प्रेम हासिल करना नहीं है, अपना अस्तित्व मिटाना नहीं है, आत्मसात करना है

प्यार बड़ी अजीब चीज है, यह मान लिया जाता है कि प्यार करना है तो अपने व्यक्तित्व को समाप्त कर ही लेना होगा । दो शरीर, एक आत्मा जैसी कई मान्यताएं चली आ रही हैं मगर मुझे लगता है कि दो शरीरों के साथ, दो आत्माओं का अपने स्व में रहना बहुत जरूरी है। अपने अस्तित्व को तिरोहित करके प्रेम करना मेरी नजर में यूटोपिया है पर मैं प्यार की इतनी बातें क्यों कर रही हूँ जिसको प्यार से कोई मतलब ही नहीं । मेरे लिए प्रेम की पहली सीढ़ी ही स्व से यानी खुद से प्रेम करना है, अपना सम्मान करना और अपना सम्मान रखना है। भारतीय शादियों में लड़किय़ों के विवाह के स्थायीत्व का आधार ही स्वयं को समर्पण के नाम पर तिरोहित कर देना है और लड़कों के मामले में भी...पर क्या प्रेम वही है जो विवाह से ही बंधा है या एक स्त्री और पुरुष का एक दाम्पत्य या प्रेमिल रिश्ते में रहना ही प्रेम है । अगर ऐसा है तो समाज के बाकी रिश्तों का क्या...यह समाज सिर्फ विवाहितों अथवा प्रेमियों के लिए नहीं है। ईश्वर ने यह सृष्टि सिर्फ माता - पिता एवं संतानों तक के लिए सीमित ही नहीं रखी मगर प्रेम का दायरा सब सीमित कर देता है। आप किसी एक व्यक्ति के लिए इतने अधिक समर्पित हो जाते हैं कि अपने व्यक्तित्व की मजबूती को भूलकर निरीह बन जाते हैं, इतने असुरक्षित हो जाते हैं कि ईर्ष्या के वशीभूत होकर षड्यंत्र रचना भी आप जस्टीफाई करना सीख जाते हैं। प्रेम जब व्यक्तित्व से न होकर एक शरीर से होता है..रूप से होता है तो आप प्रेम को कब सम्पत्ति समझने लगते हैं, आपको खुद पता नहीं चलता। आप खुद ही नहीं जानते कि परिवार और अपना संसार सजाते हुए उसे कितना संकुचित कर लिया है । हमारे किसी भी सम्बन्ध में ऐसा नहीं होता है कि एक के लिए आपको अपने तमाम रिश्ते छोड़ने पड़े, खुद को पूरी तरह बदलकर ऐसा बना लेना पड़े कि आप खुद को ही न पहचान सकें। वह सभी लोग जो कभी आपका सपोर्ट सिस्टम रहे हैं, अचानक आपकी जिन्दगी से इसलिए दूर हो जाते हैं क्योंकि कोई और आपकी जिन्दगी में है, कल तक जो दोस्त आपकी जान हुआ करता था, कल तक जिन सहेलियों के साथ आप अपना हर सुख - दुःख साझा करती आ रही थीं, आपको उससे बात करते हुए भी घड़ी देखनी पड़ती है क्योंकि आप किसी और परिवार में हैं...जहाँ आपको सहेलियों से बात करने के लिए भी वजह बतानी पड़ती है, आप 5 मिनट नहीं दे सकतीं क्योंकि आपको पति, बॉयफ्रेंड , गर्लफ्रेंड या पत्नी के मायके जाना है...क्या यह अजीब नहीं है.........। आप जीवनसाथी कहे जाने वाले एक व्यक्ति और अपने बच्चों को अपनी दुनिया मानकर अपने हर गलत काम को जस्टीफाई करने लगते हैं, धोखाधड़ी सीखते हैं, रिश्वत लेते हैं, ऐश - आराम की जिन्दगी जीने के लिए और देने के लिए वह सब कुछ कर जाते हैं जो आप कल तक सोच भी नहीं सकते थे। कई लोग कहते हैं कि विवाह के बाद व्यक्ति की आँखें खुल जाती हैं...मगर कई बार मुझे यह लगता है कि व्यक्ति अंधा हो जाता है, वह वास्तविकता से नजर चुराने लगता है, उसकी अपनी एक ऐसी दुनिया है जो एक यूटोपिया है और जहाँ उसके लिए उसके और कुछ अपनों को छोड़कर कुछ भी ज्यादा जरूरी नहीं है....यह कैसी दुनिया बना रखी है हमने जहाँ...परिवार होकर भी परिवार नहीं है.....