भारतीय परिवारों का साम्राज्यवाद और स्त्री


क्या पिक्चर परफेक्ट जैसी कोई चीज होती है? एकल परिवार, संयुक्त परिवार, रिश्ते, त्याग, बलिदान, समझौता, एडजस्टमेंट...बड़ी - बड़ी बातें पढ़ती आ रही हूँ, सुनती आ रही हूँ। संयुक्त परिवार की परम्परा को तोड़ने का ठीकरा मजे से स्त्रियों पर फोड़ दिया गया लेकिन परिवार संयुक्त हो या एकल हो, दबकर रहने की उम्मीद, त्याग करने की उम्मीद स्त्रियों से ही होती है। कभी अपने एल्बम को खोलिए और एकदम पुरानी तस्वीर देखिए...बॉडी लैंग्वेज से समझ आ जाएगा कि परिवार में स्त्री की स्थिति क्या रही है। लम्बा घूंघट ओढ़े बहू, डरी - सहमी बच्चियाँ, और शान से किसी राजा - महाराजा की तरह खड़े होते लड़के.....भारतीय परिवार आज भी उसी कल्पना में जीते हैं और यही उम्मीद भी करते हैं। लड़कों की इच्छाओं में सही या गलत नहीं खोजा जाता, उसकी गलतियाँ नहीं देखी जातीं, बस उसकी पसन्द का ख्याल रखा जाता है, सास बहू के पीछे पड़ी रहती है कि उसके बेटे को कष्ट न हो, ननद भाभी को परेशान करती है कि उसके भाई को तकलीफ न हो, और भाभी ननद के पीछे पड़ी रहती है कि उसके बच्चों, खासकर बेटों और पति को लेकर कोई ऐसी - वैसी बात न कही जा सके। भारतीय परिवार पुरुषों के तुष्टिकरण की आड़ बने हुए हैं...वह उनका साम्राज्य ही है.,...जिसे वह परिवार का नाम देते हैं...। भारतीय परिवारों में बेटा बड़ा हुआ तो सब कुछ तय वही करता है, यहाँ तक कि छोटे भाई की पत्नी को साड़ी कैसी चाहिए और बहन के लिए कपड़े खरीदने हैं या खरीदने हैं भी या नहीं, घर में किसको, कितना मिलना चाहिए...यह सब वही तय करता है। छोटे भाई -बहनों का संरक्षण करते हुए कब बड़े भाई - बहन मालिक बनकर फैसले लेने लगते हैं,...उनको खुद पता नहीं चलता है। वह बड़े हैं, इसलिए कुछ भी कर सकते हैं और अगर भारतीय परिवारों में बहनों की बात करें तो वह किसी घास के तिनके की तरह ही होती है या दूध की मक्खी की तरह, जिसका अस्तित्व रक्षाबन्धन तक ही सीमित रहता है। बहनें भी कम नहीं होतीं, निभाने के नाम पर वह भी अपना हित - अहित और इक्वेशन देखती हैं...जरूरत पड़ी तो इसी पितृसत्ता की हथियार बनती हैं औऱ अपनी ही किसी बहन को बातों में फँसाकर उसका शिकार कर डालती हैं। भारतीय परिवार, परिवार नहीं मुझे साम्राज्य की याद दिलाते हैं...जहाँ रिश्ते तो हैं मगर उनकी पवित्रता राजा के मूड पर निर्भर करती है। हर बात के लिए भाई या भाभी का मुँह ताकना, इसी बात की उम्मीद की जाती है और इसमें प्यार नहीं, सबके अपने हित छुपे रहते हैं इसलिए इस साम्राज्य की रक्षा करने में घर की औरतें भी तनकर खड़ी होती हैं। जो माँ अपने बेटों की सलामती के लिए बहू - बेटियों से व्रत करवाती है, उसे बेटियों के जीने - मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता, वह सामयिक तौर पर करुणा का दिखा सकती है मगर वह बेटियों के लिए वह बेटों के खिलाफ खड़ी नहीं होती..बेटियाँ बेटों के बराबर हों, उसे टक्कर दें, यह उसे अपनी शान के खिलाफ लगता है और अगर बेटी उसके बेटे के खिलाफ खड़ी हो गयी तो संसार की सबसे बड़ी शत्रु वही होती है। परिवार और परिवार की इज्जत की आड़ में बड़े से बड़े अपराध और काली से काली नीयत पर परदा डाला जा सकता है। परिवार में दहेज हत्या से लेकर ऑनर किलिंग, छोटे भाई - बहनों का हक मारने से लेकर अपने स्वार्थ के लिए किसी भी सीमा तक गिर जाना,,,,संयुक्त परिवार में होता रहा है। आज से नहीं,,,महाभारत काल से ही...अगर कोई स्त्री इसके विरुद्ध खड़ी हुई तो सारा खानदान, घर के सारे पुरुष...उसके खिलाफ बाकायदा षडयन्त्र रचते हैं औऱ परम्परा के नाम पर इस अपराध में सब अपनी आपराधिक चुप्पी के साथ इसमें शामिल रहते हैं। 

