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रिश्तों के बीच पुल बनिए, दीवार बनना सही नहीं

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सोशल मीडिया पर जिस तरह के कंटेंट महिलाएं बना रही हैं और अपने पारिवारिक झगड़ों का उपयोग टीआरपी पाने और फॉलोवर बढ़ाने के लिए कर रही हैं, उसके दूरगामी परिणाम कुछ अच्छे नहीं है। हैरत की बात यह है कि इसमें लड़के भी साथ दे रहे हैं। अधिकतर कंटेंट आजादी के नाम पर सास-बहू की आलोचना के लिए या बहू के अधिकारों की रक्षा के नाम पर उनकी गलतियों को जस्टीफाई करते हुए बनाए जाते हैं। मां का घर है मायका मगर ससुराल आपके सास-ससुर के नाम पर है यानी शाब्दिक दृष्टि से भी यह घर आपके पति से अधिक उनके माता -पिता का है। भारतीय परिवारों की समस्या यह है कि अपने मायके में एडजस्ट करने वाली लड़कियां और माता- पिता की प्रतिष्ठा के लिए समझौते करने वाली लड़कियां भी ससुराल में पहले दिन से ही अपनी एक अलग दुनिया बनाने लगती हैं जिसमें वह, उनके पति व बच्चे होते हैं, और कोई नहीं। वह यह मान लेती हैं कि वह इस घर में आ गयी हैं तो अब पति पर, पति के जीवन पर, पति की इच्छाओं पर तो उनका अधिकार है, बस पति के रिश्तेदार उनके कुछ नहीं लगते। वहीं माता-पिता अब भी उसी पुरानी दुनिया में जी रहे हैं, उनको अब भी अब भी अपना बेटा 24 घंटे अपने पा...

डियर युवाओं, परिवार से अच्छा सहयात्री कोई नहीं

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मन में विचार आता है कि आज के दौर में स्त्री होने का क्या मतलब है....स्त्री एवं पुरुष के लिए परिवार की परिभाषा कैसे इतनी संकीर्ण हो गयी। बात जब छठ की है तो छठ तो स्वयं ही एक प्रकार से भाई-बहन का पर्व है क्योंकि छठी मइया तो खुद ही सूर्यदेव की बहन हैं...भाई दूज में यम और यमुना भाई - बहन हैं और दीपावली में नरकासुर के वध के बाद जो सुभद्रा कृष्ण के माथे पर तिलक लगाती हैं, वह भी उनकी बहन हैं। इससे पीछे देखिए तो शक्ति नारायण की बहन हैं औऱ सरस्वती शिव की बहन हैं। अशोक सुन्दरी गणेश और कार्तिकेय की बहन हैं और शांता श्रीराम की बहन हैं। कहने का तात्पर्य तो यही है कि हमारे पुराणों में तो भाई-बहन के सम्बन्धों का उल्लेख है मगर सोचने वाली बात यह भी है कि ऐसा क्या हो गया कि बहनों को हाशिये पर रखकर समस्त देवी-देवताओं को पत्नी और बच्चों तक समेटकर बांध दिया गया। शक्ति, शिव, सरस्वती और लक्ष्मी में गहरा सम्बन्ध है, सब के सब एक दूसरे के पूरक हैं, फिर ऐसा किसने किया होगा कि पारिवारिक अवधारणा को अपने स्वार्थ के लिए पति-पत्नी और बच्चों तक सीमित कर दिया जबकि श्रीकृष्ण तो राधा के साथ सुभद्रा और द्रौपदी को भी...

