रुढ़ियों का पिंजरा अगर सोने का भी हो तो भी वह पिंजरा ही है, उड़ान आसमान की होनी चाहिए

वह घूंघट, हिजाब और परदे का समर्थन करते हैं क्योंकि उनको लगता है कि औरत बेशकीमती है और उस पर किसी की नजर नहीं पड़नी चाहिए। एक छोटा सा प्रश्न यह है कि औरतें बेशकीमती हैं तो पुरुष क्या हैं? पुरुष क्या कबाड़ हैं जो उनको यूँ ही भटकने के लिए खुली सड़क पर फेंक दिया जाए। गुलामी की जंजीर को अगर धर्म और समाज के नाम पर जेवर बनाकर पहन लिया जाए, तो भी वह जंजीर ही रहती है... आज मामला नौ सो चूहे खाय, बिल्ली हज को चली वाला हो गया है और उसके पीछे कहीं न कहीं सामाजिक और पारिवारिक स्वीकृति की चाह भी है और स्वीकृति के जरिए ही बड़े निशाने साधे जाते हैं। यही कारण हैं कि जींस पहनने वाली अभिनेत्रियाँ भी जनता के सामने जाते ही साड़ी पहनने लगती हैं। मजे की बात यह है कि पहनावा औरतों का, शरीर औरतों का, जीवन औरतों का और सिर फुटोव्वल मर्द कर रहे हैं। वह समाज औरतों को हथियार बनाकर लड़ रहा है जिसके मंच पर औरतों को देखा तक नहीं जाता। इस्लाम में बहुत कुछ गलत माना जाता है लेकिन आप वह सारे काम करती आ रही हैं और आपको कोई परहेज नहीं है लेकिन लोकप्रिय बनने के लिए और स्वीकृति के लिए आपने गुलामी को भी ग्लैमराइज करना शुरू कर दिया है। आखिर क्यों 21 सदीं में भी आप औरतों की दुनिया को आजाद नहीं रहने देना चाहते। हो सकता है कि आप बुर्के और घूंघट में फुटबॉल खेलती हों मगर हमें इस तरह का खेल नहीं चाहिए। यह मर्जी है आपकी या भय है आपके समाज का...अगर हम इतिहास में देखें तो हिजाब या घूँघट प्राचीन परम्परा में नहीं हैं...न तो हमारे प्राचीन ग्रन्थों में और न ही इतिहास में..। कहीं भी आपको घूंघट नहीं दिखता। घूंघट का समर्थन करने वाले बताएं कि जब आप खुद यह मानते हैं कि घूंघट और परदा इस्लाम के लाथ भारत में आया और आपको इस्लाम की हर चीज नागवार लगती है तो आप घूंघट और परदे का समर्थन क्यों करते हैं? अगर आप 10 फुट का घूंघट और पूरे शरीर पर लबादा ओढ़कर भी शिष्टाचार नहीं रख सकतीं तो ऐसे परदे का कोई मतलब नहीं है...लड़ना ही है तो अपने शिक्षा और जीवन के अधिकार के लिए लड़िए, उन कट्टरपंथियों से लड़िए जो आपसे आगे बढ़ने का हक छीन रहे हैं जो नहीं चाहते हैं कि आप दूसरों की तरह आगे बढ़ें।
हैरत की बात यह है कि तथाकथित उदारवादियों के लिए घूंघट एक प्रतिगामी कदम है और हिजाब संस्कृति...यह दोगलापन किस विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाता है, यह तो वही जाने...प्रियंका गाँधी को कोई बताए कि हिजाब और घूंघट चयन का मामला नहीं हैं, यह एक साजिश है जो औरतों को परदे के पीछे और घर के भीतर धकेलती रही है। दिमाग को हिप्नोटाइज करके किसी का आत्मविश्वास इतना गिरा दीजिए कि उसे समझ ही न आए कि उसके साथ क्या गलत हो रहा है तो हिप्नोटाइज करने वालों से ज्यादा दोषी वह हैं जो अपना उल्लू सीधा करने के लिए इस तरह की चीजों का समर्थन करते हैं। हिजाब हो या घूंघट हो...वह औरतें दोषी हैं जो शिक्षित और आत्मनिर्भर होने के बावजूद स्वीकृति के लालच में ऐसी परम्पराओं को हथियार बनाती हैं। इस्लाम में संगीत की मनाही है लेकिन इतिहास उठाकर देखिए सिने जगत की जितनी भी अभिनेत्रियाँ और गायिकाएँ थीं, उन्होंने हिजाब नहीं पहना...फिर वह गौहर जान हों, मधुबाला हों, मीना कुमारी हों या मोहम्मद रफी जैसे गायक हैं।
