भारत में प्रेम एक दिन की कामना का सुख नहीं, सृजन और कर्त्तव्य का शाश्वत मार्ग है...

प्रेम मानव की सद्यजात प्रवृत्ति है और बंधन से परे...। प्रेम मुक्त करता है और प्रेम ही संसार का सबसे बड़ा बन्धन भी है । ऐसा बन्धन जिसमें ईश्वर स्वयं ही बंध जाते हैं । वह सर्वशक्तिमान ईश्वर भी प्रेम की चाह में बार - बार धरती पर आना चाहते हैं...आखिर सर्वशक्तिमान होना भी तो एक बन्धन है कर्त्तव्य का....संसार को चलाना भी आसान कहाँ है...पाप - पुण्य के चक्र में, ज्ञान की सूखी थाली में जब तक प्रेम का रस न हो...जीवन जीया भी कैसे जा सकता है । मनुष्य को ही नहीं बल्कि ईश्वर को भी प्रेम चाहिए इसलिए वह उतरता है धरती पर...कभी कौशल्या का प्रेम पाने के लिए तो कभी यशोदा का नंदलाल बनने के लिए...उसे अच्छा लगता है प्रेम के बंधन में बंधकर माता के हाथों से पिट जाना तो उसे अच्छा लगता है कि मुट्ठी भर छाछ के लिए गोपियों की ताल पर नाचते रहना । वसन्त प्रेम का रंग है...वैसे प्रकृति के हर रंग में ही प्रेम है...संसार का हर कण ही तो प्रेम से सींचा गया है..फिर क्यों लोग खींचने लगते हैं सम्बन्धों की रेखा । बहुत कुछ अव्यक्त रह जाता है प्रेम के संसार में परन्तु वह व्यक्त से अधिक महत्वपूर्ण होता है...मुझे सबसे अनोखा लगता है कृष्ण और द्रोपदी का सम्बन्ध...। राधा कृष्ण की सखी रहीं...बालपन का प्रेम...साख्य का पहला पाठ...जीवन की आधार और उनको कृष्ण का प्रेम भी खूब मिला । रुक्मिणी कृष्ण की जीवनसंगिनी बनीं...और वह आईं भी जीवन में कर्त्तव्य बनकर......उनको पूरी द्वारिका मिली...द्वारिकाधीश की पत्नी बनीं....। सुभद्रा को भी संरक्षण मिला...एक बहन के रूप में....मगर क्या ऐसा कोई था जिससे कृष्ण को मिला हो...वह जो कहीं खोज रहे होंगे...क्या कारण रहा होगा कि वे द्रोपदी को सखी के रूप में इतना स्नेह देते हैं.........बन्धनों से परे मगर मर्यादा का बन्धन.....मानते हुए...क्या कहीं कुछ अधूरा रह गया होगा...या वह जो कहीं नहीं कहना कह पाते..वह कृष्णा से कह लेते हैं...और जो कोई नहीं समझ पाता..वह द्रोपदी समझ लेती हैं । हम अपने जीवन में चाहे कहीं भी चले जाएं..एक ऐसा कोना हमें चाहिए जिससे हमें कोई उम्मीद नहीं रहती...हम उससे कुछ नहीं चाहते...मगर फिर भी हमें वहाँ रहना अच्छा लगता है.. । द्रोपदी और कृष्ण के लिए...दोनों वहीं एक कोना है...आप इसे साख्य भाव से देखिए और बहुत बार हमारा मर्यादावादी मन उनको भाई - बहन बना लेता है...। हम यह स्वीकार ही नहीं कर पाते कि प्रेम का अर्थ सदैव दाम्पत्य या वात्सल्य नहीं होता...वह गार्हस्थिक भी नहीं होता...वह साख्य भाव से भी ऊपर होता है....प्रेम अगर निष्ठा और निश्चलता से परिपूर्ण हो तो वह हर एक सम्बन्ध की सीमा से परे हो जाता है ...वह श्रद्धा बन जाता है और उससे भी आगे चला जाए तो श्रद्धा भक्ति में बदल जाती है...आप अपनी सांसारिक दृष्टि से न तो इसे देख सकते हैं और न ही समझ सकते हैं । अगर आप अवतार अथवा महामानव समझे जाने वाले लोगों का जीवन ध्यान से देखिए...