एक दीया बुझी हुई पारिवारिक व्यवस्था के नाम

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समय के साथ हर चीज बदलती है, रिश्तों का रूप बदलता है मगर जारी रहता है उनमें टकराव। इस बार दीपावली विशेष है क्योंकि स्वास्थ्यगत असुविधाओं से जूझते हुए आज की शाम मुझे ईश्वर का वरदान ही लग रही है। कभी सोचा नहीं था मगर ऐसी परिस्थितियां बनीं...आज का दिन उन पर बात करने का नहीं है मगर रुककर सोचने का जरूर है। आमतौर पर स्त्रियों के बारे में लिखती रही हूँ, उनके हक की बात करती आ रही हूँ...मगर यह वह समय है जब समाज और परिवार को ही नहीं, स्वयं स्वावलम्बी, सुशिक्षित, समझदार स्त्री को रुककर सोचने की जरूरत है जिसे सामंजस्य कायरता लगता है। फेसबुक से लेकर यू ट्यूब व इंस्टाग्राम तक ऐसे रील दिख जाते हैं जहां एक स्त्री या तो ससुराल या पति से प्रताड़ित है...या एकता कपूर के धारावाहिकों की तरह षडयंत्र रचती है और अक्सर यह सब हास्य में लपेटकर दिया जाने वाला वह जहर है जिसमें अबोध बच्चों को शामिल किया जाता रहा है। आज की लड़की वह स्वतंत्र लड़की है जिसे अपने माता- पिता, भाई-बहन अपनी जिम्मेदारी लगते हैं, उनके लिए सॉफ्ट कॉर्नर है, वह कृतज्ञ है मगर जिस घर में वह गयी है। जिस व्यक्ति का हाथ पकड़कर आई है, जहां उसे पूर...

लड़कों की प्रगति वरदान है तो लड़कियों की उड़ान अपराध क्यों?

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टेनिस खिलाड़ी राधिका की हत्या ने झकझोर कर रख दिया है। राधिका की सहेली हिमांशिका ने अपने वीडियो में दावा किया है कि राधिका यादव की हत्या साजिश के तहत हुई है। उसने यह भी कहा कि राधिका पर घर में कड़ी पाबंदियां थीं, जिससे वह मानसिक रूप से परेशान रहती थी। वह एक प्रतिभाशाली टेनिस खिलाड़ी होने के साथ-साथ फोटोग्राफी और वीडियो बनाने की शौकीन भी थी, लेकिन उसे अक्सर उसके परिवार की रोक-टोक का सामना करना पड़ता था। दीपक यादव को गांव के कुछ लोग उसकी बेटी के एकेडमी चलाने के लिए टोकते थे। उसके चरित्र पर भी अंगुली उठाते थे। ऐसे में दीपक ने बेटी को एकेडमी बंद करने के कहा था, लेकिन वह नहीं मानी और उसने खिलाड़ियों को टेनिस कोर्ट में प्रशिक्षण देना जारी रखा। आखिर क्यों लड़के का कमाना, उसकी सफलता, उपलब्धियां किसी खानदान की शान होती है । दामाद का ऊँचे पद पर जाना गर्व का विषय होता है मगर बहू या बेटी का कमाना उसका निजी मामला या अहंकार। आखिर क्यों अब तक भारतीय परिवार खासकर माता - पिता, भाई - बहन अपनी ही बहनों की तरक्की को देखकर जलते हैं? किसी लड़की की उपलब्धि आखिर प्रतियोगिता का मामला कैसे बन जाती है, वह परि...

महिलाओं की सबसे बड़ी चुनौती पितृसत्तात्मक सोच वाली शातिर महिलाएं ही हैं

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महिला दिवस को लेकर आज जब हम बात कर रहे हैं तो हमें चीजों को अलग तरीके से देखना होगा क्योंकि आज की परिस्थिति में और कल की परिस्थिति में बहुत नहीं तो थोड़ा अन्तर तो आया ही है। महिला दिवस मेरे लिए आत्मविश्लेषण का अवसर है क्योंकि आज महिलाएं दो अलग छोर पर हैं, एक ऐसा वर्ग जो आज भी जूझ रहा है, जिसके पास बुनियादी अधिकार नहीं हैं, कुरीतियों और बंधनों से जकड़ी हैं...जीवन के हर कदम पर उनके लिए यातनाएं हैं, प्रताड़नाएं हैं। दूसरी तरफ एक वर्ग ऐसा है जो अल्ट्रा मॉर्डन है और उसे इतना अधिक मिल रहा है कि वह उसे बनाए रखने के लिए साजिशों पर साजिशें रच रहा है और दूसरी औरतों को सक्षम बनाने की जगह उनके साथ माइंड गेम खेल रहा है। उसे महिला होने की सुविधा चाहिए पर समानता को लेकर जो दायित्व हैं, उससे उसका सरोकार नहीं। पहले वर्ग पर बातें खूब हो रही हैं इसलिए आज मैं दूसरे वर्ग पर बात करना चाहूँगी। पितृसत्तात्मक सोच वाली ऐसी शातिर महिलाएं किचेन पॉलिटिक्स व ऑफिस पॉलिटिक्स में माहिर हैं। ऐसी औरतें हमारे घरों में हैं और दफ्तरों में हैं और इन सबका टारगेट हर वह संघर्ष कर रही महिला है जो प्रखर है, मुखर है, कहीं अधिक ...