सच तो यह है कि भारतीय समाज ने अनुगामी स्त्रियों की कल्पना ही की है, स्त्री की अपनी सोच है, वह अपने फैसले खुद ले सकती है। घर - परिवार के फैसलों में उसकी हिस्सेदारी हो सकती है, यह विचार भी उसके दिमाग में नहीं आता। ऐसी स्त्रियों को वैम्प बना दिया गया या फिर खलनायिका बना दिया गया। उसे अधिकार भी उपकार की तरह दिये गये...यहाँ तक कि वेदों में भी तमाम महत्व की बात करते हुए भी ऋषिकाओं का योगदान दबाया गया। वह पुरुष की सहायता कर सकती है मगर अपनी इच्छा से अपने दम पर खड़ी नहीं हो सकती। वह सम्पत्ति की तरह दान की जा सकती है, उसका हरण किया जा सकता है, वह राजनीतिक संधियों का शस्त्र है, उसे जीता जा सकता है मगर वह अपनी इच्छा से व्यावसायिक तौर पर सबल हो, इसकी अनुमति उसे नहीं है। वह सिर्फ और सिर्फ अनुगामी हो सकती है, अन्याय सहते हुए जी सकती है या प्रतिरोध के नाम पर धरती में समा सकती है, परिवार को एक करने के लिए अपने अस्तित्व को बँट जाने दे सकती है..मगर अपने अस्तित्व के बारे में सोचना उसके लिए पाप बना दिया गया। 

राम के लिए शांता का कोई महत्व नहीं, कृष्ण की कन्या चारुमती का कोई उल्लेख नहीं। रुक्मी के लिए रुक्मिणी से अधिक उसकी महत्वाकांक्षा मायने रखती है। जिन भीष्म पितामह का नाम बड़े आदर से लिया जाता है, उन्होंने भी परिवारवाद के नाम पर तीन कन्याओं का हरण अपनी शक्ति का अहंकार दिखाते हुए किया था। अपने नेत्रहीन धृतराष्ट्र के लिए जबरन गाँधारी को चुना था जिसकी परिणति महाभारत के युद्ध में हुई थी। इस परिवारवादी साम्राज्य के कारण ही द्रोपदी के अपमान पर पूरी सभा मौन थी। इसी परिवारवाद के नाम पर चाचा, चाची, मामा, मामी की बेटी तुमसे छोटी है...कौन शादी कहकर कई मेधावी लड़कियों की पढ़ाई छुड़वा दी जाती है। हमारे खानदान में आज तक ऐसा नहीं हुआ, कहकर किसी लड़की को बाहर नहीं जाने दिया जाता। तुम्हारे मौसा या मौसी की बेटी का ताना देकर लड़कियों को पढ़ाई से उठवा दिया जाता है। घर की बहू के नाम पर 20 लोगों की रसोई का भार पड़ता है, कभी बड़ा भाई खटता है तो कभी वह अपने परिश्रम के बदले छोटे भाई - बहनों के अधिकार और उनकी सम्पत्ति, दोनों पर हक जताता है क्योंकि उसके अपने बच्चे बड़े हो चुके होते हैं। भारतीय परिवार किसी स्त्री की वजह से नहीं टूटे. वह इसलिए टूटे क्योंकि आप परम्परा और परिवार के नाम पर अपना उल्लू सीधा कर रहे थे, दूसरों का हक मार रहे थे, अपने से छोटों को अपना गुलाम समझने लगे। उनकी निजता, उनका जीवन, उनके अधिकार, सब आपको अपना साम्राज्य लगने लगे। आप यह चाहते रहे कि आप बड़े हैं, आप कर्ता - धर्ता हैं, इसलिए सबको आपका गुलाम बनकर रहना चाहिए. आप सारी दुनिया को अपने हिसाब से बदलना चाहते हैं मगर आप खुद बदलना नहीं चाहते। आप चाहते हैं कि कर्तव्य के नाम पर कोई आपकी जिम्मेदारी उठा ले, कोई अपनी नौकरी तो कोई अपनी पढ़ाई छोड़ दे, किसी ने आपसे सवाल पूछ लिया तो आपको अपना अपमान लगने लगा, किसी ने कह दिया कि वह अधिकारों में रुचि नहीं रखता और आपने उसके अधिकारों को अपना समझ लिया। आज आपको अपने भाई -बहनों से कर्तव्य की उम्मीद है, और प्रेम सिर्फ अपने बच्चों के लिए है, आप चाहते हैं कि आपने सारी दुनिया को दुश्मन बना रखा है, इसलिए हर कोई उस व्यक्ति को अपना शत्रु समझे, समस्या यहाँ पर है। आप छीनते रहे हैं मगर देना आपको नहीं आया। आपको पुल बनना चाहिए, आप दीवार बनते रहे, आपने अपनी बहनों को अपना प्रतिद्वन्द्वी बनाया तो राखी के धागे में मजबूती कैसे आएगी? जिस हाथ को रास्ता दिखाने के लिए आगे होना चाहिए था, वह हाथ रास्ता रोकने के लिए तैयार हैं,,,,आखिर क्यों कोई आपकी इज्जत करेगा। किसी ने आपसे कह दिया कि उसे कुछ नहीं चाहिए और आपने समझ लिया कि उसने आपको अपने अधिकार दान कर दिये हैं...किसी को झुकाने और किसी के दमन की जिद आपको कहीं से पूजनीय नहीं बनाती। कभी खुद को देखिए और सोचिए कि किसी को नीचे गिराने की जिद में आप कितने गिर चुके हैं...शीशे में देखिए, आपने क्या किया है, उसे सोचिए और यकीन मानिए कि आपको अपनी शक्ल से नफरत हो जाएगी..पर यह तब होगा जब आँखों से अहंकार का परदा उतरेगा, आप सच का सामना करना सीखेंगे। 