बहुत कम लोग हैं जिनका दाम्पत्य जीवन एक ही सांचे में बंधा रहा हो...आप मानिए या न मानिए लेकिन ईश्वर जिसको किसी विशेष उद्देश्य से भेजते हैं...वह बन्धन में नहीं बंधता और बंधन में बांध भी दिया जाए तो वह बंधन या टूट जाते हैं या फिर वह बंधन में रहकर भी मुक्त ही रहता है क्योंकि जिसका जन्म एक उद्देश्य के लिए हुआ है, अगर वह पारिवारिक बन्धनों में बंधा रहा तो सृष्टि में विधाता ने जिस कार्य के लिए भेजा है...वह कार्य तो हो ही नहीं पाएगा । वह एकमात्र अपने लक्ष्य के अधीन होता है..उसके जीवन में जिसे भेजा जाता है...वह व्यक्ति एक माध्यम और सहायक भर ही होता है और जहाँ वह इससे जाकर बंधन बनने लगता है...उसे हटा दिया जाता है । आप प्रेम की बात करते हैं तो द्रोपदी और कृष्ण भी सृष्टि की सुरक्षा का माध्यम थे...वह कृष्ण की कर्मसंगिनी थीं...परिवर्तन की धुरी...इस क्रम में उनके जीवन में जो घटनाएं घटित हुईं...वह ही युद्ध का कारण बनीं...। इतना अथक विश्वास कि किसी के कहने पर कोई स्त्री अपना विभाजन स्वीकार कर ले....पहले तो मुझे लगता ही नहीं यह द्रोपदी की इच्छा रही होगी...उनके जैसी स्त्री इतना बड़ा अन्याय सहकर चुप हो जाए..यह कल्पना से परे है...। हाल ही में युगंधर पढ़ रही थी और वहाँ लेखक लिखते हैं कि द्रोपदी इतनी सुन्दर थीं कि कोई एक पांडव अकेला उनकी रक्षा कर ही नहीं सकता था...मेरी समझ में यह हास्यास्पद है..क्योंकि द्यूत में अपनी पत्नी को दांव पर लगाने वाले युधिष्ठिर और अपनी पत्नी पर अपने भाइयों का अधिकार मान लेने वाले अर्जुन मुझे वीर तो कहीं से नहीं लगते...उनके होते हुए...भरी राजसभा में द्रोपदी का अपमान हुआ...और सारे पांडव सिर झुकाए रहे....ऐसे में यह कह देना ही द्रोपदी की सुरक्षा के लिए उसे पांचों पांडवों में विभाजित होना पड़ा...कम से कम मेरी दृष्टि में सही नहीं लगता...मगर वह मानी थीं कृष्ण के कहने पर...इस युक्ति के सामने नहीं...बल्कि इसलिए कि उनको कृष्ण की हर बात पर विश्वास था और वह जानती थीं कि उनको बस इस धर्म युद्ध की धुरी बनना है...इसलिए ऐसे ही चलना होगा...और उन्होंने किया...सही मायनों में अगर महाभारत में धर्म युद्ध के लिए जिसने अपना सर्वस्व त्याग दिया..वह द्रोपदी ही थीं..वही पांडवों की शक्ति बनीं...उनके साहस को प्रज्ज्वलित करती रहीं...वह उनके साथ होकर भी नहीं थीं और कृष्ण के साथ नहीं होकर भी सदैव उनके ही साथ रहीं क्योंकि यही धर्म का मार्ग था...क्यों रहीं...क्योंकि उनको वह सख्य मिला, संरक्षण मिला, स्नेह मिला...जिसकी कामना उनको हमेशा से थी । यहाँ उन पर कोई प्रश्न नहीं थे...एक दृढ़ विश्वास था और द्रोपदी ने वह विश्वास सदैव निभाया..कृष्ण ने भी कभी भी इस विश्वास को टूटने नहीं दिया...। ये दोनों चरित्र अपने सम्बन्धों को उसकी पूरी ईमानदारी के साथ शत - प्रतिशत जीते हैं इसलिए आज के आधुनिक युग में भी इनकी निश्चलता एक उदाहरण है । हमारी विडम्बना है कि हमें सशक्त स्त्रियाँ और संवेदनशील पुरुषों का सम्मान करना कभी नहीं आया..