आप दोषी हैं क्योंकि आपके कंधे पर यह जिम्मेदारी थी कि आप आने वाली पीढ़ियों को नया आसमान दें लेकिन आप खुद पिंजरे में घुसीं और उस पिंजरे को स्वर्ग बता रही हैं। ईश्वर हो या अल्लाह हो, वह इतना क्रूर तो नहीं हो सकता है कि समाज के एक वर्ग को सारी दुनिया की आजादी दे और एक चलते - फिरते सन्दूक में तब्दील कर दे। क्या आपको ये हक था कि जिस आजादी को, हमारी पूर्वजाओं ने तमाम तरह की प्रताड़नाएं सहकर पाया, आप उसका अपमान कर दें...मलाला भूल गयीं कि शिक्षा के अधिकार के लिए उन्होंने गोलियाँ खायीं थीं और जायरा वसीम ने क्या धर्म का सही मतलब समझा कि.,.जिस ईश्वर ने इतनी सुन्दर सृष्टि बनायी, वह क्या अपनी संतति को सामान बनाएगा और उससे आगे बढ़ने का हक छीनेगा...? मेरी नजर में जायरा वसीम जैसी लड़कियाँ ज्यादा दोषी हैं। आपको क्या हक है कि आप उन तमाम औरतों के संघर्ष का मजाक बनाकर रख दें और आप आने वाली पीढ़ियों को पिंजरा देकर जाएँ? 2018 में सौम्या रंगनाथन ने हिजाब के खिलाफ आवाज उठायी औऱ ईरान के नेशंस कप में नहीं खेलीं। इसके पहले 2016 में भारतीय शूटर हिना सिंधु ने हिजाब पहनने से इनकार किया था। हिजाब के लिए सड़क पर उतरकर नारे लगाने वाली लड़कियाँ कुछ औऱ नहीं हैं, एक घिनौनी राजनीति का मोहरा भर हैं।
प्राचीन समय में सिर ढकना सम्मान और सुरक्षा से जुड़ा मामला था। स्त्रियाँ ही नहीं, पुरुष भी सिर ढकते थे। यह मामला जलवायु का भी है। पुरुष भी पगड़ी, साफा या टोपी पहनते रहे हैं पर यह प्रगति में बाधक नहीं है। अरब देशों में शरीर ढककर रखना एक जरूरत है क्योंकि वहाँ की जलवायु ही ऐसी है। अरब देशों में पुरुष अबाया पहना करते हैं। हिजाब का उपयोग भी मैसोपोटामिया की सभ्यता में धूल और तेज धूप से बचने के लिए ही किया जाता था लेकिन कट्टरपंथियों ने इसे सामाजिक हथियार बनाया और अपनी सत्ता स्थापित करने का जरिया भी। हिन्दुओं में भी पितृसत्तात्मक साजिशों ने ही सती जैसी जघन्य प्रथा को परम्परा का हिस्सा बताया मगर इससे वह परम्परा सही साबित नहीं होती और आखिरकार राजा राममोहन राय की प्रेरणा से हमें इससे मुक्ति मिली।
परिवार वालों के साथ-साथ वृहतर परिवार के भी दबाव होते हैं। परिवार से छूट जाते हैं तो वृहतर परिवार जकड़ लेता है। हर आयोजन में नए सिरे से कमर कसनी पड़ती है। सुविधा और कमजोरी पर सम्मान और प्यार का रैपिंग पेपर चढ़ाना पड़ता है. औरतों को खुद हिपोक्रेसी करनी पड़ती है. लेकिन उनकी आन-बान-शान समानता और बराबरी है। असमानता और घूंघट-बुर्का नहीं। ये किसी समाज की संस्कृति नहीं, महिला विरोधी, प्रकृति विरोधी और मानवता विरोधी हैं। संस्कृति के नाम पर गुलाम बनाने वाली परम्पराओं का समर्थन कभी नहीं किया जा सकता। यह पीड़ादायक है कि विदेशों में रहने वाले बुद्धिजीवी वर्ग की कुछ महिलाएँ हिजाब के समर्थन में नारे लिख रही हैं। यह वह औरते हैं जो अपने घरों और परिवारों से विद्रोह कर के आगे बढ़ी हैं और बढ़ रही हैं।
हिन्दुओं में भी बहुत कुछ अच्छा नहीं था, कुरीतियाँ थीं. जर्जरताएँ थीं पर हम इनसे बाहर निकले, इनसे लड़े और आगे बढ़े। आज हम घूंघट को भी एक प्रतिगामी कदम ही मानते हैं, घूंघट की माँग पर सड़क पर उतरने की बात चली तो विरोध भी यहीं होगा...पर आप क्या कर रही हैं। परम्परा चाहे जैसी भी हो, समय के साथ उसमें बदलाव आते हैं। कई महिलाएँ तलवार उठाकर लड़ीं हैं तो सीखना है तो इनसे सीखिए...और यह सोचिए कि आप समाज को क्या दे रही हैं।
परिवर्तन ही संसार का नियम है और हमें पूरी उम्मीद है, विश्वास है कि आपके भीतर से ही कोई ऐसा आन्दोलन होगा जो आपको पिंजरे को पिंजरा कहना सिखाएगा भी और आजादी का मतलब भी सिखाएगा।

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