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महिलाओं की सबसे बड़ी चुनौती पितृसत्तात्मक सोच वाली शातिर महिलाएं ही हैं

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महिला दिवस को लेकर आज जब हम बात कर रहे हैं तो हमें चीजों को अलग तरीके से देखना होगा क्योंकि आज की परिस्थिति में और कल की परिस्थिति में बहुत नहीं तो थोड़ा अन्तर तो आया ही है। महिला दिवस मेरे लिए आत्मविश्लेषण का अवसर है क्योंकि आज महिलाएं दो अलग छोर पर हैं, एक ऐसा वर्ग जो आज भी जूझ रहा है, जिसके पास बुनियादी अधिकार नहीं हैं, कुरीतियों और बंधनों से जकड़ी हैं...जीवन के हर कदम पर उनके लिए यातनाएं हैं, प्रताड़नाएं हैं। दूसरी तरफ एक वर्ग ऐसा है जो अल्ट्रा मॉर्डन है और उसे इतना अधिक मिल रहा है कि वह उसे बनाए रखने के लिए साजिशों पर साजिशें रच रहा है और दूसरी औरतों को सक्षम बनाने की जगह उनके साथ माइंड गेम खेल रहा है। उसे महिला होने की सुविधा चाहिए पर समानता को लेकर जो दायित्व हैं, उससे उसका सरोकार नहीं। पहले वर्ग पर बातें खूब हो रही हैं इसलिए आज मैं दूसरे वर्ग पर बात करना चाहूँगी। पितृसत्तात्मक सोच वाली ऐसी शातिर महिलाएं किचेन पॉलिटिक्स व ऑफिस पॉलिटिक्स में माहिर हैं। ऐसी औरतें हमारे घरों में हैं और दफ्तरों में हैं और इन सबका टारगेट हर वह संघर्ष कर रही महिला है जो प्रखर है, मुखर है, कहीं अधिक ...

प्रेम से बड़ा वैराग्य नहीं..संन्यासी से अच्छा कोई शासक नहीं

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अभी हाल ही में युवाओं के बीच जाने का मौका मिला। परिचर्चा थी एक किताब पर और वह किताब प्रेम पर आधारित थी, रिश्तों की उलझन पर आधारित थी। किताब पर चर्चा के बहाने बात प्रेम पर भी हुई। युवाओं ने जब अपनी बात रखी तो प्रेम पर भी रखी और रिश्तों को लेकर एक ऐसी धारणा सामने आई जहां प्रेम की परिभाषा पर आज की कॉरपोरेट संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुआ। कुछ ऐसी बातें जहां विशुद्ध भावुकता और कुछ ऐसी बातें जहां पर प्रेम और संबंध स्पष्ट रूप से एक डील से अधिक कुछ नहीं लग रहा था । ऐसे में चाहे साहित्य हो या सिनेमा हो, वहां प्रेम को या तो इतना व्यावहारिक बना दिया जा रहा है कि उसमें संवेदना ही शेष न रही है या फिर यौन संबंधों का इतनी अधिकता है कि प्रेम के अन्य सभी स्वरूप दम तोड़ रहे हैं। जरूरी है कि अब इस पर बात की जाए। सबसे मजेदार बात यह है कि जब आप प्रेम की बात करते हैं तो लोग इसकी उम्मीद ऐसे लोगों से की जाती है जिनके पास प्रेमी - प्रेमिका हों या वे पति - पत्नी हो......प्रेम किया है क्या ..का मतलब ही मान लिया जाता है कि क्या आपके कभी अफेयर रहे हैं .....विचित्र किन्तु सत्य... हम यह क्यों नहीं ...

