संदेश

सिन्दूर पोतना..बुर्का पहनना चयन का सवाल है...बौद्धिक संवेदनहीनता को दूर रखें

चित्र
 ‘ छठ के त्योहार में बिहार वासिनी स्त्रियां मांग माथे के  अलावा नाक पर भी सिंदूर क्यों पोत रचा लेती हैं ?   कोई  खास वजह होती है क्या ?’  मैत्रेयी पुष्पा.... आदरणीय मैत्रेयी जी, मैं सोचती थी कि साहित्यकार दूसरों की वैचारिक स्वतन्त्रता  का आदर करते हैं...आपसे काफी प्रभावित भी थी...पढ़ा है  आपको...अच्छा लिखती हैं मगर मुझे सन्देह है कि  अभिव्यक्ति की यह स्वतन्त्रता आप अपने जीवन में देती भी  होंगी कि नहीं। खैर, मैं देती हूँ मगर वहीं तक जहाँ तक  आपकी संवेदनहीन बौद्धिकता न पहुँचे। एक समय में आपका  साक्षात्कार भी ले चुकी है और तब आपने कहा था कि आप तोड़-फोड़ की नहीं, जोड़ने की बात करती हैं। क्या आपने बंगाल के सिन्दूर खेला के बारे में सुना है....वहाँ सिन्दूर भावुकता भर ही सीमित नहीं है...वह शक्ति का प्रतीक भी है....वैसे मंगलवार और शनिवार को हनुमान जी को भी सिन्दूर लगाया जाता है...आपकी नजर में वे कौन सी पितृसत्तात्मकता से पीड़ित हैं....कोई आप पर अपने विचार नहीं लाद रहा...आपके विचारों में अगर ताकत होगी और उनकी वह स्वीकार्यत...

रेखा : आँधियों को आँखों की मस्ती से मात देती शम्मे फरोजा

चित्र
जिसकी आँखों में कशिश और जिसने खामोशी से अपनी जिन्दगी गुमनाम इश्क के नाम कर दी। जिसने बचपन से ही तकलीफें देखीं, माँ की आँखों में आँसू देखे, पिता का छल देखा, उस रेखा ने अपना जन्मदिन इस साल मना लिया है। साँवली रंगत और एक साधारण चेहरे के लिए ताने सुनने वाली सावन भादो की उस रेखा ने जिन्दगी के 63 साल देख लिए....जिन्दगी को खामोशी से जीया, तोहमतें सुनते हुए जिया मगर खामोशी से ही सही अपनी शर्तों पर जीया...बचपन में जिन नायिकाओं ने मुझे प्रभावित किया...उनमें रेखा का नाम पहला था...जब पति की मौत के लिए रेखा को जिम्मेदार ठहराते हुए अखबारों में उनको मनहूस कहा गया तब भी रेखा मुझे भली ही लगीं।  प्यार से वंचित...प्यार को तलाशती रेखा की जिन्दगी में बहुत से लोग आए...बॉलीवुड के नायकों की जिन्दगी में भी नायिकाएँ आती रही हैं मगर उनकी जिन्दगी पर कभी इस तरह सवाल नहीं उठे जिस तरह अकेली अपनी शिद्दत से जी रही इस अभिनेत्री को लेकर उठे हैं...एक ही तरह के जुर्म में दो अलग इंसाफ...ये हमारे समाज की हकीकत है। रेखा की माँग का सिंदूर...अखबारों की सुर्खियाँ बना और इसे न जाने कितने लोगों से जोड़ दिया गया...कई ब...