आप अपनी बातें तक साझा करने के लिए किसी पर निर्भर हैं...। प्रेम और विवाह के नाम पर खुद को ऐसा क्या जकड़ना है कि बाकी सारे सम्बन्धों का अस्तित्व ही समाप्ंत हो जाए...अगर यह प्रेम है और यही दाम्पत्य है तो रिश्तों के मामले में आपसे अधिक गरीब कोई नहीं है। आपका बचपन, आपका संघर्ष, आपका बनना...जिन लोगों ने देखा, जिन लोगों ने आपको खड़ा किया....अचानक उनकी हर बात का क्रेडिट देने के लिए आपको कोई और मिल जाता है। क्या ये स्वार्थ नहीं है...उस पर भी आप जिस व्यक्ति के इर्द - गिर्द अपनी दुनिया बसा रहे हैं, आपने अपने प्रेम की हथकड़ी से लगभग पालतू बना डाला है...आपको उसकी हर बात का हिसाब चाहिए...कहाँ खाया, कितना खाया,...किससे मिले...क्यों मिले...क्यों बात की...आप इस पजेसिव होने के पागलपन को प्यार कहते हैं...अपनी असुरक्षा को ख्याल रखना कहते हैं तो आप कुछ नहीं कर रहे...खुद को धोखा दे रहे हैं। मेरे न हुए तो किसी और के न होगे की जिद में हत्या तक कर डालना आपको प्यार लगता है...घरेलू हिंसा करना अपना अधिकार लगता है तो इस सनकीपन का कोई उपचार नहीं है.. प्रेम का मतलब किसी के लिए अपना या अपने लिए किसी का व्यक्तित्व समाप्त कर देना नहीं है...प्रेम खुद को बरकरार रखते हुए...एक दूसरे को स्वतंत्र रखते हुए अपने - अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त करना है....। जो लोग असुरक्षित होते हैं....वह हमेशा असुरक्षित होते हैं...उनको हर बात से प्रिय को खो देने का डर रहता है..। यह जिद गलत है कि कोई आपके लिए अपना अतीत भुला दे या अपना प्यार और पहला प्यार भुला दे...ऐसा नहीं होता...। आप जब पुराणों में जाकर देखते हैं तो पाते हैं कि शिव ने पार्वती को स्वीकार किया मगर उनका प्रथम प्रेम सती ही थीं और शिव सती को कभी नहीं भूलते...। पार्वती कभी शिव को सती से दूर करने का प्रयास नहीं करतीं...क्योंकि उनको पता है सती शिव के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है...वह शिव के साथ सती के अस्तित्व को भी सम्मान देती हैं और स्वीकार करती हैं इसलिए शिवत्व को प्राप्त करने में सक्षम हैं । सती अथवा पार्वती में से किसी ने अपने अस्तित्व को शिव के लिए समाप्त नहीं किया और न ही शिव ने ऐसा किया...अगर आप अर्द्धनारीश्वर की छवि देखें तो देख पायेंगे कि दोनों का ही अस्तत्व भी है और शरीर भी है...खुद को मिटाकर कोई भी किसी से प्रेम नहीं कर सकता । ठीक इसी तरह पांडव...भी द्रोपदी को उसके उसी रूप में स्वीकार करते हैं...एक दूसरे के प्रति किसी प्रकार का द्वेष या तो नहीं है या फिर वो उसे सम्भाल लेते हैं...द्रोपदी कृष्ण के प्रति समर्पित है...और यहाँ भी दोनों का अपना - अस्तित्व है,,,जिसमें साख्य भाव है तो प्रेम भी है...दोनों एक दूसरे के लिए समग्रे एकम हैं यानी सब कुछ । अगर द्रोपदी कृष्ण को सखा, भाई, सहचर मानती हैं तो कहीं न कहीं एक प्रेम भी है क्योंकि वह कृष्ण को ही पाना चाहती थी मगर कृष्ण के कहने पर वह अर्जुन के प्रति आकर्षित हुई। ठीक इसी तरह द्रोपदी एक साथ कहीं न कहीं राधा और सुभद्रा, दोनों की अनुपस्थिति को अपने प्रेम से भरती हैं और कृष्ण के जीवन के इस अभाव को भरती हैं..यह साख्य, मैत्री और प्रेम के बीच की चीज है जिसे आप कोई नाम नहीं दे पाते क्योंकि विशुद्ध स्वर्ण से आभूषण नहीं बनते...। द्रोपदी कृष्ण की वह योद्धा हैं जो उनके धर्मंयुद्ध की धुरी हैं...