बढ़ते तलाक और लड़कियों की बदलती दुनिया

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एक समय था जब तलाक की बात सोचना ही पाप समझा जाता था । खासकर महिलाओं के मामले में डोली जाएगी, अर्थी निकलेगी वाली मानसिकता के कारण औरतों ने घरों में घुट-घुटकर प्रताड़ित होकर मार खाते हुए जिन्दगी गुजार दी । उनके पास आर्थिक मजबूती नहीं थी, सामाजिक सहयोग नहीं था और बच्चों का मोह भी एक बंधन था...शादियां खींच दी जाती थीं । लोग एक छत के नीचे दो अजनबियों की तरह रहते हुए जिन्दगी गुजार दिया करते थे । पुरुष हमेशा विन - विन सिचुएशन में रहते थे क्योंकि स्त्रियां उनको नहीं, वह अपनी स्त्रियों को छोड़ दिया करते थे । कुछ ऐसे विद्वान भी देखे गये जो शहरों से ताल मिलाने की जुगत में अपनी गंवार पत्नी को छोड़कर आगे बढ़ गये और पत्नी उपेक्षा के अन्धकार में दफन हो गयी । इसके बाद महिलाओं के अधिकारों की बात चली, कानून बने..गुजारा -भत्ता, भरण - पोषण जैसी सुविधाएं मिलीं । औरतें आर्थिक स्तर पर मजबूत हुईं, मुखर हुईं और सहनशक्ति कम हुई । आज भी हालिया आंकड़ों के अनुसार भारत में तलाक की दर एक प्रतिशत से भी कम है। यह विश्व में सबसे कम है। हालांकि पहले के मुकाबले तलाक के मामलों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। यह बात फैमिली...

पुरुषों के शब्दकोश में त्याग शब्द का होना अब जरूरी है

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लोग कहते हैं कि स्त्री को समझना बहुत कठिन है मगर मुझे लगता है कि स्त्री को फिर भी समझा जा सकता है, पुरुष को समझना बहुत कठिन है। स्त्री को प्रेम दीजिए, सम्मान दीजिए..वह आपके जीवन में ठहर जाना चाहेगी मगर मानसिकता अब भी उसे भोग की वस्तु या सम्पत्ति समझने की है । समाज की रवायत ऐसी है कि यह सिखा दिया गया है कि स्त्री को पुरुष की तुलना में कम सफल होना चाहिए..कद छोटा होना चाहिए...सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक दृष्टिकोण से । कई लोग बड़े गर्व से कहते हैं कि उन्होंने घर की स्त्रियों को बहुत आजादी दे रखी है । किसी स्त्री ने कभी पलटकर न पूछा कि आजादी तो प्राणाी मात्र का नैसर्गिक अधिकार है, उसे देने अथवा छीनने वाले आप कौन? कई पुरुषों को देखा है, बड़े गर्व से बताते हैं कि उन्होंने अपनी पत्नी या बेटी को यह बता दिया है कि उसके कार्यक्षेत्र क्या हैं, उसे क्या करना चाहिए..कैसे चलना चाहिए....। बहनों की बात इसलिए नहीं कर रही कि परिवारों के अधिकार के क्षेत्र में बहनों का अस्तित्व ही नहीं है । अधिकार की बात हो तो वह सबसे पहले बाहर की जाने वाला सम्बन्ध हैं....पुरुष अपनी बेटियों को लेकर सपने सजा सकते हैं, म...

अकेला व्यक्ति भी होता मनुष्य ही है... प्रमाणपत्र नहीं चाहिए उसे

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मनुष्य का जीवन विचित्र होता है। हम सब अपनी असुरक्षाओं से घिरे डरे हुए लोग हैं। समाज का चलन कुछ ऐसा है और यह सदियों से ऐसा ही है कि यह स्त्री और पुरुष को सिर्फ स्त्री और पुरुष के रूप में ही देख पाता है। उसे यह समझ ही नहीं आता दोनो ही मनुष्य के रूप में एक स्वतंत्र इकाई हैं जिनका अपना एक विवेक और अस्तित्व है। कई बार लगता है कि हमने शरीर और यौनधर्मिता को इस अतिरेक के साथ सहेज कर रखा है कि आप सृष्टि देखिए या धर्म, पुराण देखिए या इतिहास, साहित्य देखिए या कला..संबंधों का दायरा सिकुड़कर रह गया है। समाज ही क्यों, खुद मनुष्य भी अपने संबंधों एक विस्तृत परिप्रेक्ष्य में देखना भूल गया है। प्रेम, दाम्पत्य, देह, वासना और स्वार्थ से घिरी इस दुनिया में संबंधों के समीकरण ऐसे उलझे हुए हैं कि सम्बन्धों की निश्चल शुचिता लुप्त प्राय हो गयी है। बगैर किसी संबंध के दो विपरीत लिंगी मनुष्य एक दूसरे को समझ सकते हैं, अब तो यह कल्पना भी यूटोपिया ही है। ईश्वर की पूजा करने वाले खुद ईश्वर को ही नहीं छोड़ते इसलिए अपने चरित्र की शुचिता को अपने इर्द-गिर्द लपेटते हुए थक जाते हैं और जीवन भर एकाकीपन का बोझ ढोते चलते हैं।...

