इतना पता है कि वह पास ही हैं... और हमेशा रहेंगी

 




गुरुओं की महिमा का बखान खूब होता आया है...विद्यार्थियों से उम्मीद ही की जाती है कि वे गुरु को देखकर ही साष्टांग दंडवत करें...ठीक उसी तरह जैसे कि सबसे छोटे बच्चों को न चाहते हुए भी किसी भी अपरिचित रिश्तेदार के पैर उसकी अनिच्छा के बावजूद छूने की उम्मीद की जाती है मगर सम्मान ऐसी चीज है जिसे आप चाहकर भी हर किसी को नहीं दे सकते। सिर के झुकने का मतलब आत्मा का झुक जाना नहीं होता बल्कि वहीं से कई बार चिढ़ और खीज भी उत्पन्न हो जाती है। इस मायने में मैं एक बेहद खराब छात्रा हूँ...मुझे नमस्ते कह देना पसन्द है पर मुझसे हर किसी की चरण वंदना नहीं होती...आप मुझे जी भर कोसिए...आलोचना सुन लूँगी मगर मैं जिसका दिल से सम्मान नहीं करती, उसके पैर छूना तो दूर उससे बात भी नहीं कर पाती... आप इसे कमजोरी कहिए या ताकत...मगर मैं जो सोचती हूँ, वह मेरे दिल के साथ चेहरे पर भी होता है...

जिद्दी हूँ...स्पष्टवादी हूँ...और यह अ लोकप्रिय होने के लिए पर्याप्त गुण हैं....लेकिन इसके बावजूद भी कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपनी छाप छोड़ जाते हैं....जब आप सारी दुनिया से निराश हो चुके होते हैं तो ईश्वर आपको थाम लेता है और वह किसी देवदूत की तरह किसी को भेज देता है...वह देवता नहीं होता...वह मनुष्य ही होता है...मगर वह आपका जीवन बदल देता है...बस मेरे जीवन में वही काम मेरी राजमाता...यानी मधुलता मैम ने किया...सम्भवतः पहली शिक्षिका...जिनके साथ खुद को रखती हूँ तो लगता है कि उनकी छाया ही बन गयी हूँ....शायद नरेन को भी ऐसा ही लगा होगा जब वह ठाकुर रामकृष्ण परमहंस से मिले होंगे...नहीं...उस आध्यात्मिक ऊँचाई तक जाने का इरादा नहीं...मैं बिल्कुल सामान्य हूँ...मगर मुझे लगता ही नहीं कि मैम हमारे बीच नहीं हैं...आँखें बंद करती हूँ...मुझे वही दिखती हैं। एक चुप्पी साधे रखने वाली लड़की को बोलना उन्होंने ही तो सिखाया...उन्होंने ही तो सिखाया कि जब कुछ गलत देखो..तो तनकर खड़ी हो जाया करो...मेरी कविताओं की डायरी के अक्षरों में छिपी भावनाओं को समझने वाली पहली शख्स तो वही थीं...।