जहाँ ऐसी सोच नहीं है, सन्तुलन है, वहाँ परिवार है। जहाँ स्त्री को सम्मान मिला है, वहाँ परिवार है, जहाँ बहनों की इच्छा का सम्मान है, उसकी महत्वाकांक्षा अपराध नहीं मानी जाती, वहाँ परिवार है, जहाँ प्रेम है, समझ है, जबरन त्याग की उम्मीद नहीं है, जहाँ छोटों को संरक्षण मिलता है, बड़े खुद को मालिक नहीं समझते, वहाँ परिवार है। दोष परिवार या संयुक्त परिवार की संस्था में नहीं है, दोष परिवारों में पल रहे साम्राज्यवाद में हैं। दिक्कत जिद से है, अहंकार से है। फिर वह सदस्य परिवार का बड़ा हो या छोटा हो, अगर वह हावी होना चाहेगा तो दीवारें उठेंगी ही..यह समय है कि भारतीय परिवार अपनी मध्यकालीन सोच से बाहर निकलकर आज के समय के साथ चलें, स्त्रियों को अनुगामी न समझें, बल्कि अपने बराबर समझें। बहू- बेटियों और बहनों को बोझ न समझा जाए, जिम्मेदारी की तरह उनको प्रेम न दिया जाए...उसे उड़ने दिया जाए और अपना आसमान जब वह तलाशे तो उसके पैर न खींचे जाये...जब तक ऐसा नहीं होगा...जब तक परिवार के नाम पर अहंकार और साम्राज्यवाद रहेगा, परिवार नाम की संस्था पर सवाल उठते रहेंगे।

भारतीय परिवारों की एकता की कीमत स्त्रियों ने चुकायी है..आज यहाँ तक लड़कियाँ पहुँची हैं तो यह आसान नहीं रहा होगा...कई षड्यंत्रों, उपेक्षाओं, बहिष्कारों को पार करती हुई वह पहुँची हैं। घूंघट, चुप्पी और भय के वातावरण से निकलकर अपना आसमान तलाशने का सफर कभी आसान नहीं रहा। इस साम्राज्यवाद की जंजीरों को तोड़कर अपना आसमान तलाशने वाली हर स्त्री को सलाम।


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