जो उनके लिए वह तमाम कष्ट उठा सकती हैं जिसे उठाने की क्षमता किसी राधा, रुक्मिणी या सुभद्रा में नहीं भी हो सकती थी...। इसके बावजूद न तो द्रोपदी इनमें से किसी की जगह लेने का प्रयास करती हैं...और न ही इन तीनों में से ही कोई द्रोपदी को कृष्ण से दूर करने के बारे में सोचता है। 16 साल की आयु में वृन्दावन छोड़कर गए कृष्ण को राधा के साथ बिताए क्षण याद आते हैं परन्तु महाभारत के चक्रव्यूह को साधने के लिए याज्ञसेनी की ही जरूरत है । एक रिश्ते को निभाने के लिए बाकी सारे सम्बन्धों को धोखा देने को प्रेम नहीं कहते। पांडव भी कृष्ण और द्रोपदी के इस अनूठे सम्बन्ध को सम्मान देते हैं...वरना आज जैसा कोई पजेसिव होता तो क्या होता समझ लीजिए....। प्रेम को शारीरिक सम्बन्धों की परिधि तक सीमित कर देना कहीं न कहीं प्रेम के पवित्र भाव की पवित्रता को समाप्त कर देना है...क्योंकि अगर आत्मा तक नहीं उतरे तो दैहिक सम्बन्ध देह के धरातल पर दम तोड़ देते हैं। आप किसी से दिल तक कनेक्ट नहीं कर पा रहे तो आप खुद को धोखा दे रहे हैं और दिल के कनेक्शन को किसी बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड, पति या पत्नी की जरूरत नहीं पड़ती...वह कनेक्शन आपके व्यक्तित्व के अनुरूप किसी के साथ भी और कभी भी हो सकता है...मिट्टी से, हवा से...कला से...संस्कृति से...संगीत से...वह अमूर्त हो जाता है...। यही कारण है कि कलाकार या कोई भी व्यक्ति किसी भी परिवार...रिश्ते या सम्बन्ध के बगैर जी लेता है...उसे कोई असुविधा नहीं होती...वह कभी अकेला महसूस नहीं करता...क्योंकि जब उसका लक्ष्य बड़ा होता है तो उसका संसार स्वतः ही बड़ा हो जाता है...उसके पास एकाकी होने के लिए समय नहीं है...। अगर आप गौर से देखेंगे तो जिनके लक्ष्य बड़े रहे....वह अपने भौतिक और व्यक्तिगत परिवार के साथ न के बराबर रहे हैं...ईश्वर जिनको किसी लक्ष्य के साथ भेजता है...वह उसके हिस्से का प्रेम भी भेजता रहता है...वह किसी न किसी रूप में स्वयं उस व्यक्ति के पास होता है, सम्भालता है, सहेजता है और उसे लक्ष्य तक आगे ले जाता रहता है। वह व्यक्ति तब तक उस धरती पर ही रहता है, जब तक वह उस परिकल्पना को साकार होता नहीं देखता...ईश्वर की इसी शक्ति को आप चमत्कार कहते हैं मगर यह दरअसल, वह साहचर्य है...जो ईश्वर ने उस व्यक्ति को दिया है जिससे वह अपना काम करवा रहा है..। आप ऐसे किसी भी व्यक्ति का जीवन उठाकर देखिए...जहाँ लक्ष्य बड़ा होता है...वहाँ कठिनाइयां खुद दम तोड़ देती हैं और वह लक्ष्य पूरा होकर रहता है...संसार का कोई षड्यंत्र उसे नहीं रोक पाता । इसे आप विश्व भारती, रामकृष्ण मिशन...से लेकर थोड़ा पीछे जाने पर कबीर, सूर, मीरा, तुलसी में भी खोज सकते हैं...लक्ष्य और लक्ष्य के प्रति ईमानदारी...व्यक्ति को वह आत्मबल प्रदान करती है जिसके आगे चुनौतियों के पहाड़ भी टूट जाते हैं..। एक ठोकर ही संसार को बदलकर रख देती है क्योंकि तब शरीर, परिवार, समाज के बाहरी आवरण आपके सामने ढह जाते हैं और तब लगता है...ईश्वर ने आपको क्यों इस धरती पर भेजा है। घनानंद का प्रेम टूटा तो सुजान को उन्होंने आत्मसात कर लिया...निराला टूटे तो सरोज उनकी आत्मा बनी..और मनोहरा उनकी प्रेरणा...कादम्बरी नहीं रहीं और मृणालिनी नहीं रहीं तो वह रवींद्र की कलम में रच-बस गयीं। प्रेम सदैव उनके साथ रहा है...