प्रेम से बड़ा वैराग्य नहीं..संन्यासी से अच्छा कोई शासक नहीं

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अभी हाल ही में युवाओं के बीच जाने का मौका मिला। परिचर्चा थी एक किताब पर और वह किताब प्रेम पर आधारित थी, रिश्तों की उलझन पर आधारित थी। किताब पर चर्चा के बहाने बात प्रेम पर भी हुई। युवाओं ने जब अपनी बात रखी तो प्रेम पर भी रखी और रिश्तों को लेकर एक ऐसी धारणा सामने आई जहां प्रेम की परिभाषा पर आज की कॉरपोरेट संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुआ। कुछ ऐसी बातें जहां विशुद्ध भावुकता और कुछ ऐसी बातें जहां पर प्रेम और संबंध स्पष्ट रूप से एक डील से अधिक कुछ नहीं लग रहा था । ऐसे में चाहे साहित्य हो या सिनेमा हो, वहां प्रेम को या तो इतना व्यावहारिक बना दिया जा रहा है कि उसमें संवेदना ही शेष न रही है या फिर यौन संबंधों का इतनी अधिकता है कि प्रेम के अन्य सभी स्वरूप दम तोड़ रहे हैं। जरूरी है कि अब इस पर बात की जाए। सबसे मजेदार बात यह है कि जब आप प्रेम की बात करते हैं तो लोग इसकी उम्मीद ऐसे लोगों से की जाती है जिनके पास प्रेमी - प्रेमिका हों या वे पति - पत्नी हो......प्रेम किया है क्या ..का मतलब ही मान लिया जाता है कि क्या आपके कभी अफेयर रहे हैं .....विचित्र किन्तु सत्य... हम यह क्यों नहीं ...

बढ़ते तलाक और लड़कियों की बदलती दुनिया

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एक समय था जब तलाक की बात सोचना ही पाप समझा जाता था । खासकर महिलाओं के मामले में डोली जाएगी, अर्थी निकलेगी वाली मानसिकता के कारण औरतों ने घरों में घुट-घुटकर प्रताड़ित होकर मार खाते हुए जिन्दगी गुजार दी । उनके पास आर्थिक मजबूती नहीं थी, सामाजिक सहयोग नहीं था और बच्चों का मोह भी एक बंधन था...शादियां खींच दी जाती थीं । लोग एक छत के नीचे दो अजनबियों की तरह रहते हुए जिन्दगी गुजार दिया करते थे । पुरुष हमेशा विन - विन सिचुएशन में रहते थे क्योंकि स्त्रियां उनको नहीं, वह अपनी स्त्रियों को छोड़ दिया करते थे । कुछ ऐसे विद्वान भी देखे गये जो शहरों से ताल मिलाने की जुगत में अपनी गंवार पत्नी को छोड़कर आगे बढ़ गये और पत्नी उपेक्षा के अन्धकार में दफन हो गयी । इसके बाद महिलाओं के अधिकारों की बात चली, कानून बने..गुजारा -भत्ता, भरण - पोषण जैसी सुविधाएं मिलीं । औरतें आर्थिक स्तर पर मजबूत हुईं, मुखर हुईं और सहनशक्ति कम हुई । आज भी हालिया आंकड़ों के अनुसार भारत में तलाक की दर एक प्रतिशत से भी कम है। यह विश्व में सबसे कम है। हालांकि पहले के मुकाबले तलाक के मामलों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। यह बात फैमिली...