हम उनके आभामंडल को स्वीकारना ही नहीं चाहते । मुझे युधिष्ठिर का चरित्र सबसे लिजलिजा लगता है......अपने छोटे भाई की पत्नी पर नजर रखने वाला कायर चरित्र ...जिसने बातों और सिद्धांतों की आड़ में अपनी इच्छाओं को मनवाया...द्यूत पर दांव लगवाया और अंत में जिन भाइयों और पत्नी के दम पर जीता रहा...उनको ही छोड़कर अकेले स्वर्ग की तरफ चल दिया...यह न्याय नहीं रहा होगा....दंभ ही रहा होगा...। एक तरफ रामायण में राम के लिए सोने की सीता की प्रतिमा अधिक प्रिय हैं तो दूसरी तरफ युधिष्ठिर को कुत्ता अधिक प्रिय रहता है...। वह किसी के भी प्रेम के योग्य कभी नहीं थे क्योंकि महाभारत का युद्ध भी भीम - अर्जुन के कारण ही जीता गया था...बिना कुछ किए ही जिसने सारे सुख भोगे...वह युधिष्ठिर हैं । द्रोपदी का अपमान एक बार नहीं, बार - बार होता है...कभी कीचक तो कभी जयद्रथ...और अन्त में उसके भाई, पिता, पुत्र सब मारे जाते हैं...एक धर्मयुद्ध के लिए जीवन भर कष्ट सहने के बाद उनके हाथ खाली ही रहते हैं । उत्तरा का चरित्र भी ऐसा ही है जिसने सब कुछ खो दिया युद्ध की ज्वाला में...। कृष्ण के साथ आज भी राधा का नाम रहता है, स्वाभाविक है, रुक्मिणी भी रहती हैं, यह स्वाभाविक है मगर उनके कर्मयुद्ध को...धर्मयुद्ध को जिन्होंने परिपूर्णता दी...और बगैर किसी चाह के दी..उस द्रोपदी को हम कुछ पँक्तियों में समेट कर चल देते हैं । कितना निष्कपट और निश्चल विश्वास रहा होगा...आज यह सोचना भी असम्भव लगता है मगर समाज को सशक्त और सवाल उठाने वाली स्त्रियाँ कहाँ रास आती हैं..? तब कहीं तो ईश्वर को लगा होगा कि यह अन्याय बहुत अधिक हुआ है और इसके प्रतिकार के लिए किसी न किसी रूप में फिर से जन्म हुआ होगा...इन दोनों का...कि युद्ध से कुछ नहीं बदलता...संसार को प्रेम की भाषा सिखानी होगी...प्रेम से आगे सृजन की लिपि में बात रखनी होगी...। आगे चलते हैं...सिस्टर निवेदिता को देखिए...स्वामी विवेकानंद के अधूरे कार्य को आगे ले जाने के लिए सुदूर विदेश से भारत उनको भेजा गया..रत्नावली को क्या पता नहीं रहा होगा कि उनके तिरस्कार से उनके तुलसीदास राम के तो हो जाएंगे पर उनसे दूर चले जाएंगे..इस पर यह रत्नावली ही थीं जिन्होंने अपना प्रेम. अपना दाम्पत्य...सब कुछ दांव पर लगा दिया क्योंकि वे अपने पति को मात्र एक भोगविलास करने वाले पति के रूप में तो नहीं देखना चाहती थीं...। आज मान लीजिए कि वेलेंटाइन डे की तरह कोई पति तुलसीदास की तरह आ जाए तो अगले दिन फेसबुक पर उसकी प्रशंसा से इतराती तस्वीरें आप उसकी पत्नी की प्रोफाइल पर देखेंगे पर उनमें से कितनी होंगी जो पति को मर्यादा का पाठ पढ़ाकर राम की राह दिखा सकेंगी। आप कहिए रत्नावली को कठोर हृदय मगर रत्नावली बनना बहुत कठिन है...रत्नावली न होतीं तो तुलसी..