आप किसी और से नहीं, अपनी आत्मा से बेईमानी कर रही हैं। अच्छा एक बात बताइए...ऐसी परिस्थितियों के बीच जब आप क्रांति और परिवर्तन की बातें युवाओं के बीच करेंगी तो क्या ग्लानि से आपकी गर्दन न झुकेगी? पाठ्यक्रम पूरा करवाना और कुछ आय़ोजन करवा लेना या फिर अपने किसी चहेते विद्यार्थी को ऊँचे पद पर पहुँचा देना ही शिक्षकों का दायित्व नहीं है...शिक्षक का दायित्व इससे कहीं आगे है। आज के अधिकतर शिक्षक विद्यार्थियों को पंगु बनाने में विश्वास करते हैं ताकि उनकी महिमा बनी रहे...असली शिक्षक वह है जो अपने हर विद्यार्थी को इतना समर्थ बना दे कि विद्यार्थी को कल उसकी भी जरूरत न पड़े...मगर ऐसा होता नहीं है।

अगर संस्थानों या कार्यस्थलों की बात करूँ तो जो बच्चे काम करने जाते हैं...उनको आप पर भरोसा करके उनके माता - पिता ने भेजा है...आप इतने निर्लज्ज कैसे हो जाते हैं कि उस विश्वास को तार - तार करके रख देते हैं? आपको उस बच्ची या बच्चे में अपनी संतान का चेहरा क्यों नहीं दिखता...अगर देख लेंगे न सच मानिए आपको खुद से घृणा हो जाएगी....आपके पापों ने आपके हाथों में ही नहीं....आपके अस्तित्व में इतनी कालिख भर दी है कि आप अन्धेरे के सिवाय कुछ नहीं दिखता...। मुझे हैरत है कि ऐसे लोग सिर उठाकर चल भी कैसे लेते हैं...जिन्होंने गलत इरादे से किसी स्त्री को छुआ या जो बच्ची सीखने आयी....उसमें अपनी बदनीयती को पूरा करने का सामान खोज लिया...आप संस्थान के संरक्षक हैं तो कर्मचारी भी आपके संरक्षण में हैं....आपकी भूमिका संरक्षक की है...और आपने क्या किया.......संरक्षक का स्थान अभिभावक का स्थान है। कभी आईने में अपनी सूरत गौर से देखिए इतनी भयानक लगेगी कि आप खुद से ही डर जाएंगे...क्या करेंगे ऐसी तरक्की का जिसने आपने इन्सान (? ) के बदले जानवर (वह भी आपसे अच्छे हैं) बना दिया।  वहीं जो लोग तमाशा देखते हैं....वह भी कभी अपनी बच्चियों का चेहरा देखें तो प्रतिरोध की आवाज खुद उठ जाएगी...। अगर सारे के सारे लोग एक साथ अपराधी का बहिष्कार करने लगें तो बदलाव खुद ही हो जाएगा क्योंकि अपराधी का साथ देना संस्थान के प्रति वफादारी निभाना नहीं है...तय कीजिए कि आप किधर हैं। जब तक अपने भीतर से आवाज नहीं उठती...दुनिया का कोई कानून महिलाओं को सुरक्षित नहीं बना सकता।

मधुमक्खियाँ अगर भंवरों पर नियन्त्रण करने लगें तो कई तितलियों का जीवन बच जाएगा...स्वीकार कीजिए कि आपके भंवरे ने अपराध किया है...किसी और पर दोषारोपण करने से न तो आपके दाग धुलेंगे और न तो आपकी समस्या का समाधान होगा...जिस दिन बेटी शब्द का मतलब सिर्फ अपनी बेटी नहीं रहेगा...स्त्रियों का जीवन स्वर्ग बन जाएगा...बेटियाँ निखर उठेंगी....और जब तक ऐसा नहीं होता....मनाते रहिए...बेटी दिवस...खाक फर्क पड़ेगा....।

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