शरीर तो पायदान भी नहीं है..। जरा सोचिए कि क्या कारण है कि हजार यातनाएं भी मीरा के चेहरे की मुस्कान नहीं छीन सकीं...क्या कारण है कि कोई विरह वेदना किसी रूपमती को नहीं तोड़ पातीं...क्योंकि उसने बाज बहादुर को आत्मसात किया है...देह एक क्षणिक माध्यम हो सकती है मगर टिकने के लिए प्रेम को संवेदना, आत्मा का आधार चाहिए..और वह किसी बाजार में नहीं मिलता...। प्रेम न हाट बिकाय....ऐसे ही नहीं कहा गया...वह किसी वैलेंटाइन डे का मोहताज नहीं है...। सामाजिक सुरक्षा की बात छोड़ दी जाए तो उसे इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह जिससे प्रेम करता है...वह उसकी जिंदगी में कहां तक है मगर फर्क पड़ना चाहिए क्योंकि यहाँ अपने व्यक्तित्व को सहेजने और स्वत्व की भावना है...सबकी अपनी - अपनी जगह है...आप किसी की जगह नहीं ले सकते तो यकीन रखिए कि कोई आपकी जगह भी नहीं ले सकता...बशर्ते वहाँ प्रेम हो...। अभी हाल में इमरोज हमें छोड़ गये...उनको अमृता की जिन्दगी में साहिर के होने का अहसास था मगर इससे अमृता के प्रति उनका प्रेम कम नहीं हुआ क्योंकि वो अमृता के लिए साहिर होने का मतलब जानते थे...प्रेम छीनना नहीं होता...। आप नहीं जानते कि जब आप अपने प्रेम को पाने के लिए किसी को अपने प्रेम से छीन रहे हो तो आप सबसे अधिक चोट उसी व्यक्ति को पहुंचा रहे होते हैं जो आपकी दृष्टि में आपका प्रेम है। सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसा करके आपने उस व्यक्ति को अपने प्रेम के और करीब ला दिया और खुद को दूर कर दिया...प्रेम ही करना है तो शिव बनिए...सती और पार्वती बनिए..द्रोपदी बनिए और कृष्ण बनिए..प्रेम ही करना है तो रुक्मिणी बनिए....जो जानती थीं कि राधा और द्रोपदी कृष्ण के अस्तित्व का अभिन्न अंग हैं और इसलिए उन्होंने इन दोनों को कभी भी कृष्ण से अलग करने का प्रयास नहीं किया....क्योंकि वह कृष्ण को प्रेम करती थीं और प्रेम पाना या हासिल करना नहीं है...उसे आत्मसात कर लेना है...रुक्मिणी ने कृष्ण को आत्मसात कर लिया था,,,इमरोज ने अमृता को, पार्वती ने शिव को और शिव ने सती को आत्मसात कर लिया है...और जिसे आत्मसात कर लिया गया है...उसे अलग करने की क्षमता किसी में नहीं होती...प्रेम बस यही है। इस धरती पर इतना निःस्वार्थ प्रेम किसी एक व्यक्ति में खोज पाना कठिन है...जो हर रूप में आपको निःस्वार्थ प्रेम करे...यह प्रेम तो सिर्फ ईश्वर ही दे सकता है इसलिए ईश्वर के प्रेम में पड़कर अपने कर्त्तव्य पथ पर बढ़ते जाने से बेहतर कुछ नहीं है...क्योंकि ईश्वर ही प्रेम है और प्रेम ही ईश्वर है...आप उसे किसी एक ढांचे में बांधकर नहीं पा सकते और यही कारण है कि अधिकतर वैयक्तिक प्रेम की परिणति आपको अलौकिक एवं आध्यात्मिक संसार की ओर ले जाती है, विशेषकर तब जब आप उसे खो देते हैं मगर आध्यात्म का अर्थ माला जपना या कर्म से विरत होना नहीं है बल्कि यहाँ आपका प्रेम विस्तार पाता है...आप अब किसी एक से प्रेम नहीं करते...आप प्राणी मात्र से प्रेम करते हैं....आप हर पीड़ित और वंचित के लिए यथाशक्ति, यथासम्भव कुछ करना चाहते हैं...प्रेम जब मानवीय से सृष्टि प्रेम की ओर बढ़ता है तो ईश्वरीय बन जाता है और आप कहीं न कहीं ईश्वरत्व के मार्ग पर चल पड़ते हैं...प्रेम की तरफ...वास्तविक प्रेम की तरफ....।

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