गोस्वामी तुलसीदास न बन पाते । यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम ऐसे चरित्रों पर बात करना ही नहीं चाहते और करते भी हैं तो एंगल वही देते हैं जो हमारे मन को संतुष्ट करे । आजादी की लड़ाई में साबरमती के संत की पूजा सब करते हैं मगर सब जानते हैं कि कस्तूरबा के साथ उनका व्यवहार कैसा था..गाँधी को प्रसिद्धि मिली मगर मिली वह कस्तूरबा के त्याग के कारण । कहने का मतलब यह है कि जीवन में जिसके आगे लक्ष्य रहा...वह या तो अकेला चला..या फिर कुछ समय के बाद अकेला उसे रहना पड़ा...भीड़ में रहकर सुविधाओं के बीच क्रांति नहीं होती...उसके लिए तपना पड़ता है । जो ईश्वर का होता है....ईश्वर उसे किसी का नहीं होने देता...मीरा को देखिए....वह सदा से कृष्ण के प्रेम में थीं...फिर भी विवाह करवाया गया...मगर अन्ततः मीरा तो गिरधर की ही रहीं । संसार में परिवर्तन लाने वाले हमेशा से अकेले ही रहे हैं कभी सांसारिक तौर पर तो कभी मानसिक तौर पर...वह कभी किसी के होकर नहीं रह सकते..वह हजारों के बीच भी अकेले होते हैं...अपने स्वप्नों के साथ...लक्ष्यों के साथ और फिर ईश्वर उनके कर्म में सहायक बनने के लिए भेजता है...। संसार के जलाशय में कमल की तरह रहते हैं वह सबसे ऊपर...सबसे अलग...सबसे अनोखे । महाभारत के सन्दर्भ में कृष्ण और द्रोपदी का सम्बन्ध मेरी समझ से ऐसा ही था...यह प्रेम था दिव्यता थी इसमें । दिव्य प्रेम सबसे उच्च कोटि का प्रेम है। यह सदाबहार होता है और सदा नवीन बना रहता है। आप जितना इसके निकट जाएँगे उतना ही इसमें अधिक आकर्षण और गहनता आती है। इसमें कभी भी थकान नहीं आती है और यह हर किसी को उत्साह में रखता है। सांसारिक प्रेम सागर के जैसा है, परन्तु सागर की भी सीमा होती है। दिव्य प्रेम आकाश के जैसा है जिसकी कोई सीमा नहीं है। ईश्वरीय प्रेम सभी संबंधो से परे है और इसमें सभी संबंध सम्मिलित होते हैं। यशोधरा और बुद्ध को देखिए..स्वामी विवेकानंद को देखिए...महर्षि दयानंद सरस्वती को देखिए...निराला को देखिए...प्रसाद को देखिए..कवि गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर को देखिए..। आप रामकृष्ण परमहंस और माँ शारदा को देखिए...कितना अनूठा है यह.....प्रेम की पराकाष्ठा का अनुपम स्वरूप । भारत प्रेम एक किस्सा भर नहीं है.,..वह सृजन का अध्याय खोलता है । आधुनिक भारत में बेटी के जाने के बाद करसन भाई ने निरमा शुरू की । मेहरबाई टाटा ने अपना सबसे कीमती हीरा देकर टाटा समूह को उबार दिया...प्रेम का इससे उत्कट उदाहरण क्या रहेगा...। शिव और शक्ति से अधिक प्रेम का पर्याय कौन बन सकता है....जो सृष्टि के सर्जक हैं...वहीं वह दुष्टों का काल हैं । आज जब हम वेलेंटाइन के मोह में पड़े हैं तो हमें अपनी संस्कृति को...अपने इतिहास को फिर से पलटने की जरूरत है...प्रेम कैलाश में...गोकुल की गलियों में...वृन्दावन की माटी में भारत के कण - कण में विचर रहा है...भारत में प्रेम एक दिन की कामना का सुख नहीं, सृजन और कर्त्तव्य का शाश्वत मार्ग है...

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