आरक्षण का स्वागत है परन्तु परिवर्तन की शुरुआत परिवार से होगी

संसद के दोनों सत्रों में महिला आरक्षण बिल पारित हो चुका है और राजनीति में महिलाओं की भागीदारी का मार्ग प्रशस्त हो गया है । लोकसभा में 454 और राज्यसभा में 215 मत बिल के समर्थन में पड़ें । निश्चित रूप से यह हम महिलाओं के लिए ऐतिहासिक एवं गौरवशाली क्षण है । उम्मीद है कि अगले दो सालों में जनसंख्या का अंतरिम डाटा जारी किया जा सकता है। वहीं, संसद ने देश में निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या बढ़ाने पर 2026 तक रोक लगा रखी है। अब तक देखा जाए तो निर्णायक पदों पर भागीदारी के परिप्रेक्ष्य में महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है । यूनाइटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम (यूएनडीपी) और महिलाओं के सशक्तिकरण और लैंगिक समानता के लिए काम कर रहे संगठन यूएन वीमेन ने अपनी नई रिपोर्ट "द पाथ्स टू इक्वल" की रिपोर्ट के अनुसार सशक्तीकरण और लैंगिक समानता के लिहाज से भारत अब भी बहुत पीछे है । वैश्विक लिंग समानता सूचकांक (जीजीपीआई) के मुताबिक भारत में महिलाओं की स्थिति इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि जहां 2023 के दौरान संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 14.72 फीसदी थी वहीं स्थानीय सरकार में उनकी हिस्सेदारी 44.4 फीसदी दर्ज की गई। इसी तरह यदि शिक्षा की बात करें तो जहां 2022 में केवल 24.9 फीसदी महिलाओं ने माध्यमिक या उच्चतर शिक्षा हासिल की थी वहीं पुरुषों में यह आंकड़ा 38.6 फीसदी दर्ज किया गया। इसी तरह यदि 2012 से 2022 के आंकड़ों को देखें तो केवल 15.9 फीसदी महिलाएं ही मैनेजर पदों पर थी। इसी तरह विवाहित महिलाओं या जिनका छह वर्ष से कम उम्र का बच्चा है उनकी श्रम बल में भागीदारी 27.1 फीसदी दर्ज की गई। इसी तरह 2018 में करीब 18 फीसदी महिलाएं और लड़कियां अपने साथी द्वारा शारीरिक या यौन हिंसा का शिकार बनी थी। इसी तरह 2012 से 2022 के बीच 43.53 फीसदी युवा बच्चियां शिक्षा, रोजगार या प्रशिक्षण से वंचित रह गई थी। एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में काम करने योग्य उम्र की 15 फीसदी महिलाऐं ऐसी हैं जो काम करना चाहती हैं, लेकिन उनको इसका अवसर ही नहीं मिल पा रहा है। भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) की हालिया रिपोर्ट के अनुसार अक्टूबर 2021 तक संसद सदस्यों के बीच मात्र 10.5 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी थी। यही हाल राज्य विधानसभाओं का भी दिखा । ईसीआई के अनुसार, आजादी के बाद से, लोकसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का स्तर 10 प्रतिशत बढ़ने में भी कामयाब नहीं हुआ है। सत्य यह है कि महिलाओं को मिले अधिकारों का लाभ महिलाओं से अधिक पुरुष ही अधिक उठा रहे हैं । अधिकतर मामलों में आयकर बचाने के लिए लोग सम्पत्ति अपनी पत्नी, बेटियों और माँ के नाम पर खरीदते हैं तो इसके पीछे प्रेम नहीं बल्कि आयकर बचाने की चालाकी है । यही बात राजनीति में है क्योंकि इसके बाद होगा यह कि जिन सीटों पर परिसीमन होगा, राजनेता चालाकी से अपने घर की किसी महिला को आगे कर देंगे । घर हो या परिवार हो, समाज हो, कहने की जरूरत नहीं है कि महिलाएं पुरुषों के हाथ की कठपुतलियाँ हैं जो अपनी मर्जी से एक कदम आगे नहीं बढ़ सकतीं । ऐसी महिलाएं क्या स्वतन्त्रता से दूसरी महिलाओं के लिए निर्णय ले सकेंगी? नेतृत्व का मामला व्यक्तित्व से जुड़ा है और वह तब विकसित होगा जब बचपन से ही लैंगिक समानता लाई जाए । भाई और बहनों में भेदभाव न हो, बहनों को सम्पत्ति का अधिकार मिले और उनके विवाह को उनकी प्रगति का बाधक न बनाया जाए । आज भी परिवारों में माताएं बेटियों के हिस्से का दूध और भोजन बेटों को दे रही हैं, आज भी बहनों की पढ़ाई भाई के कॉलेज के लिए छुड़वा दी जा रही है । उन पर घर के काम का बोझ ज्यादा है । भाई आज भी अपने निर्णय थोपते हैं । ऐसे में किसी लड़की का व्यक्तित्व का विकास कैसे होगा, नेतृत्व की क्षमता कैसे विकसित होगी ? जो अपने घरों में दोयम दर्जे का व्यवहार झेलने आदी हो, समझौता करने को, अपनी जरूरतों को त्यागती रही हो, जिसे परिवार में ही अपनी बात रखने की अनुमति लेनी पड़े, वह मोहल्ले, समाज और संसद में क्या बात रखेगी? तो आप अगर सही मायनों में महिलाओं की स्थिति बदलना चाहते हैं, उनको नेतृत्व करते देखना चाहते हैं तो मूल में जाकर करिए। दीजिए वहाँ आरक्षण, वहाँ भागीदारी सुनिश्चित कीजिए, तब सही मायनों में नेतृत्व करने के लिए लिए नारी शक्ति विकसित होगी । हमने लम्बी लड़ाई लड़ी है तब जाकर यह दिन आ पाया है । प्रणाम कीजिए, बंगाल की भूमिका को और उन तमाम महिलाओं को, हमारी पूर्वजाओं को जिन्होंने शताब्दियों तक संघर्ष किया और यह सुफल मिला है। यह उनकी तपस्या है । बंगाल के तत्कालीन अविभाजित मेदिनीपुर जिले के पांशकुड़ा निर्वाचन क्षेत्र (अब परिसीमन के कारण अस्तित्वहीन) से सात बार भाकपा की लोकसभा सदस्य रहीं स्वर्गीय गीता मुखर्जी पहली सांसद थीं, गीता मुखर्जी समेत अपनी तमाम पूर्वजाओं को प्रणाम करते हुए सिर्फ इतना कहना चाहूँगी....रबर स्टाम्प ही बनकर रहना है तो आप घर में ही रहिए और विरोध करके लड़ने की क्षमता है तो आगे बढ़िए क्योंकि नेतृत्व सिर्फ अधिकार नहीं, दायित्व भी होता है....दायित्व परिवर्तन का और सृजन का ।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पितृसत्ता नहीं, मातृसत्ता ही रही है भारत की शाश्वत परम्परा

रेखा : आँधियों को आँखों की मस्ती से मात देती शम्मे फरोजा

व्यवस्था अगर अपराधियों को प्रश्रय देगी तो परिवार हो या समाज, उसका टूटना तय है