लोग कहते हैं कि माँ - बाप बच्चों को गढ़ते हैं....मुझे तो मैम ने ही गढ़ा..वह क्या सिर्फ प्रोफेसर थीं...? नहीं...स्कूल में इंद्रपाल मैम थीं और इसके बाद मधुलता मैम आई...तब भी इन्द्रपाल मैम से खूब बात करने पर भी कभी डायरी नहीं दिखा सकी...हिम्मत ही नहीं होती थी...आज अच्छा लगता है कि बच्चे कविता लिखते हैं तो माता - पिता उसे समझते हैं...सहेजते हैं..मगर बच्चे कभी नहीं समझ सकेंगे कि यह यात्रा कितनी कठिन रही होगी। मध्यमवर्गीय रूढ़िवादी परिवारों में जहाँ पहले माध्यमिक और फिर स्नातक की पढ़ाई के बाद लड़कियों को पार लगा देने की परम्परा हो...उनके लिए वह हर शिक्षक खलनायक होता है जो उनकी बेटियों को न कहना सिखाए...गलत का विरोध करना सिखाए और यह बताए कि वह सम्पत्ति नहीं है बल्कि उसका एक अस्तित्व है....किसी भी पितृसत्तात्मक समाज में बेटियाँ ही नहीं, बहनें भी पुरुष सत्ता के लिएं गुलाम ही होती हैं...ऐसे में जब शिक्षिका ही बड़ी बहन या सखी बन जाये तो समझा जा सकता है कि उस शिक्षिका ने अनजाने में अपने लिए कितने शत्रु खड़े किये होंगे....बेटियाँ कभी उस पीड़ा को नहीं समझ सकेंगी जिन पर चलकर उनकी किसी बुआ, दीदी या मासी ने उनके लिए वह उन्मुक्त राह बनायी होगी...जो आज आकाश बन गयी है और वह उस पर विचर रही हैं....अपनी जिन्दगी ही ऐसी काँटों भरी राह पर चलकर बीती है...एक  समय ऐसा भी आया जब मैं यह भी भूल गयी कि मुझे हँसना भी आता है...ऐसी स्थिति में जब 1994 -96 के दशक में पहली बार मधुलता मैम से मिली,...तो वह किसी प्राण वायु से कम नहीं थीं...और कब वह बड़ी बहन सी बन गयीं, पता ही नहीं चला...
स्कूल के दिनों से जो मुझे जानते हैं कि मुझमें क्या बदलाव आया था...बदलाव था...तभी तो मंच पर चढ़ी मैं...तभी तो जालान कॉलेज में मैम के साथ रहकर निखर भी गयी और प्रखर भी हो उठी...और सावित्री गर्ल्स कॉलेज में तो यह चरम पर रहा...सुषमा ने बोलना तो मैम से ही सीखा...मुझे सावित्री गर्ल्स कॉलेज में भेजने वाली भी मधुलता मैम ही थीं...एक पूरा समूह था हिन्दी विभाग की हम छात्राओं का जो....उनका नाम लेकर कभी भी हिन्दी विभाग के स्टाफ रूम में घुस जाया करता था। यह जानकर भी अन्य शिक्षकों को बुरा लग सकता है...लगता भी होगा...शुक्ला सर थे...जिनको देखकर हम रास्ता बदल लिया करते थे...डर से। उन दिनों लाइब्रेरी में दीपा दी थीं...मधुलता मैम की सम्भवतः अच्छी मित्रता रही होगी..जो भी हो...हम विद्यार्थी तब इतना दिमाग नहीं लगाते थे...बस इतना पता था..कि वहाँ रहना बहुत पसन्द था...कॉलेज छूटा...मैम से स्नेह कम नहीं हुआ...विश्वविद्यालय में भी वह मिलीं....बीच में बात कम होने लगी थी...मगर अवचेतन में हमेशा वह रहीं...


यही कारण है कि जब अपराजिता का उद्घाटन हुआ और प्रथमवर्षपूर्ति उत्सव हुआ तो मैम रहें...यह मेरी इच्छा थी...यह इच्छा बाद में पूरी हुई। इतना होने पर भी आदर की वह रेखा....बहुत मजबूत रही..हम उनसे प्यार करते...सम्मान करते...अपने मन की हर बात बताया करते मगर वह रेखा हमने कभी पार नहीं की...मधुलता मैम...मैम ही रहीं...। गुलाब जामुन मिठाई बहुत पसन्द थी...उनको...तब पेन से माँ सरस्वती का एक रेखाचित्र बनाकर मैंने उनको दिया था....दशकों बाद जब उनके घर अपनी किताब लेकर जाना हुआ...तो उन्होंने मुझसे वह तस्वीर ठीक करवाई....मैं निःशब्द...कहाँ होता है ऐसा?  समय के साथ चीजें बदलीं...लचीलापन आया पर अपनत्व कम नहीं हुआ...ऐसा नहीं है कि सेठ सूरमल जालान गर्ल्स कॉलेज के हिन्दी विभाग के लिए सम्मान कम हुआ मगर हम जब भी जाएंगे....हमारी आँखें मधुलता मैम को ही तलाशेंगी...अपने तमाम संघर्षों के बीच चट्टान की तरह अडिग रहना...अपनी तकलीफें छुपाकर दूसरों के साथ खड़े रहना...अपनी तमाम जिम्मेदारियों को अकेले उठा लेना....आसान नहीं है..मगर मैम ने यह विश्वास तो जरूर दिया कि अकेले रहने का मतलब कभी कमजोर होना हरगिज नहीं होता...सबको साथ लेकर चलने का मतलब खुद को पीछे छोड़ देना नहीं होता...।  हार जाने का मतलब यह नहीं होता कि आप खेलना ही छोड़ दें..ये मूल्य किताबों के हैं मगर उन्होंने इन मूल्यों को जीया......और सबसे बड़ी बात अपनी शर्तों पर जीना...जो इस समाज ने लड़कियों को कभी नहीं सिखाया...वह हमने मैम को देखकर ही सीखा। मैम लोकप्रिय थीं और रहेंगी...कम से कम मुझ जैसी हर लड़की के लिए जिसे बोलना सिखाने की जरूरत है...खुद से प्यार करना सिखाने की जरूरत है....यादों का खजाना है...तस्वीरें गुजर रही हैं कैमरे की तरह...मुझे नहीं पता...क्या सम्बन्ध है मेरा...पर इतना पता है वह पास ही हैं...और हमेशा रहेंगी.....पता है....  मुझे...।

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