ओ..पीछा करने वाले जरा सुनो...(एक स्टॉकर को चिट्ठी)

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मैं अक्सर लड़कियों को लेकर जब भी सोचती हूँ तो ऐसी खबरें भी सामने आती हैं कि कोई लड़का किसी लड़का का पीछा करता पकड़ा गया या किसी ने ब्रेकअप होने पर लड़की को देख लेने की धमकी दी। ऐसी भी दिल दहला देने वाली घटनाएं...कि मेरी न हुई तो किसी की नहीं होने दूँगा टाइप...और फिर जिससे प्रेम करने का दावा भरता रहा....जिस खूबसूरती की तारीफ पर तारीफ करता रहा..उसे अपनी नफरत के तेजाब से नहला दिया...और यह सब कुछ प्यार (?) के नाम पर.... सच्ची...तब मन में ख्याल आता है कि क्या यह वही देश है जहाँ लोग अपना जीवन दांव पर लगाकर स्त्रियों के सम्मान की रक्षा करते हैं? क्या प्रेम इतना क्रूर हो सकता है कि किसी की पीड़ा में, रुदन में, आहों में अपने लिए सुख खोज ले..? प्रेम का कैसा विकृत रूप चल पड़ा है समाज में लोग..प्रेम नहीं करते...प्रेमी या प्रेमिका को जाल में फँसाते हैं और सम्बन्धों में जिसके मान - सम्मान की रक्षा का दारोमदार उनको निभाना चाहिए था...उसे बदनाम करने के लिए उसकी छवि को मटमैला करने की हद तक चले जाते हैं...। पता नहीं...कितने लड़कियां और लड़के भी इस दहशत से मुक्ति पाने के लिए मृत्यु में मुक्ति खोज लेन...

व्यवस्था अगर अपराधियों को प्रश्रय देगी तो परिवार हो या समाज, उसका टूटना तय है

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महिला दिवस हम हर साल मनाते हैं । आँकड़े गिनवाते हैं...शुभकामना संदेश भेजकर सम्मान जताते हैं मगर सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि हम क्या महिलाओं के मुद्दों को समझ पाते हैं। क्या हम लड़कियों की मनःस्थिति को समझ पाते हैं । क्या हमारे भीतर इतना साहस है कि हम समस्याओं की जड़ तक जाकर उनसे टकराएं और उनको सुलझा सकें । महिलाओं के मुद्दों को मैं चार तरफ से देखती हूँ...किचेन प़ॉलिटिक्स, माता - पिता द्वारा किया जाने वाला पक्षपात, सिबलिंग राइवलरी और ऑफिस पॉलिटिक्स ...सबसे अधिक खतरनाक ..अपराधियों को प्रश्रय, प्रोत्साहन और सम्मान देने वाली व्यवस्था । यह एक सत्य है कि परिवार से लेकर समाज तक, राजनीति से लेकर इतिहास तक सब के सब अपराधियों के पक्ष में खड़े होते रहे हैं...अगर न खड़े होते तो महाभारत के भीषण युद्ध की नौबत ही नहीं आती । सबसे पहले सिबलिंग राइवलरी की बात करती हूँ...। महाभारत सिबलिंग राइवलरी का सबसे बड़ा उदाहरण है और इसके लिए दोषी भी वह व्यवस्था है जहाँ गांधारी द्रोपदी को शाप देने से रोकती हैं....मगर बचपन में दुर्योधन को शकुनि से दूर रखने के लिए कुछ नहीं करती...। अगर वह दुर्योधन को थप्पड़ मारना जानत...