संवेदनशील मानवीय परम्पराओं को सहेजिए....आपके साथ दुनिया का भी भला होगा

चित्र
पद् मावती का जलना उसकी इच्छा नहीं हो सकती थी....ये सामूहिक आत्महत्या है...क्या ये हमारा आदर्श होना चाहिए? पद्मावती का ट्रेलर सामने आ चुका है। तथ्यों और कल्पना को लेकर बहस अपनी जगह है मगर विरोध मानसिकता को दर्शाता जरूर है। इतिहास पढ़िए या पुराण पढ़िए या कोई कल्पनापरक कहानी ही पढ़िए...स्त्रियों को पसन्द करने के लिए हमारे पास एक ढांचा है...एक खास तरह का फ्रेम है और उस फ्रेम में फिट होने वाली स्त्रियाँ ही हमारा आदर्श बन जाती हैं....हमें लड़ने, जूझने और सवाल उठाने वाली औरतें पसन्द नहीं है....अपनी अस्मिता का सम्मान करने वाली औरतें भी पसन्द नहीं हैं...हमको ऐसी औरतें पसन्द हैं जो परिवार के लिए जीए...उसकी सलामती के लिए भूखी – प्यासी रहे...लाख अन्याय हो...आवाज न करे....दूसरी श्रेणी की मनुष्य बनने की नियति को स्वीकार करे....सम्मान बचाने के लिए आग में कूद जाए...हम उनको लड़ना नहीं सिखाते....हमने कभी लड़कियों को लड़ना नहीं सिखाया..हमने उनको जान देना सिखाया...मारपीट और घरेलू हिंसा को स्वीकार करना सिखाया अगर कोई छेड़े तो उस गली से जाना छोड़ दो...अगर पति हाथ उठाए तो उसे उसका अधिकार समझ लो और अगर ...

ये खामोशी हमें अखरती है

चित्र
पंचकुला में हिंसा की जिम्मेदार.... हनीप्रीत गिरफ्तार हो चुकी है और बीएचयू के वीसी छुट्टी पर जा चुके हैं। कहने को ये दो घटनाएँ हैं मगर इन दोनों घटनाओं में एक बात बेहद सोचने वाली है....खामोशी या उत्पीड़कों के साथ खड़े होने की प्रवृति। कहने को इस देश में हर पार्टी में महिलाएँ आ रही हैं मगर ऐसे मसलों पर कुछ न कहना अखरता है। खासकर ऐसी महिलाएँ जो हर बात पर मुखर रही हैं...विरोध भी यह देखकर किया जा रहा है कि पार्टी को नुकसान न हो। अगर उत्पीड़न अपनी ही पार्टी की कमजोरी के कारण है तो बस मुँह नहीं खोलना है और खोलना भी है तो पीड़ितों को ही कठघरे में खड़ा करना है और पिछली 2 -3 घटनाओं को देखें तो यह हर पार्टी की महिला नेताओं ने किया है।  कोई कुछ नहीं बोल रहा....क्या ऐसे बढ़ेंगी और पढ़ेंगी लड़कियाँ? हमारे घरों में भी यही हो रहा है और लड़कों की गलतियों पर परदा डालने के लिए औरतें मोर्चा लेकर निकल पड़ी हैं...एक संवेदनहीनता है...या फिर महिलाओं में महिलाओं के प्रति भावनात्मक लगाव ही नहीं है तो फिर कुछ भी बदले तो बदले कैसे ? आश्चर्यजनक रूप से महिलाएँ एक दूसरे के लिए कुछ भी महसूस नहीं क...

घर, धर्म, राजनीति : मर्दों के साम्राज्य में मर्दों सी वर्चस्ववादी औरतें

चित्र
बाबा, मौलवी और आश्रम के साथ औरतों का बड़ा तगड़ा कनेक्शन होता है और राजनीति से जब यह जुड़ जाता है  तो यह और भी खतरनाक हो जाता है। धर्म के नाम पर औरतों का शोषण भी होता है और इस शोषण में बलात्कारियों का साथ भी औरतें ही देती हैं कभी शिष्या बनकर तो कभी साध्वी बनकर। ये वो धर्मभीरु औरतें हैं जो घर की सलामती के नाम पर तो कभी पति और बच्चों की लम्बी उम्र के नाम पर अपने घर की बेटियों को बलि चढ़ाने से बाज नहीं आतीं और किसी न किसी बाबा या किसी और बलात्कारी के आगे घर की इज्जत बचाने के लिए बेटी की इज्जत को तमाशा बना देती हैं। अन्दाज बहुत तल्ख है मगर इससे भी तल्ख एहसास हुआ जब टीवी के परदे पर एक घोषित बलात्कारी को बचाने के लिए शहर को जलाने में औरतें आगे दिखीं।  वे धरने पर दिखीं और बाबा के दर्शन के नाम पर जो तांडव हुआ, उनमें इन औरतों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। बाबाओं की हवस के अड्डे पर किसी मासूम की बलि चढ़ाने के लिए बरगलाने का काम कोई औरत ही करती है जबकि वह खुद उस बाबा की हवस का शिकार हो चुकी होती है और अपनी यही नियति वह दूसरी लड़कियों की नियति भी बना देती हैं। इस पितृसत्ता को मजबूत ...

