बात तो उठेगी..क्योंकि बोलना जरूरी है

जब भी कोई महिला उत्पीड़न की बात होती है तो घर की शांति के नाम पर चुप्पी, मौन और खामोशी जैसे शब्द साथ लिए जाते हैं। मुखर स्त्रियाँ कभी भी पसन्द नहीं की गयीं। अपनी मर्यादा और आत्म सम्मान को दाँव पर लगाकर जिन्दगी गुजार देने वाली और एक दिन मर जाने वाली स्त्रियों का गुणगान बहुत होता है। यदि कोई स्त्री बोलती है तो उसे पहले ही दरकिनार कर दिया जाता है और कई बार स्त्री के विरोध और विद्रोह को दबाकर ऐसी कहानी बना दी जाती है कि उस स्त्री का विद्रोह दिखता ही नहीं है। आजकल एक मुहिम सी चल पड़ी है उत्पीड़न को दबाने की और इस माइंड वॉश में कवि और लेखक खुलकर सामने आ रहे हैं। कुमार विश्वास और मनोज मुन्तशिर, दो ऐसे दिग्गज नाम हैं जो इस मामले में खुलकर अपनी लोकप्रियता का इस्तेमाल भी कर रहे हैं। यही समाज है कि जिसने मुखर द्रोपदी को देवी तो कहा मगर हाशिए पर रखा। सीता के मौन आर्तनाद को श्रीराम के गुणगान से ढक दिया गया। अच्छा है जहाँ आपके प्रभु का गुणगान हो, वह भाग सत्य है और जहाँ उन पर निष्पक्षता से बात की जाए, वह आपको जोड़ा हुआ लगता है। आप सीता वनवास के स्थलों, ऋषि वाल्मिकी के आश्रम, लव - कुश के जन्मस्थल, ऐसे सभी प्रमाणों को खारिज कर देते हैं और खुद बाल्मीकि रामायण को भी खारिज करने से आपको परहेज नहीं है। ऐसा क्यों होता है कि जब कोई स्त्री अपनी बात रखती है तो वह आपको रास नहीं आता। पहली बात तो यह है कि कोई भी अपनी इच्छा से अपने दिमाग को परेशान करने वाले काम नहीं करना चाहता । जब सोशल मीडिया नहीं था...तब स्थिति और भी भयावह थी। कोई उसकी बात का विश्वास ही नहीं करना चाहता था कि वह उत्पीड़न की शिकार है और पूरा परिवार न सिर्फ इसमें शामिल है बल्कि लोग उसे कटते हुए देख रहे हैं। संवेदनहीन सत्य यह है कि जब कोई स्त्री उत्पीड़न का शिकार होती है तो आपको यह नहीं दिखता कि वह कितनी परेशान है, कितनी प्रताड़ित है, आप यह देख रहे हैं कि घर की बात बाहर आ रही है...अगर घर सच में घर की तरह होता तो इसकी जरूरत ही नहीं पड़ती..हर एक स्त्री या किसी भी व्यक्ति के पास पुलिस और वकील के पास जाने की सुविधा नहीं है। उसके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह महंगे वकीलों का खर्च उठाए..ऐसे में अगर वह सामाजिक पटल पर यानी सोशल मीडिया पर बात रखती है तो वह आपको इतना अखरता क्यों है? क्या इसलिए कि उसमें आपको अपना चेहरा दिखने लगता है...अगर बात सामने नहीं आती तो शायद आप कहते कि कम से कम एक बार बताया तो होता...फिर मानसिक स्वास्थ्य को लेकर लम्बे - लम्बे पोस्ट लिखे जाते...चिन्ता जाहिर की जाती और कहीं वह जिन्दगी से हार जाता तो लम्बे - लम्बे संस्मरण लिखने वालों की कतार लग जाती। तमाशा सबको देखना अच्छा लगता है मगर मदद का हाथ बढ़ाना...और पूरी बात को जानकर स्थिति को सुधारना आपकी प्राथमिकता तो कतई नहीं है। आप उस पोस्ट को छुपाकर आगे बढ़ जाते हैं क्योंकि उसने आपकी चाय का स्वाद कड़वा कर दिया है। क्या ही अच्छा होता कि लोग पोस्ट पढ़कर यह कहने की बजाय....कि क्या लिख दिया...यह कहते...अच्छा रुको....मैं कुछ करता या करती हूँ। अपनी चाय के स्वाद के बारे में सोचने से पहले उस मनःस्थिति के बारे में सोच लेते तो अच्छा होता न। लेखन का प्रभाव तब होता है जब प्रतिक्रिया हो...समस्या का समाधान निकले। सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद बवाल मचाने से ज्यादा बेहतर होता कि उनके जीवित रहते उन लोगों को पकड़ा जाता जो उनको परेशान कर रहे थे। दुनिया गजब है लोग धक्का मारते इंसान का वीडियो बनाते हैं.....धक्का खाने वाले को बचाने नहीं जाते और कहते हैं कि जमाना खराब है। अगर आप किसी की अभिव्यक्ति को सम्मान नहीं दे सकते...उसकी समस्या को समझ नहीं सकते..उसके साथ खड़े नहीं हो सकते तो आपको उसकी बात पर नकारात्मक प्रतिक्रिया देने का भी अधिकार नहीं है। यह अच्छा है कि किसी को चोट लगी हो...कोई टूट रहा हो तो वह इसलिए न बोले कि आपकी अभिजात्यतता की सफेद चादर मैली हो जाएगी। अगर परिवार तमाशाइयों का कुनबा है तो ऐसे परिवार को दूर से नमस्कार है मगर बात तो उठेगी और बोली भी जाएगी क्यों कि वह किसी का मिजाज देखकर नहीं की जाएगी...वह बोली जाएगी क्योंकि बोलना जरूरी है। वैसे भी अपने जीवन में तमाशा देखने वालों की जरूरत नहीं हमें....अगर आप मर्यादा, शालीनता, परिवार...सम्बन्ध की दुहाई देकर ज्ञान परोसना चाहते हैं तो.....जस्ट लीव।

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