उत्पीड़न पुरुष ही नहीं महिलाएँ भी कर रही हैं, विरोध और कार्रवाई में भी संतुलन लाइए

चित्र
एतराज फिल्म क्या आपको याद है ? अगर याद है तो शायद आपको वह मुद्दा भी याद होगा जो फिल्म में उठाया गया था। एक महिला बॉस द्वारा अपने अधीनस्थ कर्मचारी पर दबाव डालकर यौन उत्पीड़न, प्रियंका चोपड़ा को महिला बॉस के रूप में खूब सराहा गया था मगर बहुत से लोग ऐसे होंगे जो पुरुष उत्पीड़न के मुद्दे को मुद्दा मानते ही नहीं हैं। बहुत से पुरुष ऐसे हैं जो इन परिस्थितियों से गुजर चुके हैं या गुजर रहे हैं मगर वे बात करने को तैयार नहीं हैं क्योंकि उनको लगता है कि उनका मजाक उड़ेगा या फिर औरत से दब गए वाली मानसिकता उनका जीना दूभर कर देगी। महिला हूँ, महिलाओं पर लिखती हूँ मगर इसके साथ ही मुझे यह मानने में कोई परहेज नहीं है कि हर महिला गाय नहीं हैं, कुछ ऐसी हैं जो लोमड़ी की तरह लड़कों का शिकार करती हैं और अपनी हवस का शिकार बनाती हैं (आपने सही पढ़ा, वे पुरुषों खासकर बच्चों से भी दुष्कर्म करने से पीछे नहीं हटतीं)। शर्म के साथ मुझे यह स्वीकार करना पड़ रहा है कि घरेलू हिंसा अधिनियम का दुरुपोग हो रहा है और इसका खामियाजा उन औरतों को भोगना पड़ रहा है जिनकी शिकायतों में सच था। बलात्कार की धमकी हथियार बन गयी है, ...

वह बहुत खटती है, वह सिर झुकाए रखती है, वह बहुत अच्छी है

चित्र
  औरतों की भोर तड़के ही होती है, इस भोर में उनके लिए सुबह एक कप चाय नहीं लिखी होती, लिखा होता है तो गैस का चूल्हा, सफाई, पति का नाश्ता, बच्चों का टिफिन और कामकाजी हुई तो अपने हिस्से का लंच। औरतें खुद को बाँटती नहीं हैं, अपनी जिम्मेदारियों को साझा नहीं करना चाहतीं। उनकी उम्मीदें बेटियों से जुड़ी होती हैं, ननदों से भी थोड़े संकोच से जुड़ी होती हैं मगर देवर, पति, बेटा या घर के बड़े इस दायरे में नहीं आते। अपने हिस्से की खुशियों को त्यागना उन्होंने जन्म से सीखा है, अपनी माँ को ऐसा करते हुए देखा है और अपनी बेटियों को भी वे ऐसा ही कुछ सिखाना चाहती हैं। आजकल बहुत सी माएँ बेटियों के मामले में ऐसा नहीं करतीं तो कहीं न कहीं, यह व्यवस्था के प्रति उनका विद्रोह ही है, वे बेटियों को एक बेहतर जिन्दगी देना चाहती हैं। बेटियों को ससुराल भेजना है इसलिए न चाहते हुए भी उनको ऐसा करना पड़ता है। हमारे समाज में औरतों के अच्छा कहलाने के लिए कुछ नियम तय हैं....वह बहुत खटे, सिर झुकाए रखे, जवाब नहीं दे और सवाल नहीं करे। समाज को गूँगी औरतें पसन्द हैं। हमारी फिल्में भी यही सिखाती हैं, क्या आपने बॉलीवुड की ...